Wednesday, October 28, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 22 | मंदोदरी और सत्य की पक्षधारिता | डॉ. वर्षा सिंह

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दिनांक 28.10.2020

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बुधवारीय स्तम्भ: विचार वर्षा   

     मंदोदरी और सत्य की पक्षधारिता
                     -डॉ. वर्षा सिंह

       पिछले दिनों ही आश्विन अथवा क्वांर की नवरात्रि के भक्ति काल का समापन हुआ है। नवरात्रि में नौ दिनों तक आदि शक्ति देवी माता दुर्गा के नौ रूपों की उपासना के बाद दसवीं तिथि दशहरा पर्व अथवा विजयादशमी पर्व के रूप में मनाई जाती है। विजयादशमी अर्थात असत्य पर सत्य की विजय का पर्व। राम सत्य के प्रतीक हैं और रावण असत्य का प्रतीक। ऐसा नहीं है कि रावण विद्वान नहीं था वरन् वह ज्ञानी और अनेक विद्याओं में पारंगत था। युद्ध कला, राजनीति के साथ ही काव्यसृजन में उसका कोई सानी नहीं। शिव की भक्ति में लीन होकर रावण ने शिव तांडव स्तुति की रचना की है जो शताब्दियों बाद आज भी श्रेष्ठ काव्य रचना के रूप में मानी जाती है। राम को रावण से शत्रुता नहीं थी।राम ने रावण से युद्ध भी बिना किसी बैरभाव के किया। यदि रावण सीता का हरण नहीं करता तो राम उससे युद्ध भी नहीं करते। अथवा यदि रावण अंगद, हनुमान, विभीषण एवं मंदोदरी की बात मान लेता तो राम से उसका युद्ध नहीं होता और उसे अपने पुत्र, भाई, परिजन सहित स्वयं के प्राण नहीं गंवाने पड़ते। रावण अपना शत्रु स्वयं था। काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह - इन पांचों अवगुणों से वह स्वयं को मुक्त नहीं रख पाया। उसके पांडित्य और ज्ञान पर यह पांचों अवगुण भारी पड़े और अहंकार के वशीभूत होकर वह यह भी भूल गया कि सीता का अपहरण करना उसकी सोने की लंका को जला कर राख कर सकता है उसकी विद्वत्ता की आभा को नष्ट कर सकता है। 
         अहंकार के वशीभूत होकर रा्वण ने अपनी विदुषी पत्नी की बात भी कभी नहीं मानी। रावण की पत्नी मंदोदरी ने रावण को अनेक बार समझाने का प्रयास किया किंतु रावण ने उसे अनदेखा ही नहीं किया बल्कि मंदोदरी को बुरा भला कह कर उसे अपमानित भी किया।
रामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड में मंदोदरी और रावण का संवाद तुलसीदास ने कुछ इस प्रकार वर्णित किया है - 

रहसि जोरि कर पति पग लागी। बोली बचन नीति रस पागी॥
कंत करष हरि सन परिहरहू। मोर कहा अति हित हियँ धरहू॥
अर्थात् मंदोदरी एकांत में हाथ जोड़कर पति रावण के चरणों लगी और नीतिरस में पगी हुई वाणी बोली- हे प्रियतम! श्री हरि से विरोध छोड़ दीजिए। मेरे कहने को अत्यंत ही हितकर जानकर हृदय में धारण कीजिए।

तव कुल कमल बिपिन दुखदाई। सीता सीत निसा सम आई॥
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें। हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें॥
अर्थात् सीता आपके कुल रूपी कमलों के वन को दुःख देने वाली जाड़े की रात्रि के समान आई है। हे नाथ। सुनिए, सीता को लौटाए बिना शम्भु और ब्रह्मा के किए भी आपका भला नहीं हो सकता।

मंदोदरी के यह वचन सुन कर अहंकारी रावण अट्टहास कर उठा। उसने मद में चूर हो कर मंदोदरी की समझाइश को हंसी में उड़ा दिया- 
श्रवन सुनी सठ ता करि बानी। बिहसा जगत बिदित अभिमानी॥
सभय सुभाउ नारि कर साचा। मंगल महुँ भय मन अति काचा॥
अर्थात् मूर्ख और जगप्रसिद्ध अभिमानी रावण कानों से उसकी वाणी सुनकर खूब हंसा और बोला- स्त्रियों का स्वभाव सचमुच ही बहुत डरपोक होता है। मंगल में भी भय करती हो। तुम्हारा मन, हृदय बहुत ही कच्चा यानी कमजोर है।

जौं आवइ मर्कट कटकाई। जिअहिं बिचारे निसिचर खाई॥
कंपहिं लोकप जाकीं त्रासा। तासु नारि सभीत बड़ि हासा॥
अर्थात् यदि वानरों की सेना आवेगी तो बेचारे राक्षस उसे खाकर अपना जीवन निर्वाह करेंगे। लोकपाल भी जिसके डर से काँपते हैं, उसकी स्त्री डरती हो, यह बड़ी हँसी की बात है।

यह वही रावणपत्नी मंदोदरी है जिसका उल्लेख पौराणिक ग्रंथ ब्रह्म पुराण में पंचकन्या के रूप में मिलता है -
अहल्या, द्रौपदी, तारा, कुंती, मंदोदरी तथा।
पंचकन्या: स्मरेतन्नित्यं महापातकनाशम्॥
अर्थात् अहिल्या (ऋषि गौतम की पत्नी), द्रौपदी (पांडवों की पत्नी), तारा (वानरराज बाली की पत्नी), कुंती (पांडु की पत्नी) तथा मंदोदरी (रावण की पत्नी)। इन पांच कन्याओं का प्रतिदिन स्मरण करने से सारे पाप धुल जाते हैं। ये पांच स्त्रियां विवाहिता होने पर भी कन्याओं के समान ही पवित्र मानी गई है।

मंदोदरी... रावण की पत्नी थी। वह स्वर्ग की एक अप्सरा की पुत्री जो अत्याधिक सौंदर्यवान और आकर्षक थी, वह एक ऐसी समर्पित रानी थी जो असुर सम्राट रावण को जनहित समझाने का प्रयास करती थी। सोने की लंका की महारानी मंदोदरी, रामकथा का एक ऐसा पात्र है जिसकी चर्चा के बिना रामकथा पूरी नहीं होती। रावण की मृत्यु के बाद लंका में मंदोदरी का मान सम्मान कम नहीं हुआ, वह लंका की रानी बनी रही। पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बार मधुरा नामक एक अप्सरा भगवान शिव की तपस्या भंग करने के उद्देश्य से कैलाश पर्वत पहुंची। देवी पार्वती जो तब ललिता रूप में अन्यत्र तपस्या रत थीं, को वहां न पाकर वह अपने सम्मोहक नृत्य और गायन से भगवान शिव को आकर्षित करने का प्रयत्न करने लगी। देवी पार्वती को अपनी अंतर्शक्ति से इस बात का ज्ञान हो गया और वे कैलाश पर्वत पर पहुंचीं तो भगवान शिव की तपस्या को भंग करने के प्रयास में लगी मधुरा को  देखकर वे अत्यंत क्रोधित हो गईं और क्रोध में आकर उन्होंने मधुरा को मेढक बन कर कुंए में रहने का श्राप दे दिया। तभी भगवान शिव तपस्या समाप्त कर जाग्रत हो गए। उन्हें घटना की जानकारी होने और मधुरा द्वारा अपनी ग़लती स्वीकार कर क्षमायाचना करने पर देवी पार्वती से श्राप वापस लेने का अनुरोध किया। तब पार्वती ने मधुरा से कहा कि कठोर तप के बाद ही वह अपने असल स्वरूप में आ सकती है और वो भी 12 वर्ष बाद। उधर असुरों के शिल्पकार मयासुर और उनकी अप्सरा पत्नी हेमा के दो पुत्र थे, लेकिन वे चाहते थे कि उनकी एक पुत्री भी हो। इसी इच्छा को पूर्ण करने के लिए उन दोनों ने कठोर तपस्या करनी शुरू की, ताकि ईश्वर उनसे प्रसन्न होकर एक पुत्री दे दें। इसी बीच मधुरा की कठोर तपस्या के 12 साल भी पूर्ण होने वाले थे। जैसे ही मधुरा की तपस्या के 12 वर्ष पूर्ण हुए वह अपने असल स्वरूप में आ गई और कुएं से बाहर आने के लिए वह मदद के लिए पुकारने लगी। हेमा और मय वहीं तप में लीन थे। मधुरा की आवाज सुनकर दोनों कुएं के पास गए और उसे बचा लिया। बाद में उन दोनों ने मधुरा को पुत्री के रूप में गोद ले लिया और उसका नाम मंदोदरी रखा। एक बार रावण, मयासुर से मिलने आया और वहां उनकी सुंदर पुत्री को देखकर उस पर मंत्रमुग्ध हो गया। रावण ने मंदोदरी से विवाह करने की इच्छा प्रकट की, जिसे दानव मयासुर ने अस्वीकार कर दिया। लेकिन रावण ने हार नहीं मानी और बलपूर्वक मंदोदरी से विवाह कर लिया। मंदोदरी जानती थी कि रावण, भगवान शिव का भक्त है, इसलिए शिव से बैर की आशंका को ध्यान में रख कर अपने पिता की सुरक्षा के लिए वह रावण के साथ विवाह करने के लिए तैयार हो गई। रावण और मंदोदरी के तीन पुत्र थे - अक्षय कुमार, मेघनाद और अतिकाय।
       रावण बहुत अहंकारी था, मंदोदरी जानती थी कि सीताहरण रावण की एक बहुत बड़ी भूल है। जिस मार्ग पर वह चल रहा है, उस मार्ग पर सिवाय विनाश के कुछ हासिल नहीं होगा। उसने बहुत प्रयास किए कि रावण सही मार्ग पर चल पड़े, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मंदोदरी चाहती थी कि रावण, अयोध्या के युवराज राम की पत्नी सीता को उनके पति के पास भेज दे। किन्तु अहंकारी रावण ने मंदोदरी की सलाह नहीं मानी। अंततः राम-रावण युद्ध हुआ, तब एक पतिव्रता स्त्री की तरह मंदोदरी ने अपने पति का साथ दिया और रावण के जीवित लौट आने की कामना के साथ उसे रणभूमि के लिए विदा किया। युद्ध के अंतिम दिन रावण की मृत्यु का समाचार पा कर  मंदोदरी भी युद्ध भूमि पर गई और वहां अपने पति, पुत्रों और अन्य संबंधियों का विनाश देखकर अत्यंत दुखी हुई।

रामचरितमानस की इस चौपाई में मंदोदरी की व्यथा का वर्णित है -
पति सिर देखत मंदोदरी। मुरुछित बिकल धरनि खसि परी॥
जुबति बृंद रोवत उठि धाईं। तेहि उठाइ रावन पहिं आईं॥
 अर्थात् पति के सिर देखते ही मंदोदरी व्याकुल और मूर्च्छित होकर धरती पर गिर पड़ी। स्त्रियाँ रोती हुई उठ दौड़ीं और मंदोदरी को उठाकर मृत रावण के पास आईं।

   युद्ध समापन उपरांत राम के सीता और लक्ष्मण सहित अयोध्यागमन के पूर्व मंदोदरी ने भगवान राम से अपने भविष्य के प्रति मार्गदर्शन देने की प्रार्थना की। भगवान राम ने लंका के सुखद भविष्य हेतु विभीषण को राजपाट सौंप दिया और मंदोदरी को यह सुझाव दिया कि वह विभीषण से विवाह कर ले ताकि विभीषण निश्चिंत हो कर लंका की जनता के लिए कल्याणकारी कार्य कर सके। भगवान राम अपनी पत्नी सीता और भ्राता लक्ष्मण के साथ वापस अयोध्या लौटे तब मंदोदरी ने राम के सुझाव पर मंथन कर उसे स्वीकार करते हुए विभीषण से विवाह कर लिया। विवाह के पश्चात उसने विभीषण के साथ मिल कर लंका के साम्राज्य को सही दिशा की ओर बढ़ाना प्रारंभ किया।
       रामकथा में आसुरी शक्तियों में विभीषण सत्य के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है क्योंकि वह रावण से खुला विद्रोह कर राम के पक्ष में आ जाता है। वहीं मंदोदरी भी सत्य के पक्ष में अडिग खड़ी रहती है किन्तु एक पतिव्रता स्त्री की मर्यादा का पालन करते हुए उसके द्वारा खुला विद्रोह नहीं किए जाने के कारण रामकथा में उसकी यह महत्ता विभीषण से पीछे रह जाती है। इसीलिये सत्य का पक्षधर होना ही पर्याप्त नहीं होता। सत्य के पक्ष में खुल कर आवाज़ उठाना भी आवश्यक होता है।

और अंत में प्रस्तुत है मेरी काव्यपंक्ति -

जब ग़लत होता दिखे, तो बोलना भी है ज़रूरी।
बंधनों से मुक्त हो, स्वर खोलना भी है ज़रूरी ।
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Wednesday, October 21, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 21| स्त्री वस्तु नहीं | डॉ. वर्षा सिंह


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दिनांक 21.10.2020

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बुधवारीय स्तम्भ: विचार वर्षा   

              स्त्री वस्तु नहीं    

                      - डॉ. वर्षा सिंह

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः

यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।। 

      अर्थात् जहां स्त्रियों की पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं और जहां स्त्रियों की पूजा नही होती है, उनका सम्मान नही होता है वहां किये गये समस्त अच्छे कर्म निष्फल हो जाते हैं।

यही भारतीय संस्कृति का मूल मंत्र है। स्त्री का सम्मान समाज की सभ्यता को प्रतिबिम्बित करता है। ऐसी अनेक कथाएं, उपकथाएं एवं आख्यान हमारे पौराणिक ग्रंथों एवं महाकाव्यों में मिलते हैं जब स्त्री चाहे वह राक्षसी ही क्यों न हो यदि अपराध के लिए भी दण्डित की गई हो तब भी दण्ड देने वाले का यह कृत्य बौद्धिक जगत में विवाद का विषय रहा है। जैसे रामकथा का ही एक प्रसंग लिया जाए, राम के वनगमन का। बात उस समय की है जब दण्डक वन में राम, लक्ष्मण और सीता पर्णकुटी बना कर ठहरे हुए थे। राक्षसराज रावण की बहन शूर्पणखा उस वन में विचरण के लिए निकली। राम-लक्ष्मण का सौंदर्य और पौरुष देख वह उन दोनों पर मोहित हो गई। पहले उसने राम से प्रणय निवेदन किया। राम ने उसका प्रणय निवेदन अस्वीकार कर दिया क्योंकि वे विवाहित थे और एकपत्नी व्रती थे। तत्पश्चात वह लक्ष्मण के पास गई। लेकिन वहां भी निराशा ही हाथ लगी। तब शूर्पणखा सीता को अपने मार्ग में बाधा समझकर बोली -

अद्येमां भक्षयिष्यामि पश्यतस्तव मानुषीम् !

त्वया सह चरिष्यामि निःसपत्ना यथासुखम् !!(वाल्मीकिरामायण, अरण्यकाण्ड 18/16)

      अर्थात् आज तुम्हारे देखते ही मैं इस मानुषी सीता को खा जाऊंगी और इस सौत के न रहने पर तुम्हारे साथ सुख पूर्वक विचरण करूंगी। यह सुन कर लक्ष्मण ने क्रोधित हो उसके नाक कान काट दिए।

कुछ विद्वान शूर्पणखा के नाक-कान काटे जाने को अनुचित मानते हैं। अनेक स्त्रीवादी लक्ष्मण के इस कृत्य को अविवेकी कृत्य ठहराते हुए इसे स्त्री पर अत्याचार मानते हैं। ऐसे सभी लोगों के तर्को का सारांश यही है कि लक्ष्मण से प्रणय निवेदन उस समय की एक सामान्य घटना थी जिसमें कुछ भी अनैतिक नहीं था। वे तर्क देते हैं कि पौराणिक कथाओं के अनुसार उस काल में यद्यपि विवाह का प्रस्ताव रखने के लिए सामान्यतः पुरुष की ओर से पहल की जाती थी परन्तु स्त्रियों को भी विवाह प्रस्ताव रखने का पूरा अधिकार था। तत्कालीन सामाजिक व्यवस्थाओं के अनुसार स्त्री की ओर से विवाह प्रस्ताव आने से कोई क्षत्रिय उसे मना नहीं कर सकता था। बहुविवाह भी प्रचलन में था। महाराज दशरथ की स्वयं तीन रानियां थीं। तर्क यह भी दिया जाता है कि श्रीराम के एकपत्नी व्रत के कारण वे शूर्पणखा से विवाह नहीं कर सकते थे और लक्ष्मण भी नहीं करना चाहते थे तो इसके लिए उन्हें यह अधिकार कैसे मिल गया कि उसकी नाक-काट कर उसे किसी अन्य के योग्य ही न छोड़ा जाए? 

लक्ष्मण द्वारा शूर्पणखा के नाक-कान काटे जाने को उचित मानने वाले तर्क देते हैं कि मातृतुल्य भाभी सीता की रक्षा करने के लिए लक्ष्मण ने शूर्पणखा के नाक-कान काटे। राक्षसी प्रवृत्ति की स्त्री के लिए यही दण्ड उचित था। वह जीवित रहे और अपने कृत्य पर अजीवन पछताती रहे।

खैर, शूर्पणखा को इस प्रकार दण्डित किया जाना उचित था अथवा नहीं, यह एक लम्बी बहस का विषय है लेकिन इस कृत्य के कारण शेषनाग के अवतार लक्ष्मण को युगों बाद भी बहस का विषय बनना पड़ा है। क्योंकि इसमें स्त्री की भावना, उसके सम्मान एवं उसके अधिकारों की बात थी। शूर्पणखा जिस राक्षसी कुल की थी उसमें इच्छित व्यक्ति को प्राप्त करने के लिए साम, दाम, दण्ड, भेद आदि सब कुछ जायज़ था। लेकिन वर्तमान परिदृश्य बहुत विचित्र है। आज राजनीति में स्वयं स्त्रियां है लेकिन स्त्रियों के प्रति सम्मान की भावना तेजी से कम होती जा रही है। आज देश के विपक्षी दल के आयु और अनुभव में एक बड़े नेता विरोधी दल की महिला को ‘‘आईटम’’ कहते हैं, वह भी चुनावी सभा के भरे मंच से, सैंकड़ों लोगों की भीड़ के सामने। आज सामने प्रत्यक्ष भीड़ न भी हो तो सोशल मीडिया, टीवी चैनल्स के रूप में अप्रत्यक्ष भीड़ की कमी नहीं है। एक दिन एक वरिष्ठ नेता एक महिलानेत्री को ‘‘आईटम’’ कहता है तो ठीक इसके तीसरे दिन सत्ताधारी दल के एक मंत्री अपने विरोधी की पत्नी को ‘‘ रखैल’’ कह देते हैं। पक्ष और विपक्ष का आरोप-प्रत्यारोप। दुर्भाग्य से दोनों के केन्द्र में दांव पर लगा स्त्री का सम्मान।

‘‘अर्थववेद’’ में भी एक श्लोक है जिसमें स्त्रीअधिकारों एवं स्त्री स्वतंत्रता की बात कही गई है- 

नास्य जाया शतवाही कल्याणी तल्पमा शये ।यस्मिन राष्ट्रे निरुध्यते ब्रह्मजायाचित्त्या ।।

अर्थात् जिस राष्ट्र में इस ब्रह्मजाया (नारी) को जड़ता पूर्वक प्रतिबन्ध में डाला जाता है। उस राष्ट्र में सैकड़ों कल्याण को धारण करने वाली ‘जाया’ (विद्या) भी फलित होने से वंचित रह जाती है।

पुराणों में ऐसी कई कथाएं हैं जिनमें स्त्री के साथ छल, कपट अथवा स्त्री को अपमानित किए जाने पर दोषी व्यक्ति को दण्ड मिला, फिर वह चाहे स्वयं देवता ही क्यों न हों। पुराणों में वर्णित एक ऐसी ही कथा है चंद्रमा यानी चंद्रदेव की। कहते हैं, वे देवताओं के गुरु बृहस्पति की पत्नी तारा पर मोहित हो गए थे। चन्द्रमा ने छल किया और तारा संग भोग-विलास में लिप्त रहे थे। जब इस पूरे घटनाक्रम का ज्ञान देवगुरु बृहस्पति को हुआ, तो उन्होंने चंद्रदेव को श्राप दे दिया।

एक अन्य कथा है श्रीहरि और वृंदा की। पुराणों के अनुसार, जालंधर नामक दानव के कारण देवताओं पर संकट आ गया। जालंधर की पत्नी का नाम था वृंदा। वृंदा महान पतिपरायण महिला थी। पुराणों के अनुसार, वृंदा के सतीत्व के कारण जालंधर को पराजित करना असंभव था। तब जगतपालक श्रीहरि ने जालंधर की मृत्यु के लिए स्वयं जालंधर का रूप रखा और वृंदा के पास पहुंच गए। देवता के छल को वृंदा भला कैसे समझ पाती अतः उसका सतीत्व भंग हो गया। तब जाकर भगवान शिव जालंधर दानव का वध करने में सफल हो पाए। लेकिन वृंदा ने श्रीहरि को श्राप दिया कि वे काले पत्थर में परिणत हो जाएं। और श्रीहरि को शालिकग्राम के रूप में नारी के इस अपमान की सज़ा भुगतनी पड़ी। 

यजुर्वेद (5/10, शतायु) में स्त्रीशक्ति का आह्वान करते हुए लिखा गया है कि-‘‘हे नारी! तू स्वयं को पहचान। तू शेरनी हैं, तू शत्रु रूप मृगों का मर्दन करने वाली हैं, देवजनों के हितार्थ अपने अन्दर सामर्थ्य उत्पन्न कर। हे नारी! तू अविद्या आदि दोषों पर शेरनी की तरह टूटने वाली हैं, तू दिव्य गुणों के प्रचारार्थ स्वयं को शुद्ध कर। हे नारी! तू दुष्कर्म एवं दुर्व्यसनों को शेरनी के समान विश्वंस्त करने वाली हैं, धार्मिक जनों के हितार्थ स्वयं को दिव्य गुणों से अलंकृत कर।’’

पूजनीया महाभागाः पुण्याश्र्च गृहदीप्तयरूः।

स्रियः श्रियो गृहस्योक्तास्तमाद्रक्ष्या विशेषतः।।

विदुर नीति कहती है कि स्त्री को लक्ष्मी का स्वरूप माना गया है। हिंदू धर्म में किसी महिला के जन्म पर कहा जाता है कि स्वयं लक्ष्मी ने जन्म लिया है। जब कोई स्त्री किसी घर में ब्याह कर जाती है तो उसकी किस्मत वहां के लोगों से जुड़ जाती है। महिला के शुभ कदमों से ही घर में श्रेष्ठता और सम्पन्नता बनी रहती है। जिस घर में सदगुण सम्पन्न नारी सुखपूर्वक निवास करती है उस घर में लक्ष्मी जी का सदैव निवास रहता है। यदि घर की महिला सुखी, प्रसन्न और स्वस्थ है तो वह घर भी हमेशा भरा-पूरा रहता है। महिला किसी भी परिवार की धुरी होती है इसलिए महिलाओं का सम्मान अति आवश्यक है।

वेदों में स्त्री को 'अंबा', 'अम्बिका', 'दुर्गा', 'देवी', 'सरस्वती', 'शक्ति', 'ज्योति', 'पृथ्वी' आदि नामों से संबोधित किया गया है। इसके साथ ही स्त्री को मात।शक्ति के रूप में 'माता', 'मातु', 'मातृ', 'अम्मा', 'अम्मी', 'जननी', 'जन्मदात्री', 'जीवनदायिनी', 'जनयत्री', 'धात्री', 'प्रसू' आदि अनेक नामों से पुकारा जाता है। सामवेद में एक प्रेरणादायक मंत्र मिलता है, जिसका अभिप्राय है, 'हे जिज्ञासु पुत्र! तू माता की आज्ञा का पालन कर, अपने दुराचरण से माता को कष्ट मत दे। अपनी माता को अपने समीप रख, मन को शुद्ध कर और आचरण की ज्योति को प्रकाशित कर।'

प्रश्न यह उठता है कि जब हरेक भारतीय जीवन में अपने-अपने धर्मानुसार इस प्रकार की कथाएं, आख्यान, श्लोक बचपन से ही जुड़े हुए हैं फिर भी कुछ लोग राजनीति में आते ही नारी सम्मान की सारी शिक्षाएं मानों भूल जाते हैं। वे स्त्री को मनुष्य नहीं वरन् उपभोग की वस्तु समझने लगते हैं। तभी तो स्त्री को कोई ‘‘टंच माल’’ कहता है, तो कोई ‘‘आईटम’’, कोई ‘‘नचनिया’’ तो कोई उसके गालों की तुलना बिहार की सड़कों से करने लगता है। इस ओछेपन का प्रदर्शन करने वालों को समझना चाहिए कि चाहे उनके परिवार की स्त्रियां हों अथवा राजनीतिक मैदान में खड़ी स्त्रियां हों, वे समाज की सम्मानपात्र हैं कोई उपभोग की वस्तु नहीं। 

और अंत में प्रस्तुत है मेरी ये काव्य पंक्तियां - 

मां, भाभी है, बहन है नारी, सदा इसे सम्मान दो।मानव जीवन पाया है  तो  मानवता को मान दो। 

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Wednesday, October 14, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 20 | हर बार अहिल्या ही क्यों | डॉ. वर्षा सिंह

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दिनांक 14.10.2020

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बुधवासरीय स्तम्भ : विचार वर्षा   

       हर बार अहिल्या ही क्यों ...
                      - डॉ. वर्षा सिंह

  आज सुबह अख़बार खोलते ही यह ख़बर पढ़ने को मिली कि अपनी प्रेमिका से धोखा करके एक युवक एक दूसरी लड़की से शादी करने जा रहा था। प्रेमिका ने विवाह स्थल पर पहुंचकर बहुत बड़ा हंगामा किया, जिसके कारण लड़के की असलियत सामने आई और उसकी पोल खुल गई। लड़के के समाज वालों ने उस लड़के की शादी उसकी उस प्रेमिका से करवा देने की बात कही ताकि उसे न्याय मिल सके। इस ख़बर में सबसे बड़ी बात यह थी कि लड़के के समाज वालों ने लड़के की प्रेमिका अर्थात् अन्य समाज की एक ऐसी लड़की का साथ दिया जो लड़के के द्वारा छली गई थी। इसके साथ ही यह भी विचार मन में कौंध गया कि क्या वह लड़की छल करने वाले उस लड़के के साथ सुखी रह सकेगी। प्रश्न बड़ा पेचीदा है। स्त्रियों के साथ छल-कपट की घटनाएं हर समाज, हर देश, हर युग में होती रही हैं । मुझे याद आता है महान रशियन लेखक लेव टॉलस्टॉय का कालजयी उपन्यास 'पुनरुत्थान' - जिसमें एक युवा ज़मींदार अपनी एक नौकरानी पर आसक्त हो जाता है और उससे शारीरिक संबंध बना लेता है। जब उसी नौकरानी पर बदचलनी का आरोप लगाया जाता है और उस पर मुकद्दमा चलाया जाता है तो वह युवा ज़मींदार अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा गंवाने के डर से सच्चाई नहीं बताता है। परिणामतः उस नौकरानी को जूरी दोषी ठहरा कर साईबेरिया के कारावास की सज़ा सुना देती है। विडंबना यह कि वह युवा जमींदार स्वयं जूरी का सदस्य था। जब नौकरानी को अन्य क़ैदियों के साथ साईबेरिया रवाना किया जाता है तब उस युवा जमींदार को अहसास होता है कि उससे बहुत बड़ी ग़लती हो गई है और वह पश्चाताप करता हुआ नौकरानी के साथ-साथ साईबेरिया तक जाता है। लेकिन इससे सबकुछ पहले जैसा नहीं हो सकता था। कवि रहीम ने बड़े पते की बात कही है-
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय ।
टूटे से फिर ना जुड़े,  जुड़े गांठ पड़ जाए ।।

स्त्री के साथ किए गए छल की अनेक कथाएं हमारे पौराणिक ग्रंथों में मौज़ूद हैं। यहां तक कि रामकथा में स्त्री के साथ छल की घटनाएं हैं। रावण द्वारा सीता से छल की कथा तो सभी जानते हैं लेकिन एक कथा और है, इससे भी अधिक त्रासद। अहिल्या की कथा। गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या, जिसे किसी पुरुष नहीं बल्कि देवताओं के राजा इंद्र द्वारा छला गया और फिर पति द्वारा दिए गए श्राप के कारण उसे पाषाण बन कर वर्षों ही नहीं वरन् युगों तक अनेक लोगों के पदाघात सहन करने पड़े।

   सती अहिल्या की कथा का वर्णन वाल्मीकि रामायण, रामचरितमानस के बालकांड सहित अनेक पौराणिक ग्रंथों में मिलता है। अहिल्या न्यायसूत्र के रचयिता महर्षि गौतम की पत्नी थीं। ज्ञान में अनुपम अहिल्या स्वर्गिक रूप-गुणों से पूर्णतया संपन्न थीं। अहिल्या की सुंदरता के कारण सभी ऋषि-मुनि, देव और असुर उन पर मोहित थे। अपने अतुलनीय सौंदर्य और सरलता के कारण वे अपने पति की प्रिय थीं। इसके साथ ही वे अपने पति के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित थीं, इसीलिए वे सती अहिल्या कहलाती थीं । दोनों ही पति-पत्नी धर्म का पालन करते हुए आपसी सौहार्दपूर्ण वातावरण मेन प्रेमरस से परिपूर्ण दांपत्य का निर्वहन कर रहे थे। तभी एक दिन अचानक अहिल्या पर देवराज इंद्र की दृष्टि पड़ गई। वह अहिल्या के सौंदर्य पर आसक्त होकर उनका प्रेम पाने के लिए लालायित हो उठा। इंद्र को महर्षि गौतम की दैवीय शक्तियों और सामर्थ्य का ज्ञान था, इसके साथ ही वह अहिल्या के पतिनिष्ठ होने के सत्य से भी परिचित था। इंद्र के पास इन शक्तियों से पार पाने का सामर्थ्य नहीं था, पर वह अहिल्या को प्राप्त करने के लिए आतुर भी था। छल-कपट के आचरण से परिपूर्ण चतुर इंद्र स्वयं को संयमित कर सही अवसर की प्रतीक्षा करने लगा।
     समय अपनी गति से चलता रहा और एक दिन महर्षि गौतम ने अहिल्या से कहा कि उन्हें एक विशेष सिद्धि की प्राप्ति के लिए कम से कम छः माह तक वन के एकांतवास में तपस्या करने जाना है। अहिल्या ने उन्हें सहमति देते हुए उनकी प्रतीक्षा करने की बात कह विदा कर दिया। इंद्र तो ऐसे ही एक अवसर की प्रतीक्षा जाने कब से कर रहा था। ऋषि के जाते ही वह महर्षि गौतम का वेश धारण कर अहिल्या के पास पहुंच गया। पति को वापस देख जब अहिल्या चौंकीं तो उसने प्रेम जताते हुए कहा कि उनके सौंदर्यपाश ने वन में जाना असंभव बना दिया इसीलिए तपस्या का विचार छोड़ वापस आ गया।
     नियति का फेर कि पति के वेश में इन्द्र को अहिल्या पहचान नहीं पाईं। उसकी बात सुनकर अहिल्या ने समझा कि प्रेमवश सचमुच उनके पतिदेव ऋषि गौतम फ़िलहाल सिद्धि प्राप्ति हेतु वन में एकांतवास का विचार त्याग कर वापस आश्रम लौट आए हैं और उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक गौतम ऋषि का वेश धरे इंद्र का स्वागत किया। वे दोनों पहले से भी अधिक प्रेम से जीवन का आनंद लेने लगे। देखते ही देखते छः माह का समय व्यतीत हो गया और एक दिन अहिल्या ने प्रातः काल अपने आंगन में अपने पति की चिर-परिचित पुकार सुनी, जबकि ऋषि का रूप धरे इंद्र तब तक सो ही रहा था। एक पल में ही अहिल्या को अनर्थ का ज्ञान हो गया। महर्षि गौतम को सामने पाकर अहिल्या स्तब्ध रह गईं। तब तक इंद्र को भी ऋषि के आने का भान हो गया था तो बिना देरी किए वह वहां से भाग निकला। अहिल्या से सारा वृतांत जान ऋषि क्रोध से भर उठे और तुरंत ही उन्होंने श्राप दे दिया कि - 'जिस स्त्री को अपने पति के स्पर्श का भान न हुआ, वह जीवित नहीं हो सकती। अरी पतित नारी अहिल्या, तूने अपने पति अर्थात् मुझसे तन और मन से पत्थर की तरह कठोर व्यवहार किया है, तो जा मैं तुझे श्राप देता हूं कि तू भी पत्थर की हो जा।' महर्षि गौतम जैसे ज्ञानीपुरुष ने एक पल यह भी नहीं सोचा कि जब एक देवता छल करेगा तो मनुष्य कैसे बच सकेगा? अहिल्या एक मनुष्य ही तो थीं । मुद्दा ये है कि एक स्त्री होने के नाते दण्डित तो उसी को होना ही था। 
     अपने ऋषि पति के श्राप और इस पूरे घटनाक्रम का उत्तरदायी स्वयं को मानते हुए निराश अहिल्या ने अपने पति को रोते हुए समझाया कि आप इतनी दिव्य शक्तियों से संपन्न हैं। आप मुझे अकेला छोड़कर गए और बीते छः माह में आपको एक बार भी आभास न हुआ कि मेरे साथ कोई छल कर रहा है, तो मैं तो एक साधारण स्त्री हूं। मैंने अनजाने में अपराध किया है। भले ही मैं पराए पुरूष के साथ रही हूं, पर मेरा मन पवित्र है क्योंकि उस पुरूष को मैंने आप यानि अपना पति जानकर ही अपनाया था। तन और मन दोनों से ही मैं अपने पति के ही साथ थी।
      कमान से तीर निकलने के बाद लाख चाहने पर भी उसकी दिशा नहीं बदली जा सकती है। अहिल्या की बात सुनकर ऋषि उनसे सहमत हुए और कहा कि अब तो श्राप दिया जा चुका है, उसे वापस नहीं लिया जा सकता, किंतु तुम शिला बनकर यहां निवास करोगी। त्रेतायुग में जब भगवान विष्णु राम के रूप में अवतार लेंगे, तब उनके चरण रज से तुम्हारा उद्धार होगा।  उनके स्पर्श से ही तुम्हारा पाप धुलेगा और तुम वापस अपने स्त्री रूप को प्राप्त करोगी। ऋषि के श्राप को धारण करते हुए अहिल्या पत्थर की शिला बन गईं और घोर प्रतीक्षा के बाद श्रीराम के पावन चरणों के स्पर्श से पुनः स्त्री रूप में प्रकट हुईं।
 हुआ यह कि सतयुग की समाप्ति के बाद त्रेतायुग में भगवान विष्णु ने अयोध्या नरेश दशरथ के पुत्र राम के रूप में जन्म लिया और उनके लघुभ्राता लक्ष्मण के रूप में शेषनाग ने।
    किशोरावस्था में राम व लक्ष्मण की धनुर्विद्या की ख्याति सुनकर ऋषि विश्वामित्र ने राजा दशरथ से अपने आश्रम में ले जाने की अनुमति मांगी।  विश्वामित्र ने राजा दशरथ को बताया कि उनके वनाश्रम राक्षसगण उन्हें पूजा, हवन नहीं करने देते हैं। वे अनेक प्रकार से हवन-होम में बाधा पहुंचाते हैं। ऋषि मुनियों को तंग करते हैं। राक्षसों, असुरों से हमें राम और लक्ष्मण ही बचा सकते हैं। तब दशरथ ने कहा कि मेरे राम लखन अभी बालक हैं। वे ताकतवर असुरों से कैसे युद्ध कर पाएंगे। किन्तु विश्वामित्र ने राम लक्ष्मण को लेकर जाने हेतु राजा दशरथ को समझा लिया। राजा दशरथ ने राम और लक्ष्मण दोनों भाईयों को ऋषि मुनियों की रक्षा के लिए विश्वामित्र के साथ वन में भेज दिया। जहां उन्होंने ताड़का, सुबाहु जैसे यज्ञ विध्वंसकारी राक्षस-राक्षसियों का वध कर ऋषि - मुनियों को भयमुक्त किया।
       तत्पश्चात् विश्वामित्र के आश्रम में राम और लक्ष्मण अपने नित्यकर्मों और सन्ध्योवन्दनादि से निवृत हो कर प्रणाम करने के उद्देश्य से गुरु विश्वामित्र के पास पहुँचे। वहाँ उपस्थित आश्रमवासी तपस्वियों से राम और लक्ष्मण को ज्ञात हुआ कि मिथिला में राजा जनक ने धनुष यज्ञ का आयोजन किया है। उस धनुष यज्ञ में देश-देशान्तर के राजा लोग भाग लेने के लिये आ रहे हैं। तदोपरांत विश्वामित्र की आज्ञा से प्रातःकाल राम और लक्ष्मण ऋषि विश्वामित्र के साथ मिथिलापुरी के वन उपवन आदि देखने के लिये निकले। एक उपवन में उन्होंने एक निर्जन स्थान देखा। राम बोले, "गुरुदेव! यह स्थान देखने में तो आश्रम जैसा दिखाई देता है किन्तु क्या कारण है कि यहाँ कोई ऋषि या मुनि दृष्टिगोचर नहीं हो रहे हैं?"
इस पर विश्वामित्र ने कहा, "सतयुग में यह स्थान कभी ऋषि गौतम का आश्रम था। वे अपनी पत्नी अहिल्या के साथ यहां रह कर तपस्या करते थे। एक दिन गौतम ऋषि की अनुपस्थिति में इन्द्र ने गौतम के वेश में आकर अहिल्या से छलपूर्वक संबंध बनाए। अपने आश्रम को वापस आते हुये गौतम ऋषि की दृष्टि इन्द्र पर पड़ी। उस समय इन्द्र उन्हीं का वेश धारण किये हुये था। तत्काल वे सब कुछ समझ गये और उन्होंने इन्द्र को श्राप दे दिया। इसके बाद उन्होंने अपनी पत्नी को श्राप दिया कि तूने अपने पति से छल किया है अतः  हजारों वर्ष तक केवल हवा पीकर कष्ट उठाती हुई यहां शिला बन कर पड़ी रह। जब मर्यादापुरुषोत्तम राम इस वन में प्रवेश करेंगे तभी उनकी कृपा से तेरा उद्धार होगा। तभी तू अपना पूर्व शरीर धारण करके मेरे पास आ सकेगी।' यह कह कर गौतम ऋषि इस आश्रम को छोड़कर हिमालय पर जाकर तपस्या करने चले गये। अतः हे राम! अब तुम आश्रम के अन्दर जाकर अहिल्या का उद्धार करो।"
     विश्वामित्र की आज्ञा पाकर वे दोनों भाई आश्रम के भीतर प्रविष्ट हुये। वहां तपस्यारत अहिल्या कहीं दिखाई नहीं दे रही थी, केवल उसका तेज सम्पूर्ण वातावरण में व्याप्त हो रहा था। तभी शिला के रूप में वहां स्थित अहिल्या पर राम के चरण पड़ गए। राम के पवित्र चरणों का स्पर्श पाते ही अहिल्या एक बार फिर सुन्दर नारी के रूप में परिवर्तित हो गई। नारी रूप में अहिल्या ने सम्मुख पाकर राम और लक्ष्मण के श्रद्धापूर्वक चरणस्पर्श किये। अहिल्या को श्राप से मुक्ति मिल गई। तत्पश्चात् राम और लक्ष्मण मुनिराज विश्वामित्र के साथ पुनः मिथिलापुरी को लौट गए।
   रामचरितमानस के अनुसार अहिल्या का उद्धार राम की चरणधूलि प्राप्त करने से हुआ। बालकाण्ड में वर्णित है कि - 
आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं।।
पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा बिसेषी।।
  अर्थात् मार्ग में एक आश्रम दिखाई पड़ा। वहाँ पशु-पक्षी, कोई भी जीव-जन्तु नहीं था। पत्थर की एक शिला को देखकर प्रभु ने पूछा, तब मुनि ने विस्तारपूर्वक सब कथा कही।
गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।
चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर॥
अर्थात् गौतम मुनि की पत्नी अहिल्या ने श्रापवश पत्थर की देह धारण किया है जो आपके चरणकमलों की धूलि चाहती है। हे रघुवीर! इस पर कृपा कीजिये।
परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तपपुंज सही।
देखत रघुनायक जन सुख दायक सनमुख होइ कर जोरि रही।।
   अर्थात् श्रीराम के पवित्र और शोक को नाश करनेवाले चरणों का स्पर्श पाते ही सचमुच वह तपोमूर्ति अहिल्या प्रकट हो गई। भक्‍तों को सुख देने वाले रघुनायक को देख कर वह हाथ जोड़कर सामने खड़ी हो गई।
     इस प्रकार राम के चरणों का स्पर्श पा कर देवराज इंद्र से छली गई उस परित्यक्ता पाषाण के रूप में शापित सती नारी अहिल्या को श्राप से मुक्ति मिल गई और उन्हें पवित्र मानते हुए पंचकन्याओं में स्थान दिया गया। लेकिन क्या गौतम ऋषि और अहिल्या के संबंध पूर्ववत नैसर्गिक रह पाए?
     छल करने वाला दण्ड का भागी होता है मगर जब बात आती है पुरुषप्रधान समाज की तो दण्ड की भागी बनती है छली जाने वाली स्त्री। हर बार अहिल्या को ही पाषाण बनना पड़ता है। आज इस इक्कीसवीं सदी में भी। निर्दयी मां, घर से भागी हुई लड़की, आवारा, बदचलन और न जाने क्या-क्या। इसीलिए अब समय है पूरी गंभीरता से विचार करने का सामाजिक संतुलन वाली सामाजिक न्याय दृष्टि के बारे में।

और अंत में मेरी यह काव्य पंक्ति -

सहती रही है नारी अपमान की व्यथा।
हर दौर में मिलेगी छल-छद्म की कथा।

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Wednesday, October 7, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 19 | जीवन में मंथराओं की कमी नहीं | डॉ. वर्षा सिंह


बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

       जीवन में मंथराओं की कमी नहीं

                      - डॉ. वर्षा सिंह

     मुझे आज अचानक एक पुराना वाकया याद आ गया। उन दिनों मैं विद्युत विभाग के जिस कार्यालय में पदस्थ थी, वहां मैं शिकायत कक्ष की प्रभारी थी। तब कुछ शासकीय योजनाओं को संचालित करने के लिए कार्यालय में नोडल अधिकारियों की संविदा नियुक्तियां हुई थीं। उनमें से एक अधिकारी द्वारा अन्यत्र नियमित नौकरी पर जाने और नोडल अधिकारी के पद से इस्तीफा देने के कारण एक पद रिक्त हो गया था। मेरे कार्यालय प्रमुख ने मुझे उस पद पर कार्य करने के संबंध में पूछा, जिसे मैंने मना कर दिया। मना करने के दो कारण थे एक तो शिकायत कक्ष का मेरा कार्य सुचारु रूप से चल रहा था, दूसरे मैं जानती थी कि नोडल अधिकारी के उस रिक्त पद पर कल को ऊपर से कोई दूसरा अधिकारी नियुक्त कर दिया जाएगा और मुझे अनावश्यक डिस्टर्ब होना पड़ेगा।

मेरे द्वारा मना करने वाली बात जब मेरे एक असिस्टेंट को पता चली, तो वह बहुत विचलित हो उठा। कहने लगा - मैडम जी, आपने मना करके अच्छा नहीं किया। आपको बड़े साहब से 'हां' कह देना चाहिए था।

'लेकिन क्यों ? जब मैं वह सेक्शन नहीं लेना चाहती हूं तो साफ़ क्यों न बताऊं ? फिर अपना ये कम्प्लेंट सेक्शन अच्छा है।' मैंने कहा था।

तब मेरा वह असिस्टेंट मुझे समझाने लगा था - 'अरे मैडम जी, यहां तो वही पुराना फर्नीचर है। टेबिल क्लॉथ वाली पुरानी टेबल, बाबाआदम के ज़माने का गोल कंप्यूटर मॉनिटर, सड़ियल की-बोर्ड और ये टूटी-फूटी कुर्सियां.. इनकी कीलों में रोज़ कपड़े फटते हैं। जबकि वहां नोडल अधिकारी के चैम्बर में सारा फर्नीचर एकदम नया है.. गोदरेज कंपनी का। एलसीडी डिस्प्ले वाला नया कंप्यूटर मॉनिटर है। अपने यहां कूलर है, वहां एसी है।'

एक बारगी मुझे भी लगा कि इसकी बात में दम तो है। फ़र्नीचर से ले कर स्टेशनरी और कम्प्यूटर तक सभी एकदम पुराने और बेहद ऊबाऊ हैं। 

 तभी मेरे असिस्टेंट ने अपनी बात आगे बढ़ाई - 'उस सीट पर सप्लायर भी आते हैं। अपने को चाय-पानी के लिए अपने वॉलेट खाली नहीं करने पड़ेंगे। मैडम जी, आप सीनियर भी हैं । साहब से कह दीजिए कि आपको नोडल अधिकारी बना दें। अभी भी समय है, साहब ने अभी और किसी को वह सीट नहीं ऑफर की है।'

मुझे उसकी यह बात खटकी। मैंने अपने विवेक से काम लेते हुए अपने उस असिस्टेंट को उल्टा समझाया ऐसे लालच में कभी नहीं फंसना चाहिए, अपनी कमाई की चाय ज़्यादा अच्छी होती है। ग़लत ढंग से की गई कमाई कभी न कभी ज़रूर धोखा देती है।

     और फिर उस घटना के दो माह बाद …. जैसाकि ऑलरेडी इस्टीमेटेड था मेरे सेक्शन का भी रिनोवेशन हो गया। पूर्वयोजनानुसार सारा फर्नीचर बदल दिया गया। एलसीडी डिस्प्ले वाला नया कंप्यूटर आ गया। कूलर हटा कर एसी लगा दिए गए। यदि मैं उस समय अपने उस असिस्टेंट की बातों में आ कर नोडल अधिकारी का प्रभार ले लेती तो बहुत बड़ी टेंशन में फंस जाती। मेरा असिस्टेंट अपनी ऊपरी कमाई के लालच में मुझे मेरा लाभ दिखा कर मुझे भी कलंकित कर सकता था।

आज मैंं चिंतन करती हूं तो मुझे लगता है कि ऐसे सलाहकारों और रामकथा की मंथरा दासी में शायद ज़्यादा फ़र्क़ नहीं…   रामकथा में दासी मंथरा ने अपनी रानी कैकेयी को जो सुझाव दिए थे वे उसकी दृष्टि में रानी कैकेयी और उसके पुत्र भरत के लिए तो लाभप्रद थे ही, उससे कहीं अधिक स्वयं मंथरा के लिए लाभकारी थे। भरत राजा बनते तो कैकेयी राजमाता और मंथरा राजमाता की ख़ास सेविका। दूर का निशाना मगर सही दिशा में एक ग़लत मंसूबे के साथ। अकसर लोग यह भूल जाते हैं कि ग़लत- सही के बीच की रेखा को मिटा कर बढ़ाए गए क़दम ठोकर ज़रूर खाते हैं।

         महाराजा दशरथ की तीन रानियों कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी में कैकेयी अधिक सुंदर, युद्ध संचालन में योग्य थी। एक बार राजा दशरथ के साथ युद्ध मैदान में गई कैकेयी ने रथ के पहिए की कील निकलने पर कील के स्थान पर अपनी उंगली लगा कर राजा दशरथ के प्राणों की रक्षा की थी। तब दशरथ ने प्रसन्न हो कर कैकेयी से दो वरदान मांगने को कहा था। कैकेयी ने वे वरदान उसी समय नहीं मांगे थे, बल्कि बाद में कभी अन्य समय लेने का कह कर दशरथ को वचनबद्ध कर लिया था।

          कालांतर में दशरथ ने जब अपने ज्येष्ठ पुत्र राम के राज्याभिषेक की बात की तो अपने स्वार्थ की पूर्ति को ध्यान में रख कर कैकेयी की अंतरंग दासी मन्थरा ने आकर कैकयी को यह समाचार सुनाया। यह सुनकर कैकयी आनंद में डूब गयी और समाचार सुनाने के बदले में मंथरा को अपना एक आभूषण भेंट किया। वाल्मीकि रामायण के अनुसार - 

इदं तु मन्थरे मह्यमाख्यातं परमं प्रियम् । 

एतन्मे प्रियमाख्यातं किं वा भूय: करोमि ते ।।

रामे वा भरते वाहं विशेषं नोपलक्षये ।

तस्मात्तुुष्टस्मि यद्राजा रामं राज्येऽभिषेक्ष्यति ।। 

न मे परं किञ्चिदितो वरं पुन: प्रियं प्रियार्हे सुवचं वचोऽमृतम् ।

तथा ह्यवोचस्त्वमतः प्रियोत्तरं वरं परं ते प्रदादामि तं वृणु ।। 

(वाल्मीकि रामायण  २ । ७। ३४-३६)

अर्थात् मन्थरे ! तूने मुझको यह बड़ा ही प्रिय संवाद सुनाया है, इसके बदले मैं तेरा और क्या उपकार करूं? यद्यपि भरत को राज्य देने की बात हुई थी, फिर भी राम और भरत में मैं कोई भेद नहीं देखती । मैं इस बात से बहुत प्रसन्न हूँ कि महाराज कल राम का राज्याभिषेक करेंगे । हे प्रियवादिनी ! राम के राज्याभिषेक का संवाद सुनने से बढ़ कर मुझे अन्य कुछ भी प्रिय नहीं है । ऐसा अमृत के समान सुखप्रद वचन सब नहीं सुना सकते । तूने यह वचन सुनाया है, इसके लिये तू जो चाहे सो पुरस्कार मांग ले ,मैं तुझे देती हूँ।

     किन्तु मंथरा ने वह आभूषण एक ओर फेंक दिया और कैकयी को अनेक उदाहरण दे कर अपना मंतव्य प्रकट करते हुए भांति-भांति से समझाया। फिर भी कैकयी मंथरा की बात नहीं मानकर कहती है कि यह तो रघुकुल की रीत है कि ज्येष्ठ पुत्र ही राज्य संभालता है और मैं कैसे अपने पुत्र के बारे में सोचूं? राम तो सभी के प्रिय हैं। 


यथा वै भरतो मान्यस्तथा भूयोऽपि राघव: । कौसल्यातोऽतिरिक्तं च मम शुश्रूषते बहु ।। 

राज्यं यदि हि रामस्य भरतस्यापि तत्तदा ।

मन्यते हि यथाऽऽत्मानं तथा भ्रातॄन्स्तु राघव: ।। 

(वाल्मीकि रामायण २। ८। १८ -१९) 

    अर्थात् मुझे भरत जितना प्यारा है, उससे कहीं अधिक प्यारे राम है , क्योंकि राम मेरी सेवा कौशल्या से भी अधिक करते है । रामको यदि राज्य मिलता है तो वह भरत को ही मिलता है, ऐसा समझना चाहिये, क्यों कि राम सब भाइयों को अपने ही समान समझते है । 

       इस पर जब मन्थरा महाराज दशरथ की निन्दा करके कैकेयी को फिर भड़काने लगी, तब तो कैकेयी ने बड़ी बुरी तरह उसे फटकार दिया  –

ईदृशी यदि रामे च बुद्धिस्तव समागता ।

जिह्वायाश्छेदनं चैंव कर्तव्यं तव पापिनि ।।

       तब मंथरा ने तरह-तरह के दृष्टान्त सुना कर केकैयी से अपनी बात मनवा ही ली। अंततः कैकयी ने मंथरा की सारी बातें मान लीं और कोप भवन में जाकर राजा दशरथ को अपने दो वरदानों की याद दिलाई। राजा दशरथ ने कहा कि ठीक है वरदान मांग लो। तब कैकेयी ने अपने वरदान के रूप में राम का वनवास और भरत के लिए राज्य मांग लिया। यह वरदान सुनकर राजा दशरथ मानसिक रूप से आहत हो गए, चूंकि वे वचनबद्ध थे अतः वचनों से विमुख होना संभव नहीं था। 

       'रामचरितमानस' के अयोध्याकांड में भी तुलसीदास ने लिखा है कि मंथरा दासी के कहने पर ही राम के राज्याभिषेक होने के अवसर पर कैकेयी की मति मारी गयी और पुत्र भरत के राजतिलक की चकाचौंध भरी कल्पना में डूब कर उसने राजा दशरथ से दो वरदान मांगे। पहले वर में उसने भरत का राज्याभिषेक और दूसरे वर में भरत की राजगद्दी को निष्कंटक बनाने के कुटिल उद्देश्य से राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास मांग लिया।

नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकइ केरि।

अजस पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि।।

       अर्थात् मन्थरा नाम की कैकेई की एक मंदबुद्धि दासी थी, उसे अपयश की पिटारी बनाकर सरस्वती उसकी बुद्धि को फेरकर चली गईं।

रचि पचि कोटिक कुटिलपन कीन्हेसि कपट प्रबोधु।

कहिसि कथा सत सवति कै जेहि बिधि बाढ़ बिरोधु।।

        अर्थात् इस तरह करोड़ों कुटिलपन की बातें गढ़-छोलकर मन्थरा ने कैकेयी को उलटा-सीधा समझा दिया और सैकड़ों सौतों की कहानियां इस प्रकार सुना दीं कि कैकेयी का मन विचलित हो उठा।

      परिणाम से सभी अवगत ही हैं। जहां एक ओर दशरथ शोकाकुल हो मृत्युशैय्या पर पहुंच गए। आज्ञाकारी राम वनगमन कर गए। भरत यह अनर्थ स्वीकार न कर राम की चरणपादुका के सेवक बन अयोध्या की सुरक्षा करते रहे। राम के साथ उनकी अर्धांगिनी सीता भी वनवासरत हो गईं जहां से लंकापति रावण ने उन्हें अपहृत कर लिया। … वहीं दूसरी ओर कैकेयी को वैधव्य और कलंकित नारी का तमगा हाथ लगा। मंथरा तो दासी थी, दासी रही। उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ा।

रामचरितमानस में तुलसीदास ने दासी मंथरा की ओर से यह चौपाई लिखी है - 

कोउ नृप होइ हमैं का हानी । 

चेरि छाड़ि अब होब की रानी।। 

        अर्थात् - मुझे कोई लेना-देना नहीं, मैं तो दासी की दासी ही रहूंगी। रानी जी, आप सोचिए कि आप का क्या होगा।

  तो क्या मंथरा ने निःस्वार्थ भावना से सुझाव दिया था। नहीं… ऐसा नहीं था। मंथरा का स्वयं का स्वार्थ निहित था उसकी इस चाल में। वह जानती थी कि भरत के राजा बनने पर कैकेयी राजमाता बन जाएंगी और मंथरा कैकेयी की निकटस्थ होने के कारण अयोध्या की प्रभावशाली महिला बन जाएगी।

    रामकथा के इस प्रसंग का मर्म यही है कि चाहे कोई कितना भी सगा व्यक्ति क्यों न हो, उसके सुझाव पर स्वयं चिंतन किए बिना उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। वर्तमान समय में 'मंथराओं' की कमी नहीं है। शुभचिंतक बन कर हमारी निजी ज़िन्दगी में सेंध लगाने वाले 'मंथरा' रूपी व्यक्ति बहुत घातक होते हैं। इन्हें पहचानना बहुत ज़रूरी है। हमारे जीवन में अनेक ऐसे अवसर आते हैं जब हमारे निकटस्थ लोग हमारे हितरक्षक बन कर हमें हमारा लाभ दिखा कर तरह-तरह की समझाइश देते हैं। किन्तु सुझाव के अमल में लाए जाने से होने वाले लाभ और हानि का स्वयं  चिंतन करना बहुत ज़रूरी होता है। यदि परिणाम से ज़्यादा दुष्परिणाम की आशंका नज़र आए तो कभी स्वयं 'कैकेयी' नहीं बने और किसी भी 'मंथरा' की सलाह को अमल में न लाएं। 

और अंत में प्रस्तुत है मेरा यह दोहा -

अंतर्मन के खोल कर रखिए सारे द्वार ।

हर पहलू पर  गौर से पूरा करें  विचार।।

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प्रिय ब्लॉग पाठकों, "विचार वर्षा"...   मेरा यह कॉलम आज युवाप्रवर्तक वेब पोर्टल पर भी प्रकाशित हुआ है।
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 07.10.2020

मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं-
https://yuvapravartak.com/?p=42706

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Friday, October 2, 2020

महामानव लाल बहादुर शास्त्री | 2 अक्टूबर जन्म दिवस पर स्मरण | डॉ. वर्षा सिंह

 
Dr. Varsha Singh

           जिस तारीख़ और माह में महात्मा गांधी का जन्म हुआ उसी तारीख़ और माह में 'जय जवान-जय किसान' का नारा देने वाले भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का जन्म हुआ यानी 2 अक्टूबर को ये दोनों महापुरुष जन्में थे। महात्मा गांधी का जन्म सन् 1869 को हुआ था, उसके ठीक 35 वर्ष बाद सन् 1904 को लाल बहादुर शास्त्री का जन्म उत्तर प्रदेश के वाराणसी से लगभग 12 किलोमीटर दूर एक छोटे से रेलवे टाउन, मुगलसराय में हुआ था। उनके पिता मुंशी शारदा प्रसाद श्रीवास्तव  एक स्कूल शिक्षक थे। जब लाल बहादुर शास्त्री की आयु मात्र डेढ़ वर्ष थी तभी उनके पिता का निधन हो गया था। उनकी माता श्रीमती राम दुलारी को अपने तीनों बच्चों के साथ मायके में रहना पड़ा था। पति के निधन के बाद वे अपने पिता हजारीलाल के घर मिर्जापुर आ गई थीं। कुछ समय पश्चात शास्त्री जी के नाना हजारीलाल का भी देहांत हो गया।

     शिक्षा के प्रति उनकी गहरी रुचि थी। भीषण गर्मी में भी कई मील की दूरी नंगे पांव तय कर शास्त्री जी विद्यालय जाते थे। मिर्जापुर जैसे छोटे-से शहर में स्कूली शिक्षा प्राप्त करने के बाद शास्त्री जी को चाचा के साथ वाराणसी भेज दिया गया था ताकि वे उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकें। हरिश्चन्द्र हाई स्कूल और काशी-विद्यापीठ में उच्च शिक्षा प्राप्त कर लाल बहादुर शास्त्री ने संस्कृत भाषा में स्नातक किया था।  काशी-विद्यापीठ में उन्होंंने ‘शास्त्री’ की उपाधि प्राप्त की। उसी वक्त के बाद से ही उन्होंंने ‘शास्त्री’ को अपने नाम के साथ जोड़ दिया। इसके बाद वे शास्त्री के नाम से जाने गए। लाल बहादुर शास्त्री का घरेलू नाम नन्हें था। 

       किशोरावस्था से ही लाल बहादुर शास्त्री देश की आजादी के लिए किए जा रहे प्रयासों के प्रति रुचि लेने लगे थे। वे महात्मा गांधी के विचारों से अत्यंत प्रभावित हुए। जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन में शामिल होने के लिए अपने देशवासियों से आह्वान किया था, इस समय लाल बहादुर शास्त्री की आयु मात्र सोलह वर्ष थी। उन्होंने महात्मा गांधी के इस आह्वान पर अपनी पढ़ाई छोड़ देने का निर्णय कर लिया था। उनके इस निर्णय को उनके परिवार का समर्थन नहीं मिला। किन्तु लाल बहादुर ने अपना मन बना लिया था। उनके सभी करीबी लोगों को यह पता था कि एक बार मन बना लेने के बाद वे अपना निर्णय कभी नहीं बदलेंगें। वे सभी जानते थे कि बाहर से विनम्र दिखने वाले लाल बहादुर अन्दर से फौलाद की तरह सख़्त हैं।

        ब्रिटिश शासन की अवज्ञा में स्थापित किये गए कई राष्ट्रीय संस्थानों में से एक वाराणसी के काशी विद्यापीठ में लाल बहादुर शास्त्री शामिल हुए। जहां उन्हें निकट से महान विद्वानों एवं देश के राष्ट्रवादियों के विचार जानने का अवसर मिला। विद्यापीठ द्वारा उन्हें प्रदत्त स्नातक की डिग्री का नाम ‘शास्त्री’ था जो उनके नाम का हिस्सा बन कर उनकी पहचान, उनका उपनाम बन गया।

        सन् 1927 में उनका विवाह पत्नी ललिता देवी से हुआ जो मिर्जापुर की थीं ।  शास्त्री जी दहेज के सख़्त विरोधी थे, अतः रीति - रिवाजों और सामाजिक आग्रहों की पूर्ति के लिए ने उन्होंने अपने इस विवाह में दहेज के तौर पर मात्र एक चरखा एवं हाथ से बुने हुए कुछ मीटर कपड़े स्वीकार किए थे। उनकी छह संताने हुईंं। उनके एक पुत्र अनिल शास्त्री कांंग्रेस पार्टी के सदस्य रहे। 
       लाल बहादुर शास्त्री सन् 1930 में महात्मा गांधी के प्रसिद्ध नमक कानून के विरोध में निकाली गई दांडी यात्रा में सम्मिलित हुए थे। इस प्रतीकात्मक सन्देश ने पूरे देश में एक तरह की क्रांति ला दी। इस प्रकार शास्त्री जी स्वतंत्रता के इस संघर्ष में खुल कर शामिल हो गए। उन्होंने कई विद्रोही अभियानों का नेतृत्व किया एवं कुल सात वर्षों तक ब्रिटिश जेलों में रहे। आजादी के इस संघर्ष ने उन्हें पूर्णतः परिपक्व बना दिया।

     15 अगस्त1947 को मिली आजादी के बाद जब कांग्रेस सत्ता में आई, तो लाल बहादुर शास्त्री को अपने गृह राज्य उत्तर प्रदेश का संसदीय सचिव नियुक्त किया गया । कुछ समय पश्चात वे गृह मंत्री के पद पर आसीन हुए। कड़ी मेहनत करने की उनकी क्षमता एवं उनकी दक्षता उत्तर प्रदेश में एक लोकोक्ति बन गई। वे 1951 में नई दिल्ली आ गए एवं केंद्रीय मंत्रिमंडल के कई विभागों का प्रभार संभाला – रेल मंत्री; परिवहन एवं संचार मंत्री; वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री; गृह मंत्री एवं नेहरू जी की बीमारी के दौरान बिना विभाग के मंत्री रहे। उनकी प्रतिष्ठा लगातार बढ़ रही थी। एक रेल दुर्घटना, जिसमें कई लोग मारे गए थे, के लिए स्वयं को जिम्मेदार मानते हुए उन्होंने रेल मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। देश एवं संसद ने उनके इस अभूतपूर्व पहल को काफी सराहा। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने इस घटना पर संसद में बोलते हुए लाल बहादुर शास्त्री की ईमानदारी एवं उच्च आदर्शों की काफी तारीफ की। उन्होंने कहा कि उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री का इस्तीफा इसलिए नहीं स्वीकार किया है कि जो कुछ हुआ वे इसके लिए जिम्मेदार हैं बल्कि इसलिए स्वीकार किया है क्योंकि इससे संवैधानिक मर्यादा में एक मिसाल कायम होगी। रेल दुर्घटना पर लंबी बहस का जवाब देते हुए लाल बहादुर शास्त्री ने कहा था कि “शायद मेरे लंबाई में छोटे होने एवं नम्र होने के कारण लोगों को लगता है कि मैं बहुत दृढ नहीं हो पा रहा हूँ। यद्यपि शारीरिक रूप से में मैं मजबूत नहीं है लेकिन मुझे लगता है कि मैं आंतरिक रूप से इतना कमजोर भी नहीं हूँ।”

       वर्ष 1952, 1957 एवं 1962 के आम चुनावों में पार्टी की निर्णायक एवं जबर्दस्त सफलता में उनकी संगठनात्मक प्रतिभा एवं पारखी दृष्टि क्षमता मूलकारक बनी। 9 जून 1964  में लाल बहादुर शास्त्री के प्रधानमंत्री बनने के बाद 1965 में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ। युद्ध की वजह से देश में खाद्यान्न की भारी किल्लत हो गई। वहीं अमेरिका ने भी भारत को होने वाले अनाज एक्सपोर्ट को रोकने की धमकी दे दी। इन हालातों में देश के लिए काफी मुश्किल दौर था। ऐसे में लाल बहादुर शास्त्री ने जनता से अपील की कि लोग हफ्ते में 1 दिन का खाना 1 वक्त के लिए छोड़ देना चाहिए।1966 में ताशकंद समझौते के दौरान शास्त्री जी का  संदिग्ध परस्थितियों में  निधन हो गया। शास्त्री जी ने 11 जनवरी, 1966 को ताशकंद में अंतिम सांस ली थी। 1978 में प्रकाशित ‘ललिता के आंसू ’ नामक पुस्तक में उनकी पत्नी ने शास्त्री जी की मृत्यु के संबंध में प्रश्न उठाए हैं। कुलदीप नैयर जो कि शास्त्री जी के साथ ताशकंद गए थे, उन्होंने भी कई तथ्य उजागर किये परन्तु कोई उचित परिणाम नहीं निकले। 2012 में इनके पुत्र सुनील शास्त्री ने भी न्याय की मांग की किन्तु सकारात्मक परिणाम सामने नहीं आए।
          तीस से अधिक वर्षों तक अपनी समर्पित सेवा के दौरान लाल बहादुर शास्त्री अपनी उदात्त निष्ठा एवं क्षमता के लिए जाने गए। विनम्र, दृढ, सहिष्णु एवं अद्भुत आंतरिक शक्ति वाले शास्त्री जी लोगों के बीच ऐसे व्यक्ति बनकर उभरे जिन्होंने लोगों की भावनाओं को समझा। वे दूरदर्शी थे जो देश को प्रगति के मार्ग पर लेकर आये। लाल बहादुर शास्त्री महात्मा गांधी के राजनीतिक शिक्षाओं से अत्यंत प्रभावित थे। अपने गुरु महात्मा गाँधी के ही लहजे में एक बार उन्होंने कहा था – “मेहनत प्रार्थना करने के समान है।” महात्मा गांधी के समान विचार रखने वाले लाल बहादुर शास्त्री भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठ पहचान हैं। शारीरिक दृष्टि से छोटे कद के दुबले पतले होने के बावजूद उनके व्यक्तित्व का कद किसी महामानव से कम नहीं था। मरणोपरांत उन्हें भारतरत्न से भी सम्मानित किया गया था।
     वर्तमान समय में देश को ऐसे ही देशभक्त और कर्मठ राजनेताओं की आवश्यकता है। जो समर्पण भावना से देश और जनता की सेवा करें। अवसरवादिता की छाया से स्वयं को बचा कर रखे और दल बदल की राजनीति से व्यक्तिवाद का प्रपंच रच कर जनता के साथ छल न करे। लालबहादुर शास्त्री सरीखे नेताओं की कमी आज के दौर में बेहद खटकती है। अपने सिद्धांतों के प्रति निष्ठावान बने रहना उनकी सबसे बड़ी ख़ूबी थी। जिसका अधिकांश वर्तमान राजनेताओं में अभाव दिखता है।
      आज 2 अक्टूबर 2020 को स्व. लाल बहादुर शास्त्री को उनके 116वें जन्मदिन अर्थात् 115वीं वर्षगांठ पर कोटिशः नमन 💐🙏💐

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मेरा यह आलेख आज "युवाप्रवर्तक" में भी प्रकाशित हुआ है। लिंक प्रस्तुत है -