Wednesday, July 1, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 5 | महात्मा गांधी ने यूं ही नहीं कहा था | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
प्रिय ब्लॉग पाठकों, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज पढ़िए "महात्मा गांधी ने यूं ही नहीं कहा था" 🙏 अपने विचारों से अवगत कराएं और शेयर करें 🙏
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 01.07.2020

मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं-
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बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

महात्मा गांधी ने यूं ही नहीं कहा था     
                - डॉ. वर्षा सिंह

       आज के समय में एक बुरा बोल और फिर "ट्रोल" … हजारों-लाखों बुरे बोलों को जन्म दे देता है। फिलहाल मैं आज सुबह की एक घटना बताऊं कि आज सुबह जब मैं किचन में आटा गूंथ रही थी उस वक़्त मुझे लगा कि मेरे मोबाइल की घंटी बज रही है। मेरा मोबाइल उस वक़्त बेडरूम में चार्जर पर लगा हुआ था। चूंकि मेरे हाथों में आटा लगा था इसलिए मैं तत्काल मोबाइल उठा नहीं पाई। बाद में लगभग 10-15 मिनट बाद जब मैंने मोबाइल चार्जर से अलग कर उठाया, देखा, तो पाया कि उसमें मौसी जी की मिस्ड कॉल दिखाई दे रही थी... एक नहीं 5- 6 मिस्ड कॉल। उफ ! यह तो बड़ा ग़लत हुआ। मौसी जी की कॉल नहीं उठाने का मतलब है मौसी जी की नाराज़गी झेलना । मन ही मन डरते हुए मैंने मौसी जी को कॉलबैक किया। तब मौसी जी उधर से फोन उठाते ही एकदम भड़क उठीं। वे लगभग चीखती हुई बोलीं - "क्या वर्षा ! मैंने कितने कॉल किए, तुमने एक भी नहीं उठाया।आखिर ऐसा क्या हो गया ? मैंने ऐसा क्या कह दिया कि तुम मेरे फोन कॉल नहीं उठा रही हो?"
   मौसी जी का क्रोध शांत करने के लिए मैं अपनी सफ़ाई देने लगी- " वो क्या है न मौसी जी, कि मैं किचन में थी और आटा गूंथ रही थी, तो हाथों में आटा लगे होने के कारण मैं तत्काल मोबाइल पर आपकी कॉल अटेंड नहीं कर पाई"
   लेकिन मौसी जी मेरी बात अनसुना करते हुए कहती ही रहीं - "मेरी तो कोई सुनता ही नहीं। मुझसे तो कोई बात ही नहीं करना चाहता। मेरी तो कोई अहमियत ही नहीं रह गई है "..... अलाने, फलाने, फलाने । मौसी जी ने मेरी एक भी बात नहीं सुनी। वे बड़बड़ाती हुई सी अपनी ही बातें करती रहीं और मुझे बुरा भला कहती रहीं।
     मौसी जी की बातें सुनकर अचानक मुझे याद आया कि मौसी जी की इसी आदत की वजह से उनकी कुटुंब के किसी सदस्य से नहीं बनती है। जी हां , वस्तुस्थिति यह है कि कुटुंब के सभी सदस्य उनसे निर्वाह करते रहते हैं किंतु वे किसी से भी निर्वाह करने की स्थिति निर्मित नहीं होने देतीं और अपने बुरे बोल के कारण वे कुटुंब परिवार में सबसे अलग-थलग सी हो कर रह गई हैं।
     बुरे बोल… जी हां, बुरे बोल का सीधा साधा अर्थ है ऐसे वचन जो दूसरों के दिल को ठेस पहुंचाएं। लोग ऐसे बुरे बोल कभी-कभी जानबूझकर बोलते हैं और कभी-कभी अनजाने में बोल बैठते हैं, लेकिन बुरे बोल का परिणाम भी बुरा ही होता है। महाभारत की कथा लगभग हम सभी ने पढ़ी होगी और जिन्होंने नहीं पढ़ी होगी उन्होंने महाभारत महाकाव्य पर बने टीवी सीरियल्स जरूर देखे होंगे। महाभारत की एक घटना है कि जब इंद्रप्रस्थ में पांचो पांडव और द्रौपदी निवासरत थे तब दुर्योधन अपने भाइयों सहित वहां पहुंचा था। इंद्रप्रस्थ में पांडव जिस महल में निवास कर रहे थे वह महल मय नामक दानव द्वारा निर्मित था। उसकी विशेषता यह थी कि उसमें अनेक भ्रामक वास्तुशिल्पकारी थी अर्थात जहां भूमि होने का आभास होता था, वहां पर जल संचयित था और जहां जल संचयित था वहां भूमि होने का आभास होता था। दुर्योधन और उसके भाई इस आभासीय वास्तुशिल्पकारी को नहीं समझ पाने और भ्रमित होने के कारण पानी से भरे स्थान को पक्की ज़मीन समझकर उसमें गिर पड़े। तब द्रोपदी स्वयं पर नियंत्रण न रखते हुए  हंसकर व्यंग्ग्यपूर्वक बोल उठी कि - "अंधे का पुत्र अंधा ही होता है।" … और द्रोपदी का यह बोल दुर्योधन के हृदय में तीर के समान चुभ गया। दुर्योधन के पिता धृतराष्ट्र जन्मांध थे। दुर्योधन ने द्रोपदी की इस बात का बदला लेने के लिए अपने महल में द्यूत क्रीड़ा के लिए पांडवों को आमंत्रित किया और छलपूर्वक पांडवों को लगातार पराजित कर, द्रोपदी को भी दांव पर लगवा कर भरी सभा में द्रोपदी का अपमान किया। …. और इन्हीं सब घटनाक्रमों ने महाभारत का सूत्रपात किया। यानी एक बुरे बोल ने इतने बड़े महाभारत का युद्ध करवा दिया।
    यह तो हुई द्वापर युग की महाभारतकालीन बुरे बोल के बुरे परिणाम की घटना, किंतु हम सभी दिन-प्रतिदिन की समसामयिक घटनाओं में अक्सर यह सुनते-पढ़ते हैं कि फलां ने फलां के विरुद्ध बयानबाज़ी करते हुए बुरी-बुरी बातें कही हैं। कठोर व्यंग्य किए हैं और दिल को ठेस पहुंचाने वाले ताने मारे हैं… और फिर लगातार "ट्रोल" हो रहे हैं। ज़रा सोचिए कि इस तरह के बुरे बोल वाली बयानबाज़ी से क्या कभी किसी का भला हो सकता है ? क्या देश का विकास हो सकता है ? क्या सामाजिक संरचना का उन्नयन हो सकता है ? क्या हम अपने संस्कारों की, अपनी संस्कृति की रक्षा कर सकते हैं ? क्या हम मर्यादित होकर रह सकते हैं ? …. नहीं हरगिज़ नहीं।
        महात्मा गांधी ने यूं ही नहीं कहा था कि बुरा मत बोलो। ज़रा याद कीजिए गांधी जी के तीन बंदर । जिनमें से एक बंदर जिसने अपने दोनों हाथों से अपना मुंह बंद कर रखा है, उसका यही संदेश दिया है कि बुरा मत बोलो। महात्मा गांधी यदि चाहते तो स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए असहयोग आंदोलन नहीं चला कर अंग्रेजों के विरुद्ध बयानबाज़ी कर सकते थे, बुरे बोल बोल सकते थे। किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। जी हां, महात्मा गांधी का चिंतन वैश्विक चिंतन है, वे जानते- समझते थे कि बुरे बोल से किसी का भला होने वाला नहीं है। काश, इस बुरे बोल का बुरा परिणाम वाली ज़रा सी बात को हमारे आज के ज़िम्मेदार समझ पाते और आपस में बुरे बोल बोल कर आपसी वैमनस्यता को बढ़ावा देने से बचते, तो हमारा लोकतंत्र और अधिक मज़बूत होता। देश का सर्वांगीण विकास होता और भारत विश्वगुरु का दर्ज़ा हासिल कर लेता। यही तो सपना देखा था महात्मा गांधी ने। काश, बुरे बोल का त्याग कर हम महात्मा गांधी के सपने को पूरा कर पाते।

और अंत में मेरी ये काव्यपंक्तियां ......
सत्य, अहिंसा को अपनाना सबके बस की बात नहीं।
राष्ट्रपिता गांधी हो जाना  सबके बस की बात नहीं।
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