Wednesday, July 29, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 9 | छोटी ख़ुशियां, बड़ी ख़ुशियां | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

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दिनांक 29.07.2020

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बुधवारीय स्तम्भ :  विचार वर्षा

छोटी ख़ुशियां, बड़ी ख़ुशियां
          - डॉ. वर्षा सिंह

ख़ुशियां चाहे छोटी हो या बड़ी, जीवन में ऊर्जा का स्रोत होती हैं। अक्सर हम बड़ी ख़ुशी की चाहत में छोटी-छोटी ख़ुशियों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। मैं एक सच्ची घटना आप सब से साझा कर रही हूं। मैंने इसमें सिर्फ नाम बदले हैं, पर है यह हकीकत। मेरे एक परिचित मनोज जी अच्छा ख़ासा कमाते थे। उनका एक ख़ुशहाल परिवार है जिसमें उनकी पत्नी और दो छोटे बच्चे भी अपने परिवार को ख़ुश रखने का हर संभव प्रयास करते रहते थे, लेकिन कुछ अरसा पहले ही मानो उनकी ख़ुशियों को उनकी अपनी चाहत का ही ग्रहण लग गया। एक दिन उनकी बेटी ने पड़ोस में रहने वाले मलहोत्रा जी की एक कार को देखकर बचपने के भाव में ही मनोज जी से यह कह दिया कि पापा अगर हमारे पास भी कार होती तो कितना मज़ा आता। मनोज जी ने यह बात अपने दिल पर ले ली और उन्हें लगा कि यदि मैं अपने बच्चों के लिए कार खरीद दूं तो उन्हें और ज्यादा ख़ुशी मिलेगी। लेकिन बच्चों की प्राइवेट स्कूल की फीस, खान-पान, अन्य घर ख़र्च आदि के चलते फिलहाल उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि वे कार अफ़ोर्ड कर पाते। तब उन्होंने दूसरा रास्ता अपनाने का विचार किया और वे अपने पद का दुरुपयोग करने लगे। कार की चाहत में वे इस हद तक डूब गए कि उन्हें पता ही नहीं चला कि वे कब एक भ्रष्ट अधिकारी का रूप लेते चले गए। फिर एक दिन अचानक उनके घर पर छापा पड़ा और तब उनकी सारी सम्पत्ति सीज़ कर दी गई। उसमें वह सम्पत्ति भी शामिल थी जो उन्होंने अपनी मेहनत से कमाई थी। यानी कहां तो मनोज जी एक बड़ी ख़ुशी देने के लिए प्रयासरत थे और पता चला कि इस प्रयास में ग़लत रास्ता अपनाते हुए उन्होंने अपने और अपने परिवार की छोटी-छोटी ख़ुशियों को भी अपने ही हाथों मिटा डाला। आज उनका परिवार मुक़दमेबाज़ी में उलझा हुआ है। उनकी पत्नी परेशान रहती हैं और बच्चे मां-बाप की परेशानियों की सज़ा भुगत रहे हैं।
    जब भी मैं इस घटना के बारे में सोचती हूं तो मुझे लगता है कि हमारे जीवन में जो छोटी-छोटी खुशियां है वह मिलकर भी एक बड़ी ख़ुशी का रूप ले सकती हैं, सिर्फ उन्हें ध्यान से देखने, परखने और समझने की ज़रूरत होती है।
  अक्सर हम जब कहीं घूमने जाते हैं, बाग़-बग़ीचे देखते हैं तो मन ख़ुशी से भर उठता है। यदि हम यह सोचने लगें कि काश, हमारे पास भी ऐसा ही फूल-पौधों भरा ख़ूबसूरत-सा बहुत बड़ा गार्डन होता, तो हमें बेचैनी होने लगेगी। सारी ख़ुशी कुण्ठा में तब्दील हो जाएगी। उस बड़े से ख़ूबसूरत गार्डन को हासिल करने की चाहत रातों की नींद और दिन का चैन छीन लेगी। लेकिन यदि हम यह सोचें कि इतने बड़े गार्डन के बजाए कुछ ख़ूबसूरत फूलों के पौधों के गमले हम अपने टैरेस, बालकनी, छत या आंगन में रख कर उनकी देख-भाल करें तो कितना मज़ा आएगा। जी हां, अक्सर सिर्फ़ एक फूल के पौधे के लालन-पालन में जो ख़ुशी मिलती है, वह एक बड़ा सा गार्डन लगाकर उसे माली के हवाले कर देने में नहीं मिलती। छोटी खुशियों का अपना अलग महत्व होता है। यही छोटी-छोटी खुशियां मिलकर खुशियों का एक बहुत बड़ा संसार बना देती हैं।
    मुझे याद आ रही है वह इतालवी लोककथा जिसमें ख़ुशी का वास्तविक अर्थ व्याख्यायित है।
एक शांतिपूर्ण और शक्तिशाली राज्य के शासक राजा गिफ़ाड का युवा पुत्र राजकुमार जोनाश कुछ दिनों से अकसर अपने कमरे की खिड़की के पास बैठकर दुखी मन से खिड़की से बाहर देखता रहता। राजा गिफ़ाड को जब यह पता चला तो वे चिंतित हो उठे और उन्होंने राजकुमार जोनाश से पूछा कि आख़िर कौन-सी बात उसे परेशान कर रही है ? बहुत देर तक पूछने के बाद जोनाश ने बताया कि उसे महल के बड़े-बड़े तामझाम की किसी चीज़ में ख़ुशी महसूस नहीं होती। वह खुश रहना चाहता है लेकिन वह नहीं जानता कि कैसे ख़ुश रहे। यह सुन कर राजा और अधिक चिंतित हो उठा। तब उसने इस समस्या का हल निकालने के लिए अपने राज्य के बेहतरीन चिकित्सकों, ज्योतिषियों और विद्वानों से विचार-विमर्श किया। सबने विमर्श उपरांत एकमत हो कर यह निष्कर्ष निकाला कि राजकुमार की सहायता करने के लिए एक ऐसा व्यक्ति खोजना होगा जो अपने जीवन से पूरी तरह ख़ुश और संतुष्ट हो। फिर उस व्यक्ति की कमीज़ यदि राजकुमार जोनाश को पहना दी जाए तो राजकुमार को सुख और ख़ुशी का अनुभव होने लगेगा।
     ख़ुश और संतुष्ट व्यक्ति की तलाश पूरे राज्य में होने लगी। लेकिन खोज़कर्ताओं को ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं मिल रहा था। तब एक दिन परेशान राजा गिफ़ाड ने मनबहलाव के लिए शिकार पर घने जंगल में जाने का फ़ैसला किया। शिकार पर निकले राजा गिफ़ाड को जंगल में बहने वाली नदी के किनारे सरकंडों के बीच निश्चिंत भाव से ख़ुशी से सीटी बजाता, पीठ के बल लेटा कर आसमान में तैरते बादलों को निहारता हुआ एक ख़ूबसूरत युवक दिखाई दिया। राजा ने युवक की ख़ुशी का मापन करने के लिए उस युवक से पूछा कि यदि उसे राज्य का आधा हिस्सा मिल जाए तो क्या उसे ख़ुश होगी। युवक हंस पड़ा और बोला कि वह तो वैसे ही बहुत ख़ुश है, आधा राज्य ले कर सिरदर्दी नहीं पालना चाहता। राजा समझ गया कि यही वह युवक है जिसकी क़मीज़ उसके पुत्र के लिए वरदान साबित होगी। राजा ने राजकुमार जोशान का पूरा हाल बता कर युवक से उसकी क़मीज़ मांगी। युवक हंस कर उठ बैठा, राजा ने देखा कि उस ख़ुशमिज़ाज और सुखी व्यक्ति ने कमीज़ ही नहीं पहनी हुई थी। राजा को अहसास हो गया कि असली ख़ुशी पाने के लिए छोटी ख़ुशियों को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए। अनेक छोटी-छोटी ख़ुशियां जीवन को बड़ी ख़ुशी देती हैं।
और अंत में मेरी एक ग़ज़ल के ये दो शेर…

जंगल में, वादियों में, पत्थर में, रेत में,
कुछ फ़र्क नहीं करती, बहती है जब नदी।

देखा है मैंने "वर्षा", ग़म के पहाड़ पर
अक्सर पड़ी है भारी, छोटी सी इक ख़ुशी।
     ----------------
सागर, मध्यप्रदेश







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Wednesday, July 22, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 8 | पंखुरी है प्रेम | डॉ. वर्षा सिंह

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बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

पंखुरी है प्रेम
           -डॉ. वर्षा सिंह
         
       यूरोप में प्रेमीजन अपने प्रेम और अपने प्रेमी की जांच करने के लिए लव्ज़ मी, लव्ज़ मी नॉट… अर्थात् वह मुझसे प्यार करता है, वह मुझसे प्यार नही करता … कहते हुए फूल की एक-एक पंखुरी तोड़ते जाते हैं और अंतिम पंखुरी तोड़ते समय लव्ज़ मी या लव्ज़ मी नॉट में से जो भी वाक्यांश उच्चारित होता है, उसके आधार पर प्रेम और प्रेमी का आकलन करते हैं। प्रेम फूल की पंखुरी-सा एक नाज़ुक अहसास जो है… और प्रेम के प्रदर्शन का माध्यम भी।
 फिल्म सरस्वतीचंद्र में लिखा इन्दीवर का गीत बहुत लोकप्रिय हुआ था -
फूल तुम्हें भेजा है ख़त में, फूल नहीं मेरा दिल है
प्रियतम मेरे तुम भी लिखना, क्या ये तुम्हारे क़ाबिल है
     प्रेम में फूल का अपना एक महत्व होता है। खिले हुए फूल एक-दूसरे को उपहार स्वरूप देकर प्रेम प्रकट किया जाता है। फूल दे कर प्रेम प्रदर्शन की रीत वैलेंटाइन मनाने वाले योरोपीय देशों मात्र में ही नहीं बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप का भी हिस्सा है। ज़रूरी नहीं कि लाल गुलाब दे कर ही प्रेम प्रदर्शित किया जाता हो। हर वह नाज़ुक-सा फूल जो प्रेम की भावनात्मकता से जुड़ा हो प्रेम प्रदर्शन का जरिया बन जाता है।
   कालिदास लिखित जगप्रसिद्ध संस्कृत नाटक "मालविकाग्निमित्र" में द्वितीय शुंग शासक अर्थात् विदिशा के राजा अग्निमित्र की दूसरी रानी इरावती वसंत ऋतु के आगमन पर प्रेमाभिलाषा प्रकट करने के लिए राजा अग्निमित्र के पास लाल कुरबक के नवीन पुष्पों को भिजवाती है। कुरबक के फूल कचनार के फूलों के समान आकर्षक और कोमल पंखुरियों वाले होते हैं।
     प्रेम के प्रतीक नाज़ुक पंखुरियों वाले फूल को यदि प्रेमीजन द्वारा सहेज कर रखा गया हो तो सूखने के बाद भी वर्षों तक उस फूल में निहित प्रेम और प्रेम भरे पलों की यादें की ताज़गी, उसकी सुगंध मानव मस्तिष्क में बसी रहती है। अभी पिछले लगभग दो दशक पहले तक यानी बीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण तक, जब कम्प्यूटर का वर्चस्व, वर्तमान समय जितना नहीं था, क़िताबों से दोस्ती गहरी और सुकून देने वाली हुआ करती थी, तब उन दिनों में अक्सर प्रेमोपहार स्वरूप मिले फूल को किसी पसंदीदा किताब के पन्नों में दबा कर रख दिया जाता था। जब कभी वह किताब खुलती और उस किताब का वह पन्ना सामने होता तो मुरझाया ही सही, वह फूल भी सामने आ जाता था और सामने आ कर दिल में अजीब-सी हलचल जगा कर उन क्षणों की अनायास ही याद दिला देता, जब आपस में दो प्रेम करने वालों में से किसी एक ने दूसरे को प्रेम के प्रतीक फूल को उपहार स्वरूप भेंट किया होता था। भले ही फूल सूख चुका होता था लेकिन प्रेम की महक का अहसास पूरी शिद्दत से दिलो दिमाग छा जाता था।
किताब में दबे हुए सूखे फूल की चर्चा शायर "अहमद फ़राज़" ने अपने इस मतले में यूं की है -
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें।
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें।

किताब में दबा हुआ फूल, प्रेम के पलों की यादों को किस तरह ताज़ा कर देता है डॉ. (सुश्री) शरद सिंह के इस मतले से बयां हो रहा है -
किसी किताब में एक फूल सी दबी यादें ।
दिखी हैं आज हथेली पे वो रखी यादें ।

यकीनन, किताबों में सहेज कर रखा गया फूल प्रेम में डूबे हुए पलों की यादें ताज़ा कर देता है लेकिन यदि उस फूल को सहेज कर नहीं रखा गया और गुलदान में रखे हुए फूल की तरह उसे मुरझाने के बाद कूड़ेदान में फेंक दिया गया तो प्रेम भी अतीत के साथ ही कालकवलित हो जाता है। तब न तो फूल शेष रह जाता और न ही प्रेम का ताज़गी भरा अहसास। इसलिए  प्रेम को भी फूल की तरह सहेज कर रखा जाना चाहिए। संबंधों में बंधा हुआ प्रेम अगर टूट जाए तो अदालत की ड्योढ़ी तक जा पहुंचता है। पंखुरी दर पंखुरी सहेजा गया प्रेम ही जीवन को संवारता है। संवेदनाओं को नित नई ऊर्जा से भरता है। प्रेम मुरझाए हुए फूल में भी जीवंतता भर देता है। हम सहेज लें प्रेम को फूल की पंखुरी की तरह।

और अंत में प्रस्तुत है मेरी एक ग़ज़ल का मतला…
भूली बिसरी याद जाग कर हलचल करती है दिल में।
सूखा फूल मिला हो जैसे किसी पुराने नॉविल में।
      ----------- -
सागर, मध्यप्रदेश





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Wednesday, July 15, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 7 | पहली डांट | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
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दिनांक 15.07.2020

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बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

पहली डांट
           -डॉ. वर्षा सिंह
   सुबह अख़बार पढ़ते समय अंदर के पृष्ठ पर अचानक मेरी नज़र आख़िरी कॉलम के कोने में प्रकाशित उस सूचना पर पड़ गई जिसमें सूचनाकर्ता के हवाले से लिखा था कि फलां आवारागर्द शख़्स सूचनाकर्ता व्यक्ति का बेटा है जिसका अब सूचनाकर्ता से किसी तरह का कोई भी संबंध नहीं है। यूं तो अख़बारों में इस तरह की सूचनाएं प्रकाशित होना कोई ख़ास बात नहीं है, लेकिन कहीं किसी ख़बर से को-रिलेट इस सूचना ने मेरे चिंतन के दरवाज़े पर ज़ोरदार दस्तक दे दी।
    अक्सर ऐसा होता है कि बिगड़ी औलाद के माता-पिता को इस तरह का कठोर क़दम उठाने पर मज़बूर हो जाना पड़ता है। परिस्थितियां इस तरह निर्मित हो जाती हैं कि अपने ज़िगर के टुकड़े, अपनी सगी औलाद से उन्हें सारे रिश्ते ख़त्म करने के लिए मज़बूर हो जाना पड़ता है। लेकिन ऐसी परिस्थितियों के निर्मित होने के लिए ज़िम्मेदार आख़िर कौन होता है ? क्या वे बिगड़ैल आवारागर्द बच्चे या स्वयं माता-पिता ?
       गहराई और गम्भीरता से यदि इस प्रश्न पर विचार किया जाए तो यह तथ्य सामने आता है कि कहीं न कहीं इस सबके लिए पेरेंट्स यानी बच्चे के माता - पिता ही ज़िम्मेदार रहते हैं। यह कहा जाता है कि किसी भी बच्चे की पहली पाठशाला, उसका अपना घर ही होता है और पहली शिक्षिका उसकी अपनी मां होती है।
       इस संदर्भ में मुझे याद आ रही है मेरी अनुजा डॉ. (सुश्री) शरद सिंह द्वारा लिखी "भारत के आदिवासी क्षेत्रों की लोककथाएं" पुस्तक में भील आदिवासियों के मध्य प्रचलित एक कथा… इस कथा का मुख्य पात्र सानक बचपन में कहीं जाता तो चोरी से वहां की कोई न कोई चीज़ उठा लाता। उसकी मां उस चोरी की हुई चीज़ को देख कर सानक को डांटने के बजाए शाबाशी देती और इसी तरह चीज़ें चुरा कर लाने के लिए प्रोत्साहित करती। सानक जब युवा हुआ तो एक दिन उसने सेठ के घर चोरी करने का निश्चय किया। सेठ के घर से कीमती सामान चुरा कर सानक जब भागने का प्रयास कर रहा था, तभी चौकीदार ने उसे देख लिया। घबराहट में सानक ने वहां रखी वज़नदार सुराही चौकीदार के सिर पर दे मारी, जिससे चौकीदार का सिर फूट गया और उसकी मृत्यु हो गई। सानक पकड़ा गया। उसे चोरी के साथ ही हत्या का भी दोषी पाया गया। सानक को मृत्युदंड की सज़ा सुना दी गई। जब फांसी दिए जाने के पूर्व सानक से उसकी अंतिम इच्छा पूछी गई तो सानक ने अपनी मां से मिलने की इच्छा प्रकट की। मां बेटे से मिलने आई तो उसे फांसी के फंदे के पास देख कर फूट-फूट कर रोने लगी। तब सानक ने मां से कहा- "अरे, तुम क्यों रो रही हो ? यह तो तुम्हारी ही दी हुई शिक्षा और प्रोत्साहन का नतीज़ा है। तुम्हें तो ख़ुश होना चाहिए।"
      मां यह सुन कर सन्न रह गई। सचमुच असली अपराधी तो वह स्वयं है। वह रोते हुए न्यायाधीश से प्रार्थना करने लगी कि सानक को चूंकि उसने ही चोरी करने के लिए प्रोत्साहित किया था अतः फांसी की सज़ा सानक के बदले उसे दे दी जाए। न्यायाधीश समझ गए कि मां-बेटे दोंनों की आंखें खुल गई हैं तो उन्होंने सानक की फांसी की सज़ा को बदल कर मां- बेटे को जीवन भर मृतक चौकीदार के आश्रितों की सेवा करने की सज़ा सुना दी।
     इस कहानी का भी यही निष्कर्ष है कि यदि मां ने बचपन में की गई पहली चोरी के लिए अपने पुत्र को डांट दिया होता और उसे प्रोत्साहित करने के बजाए भविष्य में चोरी न करने के लिए समझाया होता तो पुत्र चोरी और फिर हत्या जैसा अपराध कभी नहीं करता।
     … और इस प्रसंग से तो सभी परिचित होंगे कि महात्मा गांधी जब अपनी युवावस्था में उच्च शिक्षा प्राप्त करने विदेश जाने लगे तो उस समय महात्मा गांधी की माता पुतली बाई ने उन्हें शपथ दिलाई थी कि - 'बेटा, तुम मेरे सामने प्रतिज्ञा करो कि मै मांस नहीं खाऊंगा, मदिरा नहीं पीऊंगा और कुसंगति में पड़कर गलत मार्ग नहीं अपनाऊंगा।' महात्मा गांधी द्वारा यह शपथ लेने के बाद ही उनकी माता ने उन्हें विदेश जाने की आज्ञा दी थी। जिसे उन्होंने आजीवन निभाया भी। मुद्दे की बात यह है कि बचपन में मिली शिक्षा मनुष्य को श्रेष्ठ भी बना सकती है और एक अपराधी के रूप में उसे एनकाउंटर की गोली के सामने भी पहुंचा सकती है। यह निर्भर करता है कि बचपन में उसे कैसी शिक्षा दी गई। उसके पहले गलत कदम पर रोक लगाई गई या नहीं।
और अंत में मेरी ये काव्य पंक्तियां….
मैं हूं कच्ची मिट्टी,  माता ! जैसा चाहो ढालो ।
देव बना लो चाहे मुझको, दानव मुझे बना लो।
             -----------------

सागर, मध्यप्रदेश ।




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Wednesday, July 8, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 6 | भगवान का अधूरा रह जाना | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
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दिनांक 08.07.2020

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बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

भगवान का अधूरा रह जाना
           -डॉ. वर्षा सिंह

          अभी पिछले दिनों आषाढ़ मास में पुरी सहित देश के अनेक भागों में रथ यात्रा निकाली गई। भगवान जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा की प्रतिमाओं का रथ यात्रा के दौरान पूजन अर्चन किया गया । इन प्रतिमाओं के निर्माण की कहानी भी अद्भुत है।       
           पौराणिक कथाओं के अनुसार मालवा के राजा इंद्रद्युम्न को एक बार सपने में भगवान जगन्नाथ ने दर्शन दिया और कहा कि द्वारका से तैरकर पुरी की तरफ आ रहे एक बड़े से पेड़ के टुकडे़ से तुम मेरी, दाऊ बलभद्र और बहन सुभद्रा की मूर्ति का निर्माण कराओ। लकड़ी के लट्ठे से मूर्ति निर्माण कैसे किया जाएगा, यह सोच कर राजा चिंतित हो गए। एक दिन विश्वकर्मा वृद्ध मूर्तिकार के रूप में राजा के पास आए और कहा कि एक कमरे में वह मूर्ति का निर्माण करना चाहते हैं लेकिन धैर्यपूर्वक मूर्ति के पूर्ण होने की प्रतीक्षा की जाए और जब तक वह न कहें कमरे का दरवाज़ा न खोला जाए। कुछ दिनों तक कमरे से मूर्ति निर्माण की ध्वनि बाहर आती रही, इसके बाद आवाज़ आना बंद आ गई। राजा को मूर्तिकार के विषय में चिंता होने लगी, उनका धैर्य समाप्त हो गया और उन्होंने कमरे का द्वार खुलवा दिया। कमरा खुलते ही राजा हैरान रह गए क्योंकि कमरे के अंदर कोई नहीं था और भगवान जगन्नाथ के साथ सुभद्रा और बलभद्र की अधूरी मूर्ति विराजमान थी। राजा को अपने किए पर बहुत पश्चाताप हो रहा था। लेकिन इसे ही दैवयोग मानकर इसी मूर्ति को मंदिर में स्थापित करवा दिया।  राजा के द्वारा दरवाज़ा खोल देने के कारण जगन्नाथपुरी की प्रतिमा निर्माण अधूरा रह गया क्योंकि मूर्ति निर्माता विश्वकर्मा ने जो कहा था कि धैर्य रखो, उस पर अमल नहीं किया गया।
       इस कथा को एक धार्मिक कथा के रूप में हम सभी लगभग अपने बचपन के दिनों से पढ़ते, सुनते आ रहे हैं, किन्तु इस कथा में समाहित इसके मर्म को हम आत्मसात नहीं करते हैं। यदि इस कथा के मर्म पर दृष्टि डालें तो हम पाएंगे कि देव प्रतिमाओं के अधूरे रह जाने की यह कथा आज भी प्रासंगिक है। दरअसल, आज की युवा पीढ़ी में भी धैर्य नहीं है। वे अनेक क्षेत्रों में एक साथ हाथ आज़माते हुए प्रत्येक क्षेत्र में शीघ्रता से सफलता हासिल कर लेना चाहते हैं। लेकिन ऐसी स्थिति में प्रायः सफलता हाथ नहीं लगती क्योंकि उनका ज्ञान अधूरा रहता है और धैर्यपूर्वक किसी एक क्षेत्र में निपुणता हासिल करने की लगन नहीं रहती। जिसके कारण अक्सर उन्हें हताशा ही हाथ लगती है और इस हताशा के चलते कभी-कभी वे आत्मघाती कदम भी उठा लेते हैं।
      समाचारों में ऐसी अनेक घटनाएं सुनने, पढ़ने, देखने को मिलती हैं जिनमें किसी क्षेत्र विशेष में इच्छित परिणाम अथवा पूर्ण सफलता हासिल नहीं कर पाने और धैर्य खो बैठने के कारण युवा आत्महत्या करने के लिए प्रेरित हो जाते हैं। परीक्षा में असफलता, प्रेम में असफलता, कैरियर में असफलता… आदि, ऐसी किसी भी तरह की असफलता  मिलने पर वे धैर्यपूर्वक "बीती ताहि बिसार के आगे की सुध लेय" पर अमल नहीं करते हुए अपने जीवन की इहलीला समाप्त कर जीवन से ही पलायन कर जाते हैं।
       संत कबीर ने कहा है -
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।

       अर्थात् मन में धीरज रखने से सब कुछ होता है। यदि कोई माली फल प्राप्ति की आशा में उतावला हो कर किसी पेड़ को प्रतिदिन सौ घड़े पानी से सींचने लग जाए तब भी फल तो ऋतु आने पर ही लगेगा !
           इसलिए यदि धैर्य रखा जाए तो जैसे ईश्वर की पूर्णता प्राप्त होती है वैसे ही प्रत्येक कार्य में भी सफलता मिलती है। जी हां, यदि ईश्वर की पूर्ण प्रतिमा प्राप्ति की इच्छा है तो प्रतिमा के पूर्ण होने तक धैर्य का दामन थामे रखना होगा… और इसी प्रकार किसी भी क्षेत्र में सफलता हासिल करने की लालसा है, तो धैर्यपूर्वक पूरे मनोयोग से उस कार्य को करते रहना होगा।
और अंत में मेरी ये काव्यपंक्तियां ….
विषम परिस्थिति में भी जिसने, धीरज नहीं गंवाया है ।
पूर्ण सफलता पा कर उसने, मनचाहा फल पाया है।
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Wednesday, July 1, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 5 | महात्मा गांधी ने यूं ही नहीं कहा था | डॉ. वर्षा सिंह

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बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

महात्मा गांधी ने यूं ही नहीं कहा था     
                - डॉ. वर्षा सिंह

       आज के समय में एक बुरा बोल और फिर "ट्रोल" … हजारों-लाखों बुरे बोलों को जन्म दे देता है। फिलहाल मैं आज सुबह की एक घटना बताऊं कि आज सुबह जब मैं किचन में आटा गूंथ रही थी उस वक़्त मुझे लगा कि मेरे मोबाइल की घंटी बज रही है। मेरा मोबाइल उस वक़्त बेडरूम में चार्जर पर लगा हुआ था। चूंकि मेरे हाथों में आटा लगा था इसलिए मैं तत्काल मोबाइल उठा नहीं पाई। बाद में लगभग 10-15 मिनट बाद जब मैंने मोबाइल चार्जर से अलग कर उठाया, देखा, तो पाया कि उसमें मौसी जी की मिस्ड कॉल दिखाई दे रही थी... एक नहीं 5- 6 मिस्ड कॉल। उफ ! यह तो बड़ा ग़लत हुआ। मौसी जी की कॉल नहीं उठाने का मतलब है मौसी जी की नाराज़गी झेलना । मन ही मन डरते हुए मैंने मौसी जी को कॉलबैक किया। तब मौसी जी उधर से फोन उठाते ही एकदम भड़क उठीं। वे लगभग चीखती हुई बोलीं - "क्या वर्षा ! मैंने कितने कॉल किए, तुमने एक भी नहीं उठाया।आखिर ऐसा क्या हो गया ? मैंने ऐसा क्या कह दिया कि तुम मेरे फोन कॉल नहीं उठा रही हो?"
   मौसी जी का क्रोध शांत करने के लिए मैं अपनी सफ़ाई देने लगी- " वो क्या है न मौसी जी, कि मैं किचन में थी और आटा गूंथ रही थी, तो हाथों में आटा लगे होने के कारण मैं तत्काल मोबाइल पर आपकी कॉल अटेंड नहीं कर पाई"
   लेकिन मौसी जी मेरी बात अनसुना करते हुए कहती ही रहीं - "मेरी तो कोई सुनता ही नहीं। मुझसे तो कोई बात ही नहीं करना चाहता। मेरी तो कोई अहमियत ही नहीं रह गई है "..... अलाने, फलाने, फलाने । मौसी जी ने मेरी एक भी बात नहीं सुनी। वे बड़बड़ाती हुई सी अपनी ही बातें करती रहीं और मुझे बुरा भला कहती रहीं।
     मौसी जी की बातें सुनकर अचानक मुझे याद आया कि मौसी जी की इसी आदत की वजह से उनकी कुटुंब के किसी सदस्य से नहीं बनती है। जी हां , वस्तुस्थिति यह है कि कुटुंब के सभी सदस्य उनसे निर्वाह करते रहते हैं किंतु वे किसी से भी निर्वाह करने की स्थिति निर्मित नहीं होने देतीं और अपने बुरे बोल के कारण वे कुटुंब परिवार में सबसे अलग-थलग सी हो कर रह गई हैं।
     बुरे बोल… जी हां, बुरे बोल का सीधा साधा अर्थ है ऐसे वचन जो दूसरों के दिल को ठेस पहुंचाएं। लोग ऐसे बुरे बोल कभी-कभी जानबूझकर बोलते हैं और कभी-कभी अनजाने में बोल बैठते हैं, लेकिन बुरे बोल का परिणाम भी बुरा ही होता है। महाभारत की कथा लगभग हम सभी ने पढ़ी होगी और जिन्होंने नहीं पढ़ी होगी उन्होंने महाभारत महाकाव्य पर बने टीवी सीरियल्स जरूर देखे होंगे। महाभारत की एक घटना है कि जब इंद्रप्रस्थ में पांचो पांडव और द्रौपदी निवासरत थे तब दुर्योधन अपने भाइयों सहित वहां पहुंचा था। इंद्रप्रस्थ में पांडव जिस महल में निवास कर रहे थे वह महल मय नामक दानव द्वारा निर्मित था। उसकी विशेषता यह थी कि उसमें अनेक भ्रामक वास्तुशिल्पकारी थी अर्थात जहां भूमि होने का आभास होता था, वहां पर जल संचयित था और जहां जल संचयित था वहां भूमि होने का आभास होता था। दुर्योधन और उसके भाई इस आभासीय वास्तुशिल्पकारी को नहीं समझ पाने और भ्रमित होने के कारण पानी से भरे स्थान को पक्की ज़मीन समझकर उसमें गिर पड़े। तब द्रोपदी स्वयं पर नियंत्रण न रखते हुए  हंसकर व्यंग्ग्यपूर्वक बोल उठी कि - "अंधे का पुत्र अंधा ही होता है।" … और द्रोपदी का यह बोल दुर्योधन के हृदय में तीर के समान चुभ गया। दुर्योधन के पिता धृतराष्ट्र जन्मांध थे। दुर्योधन ने द्रोपदी की इस बात का बदला लेने के लिए अपने महल में द्यूत क्रीड़ा के लिए पांडवों को आमंत्रित किया और छलपूर्वक पांडवों को लगातार पराजित कर, द्रोपदी को भी दांव पर लगवा कर भरी सभा में द्रोपदी का अपमान किया। …. और इन्हीं सब घटनाक्रमों ने महाभारत का सूत्रपात किया। यानी एक बुरे बोल ने इतने बड़े महाभारत का युद्ध करवा दिया।
    यह तो हुई द्वापर युग की महाभारतकालीन बुरे बोल के बुरे परिणाम की घटना, किंतु हम सभी दिन-प्रतिदिन की समसामयिक घटनाओं में अक्सर यह सुनते-पढ़ते हैं कि फलां ने फलां के विरुद्ध बयानबाज़ी करते हुए बुरी-बुरी बातें कही हैं। कठोर व्यंग्य किए हैं और दिल को ठेस पहुंचाने वाले ताने मारे हैं… और फिर लगातार "ट्रोल" हो रहे हैं। ज़रा सोचिए कि इस तरह के बुरे बोल वाली बयानबाज़ी से क्या कभी किसी का भला हो सकता है ? क्या देश का विकास हो सकता है ? क्या सामाजिक संरचना का उन्नयन हो सकता है ? क्या हम अपने संस्कारों की, अपनी संस्कृति की रक्षा कर सकते हैं ? क्या हम मर्यादित होकर रह सकते हैं ? …. नहीं हरगिज़ नहीं।
        महात्मा गांधी ने यूं ही नहीं कहा था कि बुरा मत बोलो। ज़रा याद कीजिए गांधी जी के तीन बंदर । जिनमें से एक बंदर जिसने अपने दोनों हाथों से अपना मुंह बंद कर रखा है, उसका यही संदेश दिया है कि बुरा मत बोलो। महात्मा गांधी यदि चाहते तो स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए असहयोग आंदोलन नहीं चला कर अंग्रेजों के विरुद्ध बयानबाज़ी कर सकते थे, बुरे बोल बोल सकते थे। किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। जी हां, महात्मा गांधी का चिंतन वैश्विक चिंतन है, वे जानते- समझते थे कि बुरे बोल से किसी का भला होने वाला नहीं है। काश, इस बुरे बोल का बुरा परिणाम वाली ज़रा सी बात को हमारे आज के ज़िम्मेदार समझ पाते और आपस में बुरे बोल बोल कर आपसी वैमनस्यता को बढ़ावा देने से बचते, तो हमारा लोकतंत्र और अधिक मज़बूत होता। देश का सर्वांगीण विकास होता और भारत विश्वगुरु का दर्ज़ा हासिल कर लेता। यही तो सपना देखा था महात्मा गांधी ने। काश, बुरे बोल का त्याग कर हम महात्मा गांधी के सपने को पूरा कर पाते।

और अंत में मेरी ये काव्यपंक्तियां ......
सत्य, अहिंसा को अपनाना सबके बस की बात नहीं।
राष्ट्रपिता गांधी हो जाना  सबके बस की बात नहीं।
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