Wednesday, August 26, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 13 | अनेकता, एकता और हम | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज पढ़िए "अनेकता, एकता और हम" और अपने विचारों से अवगत कराएं ...और शेयर करें 🙏
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 26.08.2020
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बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

             अनेकता, एकता और हम
           
                      - डॉ. वर्षा सिंह

      हमारा देश अनेकता में एकता का परिचायक है। भले ही यहां अनेक जातियां, अनेक धर्म, अनेक भाषाएं, विभिन्न संस्कृतियां, अनेक आर्थिक - सामाजिक विषमताएं हैं किन्तु आपदा के समय सदैव सभी देशवासी एकसूत्र में बंध कर इस प्रकार राष्ट्र की एकता व अखंडता को अक्षुण्ण रखने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं, मानो रंगबिरंगे धागों से बुना गया वस्त्र सुदृढ़ आवरण बन कर हर परिस्थिति का मुक़ाबला करने को तत्पर हों।
      मैंने प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करते समय एक कथा पढ़ी थी। कभी न कभी यह कथा आप सभी ने पढ़ी होगी। किसी गांव में एक किसान था। उसके चार बेटे थे। वे सभी बहुत मेहनती और ईमानदार थे। लेकिन किसी न किसी बात पर वे आपस में झगड़ने लगते थे। समझाने पर भी वे किसी बात पर आपस में सहमत नहीं होते थे। यह सब देख किसान को बहुत दुख होता था। 
      एक बार किसान बीमार पड़ गया। बीमारी में उसे यह चिन्ता सताने लगी कि यदि उसे कुछ हो गया तो उसके बाद उसके इन चारों झगड़ालू बेटों का क्या होगा। अचानक उसे एक तरक़ीब सूझी। उसने बहुत सी लकड़ियां इकट्ठी करवाईं और उनका एक गट्ठर बनवाया। फिर किसान ने अपने चारों बेटों को बुलवाया और उन्हें बारी-बारी से वह गट्ठर तोड़ने को दिया। अपनी पूरी ताक़त लगाने के बावज़ूद कोई भी उसे नहीं तोड़ पाया। तब किसान ने उस गट्ठर को खुलवा दिया और सबको एक-एक लकड़ी उठा कर अलग-अलग तोड़ने को कहा। एक-एक लकड़ी अलग-अलग तोड़ना बहुत आसान था। देखते ही देखते सबने तत्काल गट्ठर की सारी लकड़ियां अलग-अलग उठा कर तोड़ दीं। तब किसान ने सब को समझाया कि जिस प्रकार एक रस्सी में बंधी सारी लकड़ियों को तोड़ पाना मुश्किल है, उसी प्रकार यदि आपस में लड़ना-झगड़ना छोड़ कर, तुम सब मिल-जुल कर रहोगे तो तुम्हें कोई हानि नहीं पहुंचा पाएगा और तुम लोग हर मुसीबत का सामना चुटकियों में कर लोगे। अलग-अलग रहना ठीक नहीं होता है। 
       यह सारी बात किसान के चारों बेटों को अच्छी तरह से समझ में आ गई और फिर सब मिल-जुल कर रहने लगे। किसान की चिन्ता दूर हुई और वह भी स्वस्थ-प्रसन्न रहने लगा। इस कथा का सार यह है कि एकता में बहुत बल होता है। 
     वस्तुतः किसी मुद्दे पर एक होने की अवस्था या भाव को ही एकता कहते हैं और उद्देश्य, विचार आदि में सभी लोगों का मिलकर एक होना ही एकता है। एक हो कर रहना अर्थात् संगठित हो कर रहना। संगठन ही सभी शक्तियों का मूल है। एकता के बिना किसी भी राष्ट्र की उन्नति सम्भव नहीं है। एकता की शक्ति का कोई मुक़ाबला नहीं है। मेरे एक सम्माननीय मित्र हैं अरविंद जैन 'रवि' जो व्यवसाय से अधिवक्ता हैं, समाजसेवी हैं और पठन-पाठन में गहन रुचि रखते हैं। उन्होंने व्हाट्सएप पर एक रोचक लघुकथा शेयर की । वह लघुकथा कुछ इस प्रकार है -
       एक बार हाथ की चारों उंगलियों और अंगूठे में आपस में झगड़ा हो गया। वे पांचों खुद को एक दूसरे से बड़ा सिद्ध करने की कोशिश में लगे थे। अंगूठे ने कहा कि मैं सबसे बड़ा हूं, उसके पास वाली उंगली ने कहा कि मैं सबसे बड़ी हूं। इसी तरह सभी उंगलियां स्वयं को एक दूसरे से बड़ा सिद्ध करने में लगी थीं। जब आपस में निर्णय नहीं हो पाया तो वे सभी अदालत पहुंचे।
       न्यायाधीश ने सारा वाक़या सुना और उन पांचों से कहा कि आप लोगों को यह सिद्ध करना होगा कि आप सभी किस तरह एक-दूसरे से बड़े हैं। तब अंगूठे ने कहा कि मैं सबसे ज़्यादा पढ़ा लिखा हूँ क्योंकि लोग हस्ताक्षर के स्थान पर अंगूठा-निशानी (थंबप्रिंट) के रूप में मेरा ही इस्तेमाल करते हैं। तब पास वाली उंगली बोली कि मैं तर्जनी हूं। लोग मुझे किसी इंसान की पहचान के तौर पर इस्तेमाल करते हैं और लोगों को नियंत्रित करने के लिए मेरा एक इशारा ही काफी होता है। उसके बाद वाली उंगली ने कहा कि अरे, मुझे इंच-टेप से नाप लीजिए। लम्बाई में तो मैं मध्यमा ही सबसे बड़ी हूं। उस लम्बी उंगली के बाद वाली उंगली बोल उठी कि मैं अनामिका, मैं सबसे ज़्यादा अमीर हूं क्योंकि लोग हीरे-जवाहरात, रत्न-स्वर्ण आदि की अंगूठी मुझमें ही पहनते हैं। छोटी उंगली कहलाने वाली उंगली ने कहा कि मेरा नाम कनिष्ठा है, मैं छोटी ज़रूर है, लेकिन बड़प्पन में मैं किसी से कम नहीं हूं। मेरे प्रयोग के बिना बांसुरी के सारे स्वर नहीं बज सकते हैं। इस तरह सभी ने स्वयं को बड़ा सिद्ध करने का प्रयास किया।
     न्यायाधीश ने सबकी दलीलें सुन कर एक लड्डू मंगाया और अंगूठे से कहा कि इसे उठाओ, अंगूठे ने भरपूर ज़ोर लगाया लेकिन लड्डू को नहीं उठा पाया। इसके बाद सारी उंगलियों ने एक -एक करके कोशिश की लेकिन सभी विफल रहे। अंत में न्यायाधीश ने सबको मिलकर लड्डू उठाने का आदेश दिया तो झट से सबने मिलकर लड्डू उठा लिया। फ़ैसला हो चुका था, न्यायाधीश ने फ़ैसला सुनाया कि तुम सभी एक दूसरे के बिना अधूरे हो और अकेले रहकर तुम्हारी शक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है, जबकि संगठित रहकर तुम कठिन से कठिन काम आसानी से सम्पादित कर सकते हो। संगठन अर्थात् एक-दूसरे से सहयोग करने और एकता बनाए रखने में बहुत शक्ति होती है। 
     वर्तमान समय में इस कोरोनाकाल में हम सभी इस बात का प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे हैं कि एकता बनाए रखने अथवा संगठित होने के लिए शारीरिक समीपता ही महत्वपूर्ण नहीं होती बल्कि उसमें भावात्मक, मानसिक, बौद्धिक और वैचारिक निकटता की समानता आवश्यक है। सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए भी एकता बनाए रखी जा सकती है। हम कठिन से कठिन हर परिस्थिति का मुक़ाबला एकजुटता से कर सकते हैं।

और अंत में मेरी काव्यपंक्तियां प्रस्तुत है - 

    अनेकता  में  एकता  ही हमारी  शक्ति  है,
    देशभक्ति की डगर, अलग नहीं रही कभी।
    जहां पे ”वर्षा” हो रही है, गोलियों की इन दिनों
    वहां पे अम्नो-चैन की, बजेगी बांसुरी कभी।
                ---------------
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Wednesday, August 19, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 12 | अनुभव का आकलन | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज पढ़िए "अनुभव का आकलन" और अपने विचारों से अवगत कराएं ...और शेयर करें 🙏
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दिनांक 19.08.2020

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बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा
           अनुभव का आकलन
                      - डॉ. वर्षा सिंह

           अक्सर हम यह कहते, सुनते हैं कि फलां अनुभवी है, फलां नहीं है, अनुभवहीन है। तो यह अनुभव क्या है ? प्रत्यक्षज्ञान को ही अनुभव कहते हैं और अनुभव वह जानकारी है जो किसी कार्य को करने पर हमारे मस्तिष्क में स्वयंमेव एकत्रित हो जाती है और जब हम पुनः वही कार्य करते हैं तो वह अनुभव उस को करते समय हमारा मार्गदर्शन करती है। अच्छे कार्यों के अनुभव जीवन की प्रगति एवं समाजोत्थान का कार्य करते हैं जबकि बुरे कार्यों के अनुभव हमें  बुराई तथा बुरे व्यक्तियों से बचाने का कार्य करते हैं । जीवन की अनेक समस्याओं का समाधान हम अपने अनुभव के आधार पर ही प्राप्त कर पाते हैं। यह अनुभव हमारे अपने हों या दूसरों के हमेशा हमें शिक्षित करने का कार्य करते हैं। अब यह और बात है कि हम अपने अथवा पराए अनुभवों से कितनी शिक्षा ग्रहण कर पाते हैं।
      ज़रूरी है अनुभव का आकलन किया जाना। हम जानते हैं कि जब एक नन्हा बच्चा आग को छूने की चेष्टा करता है तो उसका हाथ जल जाता है और वह इस प्रत्यक्ष ज्ञान से यह अनुभव प्राप्त कर लेता है कि आग को छूना गलत है इसे छूने से हाथ जल जाता है वह आग से डरने लगता है । अब यह जरूरी है कि वह अपने इस अनुभव का आकलन करें कि यह आग उसे कितनी दूरी से नुकसान पहुंचा सकती है अथवा उसे आग से कितनी दूर रहना चाहिए कि वह उसे जला न सके उसे हानि न पहुंचा सके। नन्हें बच्चे में इस तरह के आकलन की क्षमता नहीं होती, यह क्षमता धीरे-धीरे विकसित होती है। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है वह अपने अनुभव से जानने लगता है कि उसे किस चीज़ से दूरी बना कर रखना चाहिए और किस चीज के करीब जाना चाहिए, कौन-सी वस्तु अथवा कौन-सा कार्य उसे हानि पहुंचा सकता है या कौन सा कार्य उसके लिए उपयोगी हो सकता है। जैसे-जैसे आयु बढ़ती जाती है वैसे वैसे अनुभवों का दायरा भी पढ़ता जाता है और उन अनुभवों के प्रति आकलन क्षमता का भी विकास होता जाता है।
       एक तरह से देखा जाए तो जीवन की वास्तविक समझ अनुभव से पैदा होती है। हम अपनी क्षमताओं का समुचित आकलन और नियोजन अनुभव द्वारा ही कर सकते हैं। अनुभव के बिना न तो हम अपना जीवन सुगमतापूर्वक जी सकते हैं और न ही अपनी सम्पूर्ण क्षमताओं की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। हमारी क्षमताएं हमारे भीतर सुप्त रूप में पड़ी रहती हैं। इन्हें तभी जाग्रत कर निर्दिष्ट कार्य में नियोजित किया जा सकता है, जब हम अपने अनुभवों का सही- सही आकलन करें। 
       इस संदर्भ में मैं यहां चर्चा करना चाहूंगी  घाघ और भड्डरी की, जिनकी कहावतें उनके स्वयं के अनुभवों के सही आकलन का निचोड़ हैं। उन्होंने अपने प्रत्यक्षज्ञान से जो अनुभव अर्जित किए उनका सही आकलन करने में वे एक तरह के विशेषज्ञ साबित हुए। आज भी घाघ और भड्डरी के अनुभवों के सही आकलन से उपजी कहावतों के आधार पर ग्राम्य-अंचल में खेती एवं सामाजिक समस्याओं का निदान किया जाता है।
घाघ तथा भड्डरी द्वारा लगभग 400 वर्षों पूर्व दिया गया वैयक्तिक अनुभव के सही आकलनजन्य यह मौसम ज्ञान तथा शुभाशुभ विचार आज भी प्रासंगिक है।
      घाघ में बचपन से ही अनुभवों का सही आकलन करने की क्षमता विकसित हो गई थी। वे कृषि विषयक समस्याओं के निदान में अत्यंत दक्ष थे और दूर-दूर से लोग उनके पास अनेक समस्याओं के समाधान के लिए आया करते थे। घाघ के संबंध में यह कथा बहुत प्रचलित है कि एक बार बचपन में घाघ अपने हमउम्र बच्चों के साथ खेल रहे थे। तब घाघ की विकसित आकलन क्षमताओं के बारे में सुन कर एक ऐसा व्यक्ति उनके पास आया जिसके पास कृषि कार्य के‍ लिए पर्याप्त भूमि थी, किंतु उपज उसमें इतनी कम होती थी कि उसका परिवार भोजन के लिए दूसरों पर निर्भर रहता था। उस व्यक्ति की समस्या सुनकर घाघ तुरंत बोल उठे- 
     आधा खेत बटैया देके, ऊंची दीह किआरी।
     जो तोर लइका भूखे मरिहें, घघवे दीह गारी।।
      अर्थात् तुम अपने आधे खेत को अपने पड़ोसी को बटिया पर दे दो और अपने पास वाले हिस्से की मेंढ़ ऊंची करवा लो फिर भी यदि तुम्हारे बच्चे भूख से व्याकुल हों तो तुम मुझ घाघ को जितनी चाहो उतनी गालियां देना।
      दरअसल घाघ समझ गए थे कि उस व्यक्ति की पड़ोस में रहने वाला व्यक्ति ही उनके खेत से उनकी बोली हुई फसल में से चोरी कर लेता है जिसके कारण उस व्यक्ति के बच्चों को अच्छी उपज होने के बावजूद भूखे मरने की नौबत आ जाती है और इसीलिए घाघ ने उस व्यक्ति को यह सलाह दी कि वह अपना आधा खेत पड़ोसी को बटिया में दे दे और अपने हिस्से वाले खेत की मेड ऊंची करवा ले उनकी यह सलाह उनके अपने अनुभवों के आकलन से उपजी थी और इसीलिए वह सलाह कारगर सिद्ध हुई।
      इसी तरह घाघ की यह कहावत भी उनके अपने अनुभवों के सही आकलन से जन्मीं है- 

चैते गुड़ बैसाखे तेल, जेठे पन्थ असाढ़े बेल।
सावन सतुआ भादों दही, क्वार करेला कातिक मही।।
अगहन जीरा पूसे धना, माघे मिश्री फागुन चना।
इन बारह जो देय बचाय, ता घर बैद कबौं न जाय।।
     अर्थात् घाघ कहते हैं, चैत्र मास में गुड़, वैशाख में तेल, जेष्ठ मास  में यात्रा, आषाढ़ में बेल, श्रावण में सत्तू, भाद्रपद में दही, क्वांर अथवा अश्विन में करेला, कार्तिक में मट्ठा, अग्रहायण अथवा मार्गशीर्ष मास में जीरा, पौष  में धनियां, माघ में मिश्री, फागुन में चने खाना हानिप्रद होता है। यदि उपरोक्तानुसार इन वस्तुओं का सेवन करने से जो व्यक्ति बच कर रहेगा तो उसे वैद्य की कभी आवश्यकता नहीं पड़ेगी।

पहिले जागै पहिले सौवे। 
जो वह सोचे वही होवै।
    अर्थात् घाघ कहते हैं कि रात्रि में जल्दी सोने और प्रातःकाल जल्दी उठने से बुध्दि तीव्र होती है। अर्थात् विचार शक्ति बढ़ जाती हैै।

प्रातःकाल खटिया से उठि के पिये तुरन्ते पानी।
वाके घर मा वैद ना आवे बात घाघ के  जानी।।
    अर्थात् घाघ कहते हैं कि यदि प्रातः काल बिस्तर से उठते ही पानी पिया जाए तो व्यक्ति का स्वास्थ्य ठीक रहता है और उसे डाक्टर के पास जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
     घाघ की मौसम संबंधी ये कहावतें भी बहुप्रचलित हैं। ये कहावतें कृषि कार्यों में मार्गदर्शक का कार्य करती हैं -
     उत्तर चमकै बीजली, पूरब बहै जु बाव।
     घाघ कहै सुनु घाघिनी, बरधा भीतर लाव।।
     अर्थात् यदि उत्तर दिशा में बिजली चमकती हो और पुरवा हवा बह रही हो तो घाघ अपनी स्त्री से कहते हैं कि बैलों को घर के अंदर बांध लो, वर्षा शीघ्र होने वाली है।

सावन केरे प्रथम दिन, उवत न ‍दीखै भान।
चार महीना बरसै पानी, याको है परमान।।
     अर्थात् यदि सावन के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को आसमान में बादल छाए रहें और प्रात:काल सूर्य के दर्शन न हों तो निश्चय ही 4 महीने तक जोरदार वर्षा होगी।

आदि न बरसे अद्रा, हस्त न बरसे निदान।
कहै घाघ सुनु घाघिनी, भये किसान-पिसान।।
      अर्थात् आर्द्रा नक्षत्र के आरंभ और हस्त नक्षत्र के अंत में वर्षा न हुई तो घाघ कवि अपनी स्त्री को संबोधित करते हुए कहते हैं कि ऐसी दशा में किसान पिस जाता है अर्थात बर्बाद हो जाता है।

चमके पच्छिम उत्तर कोर। 
तब जान्यो पानी है जोर।।
     अर्थात् जब पश्चिम और उत्तर के कोने पर बिजली चमके, तब समझ लेना चाहिए कि वर्षा तेज होने वाली है।

चैत मास दसमी खड़ा, जो कहुं कोरा जाइ।
चौमासे भर बादला, भली भां‍ति बरसाइ।।
     अर्थात् चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की दशमी को यदि आसमान में बादल नहीं है तो यह मान लेना चाहिए कि इस वर्ष चौमासे में बरसात अच्छी होगी।

जब बरखा चित्रा में होय। 
सगरी खेती जावै खोय।।
      अर्थात् यदि चित्रा नक्षत्र में वर्षा होती है तो संपूर्ण खेती नष्ट हो जाती है। इसलिए कहा जाता है कि चित्रा नक्षत्र की वर्षा ठीक नहीं होती।

उलटे गिरगिट ऊंचे चढ़ै। 
बरखा होई भूइं जल बुड़ै।।
    अर्थात् यदि गिरगिट उलटा पेड़ पर चढ़े तो वर्षा इतनी अधिक होगी कि धरती पर जल ही जल दिखेगा।

करिया बादर जीउ डरवावै। 
भूरा बादर नाचत मयूर पानी लावै।।
       अर्थात् आसमान में यदि घनघोर काले बादल छाए हैं तो तेज वर्षा का भय उत्पन्न होगा, लेकिन पानी बरसने के आसार नहीं होंगे। परंतु यदि बादल भूरे हैं व मोर थिरक उठे तो समझो पानी ‍निश्चित रूप से बरसेगा।

माघ में बादर लाल घिरै। 
तब जान्यो सांचो पथरा परै।।
      अर्थात् यदि माघ के महीने में लाल रंग के बादल दिखाई पड़ें तो ओले अवश्य गिरेंगे। तात्पर्य यह है कि यदि माघ के महीने में आसमान में लाल रंग दिखाई दे तो ओले गिरने के लक्षण हैं।

रोहनी बरसे मृग तपे, कुछ दिन आर्द्रा जाय।
कहे घाघ सुनु घाघिनी, स्वान भात नहिं खाय।।
    अर्थात् घाघ कहते हैं कि हे घाघिन! यदि रोहिणी नक्षत्र में पानी बरसे और मृगशिरा तपे और आर्द्रा के भी कुछ दिन बीत जाने पर वर्षा हो तो पैदावार इतनी अच्‍छी होगी कि कुत्ते भी भात खाते-खाते ऊब जाएंगे और भात नहीं खाएंगे।

   घाघ की भांति भड्डरी भी अपने अनुभवों का सही आकलन कर अपनी दूरदृष्टि को विकसित कर पाए। भड्डरी की मौसम के अनुमान से संबंधित अनेक कहावतें आज भी हम इस प्रकार खरी उतरते हुए देखते हैं, मानों ये कहावतें मात्र नहीं, बल्कि कोई भविष्यवाणी हों। 
     यहां भड्डरी की कुछ कहावतें प्रस्तुत हैं।

अखै तीज रोहिनी न होई। पौष, अमावस मूल न जोई।।
राखी स्रवणो हीन विचारो। कातिक पूनों कृतिका टारो।।
महि-माहीं खल बलहिं प्रकासै। कहत भड्डरी सालि बिनासै।।
       अर्थात् भड्डरी कहते हैं कि वैशाख अक्षय तृतीया को यदि रोहिणी नक्षत्र न पड़े, पौष की अमावस्या को यदि मूल नक्षत्र न पड़े, सावन की पूर्णमासी को यदि श्रवण नक्षत्र न पड़े, कार्तिक की पूर्णमासी को यदि कृत्तिका नक्षत्र न पड़े तो समझ लेना चाहिए कि धरती पर दुष्टों का बल बढ़ेगा और धान की उपज नष्ट होगी।

शुक्रवार छाए बादरी, रहे शनीचर छाय ।
ऐसा बोले भड्डरी बिन बरसे न जाय ।।
   अर्थात् भड्डरी कहते हैं कि यदि शुक्रवार के दिन आसमान में बादल छाए रहे और शनिवार को भी बादलों के छाए रहने के कारण छाया बनी रहे रविवार को निश्चित रूप से वर्षा होगी।

पांच सनीचर पांच रवि, पांच मंगर जो होय।
छत्र टूट धरनी परै, अन्न महंगो होय।। 
  अर्थात् भड्डरी कहते हैं कि यदि एक महीने में 5 शनिवार, 5 रविवार और 5 मंगलवार पड़ें तो महा अशुभ होता है। यदि ऐसा होता है तो या तो राजा का नाश होगा या अन्न महंगा होगा। 
 
सोम सुकर सुरगुरु दिवस, पूस अमावस होय।
घर-घर बजी बधाबड़ा, दु:खी न दीखै कोय।।
     अर्थात पूस की अमावस्या को यदि सोमवार, बृहस्पतिवार या शुक्रवार पड़े तो शुभ होता है और हर जगह बधाई बजेगी तथा कोई भी आदमी दु:खी नहीं रहेगा।

आषाढ़ी पूनौ दिना, गाज बीज बरसंत ।
ऐसो बोले भड्डरी, आनंद मानो संत ।।
   अर्थात् भड्डरी कहते हैं यदि आषाढ़ की पूर्णिमा को खूब बादल घिरें, गरज-चमके के साथ बारिश हो तो बरसात के चारों माहों में अच्छी बारिश होगी।

उतरे जेठ जो बोले दादूर।
कहै भड्डरी बरसे बादर।।
     अर्थात् भड्डरी कहते हैं यदि ज्येष्ठ माह के अंतिम दिनों में मेंढक बोलते हैं, तो वर्षा अवश्य होती है।
   यहां इस चर्चा का उद्देश्य यह है कि यदि हम भी अपने अनुभवों का सही आकलन करने की अपनी क्षमता को विकसित करें तो हम भी अनेक पूर्वानुमान लगा सकते हैं, अपने जीवन की अनेक समस्याओं का समाधान खोज सकते हैं और सिर्फ अपने ही नहीं बल्कि पूरे समाज के हित में कार्य कर समस्याग्रस्त लोगों को सही मार्गदर्शन दे सकते हैं।
    ….और अंत में मेरी यह काव्य पंक्तियां -

क्या ग़लत है क्या सही? पहचानना बेहद ज़रूरी।
अनुभवों के आकलन से सीखना बेहद ज़रूरी।
है ज़रूरी ज़िन्दगी बेहतर बनाना हर क़दम,
वक़्त की रफ्तार "वर्षा" जानना बेहद ज़रूरी।

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Wednesday, August 12, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 11| नैसर्गिक बालपन के प्रतीक हैं बाल कृष्ण | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों, 🚩 जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं 🚩 "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज पढ़िए "नैसर्गिक बालपन के प्रतीक हैं बाल कृष्ण" और अपने विचारों से अवगत कराएं ...और शेयर करें 🙏
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दिनांक 12.08.2020

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बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

नैसर्गिक बालपन के प्रतीक हैं बाल कृष्ण
                     - डॉ. वर्षा सिंह
      
     श्रीकृष्ण की जन्मकथा से हम सभी भलीभांति परिचित हैं। लगभग साढ़े पांच हज़ार वर्ष पूर्व भाद्रपद यानी भादों मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को घोर अंधियारी आधी रात में मूसलाधार बरसात हो रही थी। कृष्ण के जन्मदाता वसुदेव और देवकी को अत्याचारी कंस ने जिस कारागार में बंद किया था, माया के प्रभाव से उस जेल के सभी प्रहरी अचानक सो गए और द्वार अपने आप खुल गए। वसुदेव बाल कृष्ण को सूप में रख उफनती यमुना को पार कर गोकुल पहुंचे, जहां नंद और यशोदा के घर बालक कृष्ण का लालन-पालन हुआ। शताब्दियों से प्रत्येक वर्ष भादों की यह रात्रि जन्माष्टमी, कृष्ण जन्माष्टमी, गोकुलाष्टमी, सातें-आठें आदि नामों से पूरे भारत ही नहीं बल्कि विश्व के उन स्थानों पर जहां श्री कृष्ण के अनुयायी हैं, त्यौहार के रूप में उल्लास पूर्वक व्रत-पूजन किया जाता है। जगह-जगह दही हांडी, मटकी फोड़ आयोजन बड़ी धूमधाम और श्रद्धापूर्वक आयोजित किए जाते हैं। तरह-तरह के गीत गाए जाते हैं। एक बहुप्रचलित गीत मुझे याद आ रहा है - 
मैं मधुबन जाऊँ, मेरो रोवे कन्हैया।
दूध नहीं पीवे, मलाई नहीं खावे, 
माखन मिसरी को बनो रे खवइया॥ मैं मधुबन --
टोपी नहीं पहने, न गमछा ही बाँधे,
मोर मुकुट को बनो रे बँधइया॥ मैं मधुबन --
शाल नहीं ओढ़े, दुशाला भी न ओढ़े,
काली कमलिया को बनो रे उढ़इया॥ मैं मधुबन --
जामा नहीं पहने, न फेंटा ही बाँधे,
पीताम्बर को बनो रे पहरैया॥ मैं मधुबन --
खेल नहीं खेले, खिलौना नहीं लेवे,
बाँस की बन्सी को बनो रे बजइया॥ मैं मधुबन --
ललिता से न बोले, बिसाखा से न बोले,
राधारानी के पीछे, डोले रे नचइया॥ मैं मधुबन --

        इस गीत में बाल कृष्ण की नैसर्गिक लीलाओं का वर्णन है। मुझे स्मरण है मेरा बचपन… मैं और मेरे बाल मित्र, जिसमें पन्ना स्थित हमारी "हिरणबाग़" नामक कॉलोनी में हमारे पड़ोस में रहने वाली लड़कियां और लड़के दोनों थे, इसी तरह अनेक बालहठ किया करते थे। बड़ों की डांट भी खाते थे और फिर समझाइश देने पर मान भी जाते थे। हमारे नाना ठाकुर श्यामचरण सिंह जी अक्सर कहा करते थे कि "अरे, ये सब बाल-गोपाल हैं। खेलने-कूदने दो। पढ़ेंगे- लिखेंगे तो बड़े होने पर इन्हें ख़ुद समझ आ जाएगी।" …. और हुआ भी यही। हम सभी नैसर्गिक वातावरण में बाल्यकाल व्यतीत कर पढ़-लिख कर, बड़े होने पर समझदार हो गए। आज सभी समाज में अपनी एक अलग पहचान बना कर अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरी गम्भीरता से निभा रहे हैं। 
       यहां यह सब कहने का आशय यह है कि क्या वर्तमान समय में बच्चों के प्रति माता-पिता और समाज का वही दृष्टिकोण है जो हमारे बचपन के दिनों में था ? मुझे लगता है कि बिलकुल नहीं। बालकृष्ण का लालनपालन जिस नैसर्गिक वातावरण में हुआ था, वैसा वातावरण अब के बच्चों को उपलब्ध नहीं है। न रूठने का माहौल और न मनाने का किसी के पास समय, न मख्खन-मिश्री और न मोर मुकुट। अब यदि कुछ है तो ढेरों क़िताबें, कम्प्यूटर … और इस कोरोनाकाल में मोबाईल और लेपटॉप भी...। यानी पढ़ाई, पढ़ाई और सिर्फ़ पढ़ाई। फिर परीक्षा परिणाम की मेरिट सूची में पहला स्थान पाने की होड़… और फिर निरंतर दौड़ कैरियर, गाड़ी, बंगला, विदेश यात्रा आदि - आदि के लिए। ऐसा भी नहीं है कि बालसुलभ शरारतों के लिए कृष्ण को माता यशोदा की डांट न पड़ती रही हो।         
       आज के समय में एक ओर हम बाल कृष्ण की लीलाओं को पूर्ण श्रद्धा और धार्मिक भावना के साथ पढ़ते, सुनते और टीवी, फ़िल्मों आदि में देख कर आत्मिक सुख प्राप्त करते हैं। किन्तु वहीं दूसरी ओर बच्चों को माता-पिता परिवार के भविष्य से जोड़कर धन कमाने वाली मशीन के रूप में देखते- व्यवहार करते हैं।  ऐसा नहीं है कि कृष्ण को पढ़ाया-लिखाया नहीं गया। कुशाग्र बुद्धि और सर्वगुणसम्पन्न कृष्ण को भी ऋषि संदीपनी के आश्रम में शिक्षा ग्रहण करने हेतु भेजा गया था। किन्तु दबावरहित नैसर्गिक वातावरण में गुरुकुल में रह कर शिक्षा प्राप्त करने हेतु। गुरुकुल, जहां अनुशासन के साथ ही पारिवारिक वातावरण भी मिलता था। पितातुल्य गुरु और मातातुल्य गुरु माता, ऊंचनीच के भेदभावरहित धनसम्पन्न कृष्ण के अति निर्धन सुदामा सरीखे मित्र। हां, कृष्ण भी अब मात्र धार्मिकता से जोड़ कर पूजे जाते हैं। उनका बालस्वरूप अपने बच्चों में देखना किसी को गंवारा नहीं। 
     मेरी एक रिश्तेदार आजकल जब भी फोन पर मुझसे बात करती हैं तो उनकी बातों का नब्बे प्रतिशत भाग उनके बच्चे की पढ़ाई पर केंद्रित रहता है। इन दिनों स्कूल बंद हैं। स्टडी फ्रॉम होम के कारण उनका बेटा पूरे समय उनकी आंखों के सामने रहता है। लेकिन लाड़-प्यार दूर, निगरानी भरपूर। पढ़ो, पढ़ो और पढ़ो...। अक्सर ऐसे ही दबाव के चलते बच्चे इच्छित परिक्षा परिणाम नहीं दे पाने के कारण आत्महत्या जैसा कठोर क़दम उठाने पर विवश हो जाते हैं। उनका नैसर्गिक  बालपन अनजाने में उनसे छीन लिया जाता है।  प्रत्येक माता-पिता यदि अपनी संतान को कृष्ण जैसा सर्वगुणसम्पन्न बनाने का सपना देखते हैं तो पहले उन्हें यशोदा और नंद की तरह बनना पड़ेगा। नैसर्गिक बालपन के प्रतीक बाल कृष्ण के चरित्र को जन्माष्टमी के दिन ही नहीं बल्कि प्रत्येक दिन स्मरण कर अपने जीवन में सीख लेनी चाहिए।
और अंत में मेरी ये काव्यपंक्तियां -
न कृष्ण सा चपल रहा, नहीं रहा खिलंदड़ा,
दब गया है बालपन तो कैरियर के बोझ में।
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Wednesday, August 5, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 10 | श्रीराम का नाम मात्र एक नाम नहीं | डॉ. वर्षा सिंह


       प्रिय ब्लॉग पाठकों, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज पढ़िए "श्रीराम का नाम मात्र एक नाम नहीं" और अपने विचारों से अवगत कराएं ...और शेयर करें 🙏
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 05.08.2020

मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं-

बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

श्रीराम का नाम मात्र एक नाम नहीं 

                     - डॉ. वर्षा सिंह

     नाम व्यक्ति की पहचान होता है और प्रत्येक नाम का अपना एक महत्व होता है। नाम के संदर्भ में जब बात श्रीराम के नाम की आती है तो वह मात्र एक नाम नहीं है बल्कि समूचा व्यक्तित्व प्रबंधन है…और आज 5 अगस्त 2020 बुधवार को करीब 500 वर्षों के बाद राम जन्मभूमि अयोध्या में भव्य श्रीराम मंदिर के भूमि पूजन के साथ मंदिर की आधारशिला रखी जा रही है और राम मंदिर फिर से बनने जा रहा है, यह भारत के लिए न सिर्फ ऐतिहासिक बल्कि भावनात्मक रूप से सबसे बड़ा दिन है... मैं अपने ये विचार आप सबसे साझा कर रही हूं कि इस एक राम नाम में व्यक्तित्व की वह सारी खूबियां मौजूद हैं जिन्हें समझने और जानने के बाद कोई भी व्यक्ति स्वयं को परिष्कृत कर सकता है और अपने जीवन में सफलताएं अर्जित कर सकता है। अक्सर लोग श्रीराम के नाम को धर्म से जोड़ कर ही देखते हैं किंतु उनका नाम धर्म का पर्याय नहीं अपितु संपूर्ण माननीय विशेषताओं का पर्याय है।

       व्यक्तित्व प्रबंधन के लिए किन विशेषताओं की आवश्यकता होती है हम पहले इस पर गौर करेंगे। सबसे पहली विशेषता होती है आत्मविश्वास की। श्रीराम का नाम आत्मविश्वास पैदा करता है। राम कथा में ही इसका एक सुंदर उदाहरण देखा जा सकता है। जब वानर सेना भारत और लंका के बीच सेतु बनाने का प्रयास कर रही थी तो उनके द्वारा समुद्र में डाले गए सारे के सारे पाषाण डूबते जा रहे थे और सेतु बनने का नाम ही नहीं ले रहा था। सभी चिंतित थे कि सेतु कैसे बनेगा? यदि सेतु नहीं बनेगा तो वानर सेना राम सहित लंका कैसे पहुंच पाएगी और सीता जी को रावण के चंगुल से कैसे मुक्त करा पाएगी ? लेकिन इस चिंता के साथ ही उनके मन में यह विश्वास जगा कि यदि पाषाण पर श्रीराम का नाम लिखकर समुद्र में डाला जाए तो पाषाण डूबेगा  नहीं। 

"रामचरितमानस" का यह सोरठा देखें -

सुनहु भानुकुल केतु, जामवंत कर जोरि कह।

नाथ नाम तव सेतु, नर चढ़ि भव सागर तरहिं॥

     अर्थात् जाम्बवान्‌ ने हाथ जोड़कर कहा- हे सूर्यकुल की कीर्ति को बढ़ाने वाले ध्वजास्वरूप हे नाथ श्री रामजी! सबसे बड़ा सेतु तो स्वयं आपका नाम ही है, जिस पर चढ़कर अर्थात् जिसका आश्रय लेकर मनुष्य संसार रूपी समुद्र से पार हो जाते हैं।

    …. और हुआ भी यही। पाषाण पर श्रीराम का नाम लिखकर जब पत्थरों को समुद्र के पानी में डाला गया तो वह पत्थर तैरने लगे और आपस में इस तरह जुड़ते चले गए कि एक ऐसा सुदृढ़ सेतु बन गया जिस पर से होकर वानर सेना लंका तक जा सकती थी। भले ही यह अतिशयोक्ति प्रतीत हो किंतु इसके पीछे छिपा यथार्थ समझने की आवश्यकता है। यदि मन में विश्वास हो तो कोई भी कार्य असंभव नहीं है । वानर सेना  के मन में श्री राम के प्रति अटूट विश्वास था। यह श्रीराम के  नाम के प्रति विश्वास ही था जिसने उनके भीतर आत्मविश्वास जगा दिया और वे सेतु बनाने में सफल हो सके।

         आत्म प्रबंधन या व्यक्तित्व प्रबंधन के लिए दूसरी विशेषता चाहिए आज्ञाकारिता की। श्रीराम जैसा आज्ञाकारी और कोई व्यक्तित्व अनुकरणीय नहीं है। श्रीराम चाहते तो वे अपने  पिता दशरथ की आज्ञा को ठुकरा कर राजा बने रह सकते थे। सतयुग के बाद अनेक ऐसे उदाहरण सामने आते हैं जब पुत्रों ने अपने पिता की आज्ञा की अवहेलना करते हुए स्वयं को राज सिंहासन पर स्थापित किया। यदि हम मुगल काल में देखें तो पिता और पुत्र के बीच टकराव का वीभत्स रूप दिखाई देता है। आगरा से अजमेर तक नंगे पांव चलकर मन्नतें मांग कर जिस पुत्र को अकबर ने पाया था वही पुत्र सलीम बड़ा होकर अपने पिता के विरुद्ध तलवार खींच कर खड़ा हो जाता है। उसका मकसद सिर्फ राजसत्ता यानी सिंहासन पाना था। इसके आगे देखें तो और भी दुर्भाग्यपूर्ण दृश्य दिखाई देता है जब औरंगजेब अपने पिता शाहजहां को इसलिए कारागार में बंदी बना देता है कि वह स्वयं बादशाह बन सके।  देखा जाए तो वह अपने पिता को उम्र कैद की सजा दे देता है। अब यदि तुलना करके देखें तो सम्मान और प्रतिष्ठा उस व्यक्ति के नाम को मिलती है जिसने अपने पिता की आज्ञा का पालन करते हुए राजसत्ता का मोह त्याग कर 14 वर्ष के वनवास को स्वीकार किया, वहीं जिस पुत्र ने अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह किया अथवा अपने पिता को कारावास में डाल दिया उसे इतिहास में भी लांछन ही मिला। अब अच्छा और श्रेष्ठ व्यक्तित्व किसका माना जाएगा श्रीराम का या पितृहंता पुत्रों का? स्पष्ट है कि श्रीराम का ही व्यक्तित्व श्रेष्ठ कहलाएगा और एक श्रेष्ठ व्यक्तित्व का नाम श्रेष्ठ आत्म निर्माण की प्रेरणा देता है । ऐसे व्यक्तित्व से सीख मिलती है कि कैसे अपने आप को उत्तम बनाया जाए।

        व्यक्तित्व प्रबंधन के लिए तीसरी विशेषता चाहिए सद्भावना की। यदि मन में दूसरों के प्रति कटुता का भाव नहीं है अपितु सद्भावना के विचार हैं तो ऐसा व्यक्ति विशाल व्यक्तित्व का कहलाएगा। यदि श्रीराम के व्यक्तित्व का आकलन किया जाए तो उनमें सद्भावना का सागर लहराता हुआ दिखाई देता है। उनके मन में अपने पिता, अपनी माता कैकई और अपने भाइयों के प्रति कटुता का भाव रंच मात्र नहीं था। उन्होंने भाई भरत को राज सत्ता देना सहर्ष स्वीकार कर लिया था। जिससे भाइयों के मध्य सदैव सद्भाव बना रहा। भरत राजसत्ता का भार ग्रहण करते हुए सिंहासन पर नहीं बैठे क्योंकि उनके सामने श्रीराम के सद्भाव का उदाहरण था। भरत ने भी श्रीराम के पद चिन्हों पर चलते हुए सद्भाव का परिचय दिया तथा श्रीराम की खड़ाऊ को सिंहासन पर रखकर राज्य किया अर्थात वह श्रीराम के प्रतिनिधि बनकर ही शासन संभालते रहे जबकि आगे चलकर द्वापर युग में हम देखें तो पाएंगे कि राजसत्ता के लिए ही भाइयों के बीच रक्त की नदियां बह गई और महाभारत का भयावह युद्ध हुआ। आज भी जमीन-जायदाद को लेकर भाइयों के बीच विवाद चलता रहता है। यह विवाद कभी कोर्ट कचहरी तक जाता है तो कभी-कभी आपसी मारपीट और हत्या तक पहुंच जाता है। यह सद्भावना की कमी के कारण होता है। यदि श्रीराम के चरित्र का अनुकरण किया जाए तो 14 वर्ष के वनवास के बाद भी राज्य शासन प्रतीक्षारत मिलता है यह बात गंभीरता से विचार करने योग्य है। सद्भावना का गुण व्यक्तित्व को उच्चता और श्रेष्ठता प्रदान करता है। अतः जब हम अपने व्यक्तित्व के प्रबंधन पर विचार करते हैं तो हमें श्रीराम के व्यक्तित्व का स्मरण करना चाहिए किसी धर्म विशेष से छोड़कर नहीं बल्कि एक श्रेष्ठतम व्यक्तित्व के रूप में, जिसने युगों-युगों तक अपने व्यक्तित्व से सभी को प्रभावित किया।

      आज के उपभोक्तावादी युग में व्यक्ति स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरे को सबसे छोटा सिद्ध करने पर तुला रहता है, भले ही ऐसा करते हुए वह स्वयं छोटा साबित हो जाता है। जबकि देखा जाए तो इस दुनिया में न कोई बड़ा होता है और न कोई छोटा। प्रत्येक मनुष्य की अपनी अहमियत होती है। कुर्सी पर अधिकारी के रूप में बैठने वाला व्यक्ति अथवा बड़े से बड़े पद पर आसीन व्यक्ति ही बड़ा नहीं होता है वरन् बड़ा तो वह भी होता है जो छोटा काम करता प्रतीत होता है। जबकि वस्तुतः कोई काम छोटा नहीं होता है। यदि मोची जूता न बनाएं अथवा न सुधारे तो नंगे पांव घूमने की नौबत आ जाएगी। इसी प्रकार यदि कुंभकार घड़े न बनाएं, दीया न बनाएं, तो न ठंडा पानी मिलेगा और न पूजा के लिए माटी के पवित्र दीपक मिलेंगे। छोटे बड़े का भेदभाव करना ही मूर्खता है। इस तरह की मूर्खता व्यक्तित्व को छोटा बना देती है, वहीं सभी व्यक्तियों को समान समझना और उनके गुणों का सम्मान करना व्यक्तित्व को विराटता प्रदान करता है, जैसा कि हम श्री राम के व्यक्तित्व में देख सकते हैं। उन्होंने न शबरी को छोटा समझा और न वानरों को।

कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। 

मानउँ एक भगति कर नाता।।

अर्थात् श्रीराम ने शबरी से कहा- हे भामिनि! मेरी बात सुन! मैं तो केवल एक भक्ति का ही संबंध मानता हूँ॥

      राम ने उन सभी के प्रेम और गुण को स्वीकार किया और उन्हें भी श्रेष्ठता का अनुभव होने दिया। यही तो व्यक्तित्व की श्रेष्ठता है। श्रीराम के व्यक्तित्व से इस गुण को भी आत्मसात करने की आवश्यकता है यदि हम अपने व्यक्तित्व को श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं।

          श्रीराम एक वैश्विक चरित्र हैं। उन्होंने राज्य विस्तार के लिए कभी दूसरे देश पर आक्रमण नहीं किया, लेकिन जब सीता जी का अपहरण कर लिया गया तो उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि वे अन्याय के विरुद्ध खड़े हो सकते हैं और अन्यायी को दंडित कर सकते हैं। वे मात्र दो भाई थे राम और लक्ष्मण जिन्होंने रावण की विशाल सेना का सामना करने का निश्चय किया और लंका पहुंचकर सीता जी को मुक्त करा लाने का निश्चय किया। जब कोई व्यक्ति अच्छे कार्य के लिए दृढ़ निश्चय से मैदान में उतरता है तो उसे समर्थक अपने आप मिल जाते हैं जैसे कि श्रीराम को संपूर्ण वानर सेना, भाल्लुक सेना और  यहां तक कि गिद्ध पक्षी से भी सहायता और समर्थन प्राप्त हुआ । यह आत्मविश्वास सभी को समान मानने का गुण ही था जिसने श्री राम को ऐसे विपरीत युद्ध में विजयश्री दिलवाई। आज जीवन में अनेक विपरीत परिस्थितियां पाई जाती हैं। बेरोजगारी सबसे बड़े विपरीत परिस्थिति है जिससे युवा अक्सर घबरा जाते हैं और निराशा में डूब जाते हैं, ऐसे युवाओं को श्रीराम के व्यक्तित्व से प्रेरणा लेनी चाहिए कि परिस्थितियां कितनी भी विपरीत क्यों न हो अगर सच्चे मन से सिर्फ निश्चय के साथ डटे रहा जाए तो सफलता एक न एक दिन अवश्य मिलती है।

          तात्पर्य यह है कि श्रीराम का नाम मात्र एक नाम नहीं है जिसे भजन के रूप में गा कर, सुबह-शाम स्मरण कर अपने व्यक्तित्व को विकसित मान लिया जाए। यदि व्यक्तित्व को समुचित विकास करना है, वर्तमान जीवन में सफलताएं प्राप्त करनी हैं तो श्रीराम के व्यक्तित्व के गुणों को आत्मसात करके स्वयं के व्यक्तित्व प्रबंधन को निखारना चाहिए।

और अंत में मेरा यह दोहा -

राम नाम के मर्म को, यदि समझें हम-आप।

बैर, क्लेष, कुण्ठा मिटे, मिटे सकल संताप ।।

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