Thursday, January 28, 2021

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 35 | मंहगाई, सुरसा और हम | डॉ. वर्षा सिंह


प्रिय ब्लॉग पाठकों, "विचार वर्षा"... मेरे इस कॉलम में आज प्रस्तुत है मेरा आलेख - "मंहगाई, सुरसा और हम" हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏 दिनांक 27.01.2021 मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं- https://yuvapravartak.com/?p=48069


 बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

 

           मंहगाई, सुरसा और हम

                   

                       -वर्षा सिंह


      26 जनवरी से लगातार कुछ अन्य अहम मुद्दों के साथ ही समाचारों में यही पढ़ने-सुनने को मिल रहा है, यही चर्चा हो रही है कि देश के सभी राज्यों में पेट्रोल के दाम अब तक के सारे रिकॉर्ड तोड़ कर उच्चतम स्थिति में पहुंच गए हैं। मध्यप्रदेश में तो मानों पेट्रोल और डीजल के दाम में आग ही लग गई है। राज्य की राजधानी भोपाल सहित मध्यप्रदेश के चारों प्रमुख महानगरों यानी भोपाल, इंदौर, ग्वालियर और जबलपुर में पेट्रोल के रेट 90 रुपये प्रति लीटर का आंकड़ा पार कर चुके हैं। जी हां, ऐसा पहली बार हुआ है जब पेट्रोल के दाम 90 रुपये प्रति लीटर से भी ज्यादा हुए हैं। वहीं डीजल भी 81 रुपये प्रति लीटर के क़रीब पहुंच गया है। पेट्रोल और डीजल के दाम में हुई इस बढ़ोतरी से स्वाभाविक है कि ट्रांसपोर्टेशन पर भी इसका विपरीत प्रभाव पड़ने के कारण अन्य आवश्यक वस्तुओं के दामों में भी बढ़ोत्तरी हो जाएगी।  और इसीलिए यह जुमला या कहिए कि यह कहावत सुनने को मिल रही है कि मंहगाई सुरसा बन गई है। 

   बेतहाशा बढ़ती कीमतें हों या बेरोज़गारी जैसी समस्याएं… अक्सर ही इन्हें सुरसा या सुरसा का मुंह सरीखी उपमाएं दी जाती हैं। दरअसल सुरसा रामकथा की एक महिला पात्र का नाम है, जिसका वर्णन हनुमान से संबंधित एक घटना के संदर्भ में वाल्मीकिकृत रामायण और तुलसीदासकृत रामचरितमानस सहित अन्य अनेक रामकथाओं में मिलता है।

    सुरसा समुद्र में रहने वाले नागों की माता थी। लंकाधिपति रावण द्वारा सीता को अपहृत कर लेने पर राम और लक्ष्मण वन में सीता को खोजते हुए जब किष्किंधा पहुंचे तो वहां  उनका परिचय हनुमान से हुआ, जो सुग्रीव के मित्र थे। सुग्रीव के बड़े भाई किष्किंधा के राजा बालि ने अपनी शक्ति के बल पर दुदुंभी, मायावी और रावण को परास्त कर दिया था। दुराचारी बालि ने अपने छोटे भाई सुग्रीव की पत्नी को बलपूर्वक अपने आधीन रख लिया था और विरोध करने पर सुग्रीव को अपने राज्य से बाहर निकाल दिया था। हनुमान ने सुग्रीव को राम से मिलाया। सुग्रीव ने अपनी पीड़ा बताई तब बालि और उसके छोटे भाई सुग्रीव के मल्ल युद्ध के समय राम की सहायता से सुग्रीव ने बालि पर विजय हासिल की और सीता की खोज में राम की सहायता करने का वचन दिया। सुग्रीव ने सीता की खोज करने के लिए चारों ओर वानर भेजे। पहले जटायु और तत्पश्चात सम्पाती द्वारा यह बताने पर कि सीता को लंकापति रावण ने अपहृत किया है, सुग्रीव ने हनुमान को सीता की खोज के लिए दक्षिण दिशा में समुद्र पार लंका की ओर भेजा।

    हनुमान अपने साथियों को लेकर चल दिए। समुद्र के किनारे पहुंचकर हनुमान ने जामवन्त आदि अपने साथियों को वहीं रुकने के लिए कहा और वे स्वयं ऊंचे और बलशाली मैनाक पर्वत को अपने अतुलित बल से पार कर समुद्र पार लंका की ओर चल दिए। जब देवताओं ने पवनपुत्र हनुमान को वायुमार्ग से उड़ कर समुद्र पर से जाते हुए देखा तो हनुमान की विशेष बल-बुद्धि की परीक्षा लेने के उद्देश्य से उन्होंने सुरसा नामक महिला को भेजा। रामायण के अनुसार सुरसा समुद्र में स्थित नागलोक में रहने वाले नागों की माता थी। देवताओं के कहने पर सुरसा हनुमान का रास्ता रोकने के लिए  हनुमान के समक्ष आ खड़ी हुई। उसने हनुमान से कहा कि मैं भूखी हूं और तुम्हें अपना आहार बनाऊंगी। तब हनुमान ने सीता की खोज में जाने के अपने संकल्प की कथा बता कर, हाथ जोड़कर रास्ता छोड़ने की प्रार्थना की। किन्तु सुरसा ने उनकी बात नही मानी। तब हनुमान ने सुरसा के समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि - "हे नागमाता, अभी मुझे जाने दीजिए। मैं वचन देता हूं कि मैं सीता की खोज करके मैं शीघ्र ही राम को उनका समाचार दे दूंगा, फिर लौट कर आपके पास आऊंगा तब आप मुझे खा लीजिएगा।” 

    चूंकि सुरसा तो हनुमान की परीक्षा लेने के लिए वचनबद्ध थी अतः उसने हनुमान की बात स्वीकार नहीं की और उन्हें खाने के लिए अपना मुँह फैला दिया। हनुमान वास्तव में बल और बुद्धि में स्वयं अपना उदाहरण आप थे तो उन्होंने सुरसा से  छुटकारा पाने के लिए शीघ्र ही एक युक्ति निकाली। हनुमान ने अपने शरीर का आकार इतना बढ़ा लिया कि जिससे सुरसा उन्हें निगल न सके। हनुमान के शरीर का बढ़ा हुआ आकार देख कर सुरसा ने भी अपने मुँह को और अधिक फैला कर बढ़ा लिया। इस तरह हनुमान और सुरसा दोनों ही अपना-अपना आकार बढ़ाते गए। अंत में जब सुरसा का मुंह बहुत ज़्यादा बढ़ा हो गया तोु हनुमान ने अचानक अपना रूपाकार बहुत छोटा कर लिया और फिर सुरसा के बहुत फैले हुए बड़े से मुँह में प्रवेश करके तुरन्त ही बाहर भी आ गए।

   सुरसा का मुँह खुला का खुला ही रह गया। हनुमान सुरसा की परीक्षा में उत्तीर्ण हो गए थे अतः सुरसा ने उन्हें वस्तुस्थिति से अवगत कराया और कार्य में सफल होने का आशीर्वाद दिया। 

  

   तुलसीदास ने रामचरितमानस के सुंदरककांड में इस कथा का वर्णन बड़े ही रोचक ढंग से किया है -


जात पवनसुत देवन्ह देखा। 

जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा॥

सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। 

पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता॥


अर्थात्  देवताओं ने पवनपुत्र हनुमान को जाते हुए देखा तो उनकी विशेष बल-बुद्धि को जानने के लिए उन्होंने सुरसा नामक सर्पों की माता को भेजा, उसने आकर हनुमान से यह बात कही।


आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा। 

सुनत बचन कह पवनकुमारा॥

राम काजु करि फिरि मैं आवौं। 

सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं॥


अर्थात् आज देवताओं ने मुझे भोजन दिया है। यह वचन सुनकर पवनकुमार हनुमान ने कहा- राम का कार्य करके मैं लौट आऊं और सीता का समाचार प्रभु को सुना दूं।


तब तव बदन पैठिहउँ आई। 

सत्य कहउँ मोहि जान दे माई॥

कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना। 

ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना॥


अर्थात्  तब मैं आकर तुम्हारे मुँह में स्वयं घुस जाऊँगा। हे माता! मैं सत्य कहता हूँ, अभी मुझे जाने दें। जब किसी भी उपाय से उसने जाने नहीं दिया, तब हनुमान ने कहा- तो फिर मुझे खा क्यों नहीं लेती।


जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा। 

कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा ॥

सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ। 

तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ॥


अर्थात् सुरसा ने योजनभर मुँह फैलाया। तब हनुमान्‌जी ने अपने शरीर को उससे दूना बढ़ा लिया। उसने सोलह योजन का मुख किया। हनुमान्‌जी तुरंत ही बत्तीस योजन के हो गए।


   वस्तुतः योजन दूरी मापने के लिए पौराणिक ईकाई है। 1 योजन दूरी को अधिकतर विद्वानों ने 8 मील माना है। 8 मील 1.61 किलोमीटर के बराबर होते हैं। रामचरितमानस सहित अनेक प्राचीन ग्रंथों में तत्समय प्रचलित दूरी- मापन की इस ईकाई 'योजन' का उल्लेख मिलता है।


जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा। 

तासु दून कपि रूप देखावा॥

सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। 

अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा॥


अर्थात्  जैसे-जैसे सुरसा अपने मुख का विस्तार बढ़ाती थी, हनुमान उसका दूना रूप दिखलाते थे। सुरसा ने सौ योजन का मुख किया। तब हनुमान ने बहुत ही छोटा रूप धारण कर लिया।


बदन पइठि पुनि बाहेर आवा। 

मागा बिदा ताहि सिरु नावा॥

मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा। 

बुधि बल मरमु तोर मैं पावा॥


अर्थात्  हनुमान सुरसा के मुख में घुसकर तुरंत फिर बाहर निकल आए और उसे सिर नवाकर विदा माँगने लगे। तब सुरसा ने हनुमान से कहा कि मैंने तुम्हारे बुद्धि-बल का भेद पा लिया, जिसके लिए देवताओं ने मुझे भेजा था।


राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।

आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान।।


अर्थात् तुम राम का सब कार्य करोगे, क्योंकि तुम बल-बुद्धि के भंडार हो। यह आशीर्वाद देकर सुरसा चली गई, तब हनुमान हर्षित होकर आगे चले।


    जिस प्रकार सुरसा ने अपने मुंह को फैला कर सैकड़ों किलोमीटर बड़ा कर लिया था उसी प्रकार मंहगाई की समस्या भी प्रतिदिन विकराल रूप धारण करती जा रही है। वर्तमान समय में चिन्तामुक्त जीवन जीने के रामकथा को सुनने-पढ़ने से ज़्यादा ज़रूरी है उस पर चिन्तन कर उसके चरित्रों से, उसमें वर्णित घटनाओं से सीख लेने की। पवनपुत्र हनुमान की भांति हम भी सुरसा रूपी मंहगाई को मात देने में सफल हो सकते हैं। इसके लिए ज़रूरी है कि हम अपनी ज़रूरतों को पर्याप्त सीमित कर लें। फ़िज़ूलखर्ची से बचें और अनावश्यक कार्यों में धन व्यय न करें। 

      बात पेट्रोल के बढ़ते दामों से शुरू हुई थी तो उससे संबंधित अपना एक संस्मरण भी मैं साझा करना चाहूंगी। पहले मेरे कई महिला-पुरुष सहकर्मी रोज़ दोपहर में अपनी बाईक, स्कूटी, मोटरसाइकिल, कार आदि दुपहिया, चारपहिया निजीवाहनों से ऑफिस से लंच के लिए अपने घर जाते थे। हम कुछ लोग जो घर से टिफिन लेकर ऑफिस आते थे, अक्सर उनको समझाते कि यदि आप लोग भी लंचबॉक्स, टिफिन आदि साथ ले कर आएं तो प्रतिदिन लंचटाईम में अनावश्यक आवाजाही, भागदौड़ से बचने के साथ ही फ़ालतू पेट्रोल में धन जाया करने से भी बच जाएंगे। पहले एक- दो को यह बात जमीं और वे लंचबॉक्स ले कर आने लगे फिर एक-एक कर अधिकांश लोग  अनुसरण करने लगे। अब वे उस प्रसंग को याद करके हमें धन्यवाद देते हैं। 

      बाईक या कारपूलिंग से भी पेट्रोल बचाया जा सकता है। जहां किसी परिवार में एक या दो वाहनों से आने-जाने की ज़रूरतें पूरी हो सकती हैं, वहां घर के हर सदस्य के लिए उसका अपना अलग वाहन कहीं न कहीं फ़िज़ूलखर्ची को ही बढ़ावा देने वाला साबित होता है। टाईमिंग एडजस्टमेंट के द्वारा इससे बचा जा सकता है।

     मंहगाई सुरसा बन गई है तो हम हनुमान के दिखाए मार्ग पर चल कर, उनका अनुसरण करके इस सुरसा रूपी निरंतर बढ़ती हुई मंहगाई को परास्त भला क्यों नहीं कर सकते? हम सामान्य जन जो सुरसा के मुंह रूपी मंहगाई की रफ़्तार को कम करने की क्षमता और सामर्थ्य नहीं रखते हैं, राम के अनन्य भक्त हनुमान का अनुसरण कर स्वयं की ज़रूरतों को लघुरुप तो दे ही सकते हैं।


और अंत में प्रस्तुत हैं मेरे ये पांच दोहे -


मंहगाई सुरसा बनी, आप न हों निरुपाय !

पवनपुत्र का आचरण, हमको राह दिखाय ।।


अपने वश में है नहीं, दामों पर कंट्रोल ।

लेकिन वश में है करें, व्यर्थ न व्यय पेट्रोल ।।


समय कठिन यह जानिए, हंस कर करिए पार।

घर, समाज और देश का, होगा तब उद्धार ।।


हम सुधरें और अन्य को, देवें अच्छी सीख ।

शुभ दिन ले कर आएगी, तब हर इक तारीख़ ।।


"वर्षा" संयम से बड़ा, नहीं एक भी मंत्र ।

सरल, सहज जिससे बने, अपना जीवनतंत्र।।


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Tuesday, January 26, 2021

गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं | डॉ. वर्षा सिंह

Dr Varsha Singh
गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं

 तुलसीदास ने  रामचरितमानस में रामराज्य को इस तरह वर्णित किया है -

दैहिक दैविक भौतिक तापा। 
राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। 
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥

अर्थात् 'रामराज्य' में दैहिक, दैविक और भौतिक ताप किसी को नहीं व्यापते। सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और वेदों में बताई हुई नीति (मर्यादा) में तत्पर रहकर अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं।                          
    राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने  भी जिस रामराज्य की कल्पना की थी वह यही थी....
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना।
नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।।

अर्थात्  न कोई दरिद्र हो, न दुःखी हो और न दीन ही हो। न कोई मूर्ख है और न शुभ लक्षणों से हीन ही हो।
आईए,  गणतंत्र दिवस के दिन हम आज उसी रामराज्य का आह्वान करें अपने देश भारत के लिए 🙏

Wednesday, January 20, 2021

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 34 | कृषक, रामकथा में कृषि और भूमिजा सीता | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज प्रस्तुत है मेरा आलेख -  "कृषक, रामकथा में कृषि और भूमिजा सीता" 
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 20.01.2021

मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं-

बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

कृषक, रामकथा में कृषि और भूमिजा सीता
     
                   -डॉ. वर्षा सिंह

     बचपन में एक कथा पढ़ी थी… एक राजा के चार बेटे थे। चारों बहुत शरारती थे। जितना पढ़ते-लिखते, उससे ज़्यादातर खेलते। ...और खेलने में इतने मगन रहते कि खाने-पीने की सुध भूल जाते। रानी, दास-दासियां यत्नपूर्वक खाना खिलाते। खाना खाते समय राजकुमार जितना खाते, उससे कहीं ज़्यादा एक दूसरे पर खाद्य पदार्थ फेंक कर खेल करते। उन राजकुमारों के बाल्यकाल में इसे बालसुलभ चेष्टा समझ कर टाला जाता रहा, किन्तु जैसे जैसे राजकुमार बड़े हुए उनकी इस खाना फेंक कर खेलने वाली आदत में कोई सुधार नहीं हुआ। समझाने के सभी प्रयास असफल होता देख कर राजा को एक तरक़ीब सूझी। उसने राज्य की चारों दिशाओं से एक-एक भूस्वामी कृषकों को बुलाया और एक-एक राजकुमार  प्रत्येक के हवाले कर उन्हें निर्देश दिया कि वे राजकुमारों से पूरे एक वर्ष तक कृषि कार्य कराएं,.ताकि राजकुमार खेती-कसानी के काम में पूरे पारंगत हो जाएं। 
    राजकुमारों ने सुना तो ख़ुश हो गए। सोचा कि चलो, ये अच्छा हुआ, खेत में खेलने में और मज़ा आएगा। फिर क्या था… राजकुमारों को कृषकों के साथ अलग-अलग दिशाओं में कृषि कार्य सीखने के लिए भेज दिया गया। वहां पहुंचने पर राजकुमारों को अहसास हुआ कि एक तो वहां खेत की भूमि खेलने योग्य नहीं है, दूसरे उनके साथ खेलने वाला कोई नहीं है। सारा दिन आपसी तालमेल से खेत की पुरानी फसल की सफाई, निंदाई, गुड़ाई, सिंचाई… बीजरोपण, अंकुरण, फिर कीट-पतंगों, पशु-पक्षियों से पौधों की सुरक्षा के लिए रात-दिन चौकस पहरेदारी। ऊपर से मौसम के बदलते तेवर… कड़क धूप, भारी बारिश, हाड़ कंपाती सर्दी। जब-तब सड़ी फ़सल पर बेमौसम आसमान से गिरते पत्थर की तरह ओला वृष्टि की मार। राजकुमार समझ गए कि खेती- किसानी का काम आसान नहीं है और न ही वह फ़सल पैदा करना आसान है जिससे गेंहू, चावल, जौ, बाजरा, मूंगफली, चना, मूंग, मटर आदि तरह-तरह की खाद्य सामग्री प्राप्त होता है। इसी खाद्य सामग्री से वह व्यंजन बनाए जाते हैं जिन्हें वे खेल-खेल में फेंक कर व्यर्थ नष्ट कर देते थे। वे समझ गए कि वे खेल-खेल में जितना अन्न फेंक कर व्यर्थ नष्ट करते थे, उसे पैदा करने में कितना श्रम लगता है, और कितने ही मनुष्यों का उससे पेट भरता है।
    राजकुमारों की आंखें खुल गईं, आपस में मिल-जुल कर रहते हुए वे कृषकों और अन्न दोनों का सम्मान करना सीख गए। 
     यह कथा अन्न और अन्नदाता कृषकों के प्रति सम्मान के प्रति जागरूकता का संदेश देने वाली नीति कथा है।
    भारत एक कृषि प्रधान देश है। भारत की जनसंख्या का एक बड़ा भाग कृषि करके अपने जीवन यापन करता है। भारत में अन्न को देवता का दर्ज़ा दिया जाता है और कृषकों को अन्नदाता का सम्मान। वर्तमान समय में यह अत्यंत विचारणीय है कि पिछले 56 दिनों से भारत सरकार के नए कृषि कानूनों के विरोध में हज़ारों कृषक देश की राजधानी दिल्ली के बार्डर पर आंदोलन कर रहे हैं। हर दिन समाचार पत्रों में नए - नए समाचार पढ़ने को मिल रहे हैं। वहीं न्यूज चैनलों पर इससे जुड़े अनेक घटना क्रम देखने-सुनने को मिल रहे हैं। इन परिस्थितियों में की तह तक जाना, इन परिस्थितियों को समझ पाना सामान्य जन के वश में नहीं है। किसान और सरकार दोनों अपनी बात पर अडिग हैं। सभी भारतीय नागरिक चाहते हैं कि इस समस्या को शीघ्र हल किया जाए। " का बरषा सब कृषी सुखानें" … इस कहावत का भी आशय यही है कि किसी भी समस्या को हल करने में किया गया विलम्ब क्लेश और कष्ट का कारण बनता है। यह कहावत वस्तुतः तुलसीदासकृत रामचरितमानस के बालकाण्ड में सीता- स्वयंवर के अंतर्गत धनुषभंग के समय वर्णित चौपाई का अंश है।
     पूरा दृश्य निम्नानुसार वर्णित है - 

राम बिलोके लोग सब चित्र लिखे से देखि।
चितई सीय कृपायतन जानी बिकल बिसेषि॥
अर्थात् राम ने सब लोगों की ओर देखा और उन्हें चित्र में लिखे हुए से देखकर फिर कृपाधाम राम ने सीता की ओर देखा और उन्हें विशेष व्याकुल जाना।

देखी बिपुल बिकल बैदेही। 
निमिष बिहात कलप सम तेही।
तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा। 
मुएँ करइ का सुधा तड़ागा॥
अर्थात् उन्होंने जानकी को बहुत ही विकल देखा। उनका एक-एक क्षण कल्प के समान बीत रहा था। यदि प्यासा आदमी पानी के बिना शरीर छोड़ दे, तो उसके मर जाने पर अमृत का तालाब भी क्या करेगा?

का बरषा सब कृषी सुखानें। 
समय चुकें पुनि का पछितानें॥
अस जियँ जानि जानकी देखी। 
प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी।।
अर्थात् सारी खेती के सूख जाने पर वर्षा किस काम की? समय बीत जाने पर फिर पछताने से क्या लाभ? जी में ऐसा समझकर राम ने जानकी की ओर देखा और उनका विशेष प्रेम लखकर वे पुलकित हो गए।

 गुरहि प्रनामु मनहिं मन कीन्हा। 
अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा॥
दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ। 
पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ॥
अर्थात् मन ही मन उन्होंने गुरु को प्रणाम किया और अति शीघ्रता से धनुष को उठा लिया। जब उसे हाथ में लिया, तब वह धनुष बिजली की तरह चमका और फिर आकाश में मंडल जैसा मंडलाकार हो गया।

लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें। 
काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें॥
तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। 
भरे भुवन धुनि घोर कठोरा॥
अर्थात् लेते, चढ़ाते और ज़ोर से खींचते हुए किसी ने नहीं लखा अर्थात ये तीनों काम इतनी शीघ्रता से हुए कि धनुष को कब उठाया, कब चढ़ाया और कब खींचा, इसका किसी को पता नहीं लगा, सबने राम को धनुष खींचे खड़े देखा। उसी क्षण राम ने धनुष को बीच से तोड़ डाला। भयंकर कठोर ध्वनि से समस्त लोक भर गए।

तुलसीदास ने रामचरितमानस में कृषि संबंधी वस्तुओं का वर्णन करते हुए दोहे और चौपाईयों का सृजन किया है। उन्हें फसल को नुकसान पहुंचाने वाले प्रमुख संकटों का पूरा ज्ञान था। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, चूहों, टिड्डियों, पक्षियों और राजा के आक्रमण से कृषि और कृषकों को पहुंचने वाली हानि से वे भलीभांति परिचित थे। रामचरितमानस का प्रारम्भ करते हुए उन्होंने खलवंदना की है। वे कहते हैं - 

बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। 
जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। 
उजरें हरष बिषाद बसेरें॥
अर्थात् अब मैं सच्चे भाव से दुष्टों को प्रणाम करता हूँ, जो बिना ही प्रयोजन, अपना हित करने वाले के भी प्रतिकूल आचरण करते हैं। दूसरों के हित की हानि ही जिनकी दृष्टि में लाभ है, जिनको दूसरों के उजड़ने में हर्ष और बसने में विषाद होता है।

इसी के आगे चौथी चौपाई में उन्होंने खलों की विशिष्टता बताते हुए ओले से फ़सल को होने वाले नुकसान की चर्चा की है -

पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। 
जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं।
बंदउँ खल जस सेष सरोषा। 
सहस बदन बरनइ पर दोषा॥
अर्थात् जिस प्रकार ओले खेती का नाश करके स्वयं ही नष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार वह अकारण ही दूसरों का काम बिगाड़ने के लिए स्वयं के शरीर को नष्ट कर लेते हैं। मैं दुष्टों को हजार मुख वाले शेषनाग के समान समझकर प्रणाम करता हूँ, जो पराए दोषों का हज़ार मुखों से बड़े रोष के साथ वर्णन करते हैं।

इसी प्रकार तुलसीदास ने रामचरितमानस के किष्किंधा काण्ड में अन्न से सुशोभित धरती सहित कृषकों द्वारा श्रमपूर्वक कृषि कार्य करने के उदाहरण देते हुए वर्षा ऋतु का सुंदर चित्रण किया है - 

ससि संपन्न सोह महि कैसी। 
उपकारी कै संपति जैसी॥
निसि तम घन खद्योत बिराजा। 
जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा॥
अर्थात् अन्न से युक्त लहराती हुई खेती से हरी-भरी पृथ्वी कैसी शोभित हो रही है, जैसी उपकारी पुरुष की संपत्ति। रात के घने अंधकार में जुगनू शोभा पा रहे हैं, मानो दम्भियों का समाज आ जुटा हो।

महाबृष्टि चलि फूटि किआरीं। 
जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारीं॥
कृषी निरावहिं चतुर किसाना। 
जिमि बुध तजहिं मोह मद माना॥
अर्थात् भारी वर्षा से खेतों की क्यारियाँ फूट चली हैं, जैसे स्वतंत्र होने से स्त्रियाँ बिगड़ जाती हैं। चतुर किसान खेतों को निरा रहे हैं अर्थात् खेत में से घास आदि को निकालकर उसी प्रकार फेंक रहे हैं जैसे विद्वान् लोग मोह, मद और मान का त्याग कर देते हैं।

    अपनी एक अन्य सुप्रसिद्ध काव्य कृति विनयपत्रिका में तुलसीदास ने भरत स्तुति प्रस्तुत करते हुए सीता को भूमिजा बताते हुए राम को भूमिजारमण कहा है। वे कहते हैं -

जयति भूमिजारमण पदकंजमकरंद
रसरसिकमधुकर भरत भूरिभागी ।
भुवनभूषण, भानुवंशभूषण, 
भूमिपालमणि रामचंद्रानुरागी ॥
     अर्थात् उन भाग्यवान भरत की जय हो, जो भूमिजारमण राम के चरण - कमलों के मकरन्द का पान करने के लिये रसिक भ्रमर हैं । जो संसार के भूषणस्वरुप, सूर्यवंश के विभूषण और नृप - शिरोमणि रामचन्द्र के पूर्ण अनुरागी हैं ।
      त्रेतायुग में जब श्रीहरि विष्णु ने पृथ्वी पर मनुष्य बन कर अयोध्यानरेश दशरथ की पत्नी कौशल्या की कोख से राम के रूप में जन्म लिया तो देवी लक्ष्मी सीता के रूप में कृषिभूमि से उत्पन्न हुईं। रामकथा की महानायिका सीता रामायण और रामचरितमानस की मुख्य पात्र हैं। हिंदू धर्म में इनकी पूजा देवी के रूप में की जाती है। सीता मिथिला के राजा जनक की ज्येष्ठ पुत्री थीं।

     वाल्मीकि रामायण में जनक की पुत्री सीता की उत्पत्ति की कथा इस प्रकार वर्णित है-

अथ मे कृषत: क्षेत्रं लांगलादुत्थिता तत:।
क्षेत्रं शोधयता लब्धा नाम्ना सीतेति विश्रुता॥
भूतकादुत्त्थिता सा तु व्यवर्द्धत ममात्मजा।
दीर्यशुक्लेति मे कन्या स्थापितेयमयोनिजा॥
      मिथिला राज्य में एक बार भयंकर सूखा पड़ गया। वर्षा ऋतु सूखी बीत गई, एक बूंद पानी नहीं बरसा तब एक ऋषि के सुझाव पर मिथिलानरेश राजा जनक ने यज्ञ करवाया और उसके बाद राजा जनक कृषक का रूप लेकर स्वयं खेत जोतने लगे, तब वर्षों से पड़ा अकाल समाप्त हो गया और बहुत अच्छी बारिश हुई। इसी खेत को जोतने के दौरान उन्हें धरती में सोने का संदूक मिला। उस संदूक को खोलने पर एक सुंदर कन्या मिली। राजा जनक की कोई संतान नहीं थी, इसलिए उस कन्या को हाथों में लेकर उन्हें पिता प्रेम की अनुभूति हुई। संस्कृत भाषा में हल की फाल को सीता कहते हैं। अतः राजा जनक ने उस कन्या को सीता नाम दिया और उसे अपनी पुत्री के रूप में अपना लिया।
       सीता का विवाह अयोध्या के राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र राम से स्वयंवर में शिवधनुष को भंग करने के उपरांत हुआ था। 

      तुलसीदास ने रामचरितमानस के बालकांड के प्रारंभिक श्लोक में सीता को ब्रह्म की तीन क्रियाओं उद्भव, स्थिति, संहार की संचालिका तथा आद्याशक्ति कहकर उनकी वंदना की है-

उद्भव स्थिति संहारकारिणीं हारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामबल्लभाम्॥
अर्थात् संसार की उत्पत्ति, पालन तथा संहार करने वाली, समस्त क्लेशों को हरने वाली, सब प्रकार से कल्याण करने वाली, राम की वल्लभा सीता को मैं नमस्कार करता हूं।

हमारे प्राचीनतम वैदिक ग्रंथ ऋग्वेद में भी कृषि कार्य को सम्मानित कार्य बताते हुए कृषक बनने हेतु प्रेरित किया गया है - 

अक्षैर्मा दीव्य: कृषिमित् कृषस्व वित्ते रमस्व बहुमन्यमान:। (ऋग्वेद- 34-13)
अर्थात् जुआ मत खेलो, कृषि करो और सम्मान के साथ धन पाओ।

     "का बरषा सब कृषी सुखानें" कहावत को स्मरण में रख कर हमें कृषकों के समस्यामुक्त होने और उनके सम्मानित जीवनयापन करने की कामना करनी चाहिए।

और अंत में प्रस्तुत हैं मेरे कुछ दोहे -

पूज्यनीय वह भूमि है, जहां उपजता अन्न।
कृषक रहे ख़ुशहाल तो, होता देश प्रसन्न।।

रहे समस्यामुक्त हो, अब प्रत्येक किसान।
कभी कहीं कम हो नहीं, तनिक मान -सम्मान।।

रामकथा में है भरा, विपुल ज्ञान भण्डार।
पढ़-सुन कर होता इसे, जीवन का उद्धार।।

शुभकर्मों का तो सदा, पड़ता यही प्रभाव।
लाख विषमताएं रहे, बना रहे सद्भाव ।।

"वर्षा" कहती है वही, करके सोच-विचार।
जगहित जिसमें हो निहित, हो आपस में प्यार।। 
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Wednesday, January 13, 2021

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 33 | बर्ड फ्लू और रामकथा के पक्षी | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज प्रस्तुत है मेरा आलेख -  "बर्ड फ्लू और रामकथा के पक्षी" 
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 13.01.2021

मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं-

बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा 

 बर्ड फ्लू और रामकथा के पक्षी               
                     - डॉ. वर्षा सिंह

     कोरोना से अभी हम मनुष्यों को निज़ात नहीं मिल पाई है और बर्ड फ्लू यानी पक्षियों में इन्फ्लूएंजा वायरस से होने वाली बीमारी के समाचार लगातार आने लगे हैं। हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, केरल, हरियाणा, महाराष्ट्र सहित देश के दस राज्यों में कौवे, बत्तख, मुर्गियां आदि पक्षी इस जानलेवा वायरस का शिकार हुए हैं। पिछले सप्ताह हरियाणा में बर्ड फ्लू से करीब एक लाख पोल्ट्री बर्ड्स की मौत हो चुकी है। जबकि हिमाचल प्रदेश की पोंग डैम झील के पास पलायन करने वाले करीब 1,800 पक्षी मृत पाए गए हैं। साथ ही राजस्थान के कई जिलों में लगभग 250 से ज़्यादा कौवों की मौत हो चुकी है।
    पक्षियों पर संक्रमण संकट के इन समाचारों ने मन को विचलित कर दिया है और विचारों को चिन्तन की दिशा में मोड़ दिया है। मुर्गे की बांग से हमारी भोर होती है, नीलकंठ के दर्शन कर हम शुभलक्षणों वाले दिवस की शुरूआत करने की लालसा रखते हैं और कोयल के मधुर स्वर से आनंदित होते हैं। धार्मिक मान्यता के अनुसार पितृ पक्ष में कौओं के बिना श्राद्ध पूरा नहीं होता। वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो पक्षी हमारे इकोसिस्टम को संतुलित करते हैं। बीज प्रसार में पक्षियों का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। पक्षी पौधे के फल या बीज खाते हैं। उनमें से कुछ बीज इस तरह उत्सर्जित होते हैं कि जब वे बीज जमीन पर पहुंचते हैं, तो अनुकूल परिस्थितियों में अंकुरित हो जाते हैं। कौवे और गिद्ध जैसे पक्षी मृत पशुओं को अपना आहार बना कर पर्यावरण की शुद्धता, साफ़-सफ़ाई में अपना योगदान देते हैं, जबकि छोटे पक्षी ज़हरीले कीट आदि का भक्षण कर हमें सुरक्षा प्रदान करते हैं। कुछ पक्षी जैसे तीतर, बटेर, बत्तख, मुर्गियों आदि के अंडे, चिकन आदि मांसाहारी मनुष्यों के आहार का अंग हैं। बर्ड फ्लू से संक्रमित पक्षियों को खाने से मनुष्यों में भी संक्रमण का ख़तरा बना हुआ है। देश में मनुष्यों में कोरोना महामारी के बढ़ने का ख़तरा अभी टला नहीं है और पक्षियों में फैलते बर्ड फ्लू के बढ़ते मामलों ने भारत सरकार को भी चिंता में डाल दिया है। माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुख्यमंत्रियों के साथ ऑनलाइन इंटरेक्शन में कोरोना संकट के दौरान इस बढ़ते खतरे से उन्हें आगाह किया। उन्होंने कहा कि बर्ड फ्लू से निपटने के लिए पशु पालन मंत्रालय द्वारा कार्ययोजना बनाई गई है जिसका तत्परता से पालन आवश्यक है। उन्होंने इसमें डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट्स की भी बड़ी भूमिका बताते हुए प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भी मुख्य सचिवों के माध्यम से सभी डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट का मार्गदर्शन करने पर ज़ोर दिया। प्रधानमंत्री ने कहा कि जिन राज्यों में अभी बर्ड फ्लू नहीं पहुंचा है, वहां की राज्य सरकारों को भी पूरी तरह सतर्क रहना होगा। उन्होंने कहा कि उन्हें पूरा विश्वास है कि हमारे एकजुट प्रयास, हर चुनौती से देश को बाहर निकालेंगे।

     भारत वही देश है जहां पक्षियों को देवी- देवताओं के वाहन के रूप में पूजा जाता है। यथा - विष्णु का वाहन गरूड़, देवी लक्ष्मी का वाहन उल्लू, देवी सरस्वती का वाहन हंस, कार्तिकेय का वाहन मयूर आदि हैं। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार इन पक्षियों को पूज्यनीय माना गया है।
    रामकथा में पक्षियों को मनुष्यों की ही भांति अत्यंत सम्मानजनक स्थान दिया गया है। रामायण और रामचरितमानस, इन दोनों प्रमुख ग्रंथों में कौआ, गिद्ध और गरुड़ पक्षियों की महत्वपूर्ण भूमिका का लेख है। इसके साथ ही  क्रोंच, खंजन, तोता, कबूतर, कोयल आदि अनेक पक्षियों का उल्लेख स्थान-स्थान पर मिलता है।

   रामचरितमानस में ऐसी ही एक कौए काकभुशुण्डि की गाथा है। कहा जाता है कि वाल्मीकि से पहले ही काकभुशुण्डि ने रामकथा गरूड़ को सुना दी थी। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार 'अध्यात्म रामायण' संसार की पहली रामायण है। आदि देव शिव ने सबसे पहले यह कथा देवी पार्वती को सुनाई थी। उस समय यह कथा एक कौवे ने सुनी। उसी कौवे का अगला जन्म काकभुशुण्डि के रूप में हुआ। काकभुशुण्डि को पूर्व जन्म में शिव से सुनी रामकथा संपूर्ण कण्ठस्थ थी। उन्होंने यह कथा अपने शिष्यों को सुनाई। इस प्रकार रामकथा का प्रचार हुआ। तुलसीदास की 'रामचरितमानस' का आधार भी यही 'अध्यात्म रामायण' है।
'रामचरितमानस' के उत्तरकाण्ड में तुलसीदास ने लिखा है कि काकभुशुण्डि परमज्ञानी रामभक्त हैं -
गिरिजा सुनहु बिसद यह कथा। 
मैं सब कही मोरि मति जथा॥
राम चरित सत कोटि अपारा। 
श्रुति सारदा न बरनै पारा॥
 अर्थात् शिवजी कहते हैं- हे गिरिजे! सुनो, मैंने यह उज्ज्वल कथा, जैसी मेरी बुद्धि थी, वैसी पूरी कह डाली। राम का चरित्र सौ करोड़ अपार हैं। श्रुति और शारदा भी उनका वर्णन नहीं कर सकतीं।

 राम अनंत अनंत गुनानी। 
जन्म कर्म अनंत नामानी॥
जल सीकर महि रज गनि जाहीं। 
रघुपति चरित न बरनि सिराहीं॥
अर्थात्  राम अनंत हैं, उनके गुण अनंत हैं, जन्म, कर्म और नाम भी अनंत हैं। जल की बूँदें और पृथ्वी के रजकण चाहे गिने जा सकते हों, पर रघुपति के चरित्र का वर्णन करने से नहीं चूकते।

बिमल कथा हरि पद दायनी। 
भगति होइ सुनि अनपायनी॥
उमा कहिउँ सब कथा सुहाई। 
जो भुसुंडि खगपतिहि सुनाई॥ 
अर्थात्  यह पवित्र कथा श्रीहरि के परम पद को देने वाली है। इसके सुनने से अविचल भक्ति प्राप्त होती है। हे उमा! मैंने वह सब सुंदर कथा कही जो काकभुशुण्डि ने खगपति अर्थात् गरुड़ को सुनाई थी।

तुलसीदास आगे कहते हैं कि देवी पार्वती ने काकभुशुण्डि की चर्चा सुन कर शिव से अपना संदेह प्रकट किया कि - 

हरिचरित्र मानस तुम्ह गावा। 
सुनि मैं नाथ अमिति सुख पावा॥
तुम्ह जो कही यह कथा सुहाई। 
कागभुशण्डि गरुड़ प्रति गाई॥
अर्थात् हे नाथ! आपने रामचरित्र मानस का गान किया, उसे सुनकर मैंने अपार सुख पाया। आपने जो यह कहा कि यह सुंदर कथा काकभुशुण्डि ने गरुड़ से कही थी।

बिरति ग्यान बिग्यान दृढ़, राम चरन अति नेह।
बायस तन रघुपति भगति, मोहि परम संदेह॥
अर्थात् सो कौए का शरीर पाकर भी काकभुशुण्डि वैराग्य, ज्ञान और विज्ञान में दृढ़ हैं, उनका राम के चरणों में अत्यंत प्रेम है और उन्हें रघुपति की भक्ति भी प्राप्त है, इस बात का मुझे परम संदेह हो रहा है।
…...और तब इस संदेह का निवारण करते हुए शिव ने देवी पार्वती को गरुड़ तथा काकभुशुण्डि की कथा सुनाई, जो इस प्रकार है -
   लंकापति रावण के पुत्र मेघनाद ने युद्ध के दौरान राम को नागपाश से बांध दिया था। तब देवर्षि नारद के कहने पर पक्षीराज गरूड़, जो कि सर्पभक्षी थे, ने नागपाश के समस्त नागों को प्रताड़ित कर राम को नागपाश के बंधन से छुड़ाया। स्वयं श्रीहरि के साक्षात अवतार राम के इस तरह नागपाश में बंध जाने पर राम के परमब्रह्म होने पर गरुड़ को सन्देह हो गया। गरुड़ का सन्देह दूर करने के लिये देवर्षि नारद उन्हें ब्रह्मा के पास भेजा। ब्रह्मा गरुड़ से कहा कि तुम्हारा सन्देह आदि देव शिव दूर कर सकते हैं। शिव ने भी गरुड़ को उनका सन्देह मिटाने के लिये काकभुशुण्डि  के पास भेज दिया। अन्त में काकभुशुण्डि ने राम के चरित्र की पवित्र कथा सुना कर गरुड़ के सन्देह को दूर किया। 
मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। 
किएँ जोग तप ग्यान बिरागा॥
उत्तर दिसि सुंदर गिरि नीला। 
तहँ रह काकभुसुण्डि सुसीला।।
अर्थात्  बिना प्रेम के केवल योग, तप, ज्ञान और वैराग्यादि के करने से रघुपति नहीं मिलते। अतएव तुम सत्संग के लिए वहाँ जाओ जहाँ उत्तर दिशा में एक सुंदर नील पर्वत है। वहाँ परम सुशील काकभुशुण्डि रहते हैं।

राम भगति पथ परम प्रबीना। 
ग्यानी गुन गृह बहु कालीना॥
राम कथा सो कहइ निरंतर। 
सादर सुनहिं बिबिध बिहंगबर।।
अर्थात् वे रामभक्ति के मार्ग में परम प्रवीण हैं, ज्ञानी हैं, गुणों के धाम हैं और बहुत काल के हैं। वे निरंतर राम की कथा कहते रहते हैं, जिसे भाँति-भाँति के श्रेष्ठ पक्षी आदर सहित सुनते हैं।

जाइ सुनहु तहँ हरि गुन भूरी। 
होइहि मोह जनित दुख दूरी॥
मैं जब तेहि सब कहा बुझाई। 
चलेउ हरषि मम पद सिरु नाई।।
अर्थात्  कहते हैं कि वहाँ जाकर श्रीहरि के गुण समूहों को सुनो। उनके सुनने से मोह से उत्पन्न तुम्हारा दुःख दूर हो जाएगा। शिव ने पार्वती से कहा कि - मैंने उसे जब सब समझाकर कहा, तब वह मेरे चरणों में सिर नवाकर हर्षित होकर चला गया।

गरुड़ के सन्देह समाप्त हो जाने के पश्चात् काकभुशुण्डि ने गरुड़ को स्वयं की कथा सुनाई कि लोमश ऋषि के शाप के चलते काकभुशुण्डि कौवा बन गए थे। लोमश ऋषि को बाद में इसका पश्चाताप हुआ। तब लोमश ऋषि ने शाप से मु‍क्त होने के लिए उन्हें राम मंत्र और इच्छामृत्यु का वरदान दिया। कौए का शरीर पाने के बाद ही राममंत्र मिलने के कारण उस शरीर से उन्हें प्रेम हो गया और वे कौए के रूप में ही रहने लगे कालांतर में काकभुशुण्डि के नाम से पहचाने गए एवं कौवे के रूप में ही उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन व्यतीत किया।

रामकथा में गिद्धराज जटायु का उल्लेख भी मिलता है। रामायण अनुसार जटायु ऋषि ताक्षर्य कश्यप और विनीता के पुत्र थे। रामचरितमानस के अरण्यकाण्ड में उल्लेखित जटायु द्वारा सीता के रक्षार्थ अपने प्राणोत्सर्ग की कथा से सभी भलीभांति परिचित हैं।

आगें परा गीधपति देखा। 
सुमिरत राम चरन जिन्ह रेखा॥
अर्थात् आगे जाने पर राम ने गिद्धपति जटायु को पड़ा देखा। वह राम के चरणों का स्मरण कर रहा था, जिनमें ध्वजा, कुलिश आदि रेखाएँ  हैं।

तब कह गीध बचन धरि धीरा। 
सुनहु राम भंजन भव भीरा॥
नाथ दसानन यह गति कीन्ही। 
तेहिं खल जनकसुता हरि लीन्ही॥
अर्थात् तब धीरज धरकर गीध ने यह वचन कहा- हे भव जन्म-मृत्यु के भय का नाश करने वाले राम! सुनिए, हे नाथ! रावण ने मेरी यह दशा की है। उसी दुष्ट ने जानकसुता को हर लिया है।

 वाल्मीकि रामायण के किष्किंधा कांड में वर्णित है कि सम्पाती नामक गिद्ध जटायु का बड़ा भाई था। वृत्तासुर-वध के उपरांत अत्यधिक गर्व हो जाने के कारण दोनों भाई आकाश में उड़कर सूर्य की ओर चले। उन दोनों का उद्देश्य सूर्य का विंध्याचल तक पीछा करना था। सूर्य के ताप से जटायु के पंख जलने लगे तो सम्पाती ने उसे अपने पंखों से छिपा लिया। अत: जटायु तो बच गया किंतु सम्पाती के पर जल गये और उड़ने की शक्ति समाप्त हो गयी। वह विंध्य पर्वत पर जा गिरा। जब सीता को ढूंढ़ने में असफल हनुमान, अंगद आदि उस पर्वत पर बातें कर रहे थे तब जटायु का नाम सुनकर संपाति ने सविस्तार जटायु के विषय में जानना चाहा। यह जानकर कि वह सीताहरण के समय सीता की रक्षार्थ युद्ध करते हुए रावण द्वारा मारा गया है, सम्पाती ने उन्हें बताया कि पूर्वकाल में जब पंख जलने पर वह विंध्य पर्वत पर गिरा था तब वह छ: दिन अचेत रहा, फिर वह निशाकर नाम के महामुनि की गुफा में गया। निशाकर का उन दोनों भाइयों से अपार प्रेम था। निशाकर ने सम्पाती से कहा कि वह बहुत जल गया है, भविष्य में उसके पंख और उसका सौंदर्य लौट जायेंगे किंतु अभी ठीक नहीं होगा क्योंकि बिना पंख के वहां पर्वत पर रहने से वह भविष्य में उत्पन्न होने वाले दशरथ-पुत्र राम की खोयी हुई पत्नी का मार्ग बतायेगा तथा इसी प्रकार के अनेक अन्य उपकार भी कर सकेगा। सम्पाती ने दिव्य दृष्टि से सीता को रावण की नगरी में देखा तथा वानरों का पथ-निर्देशन किया, तभी देखते-देखते उसके दो लाल पंख निकल आये।
सम्पाती के पुत्र का नाम सुपार्श्व था। पंख जल जाने के कारण सम्पाती उड़ने में असमर्थ था, अत: सुपार्श्व उसके लिए भोजन जुटाया करता था। एक शाम सुपार्श्व बिना मांस लिये अपने पिता के पास पहुंचा तो भूखे सम्पाती को बहुत ग़ुस्सा आया। उसने मांस न लाने का कारण पूछा तो सुपार्श्व ने बतलाया-'कोई काला राक्षस सुंदरी नारी को लिये चला जा रहा था। वह स्त्री 'हे राम, हे लक्ष्मण!' कहकर विलाप कर रही थी। यह देखने में मैं इतना उलझ गया कि मांस लाने का ध्यान नहीं रहा।' संपाति जटायु का भाई था। हनुमान जब सीता को ढूंढ़ने जा रहा थे तब मार्ग में गरुड़ के समान विशाल पक्षी से उनका परिचय हुआ। उसका परिचय प्राप्त कर वानरों ने जटायु की दु:खद मृत्यु का समाचार उसे दिया। उसी ने वानरों को लंकापुरी जाने के लिए उत्साहित किया था।

रामचरितमानस के किष्किंधा काण्ड में तुलसीदास कहते हैं -

सुनि खग हरष सोक जुत बानी। 
आवा निकट कपिन्ह भय मानी॥
तिन्हहि अभय करि पूछेसि जाई। 
कथा सकल तिन्ह ताहि सुनाई॥
अर्थात्  हर्ष और शोक से युक्त वाणी से समाचार सुनकर वह पक्षी सम्पाती वानरों के पास आया। वानर डर गए। उनको अभय वचन देकर उसने पास जाकर जटायु का वृत्तांत पूछा, तब उन्होंने सारी कथा उसे कह सुनाई।

सुनि संपाति बंधु कै करनी। 
रघुपति महिमा बहुबिधि बरनी॥
अर्थात् भाई जटायु की करनी सुनकर सम्पाती ने बहुत प्रकार से रघुपति की महिमा वर्णन की।

मोहि लै जाहु सिंधुतट, देउँ तिलांजलि ताहि।
बचन सहाइ करबि मैं, पैहहु खोजहु जाहि॥
अर्थात् सम्पाती ने कहा- मुझे समुद्र के किनारे ले चलो, मैं जटायु को तिलांजलि दे दूँ। इस सेवा के बदले मैं तुम्हारी वचन से सहायता करूँगा अर्थात् सीता कहाँ हैं सो बतला दूँगा, जिसे तुम खोज रहे हो उसे पा जाओगे।

रामकथा में  खंजन पक्षी का भी उल्लेख है। खंजन पक्षी सुंदरवन में पाए जाते हैं। दरअसल वे पूर्वी एशिया के इलाकाें में प्रजनन करते हैं और भारत से लेकर इंडाेनेशिया तक सर्दियाें में यात्रा करते हैं। इनकी पीठ जैतूनी हरे रंग की होती है। जिस पर हल्की जामुनी रंग की आभा होती है। 
रामचरित मानस के अयोध्याकाण्ड में उल्लेख है कि वनवास के समय जब ग्रामीण महिलाएं सीता से पूछती हैं कि उनके साथ वाले इन दो सुंदर युवकों में उनके पति कौन हैं? 

कोटि मनोज लजावनिहारे। 
सुमुखि कहहु को आहिं तुम्हारे॥
सुनि सनेहमय मंजुल बानी। 
सकुची सिय मन महुँ मुसुकानी॥
     अर्थात् हे सुमुखि! कहो तो अपनी सुंदरता से करोड़ों कामदेवों को लजाने वाले ये तुम्हारे कौन हैं? उनकी ऐसी प्रेममयी सुंदर वाणी सुनकर सीता सकुचा गईं और मन ही मन मुस्कुराईं।

सहज सुभाय सुभग तन गोरे। 
नामु लखनु लघु देवर मोरे॥
बहुरि बदनु बिधु अंचल ढाँकी। 
पिय तन चितइ भौंह करि बाँकी॥
अर्थात् ये जो सहज स्वभाव, सुंदर और गोरे शरीर के हैं, उनका नाम लक्ष्मण है, ये मेरे छोटे देवर हैं। फिर सीता ने लज्जावश अपने चन्द्रमुख को आँचल से ढँककर और प्रियतम  राम की ओर निहारकर भौंहें टेढ़ी करके बोलीं।

खंजन मंजु तिरीछे नयननि। 
निज पति कहेउ तिन्हहि सियँ सयननि॥
भईं मुदित सब ग्रामबधूटीं। 
रंकन्ह राय रासि जनु लूटीं॥
अर्थात् खंजन पक्षी के से सुंदर नेत्रों को तिरछा करके सीताजी ने इशारे से उन्हें कहा कि ये मेरे पति हैं। यह जानकर गाँव की सब युवती स्त्रियाँ इस प्रकार आनंदित हुईं, मानो कंगालों ने धन की राशियाँ लूट ली हों।

रामायण में क्रौंच पक्षी का भी उल्लेख है। रामायण के रचनाकार वाल्मीकि एक दिन सुबह गंगा के पास बहने वाली तमसा नदी के एक अत्यंत निर्मल जल वाले तीर्थ पर अपने शिष्य भारद्वाज के साथ स्नान के लिए गए। वहां नदी के किनारे पेड़ पर सारस जैसा क्रौंच पक्षी का एक जोड़ा अपने में मग्न था, तभी व्याध ने इस जोड़े में से नर क्रौंच को अपने बाण से मार गिराया। रोती हुई मादा क्रौंच पक्षी भयानक विलाप करने लगी। इस हृदयविदारक घटना को देखकर वाल्मीकि का हृदय इतना द्रवित हुआ कि उनके मुख से अचानक श्लोक फूट पड़ा:-

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शास्वती समा।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी: काममोहितम्।।
     अर्थात् निषाद। तुझे कभी भी शांति न मिले, क्योंकि तूने इस क्रौंच के जोड़े में से एक की, जो काम से मोहित हो रहा था, बिना किसी अपराध के ही हत्या कर डाली।
 
    वाल्मीकि ने जब भारद्वाज से कहा कि यह जो मेरे शोकाकुल हृदय से फूट पड़ा है, उसमें चार चरण हैं, हर चरण में अक्षर बराबर संख्या में हैं और इनमें मानो तंत्र की लय गूंज रही है अत: यह श्लोक के अलावा और कुछ हो ही नहीं सकता।

पादबद्धोक्षरसम: तन्त्रीलयसमन्वित:।
शोकार्तस्य प्रवृत्ते मे श्लोको भवतु नान्यथा।। 
इस करुणा में से कविता प्रकट हो गई थी। तब वाल्मीकि को ब्रह्मा का आशीर्वाद मिला कि तुमने प्रथम काव्य की रचना की है अतः तुम आदिकवि हो, तुम रामकथा लिखो जो धरती पर स्थित पर्वत, नदी आदि की तरह शाश्वत रहेगी।
 यावत् स्थास्यन्ति गिरय: लरितश्च महीतले।
तावद्रामायणकथा सोकेषु प्रचरिष्यति।।

रामचरित मानस के अरण्यकाण्ड में तोता, कोयल, कबूतर आदि पक्षियों का भी वर्णन मिलता है। तुलसीदास कहते हैं -

अनुज समेत गए प्रभु तहवाँ। 
गोदावरि तट आश्रम जहवाँ॥
आश्रम देखि जानकी हीना। 
भए बिकल जस प्राकृत दीना॥
अर्थात् लक्ष्मणजी सहित प्रभु राम वहाँ गए, जहाँ गोदावरी के तट पर उनका आश्रम था। आश्रम को जानकी से रहित देखकर राम साधारण मनुष्य की भाँति व्याकुल और दीन, दुःखी हो गए।

हा गुन खानि जानकी सीता। 
रूप सील ब्रत नेम पुनीता॥
लछिमन समुझाए बहु भाँति। 
पूछत चले लता तरु पाँती॥
अर्थात् वे विलाप करने लगे- हा, गुणों की खान जानकी! हा रूप, शील, व्रत और नियमों में पवित्र सीते! लक्ष्मण ने बहुत प्रकार से समझाया। तब राम लताओं और वृक्षों की पंक्तियों से पूछते हुए चले।

हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। 
तुम्ह देखी सीता मृगनैनी॥
खंजन सुक कपोत मृग मीना। 
मधुप निकर कोकिला प्रबीना॥
अर्थात् हे पक्षियों! हे पशुओं! हे भौंरों की पंक्तियों! खंजन, तोता, कबूतर, हिरन, मछली, भौंरों का समूह, प्रवीण कोयल तुमने कहीं मृगनयनी सीता को देखा है?

       शरद ऋतु का वर्णन करते हुए रामचरित मानस के किष्किंधाकाण्ड में तुलसीदास ने चकवा, चकोर, पपीहा आदि अनेक पक्षियों का उल्लेख किया है -

गुंजत मधुकर मुखर अनूपा। सुंदर खग रव नाना रूपा॥
चक्रबाक मन दुख निसि पेखी। जिमि दुर्जन पर संपति देखी॥
अर्थात् भौंरे अनुपम शब्द करते हुए गूँज रहे हैं तथा पक्षियों के नाना प्रकार के सुंदर शब्द हो रहे हैं। रात्रि देखकर चकवे के मन में वैसे ही दुःख हो रहा है, जैसे दूसरे की संपत्ति देखकर दुष्ट को होता है।

चातक रटत तृषा अति ओही। जिमि सुख लहइ न संकर द्रोही॥
सरदातप निसि ससि अपहरई। संत दरस जिमि पातक टरई॥
अर्थात् पपीहा रट लगाए है, उसको बड़ी प्यास है, जैसे शंकर का द्रोही सुख नहीं पाता। शरद् ऋतु के ताप को रात के समय चंद्रमा हर लेता है, जैसे संतों के दर्शन से पाप दूर हो जाते हैं।

देखि इंदु चकोर समुदाई। चितवहिं जिमि हरिजन हरि पाई॥
अर्थात् चकोरों के समुदाय चंद्रमा को देखकर इस प्रकार टकटकी लगाए हैं जैसे भगवद्भक्त भगवान् को पाकर उनके निर्निमेष नेत्रों से दर्शन करते हैं। 

      इस प्रकार सम्पूर्ण रामकथा में अनेक पक्षियों का उल्लेख मिलता है।

      पक्षी युगों- युगों से हमारे जन्मजन्मांतरों के साथी हैं। मानव जाति के विकास के पूर्व से धरती पर मौजूद तथा वेदों-पुराणों से लेकर रामकथा में उल्लेखित, हमारी भारतीय संस्कृति में पूज्यनीय, और वर्तमान में जीवन संघर्ष करते अनेक पक्षियों को बर्ड फ्लू जैसे संक्रमण वाले रोगों से बचाने के लिए हमें एकजुट हो कर उसी तरह प्रयास करने होंगे जिस तरह मनुष्यों में होने वाली महामारी कोरोना के संक्रमण से बचाव के लिए हमने जागरूकता का परिचय दिया है।

और अंत में प्रस्तुत हैं मेरे कुछ दोहे -

रोग - संक्रमण से भरा, आया कैसा दौर ।
पक्षी बिन सूना लगे, वन, उपवन, हर ठौर ।।

चिन्तन, सोच-विचार कर, करें इस तरह यत्न।
संकट से हों मुक्त सब, जग के पक्षी- रत्न ।।

हम मानव इस हेतु यदि, मिल-जुल कर हों एक।
कर पाएंगे हम तभी, नवयुग का अभिषेक ।।

"वर्षा" की यह प्रार्थना, रोगमुक्त हों जीव ।
मानव के शुभकर्म सब, हों साकार, सजीव ।।

      -----------------
सागर, मध्यप्रदेश

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Wednesday, January 6, 2021

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 32| हास्य की महत्ता और केवट प्रसंग | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय ब्लॉग पाठकों, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज प्रस्तुत है मेरा आलेख -  "हास्य की महत्ता और केवट प्रसंग" 
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 06.01.2021

मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं-

बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

 हास्य की महत्ता और केवट प्रसंग 
            -डॉ. वर्षा सिंह
 
          मेरी एक मित्र है माधुरी। पहले कभी हम एक कॉलोनी में रहते थे, साथ पढ़ते और बतियाते थे। कालांतर में हमारे जीवन की दिशाएं अलग हो गईं… मैं विद्युत विभाग की अपनी नौकरी में व्यस्त हो गई और माधुरी घर-गृहस्थी के उत्तरदायित्वों में व्यस्त हो गई। मेलजोल नहीं रहा। समयाभाव में कभी-कभार फोन पर ही हाय-हलो हो जाती है। पिछले दिनों एक ऐसी ही कुशलक्षेम जानने-बताने वाली फोनकॉल के दरमियान बातों- बातों में हम कॉलेज के दिनों के बीते पन्ने पलटने लग गए। तब हमारे एक प्रोफेसर हुआ करते थे। सी.के. उनके नाम का शार्ट फार्म था। किसी बात को ले कर उन्होंने माधुरी को भरी क्लास में अकारण डांट दिया था। जाड़ों के दिन में फ्री पीरियड में अक्सर हम पांच-छः लड़कियां क्लास रूम के सामने वाले गार्डन की फैंस के पास खड़े होकर धूप लिया करते थे। एक दिन जब हम धूप में खड़े थे तो सी.के. सर हमारे ग्रुप के पास से हो कर निकले। उधर वो निकले और इधर माधुरी ने धीरे-धीरे बड़बड़ाना शुरू कर दिया - 'ए.के. अड़ गए, बी.के.बढ़ गए, सी.के. सड़ गए।' हम सभी सन्नाटे में आ गए जब सी.के.सर ने मुड़ कर माधुरी की तरफ़ घूर कर देखा। माधुरी से जैसे ही उनकी नज़रें मिली माधुरी मुस्कुरा कर बोली - 'प्रणाम, सर !' माधुरी के इस एक्शन पर सी.के. सर एकदम भौंचक्के रह गए, वे घबरा से गए और फिर - 'प्रणाम, प्रणाम, प्रणाम, प्रणाम' कहते हुए तेज़ कदमों से वहां से खिसक लिए। इसके बाद हम लोग ख़ूब हंसे। बाद में भी यह घटना जब भी याद आती हम लोग अपनी हंसी रोक नहीं पाते। जी हां, पिछले दिनों माधुरी से फोन पर बात करते हुए हम वही सी.के. सर वाली घटना को याद करके ख़ूब हंसे। लेकिन मुझे आश्चर्य तब हुआ जब बात-बात पर हंसी के फौव्वारे छोड़ने वाली माधुरी ने कहा कि -'हे भगवान, वर्षा, जानती हो कितने दिन के बाद मैं ऐसी खुल कर हंसी हूं। वरना यहां घर-परिवार के झमेलों में मैं तो खुल कर हंसना ही भूल गई थी।'
       माधुरी जैसे कितने ही लोग हैं जो जीवन की समस्याओं में उलझ कर हंसी यानी हास्य से दूर होते चले जाते हैं। तनावों के लगातार झेलते रहने से उनका हास्य भाव इतना सीमित हो जाता है कि मानों वे जानते ही न हों कि हंसी भी कोई भाव है। हंसी की अहमियत तनाव के पलों की बोझिलता के समक्ष लुप्तप्राय हो जाती है।
     वर्तमान समय में जीवन तनावपूर्ण हो गया है, जिसमें हास्य का लगातार कमी हो गई है। जबकि जीवन में हास्य का विशेष महत्व है। हंसना एक ऐसा टॉनिक है जो विपरीत परिस्थितियों में भी मन को हल्का और खुश रख कर आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। सचमुच हंसना भी एक कला है, जो मनुष्य को तनाव मुक्त रखकर जीवन स्वस्थ बनाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। 
    भारतीय काव्यशास्त्र में नौ रस माने गए हैं। ये नौ रस ऐसे भाव हैं जो मनुष्य की मूल प्रवृत्तियों से घनिष्ठ रूप से संबद्ध होकर उसे जीवन के प्रति सम्वेदनशील बनाते हैं। "भावप्रकाश" ग्रंथ के अनुसार - 
प्रीतिर्विशेष: चित्तस्य विकासो हास उच्यते।
     अर्थात् हास एक प्रीतिपरक भाव है और चित्तविकास का एक रूप है।
    लगातार मानसिक तनाव उपजाती जीवन की नित्य प्रति जटिल समस्याओं ने हंसी अर्थात् हास्य रस को मानो विलोपित ही कर दिया है। इसी कमी को पूरी करने के लिए एक भारतीय मनोवैज्ञानिक डॉ. मदन कटारिया द्वारा वर्ष 1998 से हास्य दिवस की शुरुआत की गई जिसे प्रत्येक वर्ष मई माह में वर्ल्ड लाफ्टर डे अर्थात् विश्व हास्य दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। मुंबई निवासी वैश्विक हास्य योग आंदोलन के प्रणेता डॉ. कटारिया का उद्देश्य है कि दुनिया का हर मनुष्य खूब हंसे। इसका परिणाम यह है कि भारत समेत दुनिया के 108 देशों में लाफ्टर क्लब खुल चुके हैं। हंसी की ये पाठशालाएं बिना फीस के चलती हैं। लाफ्टर क्लब का मूल उद्देश्य "अच्छा स्वास्थ्य, मन की खुशी और विश्व शांति'’ में बढ़ोत्तरी करना है।’’
   हंसना स्वास्थ्य के लिए बेहद ज़रूरी होता है।
हंसने से शरीर में ऑक्सीजन बढ़ता है। हंसने और ठहाके लगाने से शरीर में एर्डोफिन हार्मोन का उत्सर्जन होता है जो मानव तन में सक्रियता स्फूर्ति एवं प्रसन्नता को जगाता है। सिर दर्द, उच्च रक्तचाप, मधुमेह में भी इसके लाभ हैं। हंसने से खीज, चिड़चिड़ापन, टेंशन और डिप्रेशन कम हो जाता है। हंसमुख व्यक्ति किसी भी विपरीत परिस्थिति से जल्दी ही उबर कर बाहर जाता है। यह भी कहा जा सकता है कि हंसी नेचुरल पेन किलर का काम करती है। इससे शरीर में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ती है जिससे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ जाती है। हास्य चेहरे को खिला हुआ, ख़ूबसूरत बनाता है। यह भी कहा जा सकता है कि हंसना एक अच्छा व्यायाम है। इतना ही नहीं, हंसी से जहां एक ओर आत्मविश्वास बढ़ता है तो वहीं दूसरी ओर हंसी से सकारात्मक सोच का भी विकास होता। ऐसे कितने ही प्रमाण मिल जाएंगे कि हंसी जीवन में निराशा के भाव नहीं आने देती।
    रामकथा के जगप्रसिद्ध आख्यान रामचरित मानस के अयोध्या काण्ड में तुलसीदास ने जिस तरह केवट प्रसंग का उल्लेख किया है वह जीवन में हास्य की महत्ता को परिलक्षित करने वाला है। परमप्रिय पिता दशरथ की आज्ञा को सहर्ष स्वीकार कर, आज्ञा के पालनार्थ राजतिलक का परित्याग कर 14 वर्ष का वनवास व्यतीत करने लक्ष्मण और सीता सहित निकले राम का हृदय निश्चित ही दुखी था। राजतिलक के परित्याग से नहीं वरन् माता कैकेयी की भेदभाव वाली कलुषित दृष्टि से, पिता दशरथ और माता कौशल्या तथा सुमित्रा सहित अयोध्यावासियों की व्यथित मनोदशा से, अकारण लक्ष्मण और सीता के भी वनवास झेलने की स्थिति से राम दुखी थे। राम के दुख से पशु-पक्षी भी दुखी थे। रामवनगमन के दुख से अत्यंत बोझिल वातावरण को केवट प्रसंग ने हास्य रस के पुट से हल्का और सहज स्वीकार्य बना दिया।
    
वन के मार्ग में एक स्थान पर राम, लक्ष्मण, सीता को गंगा नदी पार करना था। उनके साथ उस समय निषादराज गुह भी थे जो राम की मदद के लिए साथ में थे। गंगा तट का वह प्रदेश निषादराज के राज्य क्षेत्र में था। वहां नाव द्वारा गंगा पार करने के लिए राम ने केवट को बुलाया और नाव मांगी । तुलसीदास लिखते हैं - 

बरबस राम सुमंत्रु पठाए। 
सुरसरि तीर आपु तब आए॥
अर्थात्  राम ने सुमंत्र को लौटाया। तब गंगाजी के किनारे पर आए।

मांगी नाव न केवटु आना। 
कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना॥
चरन कमल रज कहुँ सबु कहई। 
मानुष करनि मूरि कछु अहई॥
अर्थात् राम ने केवट से नाव माँगी, पर वह नाव नहीं लाया। वह कहने लगा- मैंने तुम्हारा मर्म अर्थात् भेद जान लिया। तुम्हारे चरण कमलों की धूल के लिए सब लोग कहते हैं कि वह मनुष्य बना देने वाली कोई जड़ी है।
       सीता स्वयंवर हेतु आयोजित धनुष यज्ञ से पूर्व राम, लक्ष्मण और विश्वामित्र जब गौतम आश्रम पहुंचे थे तो वहां गौतम ऋषि के आश्रम में शिला के रूप में पड़ी शापग्रस्त अहिल्या राम के पवित्र चरण का स्पर्शमात्र पा कर शापमुक्त हो कर पुनः सुंदर मानवी के परिवर्तित हो गई थी। इसी घटना की याद दिलाते हुए केवट ने राम से कहा -
छुअत सिला भइ नारि सुहाई। 
पाहन तें न काठ कठिनाई॥
तरनिउ मुनि घरिनी होइ जाई। 
बाट परइ मोरि नाव उड़ाई॥
अर्थात् जिसके छूते ही पत्थर की शिला सुंदरी स्त्री हो गई और मेरी नाव तो काठ की है। काठ पत्थर से कठोर तो होता नहीं। मेरी नाव भी मुनि की स्त्री अर्थात् अहिल्या हो जाएगी और इस प्रकार मेरी नाव उड़ जाएगी।

केवट द्वारा अहिल्या का स्मरण मर्यादित हास्य के माध्यम से करना 'रामचरितमानस' का महत्वपूर्ण प्रसंग है।

एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू। 
नहिं जानउँ कछु अउर कबारू॥
जौं प्रभु पार अवसि गा चहहू। 
मोहि पद पदुम पखारन कहहू॥
अर्थात् मैं तो इसी नाव से सारे परिवार का पालन-पोषण करता हूँ। दूसरा कोई धंधा नहीं जानता। हे प्रभु! यदि तुम अवश्य ही पार जाना चाहते हो तो मुझे पहले अपने चरणकमल पखारने दीजिए धो लेने के लिए कह दो।

पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं।
मोहि राम राउरि आन दसरथसपथ सब साची कहौं॥
बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं।
तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं॥
अर्थात् -हे नाथ! मैं चरण कमल धोकर आप लोगों को नाव पर चढ़ा लूँगा, मैं आपसे कुछ उतराई नहीं चाहता। हे राम! मुझे आपकी दुहाई और दशरथजी की सौगंध है, मैं सब सच-सच कहता हूँ। लक्ष्मण भले ही मुझे तीर मारें, पर जब तक मैं पैरों को पखार न लूँगा, तब तक हे तुलसीदास के नाथ! हे कृपालु! मैं पार नहीं उतारूँगा।
     केवट की यह बात हास्यरस की महत्ता को प्रतिपादित करने वाली है। तुलसीदास आगे लिखते हैं -

सुनि केवट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे।
बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन॥
अर्थात् सुनकर करुणाधाम राम जानकी और लक्ष्मण की ओर देखकर हँसे।

कृपासिंधु बोले मुसुकाई। 
सोइ करु जेहिं तव नाव न जाई॥
बेगि आनु जलपाय पखारू।
होत बिलंबु उतारहि पारू।।
अर्थात् कृपा के समुद्र राम केवट से मुस्कुराकर बोले भाई! तू वही कर जिससे तेरी नाव न जाए। जल्दी पानी ला और पैर धो ले। देर हो रही है, पार उतार दे।

जासु नाम सुमिरत एक बारा। 
उतरहिं नर भवसिंधु अपारा॥
सोइ कृपालु केवटहि निहोरा। 
जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा॥
अर्थात् एक बार जिनका नाम स्मरण करते ही मनुष्य अपार भवसागर के पार उतर जाते हैं और जिन्होंने वामनावतार में जगत को तीन पग से भी छोटा कर दिया था, दो ही पग में त्रिलोकी को नाप लिया था, वही कृपालु राम गंगा से पार उतारने के लिए केवट का निहोरा कर रहे हैं!
 
पद नख निरखि देवसरि हरषी। 
सुनि प्रभु बचन मोहँ मति करषी॥
केवट राम रजायसु पावा। 
पानि कठवता भरि लेइ आवा॥
अर्थात् प्रभु के इन वचनों को सुनकर गंगाजी की बुद्धि मोह से खिंच गई थी कि ये साक्षात भगवान होकर भी पार उतारने के लिए केवट का निहोरा कैसे कर रहे हैं, परन्तु समीप आने पर अपनी उत्पत्ति के स्थान पदनखों को देखते ही उन्हें पहचानकर देवनदी गंगाजी हर्षित हो गईं। वे समझ गईं कि विष्णु नरलीला कर रहे हैं, इससे उनका मोह नष्ट हो गया और इन चरणों का स्पर्श प्राप्त करके मैं धन्य होऊँगी, यह विचारकर वे हर्षित हो गईं। केवट राम की आज्ञा पाकर कठौते में भरकर जल ले आया॥

अति आनंद उमगि अनुरागा। 
चरन सरोज पखारन लागा॥
बरषि सुमन सुर सकल सिहाहीं। 
एहि सम पुन्यपुंज कोउ नाहीं॥
अर्थात् अत्यन्त आनंद और प्रेम में उमंगकर वह भगवान के चरणकमल धोने लगा। सब देवता फूल बरसाकर सिहाने लगे कि इसके समान पुण्य की राशि कोई नहीं है।

पसंद पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार।
पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार॥
अर्थात् चरणों को धोकर और सारे परिवार सहित स्वयं उस जल चरणोदक को पीकर पहले उस महान पुण्य के द्वारा अपने पितरों को भवसागर से पार कर फिर आनंदपूर्वक राम को गंगा के पार ले गया।

       यह वही केवट है जिसके पूर्व जन्म की कथा पौराणिक ग्रंथों में कुछ इस प्रकार मिलती है कि सतयुग में गंगासागर में एक कछुआ निवास करता था। वह बहुत धार्मिक प्रवृत्ति का था। एक बार गंगासागर में स्नान करने आए कुछ ऋषियों के मुख से उसने श्रीहरि के चरणों की महिमा सुनी। जिसे सुन कर कछुए के मन में श्रीहरि विष्णु के चरणों के दर्शन की लालसा जागृत हो गई। ऋषियों के सुझाव पर कछुए ने पूरी निष्ठा से विष्णु की आराधना शुरू कर दी। जब बहुत दिन बीत गए और उसकी आराधना का कोई परिणाम दृष्टिगोचर नहीं हुआ तो ऋषियों के पुनरागमन पर ऋषियों के ही सुझाव पर वह श्रीहरि के धाम क्षीरसागर के लिए चल पड़ा जहां विष्णु शेषनाग की शय्या पर विराजित थे। मार्ग में अनेक बाधाएं सहता कछुआ अंततः क्षीरसागर पहुंच ही गया। किन्तु वहां शेषनाग की शैया पर निद्रावस्था में स्थित विष्णु के चरण लक्ष्मी दबा रही थीं। अतः शेषनाग और लक्ष्मी ने कछुए को दूर भगा दिया और जिसके कारण, विष्णु के चरण-स्पर्श के प्रयास में कछुए को सफलता नहीं मिल पाई। वह बहुत निराश हो गया। तथापि उसकी वर्षों की आराधना, उसकी क्षीरसागर की कठिन यात्रा को विफल होता देख विष्णु मन ही मन मुस्कुराए और उन्होंने अपने राम अवतार में कछुए को केवट के रूप में जन्म लेने का वरदान दे दिया। त्रेतायुग में विष्णु ने जब राम का अवतार लिया तो शेषनाग अवतार लक्ष्मण और  लक्ष्मी अवतार सीता के समक्ष ही केवट ने राम रूपी विष्णु के चरण-स्पर्श के साथ ही चरण धोने, पखारने की लालसा पूर्ण कर ली।

   बचपन में पढ़ा था श्रीनाथ सिंह का एक बालगीत… शायद आपने भी पढ़ा हो...
फूलों से नित हँसना सीखो, 
भौंरों से नित गाना। 
तरु की झुकी डालियों से ,
नित सीखो शीश झुकाना ।

    खिले हुए फूल की तरह हंसते हुए जीवन निर्वाह करना सचमुच बहुत बड़ी चुनौती है जिसे हमें स्वीकारना होगा। जीवन में समस्याओं का तो कोई अंत नहीं है। कुछ न कुछ परेशानियां सभी के साथ लगी रहती हैं। लेकिन यदि हम इन परेशानियों से, समस्याओं से घिरे रहने के बावज़ूद हंसने-हंसाने के तनिक-से भी अवसर निकाल लें तो ज़िन्दगी आसान हो जाएगी। एकरसता वाली दिनचर्या में ऐसे अल्पविराम ज़िन्दगी की समस्याओं से दो-चार होने के लिए हमें नई ऊर्जा देते हैं।
 
और अंत में प्रस्तुत हैं मेरे कुछ दोहे -

बेशक इतना जान लें, क्षणभंगुर संसार ।
हंसी-ख़ुशी से ही मने,सांसों का त्यौहार ।।

रोना-धोना रोज़ है, दुख हैं कई हज़ार ।
हंसने का अवसर मिले, सहज करें स्वीकार ।।

छोटी-छोटी सी ख़ुशी, मिल कर बने अपार ।
ज्यों बूंदें मिल कर बने "वर्षा" की बौछार ।।

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