Wednesday, November 25, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 26 | कलियुग के कर्ण : डॉ. हरीसिंह गौर | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय ब्लॉग पाठकों, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज पढ़िए "कलियुग के कर्ण : डॉ. हरीसिंह गौर" ...अपने विचारों से अवगत कराएं ...और शेयर करें 🙏
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 25.11.2020
मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं-

बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

       कलियुग के  कर्ण : डॉ. हरीसिंह गौर
                               -डॉ. वर्षा सिंह
    
        रामचरित मानस के लंकाकांड में राम-रावण युद्ध के दौरान का एक प्रसंग है। लंकापति रावण वनवासी राम से युद्ध करने अपनी विराट सेना ले कर निकल पड़ा। तब विभीषण रावण को रथ पर और राम को बिना रथ के देखकर अधीर हो गया। उसके मन में क्षण भर के लिए यह संदेह उपजा कि राम बिना रथ के रावण को भला कैसे जीत सकेंगे ! वह कह उठा -

         नाथ न रथ नहि तन पद त्राना। 
         केहि बिधि जितब बीर बलवाना॥
         सुनहु सखा कह कृपानिधाना। 
         जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना॥
 अर्थात् हे नाथ! आपके पास न रथ है, न ही तन की रक्षा करने वाला कवच है और नही पैरों में  जूते ही हैं। ऐसी स्थिति में आप उस बलवान वीर रावण पर किस प्रकार विजय प्राप्त कर पाएंगे? मित्र विभीषण की यह बात सुन कर कृपानिधान राम ने कहा- हे सखे! सुनो, जिससे जय होती है, उसके पास एक दूसरा ही विशेष रथ होता है। -

           ईस भजनु सारथी सुजाना। 
           बिरति चर्म संतोष कृपाना॥
           दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा। 
           बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥
अर्थात् ईश्वर का भजन ही उस रथ को चलाने वाला चतुर सारथी है। वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है।
    यहां दान की महिमा-शक्ति को फरसे के रूप में व्याख्यायित करने वाले तुलसीदास दान को रोगहर्ता औषधि के रूप में भी निरूपित करते मिलते हैं। रामचरितमानस उत्तरकाण्ड में
गरुड़जी के सात प्रश्न तथा काकभुशुण्डि के उत्तरों की श्रृंखला की इस चौपाई में दान को भी शामिल किया गया है  -

   नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान।
अर्थात् नियम, धर्म, आचार (उत्तम आचरण), तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान ये सभी औषधियां हैं जिनसे कठिन से कठिन रोग भी ठीक हो जाते हैं।

     अथर्ववेद के अनुसार ‘सौ हाथों से धन अर्जित करो और हजार हाथों से उसका दान करो’- 
 शतहस्त समाहर सहस्रहस्त सं किर। 

      ऋग्वेद में तो ऐसे अनेक सूक्त तथा मंत्र हैं, जिनकी संज्ञा 'दानस्तुति' है। दानस्तुति का शाब्दिक अर्थ है 'दान की प्रशंसा में गाए गए मंत्र'। व्यापक अर्थ में दान के उपलब्ध में राजाओं तथा यज्ञ के आश्रयदाताओं की स्तुति में ऋषियों द्वारा गाई गई ऋचाएँ 'दानस्तुति' हैं। ऋग्वेद में कहा गया है कि धनवान को चाहिए कि वह धनार्थी को धन का दान करे, क्योंकि संपत्ति कभी एक जगह स्थिर नहीं रहती। वह रथ के पहिए के आवर्तन की भांति, कभी एक पुरुष के पास, कभी दूसरे पुरुष के पास घूमती रहती है।

   जगद्गुरु शंकराचार्य ने भी कहा है- 
           दानं परं किं च सुपात्र दत्तम्‌
अर्थात् श्रेष्ठदान वहीं है जो सुपात्र को दिया जाए। शास्त्रों के अनुसार धन की तीन गति होती है-दान, भोग और नाश। जो व्यक्ति दान नहीं करता है, और न ही उसका भोग करता है उसका धन तीसरी गति को प्राप्त हो जाता है अर्थात् नष्ट हो जाता है।
    सतयुग, त्रेता और द्वापर में एक से एक बढ़ कर दानी हुए हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथों, पौराणिक कथाओं में ऐसे अनेक दृष्टांत मौज़ूद हैं जब अपने तन, मन, धन की परवाह किए बिना लोगों ने परहित में अपना सर्वस्व दान कर दिया। 
सतयुग में महर्षि दधीचि हुए। उनके पिता का नाम ऋषि अथर्वा था और माता का नाम शांति था।  दधीचि ने अपना संपूर्ण जीवन शिव की भक्ति में व्यतीत किया था। दधीचि वेद-शास्त्रों के ज्ञाता, परोपकारी और बहुत दयालु थे। उनके जीवन में अहंकार के लिए कोई स्थान नहीं था । वे सदा दूसरों का हित करने के लिए तत्पर रहते थे। वे इतने परोपकारी थे कि उन्होंने असुरों का संहार के लिए अपनी अस्थियां तक दान में दे दी थीं। 
   महाराज शिवि की दानवीरता और न्यायप्रियता की कथा भी ऐसी ही है। देवराज इंद्र ने उनकी न्यायप्रियता की कहानी सुनी तो उन्हें शंका हुई और उसने शिवि परीक्षा लेनी चाही। देवराज इंद्र और अग्नि देव ने योजना बनाई, जिसके अंतर्गत देवराज इंद्र ने बाज का और अग्नि ने कबूतर का रूप धारण कर शिवि की परीक्षा लेने का उपक्रम किया। एक दिन महाराज शिवि अपने महल के बगीचे में बैठे हुए थे। तभी उनकी गोद में एक घायल कबूतर गिरा। कबूतर का पीछा करते एक बाज भी आया। बाज ने शिवि से कहा कि हे राजन् ! कबूतर मेरा भोजन है। इसे मुझे सौंप दीजिये। महाराज शिवि ने कहा कि ये कबूतर मेरी शरण में आया है और मैं अपने शरण में आये किसी भी जीव के प्राणों की रक्षा करने के लिए प्रतिबद्ध हूँ। तब बाज ने कहा कि महाराज ये मेरा आहार है और किसी के आहार को छीनना धर्म नहीं है। इसपर शिवि ने बाज को उसके आहार  व्यवस्था करने की बात कही तो बाज ने कहा की महाराज आप इस कबूतर के बराबर का मांस हमें दे दीजिये। हमें  और कुछ नहीं चाहिए।
महाराज शिवि ने निश्चय किया की कबूतर की जगह वे अपना मांस उस बाज को खिलाएंगे। क्योंकि शिवि अपने राज्य के किसी और प्राणी को मरने नहीं दे सकते थे। वहां एक तराजू मंगाया गया। उस तराजू पर एक तरफ कबूतर को बैठाया गया और दूसरी तरफ महाराज शिवि अपने शरीर से मांस काटकर  रखते गए। पर हर बार कबूतर का पलड़ा भारी रहता था। अंत में तराजू के दूसरे पलड़े पर रक्तरंजित महाराज शिवि स्वयं बैठ गए। तब दूसरा पलड़ा भारी हो गया। अब देवराज इंद्र और अग्नि देव की शंका दूर हुई और वे अपने असली रूप में आ गये। दोनों ने महाराज शिवि की दानवीरता और न्यायप्रियता से प्रसन्न होकर उन्हें आशीर्वाद दिया और चले गए।
     त्रेतायुग में राक्षसवंशी राजा बलि ने जब अपने पराक्रम से तीनों लोकों पर अधिकार कर लिया तो देवताओं की प्रार्थना पर विष्णु ने छलपूर्वक बलि से वापस तीनों लोक लेने की योजना बनाई। वे वामन रूप में बलि के पास पहुंचे और दान में तीन पग यानी तीन क़दम भूभि मांग ली। राक्षसकुल गुरु शुक्राचार्य द्वारा समझाने और विष्णु के छल को समझने के बावज़ूद उदारमना राजा बलि ने वामन रूप में पधारे याचक विष्णु को तीन कदम भूमि दान करने हेतु स्वीकृति दे दी। तब विष्णु ने विराट स्वरुप धरा और एक पांव में धरती, दूसरे में स्वर्ग अर्थात् देवलोक नाप लिया तथा तीसरे में पाताल लोक नाप लिया और फिर दक्षिणा देने का अनुरोध किया। अब दक्षिणा देने के लिए कुछ नहीं बचा था। तब दानवीर बलि ने अपना शरीर आगे कर दिया। विष्णु ने बलि का शरीर दक्षिणा के रूप में स्वीकार कर लिया।
       द्वापरयुग के दानवीर कर्ण की कथा सभी जानते हैं। महाभारत महाकाव्य में कर्ण की दानवीरता के अनेक प्रसंग हैं। वह अपने पास आए किसी भी याचक को कभी खाली हाथ नहीं लौटाता था, ऐसी उसकी कीर्ति थी। कर्ण प्रतिदिन सुबह स्नान के लिए नदी पर जाता था। जल में उतरकर सूर्य को अर्घ देता और स्नान के उपरांत जो भी याचक उसके पास आता, उसे वह मुंहमांगी वस्तु प्रदान करता था। महाभारत युद्ध काल में इन्द्र को अपना जन्मजात कवच और कुण्डल तथा कुन्ती को उसके पांच पुत्र जीवित रहने का वचन दान स्वरूप दे दिया था। एक और प्रसंग है कर्ण की दानवीरता का। एक दिन एक याचक युधिष्ठिर के पास आया और बोला, महाराज! मैं आपके राज्य में रहने वाला एक ब्राह्मण हूं और मेरा व्रत है कि बिना हवन किए अन्न-जल ग्रहण नहीं करता हूं। कई दिनों से मेरे पास यज्ञ के लिए चंदन की लकड़ी नहीं है। यदि आपके पास हो तो, मुझ पर कृपा करें, अन्यथा हवन तो पूरा नहीं ही होगा, मैं भी भूखा-प्यासा मर जाऊंगा। युधिष्ठिर ने तुरंत कोषागार के कर्मचारी को बुलवाया और कोष से चंदन की लकड़ी देने का आदेश दिया। संयोग से कोषागार में सूखी लकड़ी नहीं थी। तब महाराज ने भीम व अर्जुन को चंदन की लकड़ी का प्रबंध करने का आदेश दिया। लेकिन काफी दौड़- धूप के बाद भी सूखी लकड़ी की व्यवस्था नहीं हो पाई। तब ब्राह्मण को हताश होते देख कृष्ण ने कहा, मेरे अनुमान से एक स्थान पर आपको लकड़ी मिल सकती है, कृपया मेरे साथ चलें। ब्राह्मण यह सुनकर खुश हो गए। तब कृष्ण ने अर्जुन व भीम के साथ वेष बदलकर ब्राह्मण को संग लेकर चल दिए। कृष्ण सबको लेकर कर्ण के महल में गए। सभी ब्राह्मणों के वेष में थे, अत: कर्ण ने उन्हें पहचाना नहीं। याचक ब्राह्मण ने जाकर लकड़ी की अपनी वही मांग दोहराई। कर्ण ने भी अपने भंडार के मुखिया को बुलवा कर सूखी लकड़ी देने के लिए कहा, वहां भी सूखी लकड़ी नहीं थी। ऐसे में ब्राह्मण निराश हो गया। तभी कर्ण ने कहा, हे ब्राह्मण देव! आप निराश न हों, मैं आपको सूखी लकड़ियां अवश्य दूंगा। फिर कर्ण ने अपने महल के खिड़की-दरवाजों में लगी चंदन की लकड़ी काट-काट कर ढेर लगा दी और  ब्राह्मण से कहा कि आपको जितनी लकड़ी चाहिए, कृपया ले जाइए। कर्ण ने लकड़ी ब्राह्मण के घर पहुंचाने का प्रबंध भी कर दिया। ब्राह्मण कर्ण को आशीर्वाद देता हुआ लौट गया। कृष्ण ने पांडवों को कर्ण की दानशीलता प्रत्यक्ष दिखला दी।
    कलियुग में दानवीरता की ऐसी कथाएं बहुत कम ही मिलती हैं। श्रीरामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में कलियुग की विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए दान देने की भावना का ह्रास होने की बात गोस्वामी तुलसीदास इस चौपाई के माध्यम से कहते हैं -

        दम दान दया नहिं जानपनी। 
        जड़ता परबंचनताति घनी॥
        तनु पोषक नारि नरा सगरे। 
        परनिंदक जे जग मो बगरे॥
अर्थात् इंद्रियों का दमन, दान, दया और समझदारी किसी में नहीं रही है । मूर्खता करना और दूसरों को ठगना, यह बहुत अधिक बढ़ गया है। शरीर के ही पालन-पोषण में ही नर और नारी सभी लगे रहते हैं। पराई निंदा करने वाले पूरे जगत में फैले हुए हैं।
    किन्तु मध्यप्रदेश के सागर नगर का डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय कलियुग के महान दानवीर सपूत डॉ. हरीसिंह गौर की दानवीरता का प्रत्यक्ष उदाहरण है। 
      डॉ. हरीसिंह गौर का जन्म 26 नवम्बर 1870 को सागर जिले के शनिचरी नामक स्थान में एक निर्धन परिवार में हुआ था। उनके पिता मानसिंह (भूरा सिंह) पहले अवध से गादपेहरा फ़ोर्ट में रहे फिर सागर आकर बस गए। भूरा सिंह ने सागर में फ़र्नीचर का व्यापार शुरु कर दिया। उनके तीन भाई, ओंकार सिंह, गणपत सिंह और आधार सिंह तथा दो बहने लीलावती और मोहनबाई थीं। उन्होंने सागर मुख्यालय में ही स्थित गवर्नमेंट हाईस्कूल से मिडिल स्तर की शिक्षा प्रथम श्रेणी में प्राप्त की थी। छात्रवृत्ति पर मिडिल से आगे की पढ़ाई के लिए वे जबलपुर गए और वहां से महाविद्यालयीन शिक्षा के लिए नागपुर के हिसलप कॉलेज में दाखिला ले लिया, जहां से उन्होंने इंटरमीडिएट की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में की थी। वे प्रांत में प्रथम रहे तथा छात्रवृति पर ही सन् 1889 में उच्च शिक्षा लेने इंग्लैंड गए। सन् 1892 में दर्शनशास्त्र एवं अर्थशास्त्र में ऑनर्स की उपाधि प्राप्त की। फिर 1896 में एम.ए., सन 1902 में एल.एल.एम. और अन्ततः सन 1908 में एल.एल.डी. की उपाधि प्राप्त की। कैम्ब्रिज में पढ़ाई से जो समय बचता था उसमें वे ट्रिनिटी कालेज में डी लिट्, तथा एल.एल.डी. की पढ़ाई करते थे। सन् 1912 में वे बैरिस्टर होकर स्वदेश आ गये। उनकी नियुक्ति सेंट्रल प्रॉविंस कमीशन में एक्स्ट्रा `सहायक आयुक्त´ के रूप में भंडारा ज़िले में हो गई। जहां से शीघ्र ही त्यागपत्र दे कर वे अखिल भारतीय स्तर पर वकालत करने लगे और मध्य प्रदेश, भंडारा, रायपुर, लाहौर, कलकत्ता, रंगून तथा चार वर्ष तक इंग्लैंड की प्रिवी काउंसिल में वकालत करते रहे।
    सन् 1921 में केंद्रीय सरकार ने जब दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थापना की तब डॉ. सर हरीसिंह गौर को विश्वविद्यालय का संस्थापक कुलपति नियुक्त किया गया। उन्हें 9 जनवरी 1925 को शिक्षा के क्षेत्र में 'सर' की उपाधि से विभूषित किया गया, तत्पश्चात डॉ. सर हरीसिंह गौर को दो बार नागपुर विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया।
     डॉ. हरीसिंह गौर को अपनी जन्मभूमि सागर में उच्च शिक्षा की व्यवस्था नहीं होने की पीड़ा सदैव उनके मन को कचोटती थी। इसी कारण द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात ही इंग्लैंड से लौट कर उन्होंने स्वेच्छा से दान दे कर अपने जीवन भर की गाढ़ी कमाई से इसकी स्थापना करायी। उन्होंने अपनी गाढ़ी कमाई से 20 लाख रुपये की धनराशि का दान दे कर लोकहित में 18 जुलाई 1946 को अपनी जन्मभूमि सागर में सागर विश्वविद्यालय की स्थापना की। डॉ. गौर ने वसीयत द्वारा अपनी निजी सम्पत्ति से 2 करोड़ रुपये दान भी दिया था। डॉ हरीसिंह गौर सागर विश्वविद्यालय के संस्थापक, उपकुलपति के रूप में अपने जीवन के आखिरी समय 25 दिसम्बर 1949 तक विश्वविद्यालय के विकास के प्रति संकल्पित रहे। उनका स्वप्न था कि सागर विश्वविद्यालय, कैम्ब्रिज तथा ऑक्सफोर्ड जैसी मान्यता हासिल करे। सागर विश्वविद्यालय का नाम सागर के नागरिकों की मांग पर कालांतर में डॉ. गौर के नाम पर डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय रख दिया गया। 
       आज डॉ. हरीसिंह गौर की ही देन है सागर का डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, जिसकी स्थापना एक दानवीर शिक्षाविद के द्वारा स्वेच्छा से किए गए दान के द्वारा हुई है। सागर विश्वविद्यालय के संस्थापक डॉ. गौर दानवीर होने के साथ ही शिक्षाशास्त्री, ख्यति प्राप्त विधिवेत्ता, समाज सुधारक, साहित्यकार, कवि, उपन्यासकार, न्यायविद् एवं देशभक्त थे। वे बीसवीं शताब्दी के सर्वश्रेष्ठ शिक्षाशास्त्रियों में से थे। डॉ. गौर दिल्ली विश्वविद्यालय तथा नागपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति पदों को शोभायमान करने के साथ ही भारतीय संविधान सभा के उपसभापति, साइमन कमीशन के सदस्य तथा रायल सोसायटी फार लिटरेचर के फेलो भी रहे थे। डॉ. गौर ने कानून,  शिक्षा, साहित्य, समाज सुधार, संस्कृति, राष्ट्रीय आंदोलन, संविधान निर्माण आदि में भी योगदान दिया। उनके द्वारा लिखी गई पुस्तकों में - पीनल लॉ ऑफ़ इंडिया, सेवन लाईव्ज़, लॉस्ट सोल प्रमुख हैं।
    प्रत्येक वर्ष 26 नवम्बर गौर जयंती को सागर नगर में उत्सवी माहौल रहता है। डॉ. गौर के जन्मदिन पर सागर के नागरिकों एवं विश्वविद्यालय के वर्तमान छात्रों, शिक्षकों सहित पूरी दुनिया में निवासरत सागर विश्वविद्यालय से शिक्षा अर्जित करने वाले पूर्व सभी छात्रगण डॉ. हरीसिंह गौर का स्मरण कर उनके प्रति अपनी आदरांजलि व्यक्त करते हैं।
    
और अंत में प्रस्तुत हैं कलियुग के उन महान दानवीर डॉ. हरीसिंह गौर को समर्पित मेरा यह गीत  -

हरीसिंह गौर नाम है जिनका
सबके दिल में रहते हैं
बच्चे बूढ़े गांव शहर सब 
उनकी गाथा कहते हैं…

रोक न पाई निर्धनता भी
बैरिस्टर बन ही ठहरे
उनका चिंतन उनका दर्शन
उनके भाव बहुत गहरे
ऐसे मानव सारे दुख को 
हंसते हंसते सहते हैं ...

शिक्षा ज्योति जलाने को ही
अपना सब कुछ दान दिया
इस धरती पर सरस्वती को
तन,मन,धन से मान दिया
उनकी गरिमा की लहरों में
ज्ञानदीप अब बहते हैं.. 

ऋणी सदा बुंदेली धरती
ऋणी रहेगा युवा जगत
युगों युगों तक गौर भूमि पर
शिक्षा का होगा स्वागत
ये है गौर प्रकाश कि जिसमें
अंधियारे सब ढहते हैं..

----------------------
Dr. Hari Singh Gour

#PostForAwareness #विचारवर्षा
#युवाप्रवर्तक #राम #विभीषण #रामचरितमानस #दान #परहित #डॉ_हरीसिंह_गौर #सागर_विश्वविद्यालय #तुलसीदास #कर्ण #शिवि #दधीचि #इंद्र  #महाभारत #शंकराचार्य #ऋग्वेद #अथर्ववेद #बलि #कलियुग

Wednesday, November 18, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 25 | अहिंसा, परहित और शबरी | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज पढ़िए "अहिंसा, परहित और शबरी" ...अपने विचारों से अवगत कराएं ...और शेयर करें 🙏
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 18.11.2020

मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं-

    बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

        अहिंसा, परहित और शबरी

                                -डॉ. वर्षा सिंह

        मेरे स्कूली दिनों में हिन्दी विषय के अंतर्गत कुछ ख़ास विषयों पर हमसे निबन्ध लेखन कराया जाता था। जैसे - साहित्य समाज का दर्पण है, मेरे प्रिय साहित्यकार, मेरे प्रिय कवि, परहित सरिस धरम नहिं भाई, विज्ञान वरदान है या अभिशाप, विद्यार्थी और अनुशासन, जनसंख्या नियंत्रण आदि-आदि। 
      उन दिनों विषय के अनुरूप प्रस्तावना से प्रारंभ हो कर निष्कर्ष तक के एक निश्चित फ्रेम में 150- 200 शब्दों में लिखे गए निबन्ध परीक्षा उत्तीर्ण करने के उद्देश्य से तैयार किए जाते थे। 
      आज विचार करने पर मैं यह पाती हूं कि इन तमाम विषयों में से "परहित सरिस धरम नहिं भाई" पंक्ति मनुष्य की धार्मिक प्रवृत्ति से कहीं अधिक मानवीय प्रवृत्ति से संबद्घ है। यह पंक्ति रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड की है। जिसमें राम अपने अनुज भरत की विनती पर साधु और असाधु का भेद बताने के बाद कहते हैं कि -
परहित सरिस धरम नहिं भाई
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ।।
निर्नय सकल पुरान बेद कर। 
कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर।।
      अर्थात् परोपकार से बढ़कर कोई उत्तम कर्म नहीं है और दूसरों को पीड़ा पहुंचाने से बढ़कर कोई नीच कर्म नहीं। समस्त पुराणों और वेदों का यही निर्णय अर्थात् आशय है जो मैंने तुमसे कहा है और इस बात को सभी पण्डित लोग जानते हैं।

     शिव ने हलाहल विष का पान कर दिव्य शक्ति से अपने कण्ठ में इसीलिए स्थित किया ताकि सम्पूर्ण विश्व उस विष के प्रभाव से नष्ट नहीं हो। शिव की कल्याणकारी भावना परहित का पर्याय है।
शिवमहिम्न स्तोत्र का यह स्तोत्र देखें -
अकाण्ड-ब्रह्माण्ड-क्षयचकित-देवासुरकृपा-
विधेयस्याऽऽसीद् यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः।।
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो।
विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवन-भय-भंग-व्यसनिनः।। 
      अर्थात् जब समुद्रमंथन हुआ तब अन्य मूल्यवान रत्नों के साथ महाभयानक विष निकला, जिससे समग्र सृष्टि का विनाश हो सकता था। हे शिव, आपने बड़ी कृपा करके उस विष का पान किया। विषपान करने से आपके कंठ में नीला चिन्ह हो गया और आप नीलकंठ कहलाये। परंतु हे प्रभु, क्या ये आपको कुरुप बनाता है ? कदापि नहीं, ये तो आपकी शोभा को और बढ़ाता है। जो व्यक्ति औरों के दुःख दूर करता है उसमें अगर कोई विकार भी हो तो वो पूजा पात्र बन जाता है।

     सचमुच यह जगज़ाहिर बात है कि परोपकार की भावना ही वास्तव में मानव को मानव बनाती है। मानवता का भाव वही है जब कोई मानव किसी व्यक्ति, प्राणी, समाज, देश की निःस्वार्थ भाव से सहायता करे। ‘स्व’ के संकीर्ण दायरे से निकलकर ‘पर’ के उदात्त धरातल पर खड़ा मानव निःस्वार्थ भाव से जनकल्याण के कार्य करता है। हम सभी जानते हैं कि अभी पिछले दिनों कोरोना वायरस के बढ़ते संक्रमण को रोकने के लिए किये गए लॉकडाउन के दौर में अपने घर- गांव से बाहर फंसे प्रवासी मजदूरों को घर भेजने की व्यवस्था करने वाले बॉलीवुड एक्टर सोनू सूद ने इसी मानवता का परिचय दिया। वे वर्तमान में भी प्रवासी मज़दूरों के हितरक्षण के प्रति जागरूक हैं।
यजुर्वेद में लिखा है -
 मित्रस्याहं भक्षुसा सर्वाणि भूतानि समीक्षे।।
      अर्थात्, सभी प्राणियों के प्रति सहृदयता का परिचय देना ही जीवन का सही लक्षण है। 

    जैन धर्म की बुनियाद ही अहिंसा और परमार्थ पर आधारित है। जैन ग्रंथों में तीर्थंकर देव नेमीनाथ का वृत्तांत कुछ इस प्रकार मिलता है कि द्वापरयुग में नेमीनाथ मूक पशुओं के वध से क्षुब्ध होकर गिरनार पर्वत पर चले गए थे। वहां कठोर तप के बाद उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई और मोक्ष के साथ वे तीर्थंकर कहलाए। नेमिनाथ जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकरों में से बाईसवें तीर्थंकर थे। नेमिनाथ का जन्म सौरीपुर, द्वारका के हरिवंश कुल में श्रावण माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को चित्रा नक्षत्र में हुआ था। उनकी माता का नाम शिवा देवी और पिता का नाम राजा समुद्रविजय था। जैन धर्म-ग्रंथों की प्राचीन अनुश्रुतियों के अनुसार नेमिनाथ का विवाह मथुरा के राजा उग्रसेन की पुत्री राजुलमती से तय किया गया था। विवाह हेतु जब नेमिनाथ मथुरा पहुंचे तो वहाँ उन्होंने एक बाड़े में क्रंदन करते कई पशुओं को देखा। ये सारे पशु बारातियों के भोजन हेतु मारे जाने वाले थे। यह देखकर नेमिनाथ का हृदय करुणा से व्याकुल हो उठा, उन्हें लगा कि उनके विवाह के लिए इतने पशुओं का वध किया जाएगा तो ऐसे विवाह से तो ब्रह्मचर्य जीवन ही उत्तम है। ऐसे विचार आते ही नेमिनाथ के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया और वे विवाह का विचार छोड़कर तपस्या को चले गए। नेमिनाथ ने सौरीपुर में श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को दीक्षा ग्रहण की थी। इसके बाद 54 दिनों तक कठोर तप करने के बाद गिरनार पर्वत पर 'मेषश्रृंग वृक्ष' के नीचे अमावस्या को 'कैवल्य ज्ञान' को प्राप्त किया। 70 साल तक साधक जीवन जीने के बाद आषाढ़ शुक्ल की अष्टमी को नेमिनाथ ने एक हज़ार साधुओं के साथ गिरनार पर्वत पर निर्वाण को प्राप्त किया। बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ को जैन धर्म में श्रीकृष्ण के समकालीन और उनका चचेरा भाई माना जाता है। 
      ऐसे अनेक प्रसंग हैं जब हिंसा के विरुद्ध, परहितरक्षण हेतु व्यक्ति उठ खड़े हुए और उन्होंने हिंसा का विरोध किया। त्रेतायुग में शबरी को ही लीजिए, वही महान भक्त शबरी जो राम को जूठे बेर खिलाए जाने हेतु जानी जाती है। इस प्रसंग के अलावा शबरी की जीवनकथा के उस अंश से बहुत कम व्यक्ति परिचित हैं, जिसमें शबरी ने भी विवाहोत्सव में होने वाले पशुओं का वध रोकने के उद्देश्य से गृहत्याग कर दिया था। शबरी भील जनजाति के राजा की इकलौती पुत्री थी। शबरी का वास्तविक नाम श्रमणा था। विवाहयोग्य होने पर शबरी का विवाह एक भील कुमार से तय किया गया था। विवाह से पहले सैकड़ों बकरे-भैंसे आदि पशु बलि के लिए लाये गए थे। जिन्हें देख शबरी को बहुत मानसिक पीड़ा हुई। उसे लगा कि यह कैसा विवाह है जिसके लिए इतने सारे पशुओं की हत्या की जाएगी। मन ही मन दृढ़ निश्चय करके वह कन्या शबरी विवाह के एक दिन पहले गृह त्याग कर दंडकारण्य चली गई। वहां ऋषि मतंग ने शबरी को अपने आश्रम शरणदे कर अपनी शिष्या स्वीकार किया। अनुश्रुति है कि अन्य ऋषियों ने इसका भारी विरोध किया।  गृहत्याग कर आई भील कन्या भला ऋषि आश्रम में कैसे रह सकती है! किन्तु मतंग ऋषि ने शबरी को पितृवत् संरक्षण दे कर अपने आश्रम में जीवनपर्यंत आश्रय दिया। 
        ऋषि मतंग जब इहलीला समाप्त कर स्वर्ग लोक जाने लगे तब उन्होंने शबरी को उपदेश किया कि वह परमात्मा मैं अपना ध्यान और विश्वास बनाये रखे। परमात्मा सबसे प्रेम करते हैं। उनके लिए कोई व्यक्ति उच्च या निम्न जाति का नहीं है। उनके लिए सब समान हैं। फिर उन्होंने शबरी को बताया कि एक दिन विष्णु के अवतार राम इस आश्रम में अवश्य आएंगे और उनके दर्शन से शबरी को मोक्ष की प्राप्ति होगी। ऋषि मतंग के स्वर्गारोहण के बाद शबरी ईश्वर भजन में लगी रही और धैर्यपूर्वक राम के आगमन की प्रतीक्षा करती रही…. और एक दिन श्रीराम उसके आश्रम के द्वार पर आए।
           वनवास के दौरान जब सीता का हरण लंकापति रावण ने कर लिया, तब व्याकुल राम और लक्ष्मण सीता की खोज में मतंग मुनि के आश्रम तक आ पहुंचे। जहां उन्हें ज्ञात हुआ कि आश्रम में मतंग मुनि की शिष्या शबरी नामक एक वृद्ध स्त्री अपने गुरु की आज्ञा से अपने कुटिया में कई वर्षों से राम के आगमन की प्रतीक्षा कर रही है।
      लक्ष्मण सहित राम जब वहां पहुँचे तो भाव विभोर होकर शबरी ने राम का सत्कार किया। रामचरित मानस के अरण्यकाण्ड में तुलसीदास कहते हैं -
सबरी देखि राम गृहँ आए। मुनि के बचन समुझि जियँ भाए।।
    अर्थात् शबरी ने राम को घर में आए देखा, तब मुनि मतंगजी के वचनों को याद करके उनका मन प्रसन्न हो गया।

सरसिज लोचन बाहु बिसाला। जटा मुकुट सिर उर बनमाला।।
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई।।
अर्थात् कमल सदृश नेत्र और विशाल भुजाओं वाले, सिर पर जटाओं का मुकुट और हृदय पर वनमाला धारण किए हुए सुंदर, साँवले और गोरे दोनों भाइयों के चरणों में शबरी लिपट पड़ी।

प्रेम मगन मुख बचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा।।
सादर जल लै चरन पखारे। पुनि सुंदर आसन बैठारे।।
 अर्थात् शबरी प्रेम में मग्न हो गई, मुख से वचन नहीं निकलता। बार-बार चरण-कमलों में सिर नवा रही है, फिर उसने जल लेकर आदरपूर्वक दोनों भाइयों के चरण धोए और फिर उन्हें सुंदर आसनों पर बैठाया।

तब उदात्त हृदय के धनी, करुणा के साक्षात स्वरूप राम ने शबरी को भामिनी कह कर संबोधित किया। भामिनी शब्द एक अत्यन्त आदरणीय नारी के लिए प्रयोग किया जाता है - 
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे।।
जोगि बृंद दुरलभ गति जोई। तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई।।
 अर्थात् हे भामिनि! मुझे वही अत्यंत प्रिय है। फिर तुझ में तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है। अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिए सुलभ हो गई है।

        शबरी यह सुन कर धन्य हो गयी। उसकी भक्ति और विश्वास उसके इष्टदेव राम को उसके द्वार तक खींच लाया। फिर शबरी ने मीठे फलों से राम का सत्कार किया और सीता की खोज के लिए सुग्रीव तथा हनुमान के बारे में अवगत करा कर उन्हें उनसे मिलने का मार्ग बताया। तत्पश्चात् शबरी राम के आदेशानुसार मृत्युलोक को छोड़ कर मोक्षगति प्राप्त कर स्वर्ग चली गयी।

      वाल्मीकि रामायण के अरण्यकाण्ड में शबरी को श्रमणी कहा गया है -
तामुवाच ततो राम: श्रमणीं धार्मसंस्थिताम्।।
      उसी अरण्यकांड में शबरी को सिद्धा भी कहा है। अर्थात् अपनी आध्यात्मिक एकाग्रता से, अपने विश्वास और अपनी भक्ति के चरमोत्कर्ष पर पहुंच कर शबरी ने अपने इष्टदेव के दर्शन कर लिए।

रामचरितमानस में भी कहा गया है -
कहे रघुपति सुन भामिनी बाता,
मानहु एक भगति कर नाता।
   अर्थात् राम ने कहा की हे भामिनी सुनो, मैं केवल प्रेम का नाता ही मानता हूं। परिवार, जाति का मेरे लिए कोई महत्व नहीं है।

बुंदेली लोकगीत में भी शबरी की गाथा का बहुत सुंदर चित्रण मिलता है -

प्रेम बिबस भगवान, शबरी घर आये,
लम्बी-लम्बी झाडू शबरी डगर बटोरी,
एई डगरिया आये राम, शबरी घर आये। प्रेम...
कुश की चटइया शबरी झाड़ बिछाई,
आसन लगाये भगवान, शबरी घर आये। प्रेम...
काठ की मटकिया शबरी जल भर ल्याई,
चरण पखारूं मैं भगवान, शबरी घर आये। प्रेम...
मीठी-मीठी बेर शबरी दौना भर ल्याई,
भोग लगावे भगवान, शबरी घर आये। प्रेम...
तुलसीदास आस रघुबर की,
शिव री बैकुण्ठ पठाये, शबरी घर आये। प्रेम…

    आज भी "माता शबरी का आश्रम" के नाम से प्रसिद्ध स्थल छत्तीसगढ़ के शिवरीनारायण में शिवरीनारायण मंदिर परिसर में स्थित है। शिवरीनारायण छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा ज़िले में आता है। यह बिलासपुर से 64 और रायपुर से 120 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस स्थान को पहले शबरी के नाम पर शबरीनारायण कहा जाता था जो बाद में शिवरीनारायण के रूप में पहचाना जाने लगा। महानदी, जोंक और शिवनाथ नदी के तट पर स्थित यह मंदिर एवं आश्रम प्रकृति के सुंदर दृष्यों से परिपूर्ण हैं।

      विवाह कर गृहस्थ जीवन का सुख-भोग करने के बजाए परहित के लिए, प्राणियों की जीवनरक्षा के लिए जहां एक ओर जैन तीर्थंकर नेमिनाथ ने गिरनार पर्वत पर जा कर कठोर तपस्या कर लोककल्याण में जीवन अर्पित किया तो वहीं दूसरी ओर रामकथा की श्रमणी शबरी ने एक कन्या होते हुए भी गृहत्याग का निर्णय कर वनगमन किया और मतंग ऋषि के आश्रम में तपस्विनी का जीवन व्यतीत करना अधिक श्रेयस्कर समझा।
     विरले ही मनुष्य ऐसे मिलते हैं जो अपने जीवन में "परहित सरिस धरम नहिं भाई" को चरितार्थ करते हैं ….और इसीलिए वे सदैव पूज्यनीय, स्मरणीय और अनुकरणीय होते हैं।

और अंत में प्रस्तुत हैं मेरी ये काव्यपंक्तियां -

सीख अगर देता है कोई, तो क्या स्वयं निभाता है ?
सही मायने में वह ज्ञानी, जिसने कर्मों में ढाला ।

"वर्षा" वे जन पूजनीय हैं जो परहित के लिए जिए,
शिव ने गले लगाया हंस कर विष से भरा हुआ प्याला ।

-------------
#PostForAwareness #विचारवर्षा
#युवाप्रवर्तक #राम #दीपावली #रामचरितमानस #अहिंसा #धर्म #परहित #शबरी #ऋषि_मतंग #तुलसीदास #सोनू_सूद #शिव #शिवरीनारायण #तीर्थंकर_नेमिनाथ

Wednesday, November 11, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 24 | दीपावली, स्वच्छता और हम | डॉ. वर्षा सिंह



प्रिय ब्लॉग पाठकों,  "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज पढ़िए "दीपावली, स्वच्छता और हम" ...अपने विचारों से अवगत कराएं ...और शेयर करें 🙏

हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏दिनांक 11.11.2020

बुधवारीय स्तम्भ : विचारवर्षा

      दीपावली, स्वच्छता और हम

                          -डॉ. वर्षा सिंह

      इन दिनों लगभग हर जगह… गली- मुहल्ले, घर-द्वार में साफ-सफाई, रंगाई-पुताई का काम चल रहा है। दीपावली त्यौहार ही ऐसा है कि देवी लक्ष्मी के स्वागतार्थ प्रत्येक व्यक्ति सफाईपसंद हो उठता है। यदि धन की देवी लक्ष्मी के स्वागत हेतु घर की आर्थिक स्थिति अधिक धन खर्च करने की अनुमति नहीं देती हो, पूरे घर की पुताई कराना दुःसाध्य कार्य हो तब भी पूजा का कमरा, रसोई घर, आंगन-द्वार की साफ-सफाई तो भली-भांति कर ही ली जाती है। दरअसल चौमासे यानी बरसात के चार महीने - आषाढ़, सावन, भादों और क्वांर झेल चुकने के बाद कार्तिक आते-आते अच्छे-ख़ासे घर भी रंग-रोगन, साफ-सफाई मांगने लगते हैं। ख़ास तौर पर निम्न और मध्यमवर्गीय घरों में मकड़ियां घर के कोनों पर अड्डा जमा कर जाले पूरने में ज़रा भी कोताही नहीं बरततीं। ज़मीन से सीलन निकलने की कोशिश करती है तो छत पर पानी के नन्हें-मुन्ने धब्बे एक अलग तरह का लैंडस्केप तैयार कर देते हैं। इन घरों की मज़बूरी हो जाती कि साल भर के सबसे बड़े त्यौहार पर घरों की दशा सुधरवाएं। उच्चवर्गीय मकानों, बंगलों, कोठियों में तो दीपावली पर धन-सम्पदा का प्रदर्शन भरपूर होता ही है। कुछ भी कहिए कि इसमें दो राय नहीं कि दीपावली के बहाने अप्रत्यक्ष यानी परोक्ष रूप से स्वच्छता मिशन अभियान को सफल बनाने की एक अनकही मुहिम छिड़ जाती है। यूं तो प्राचीन समय से ही भारत स्वच्छता पसंद देश रहा है, किन्तु जनसंख्या और शहरीकरण में लगातार बढ़ोत्तरी के कारण भारत में लाख प्रचार-प्रसार के बावजूद स्वच्छता अभियान के प्रति जागरूकता सुस्त दिखाई देती है। 

      स्वतंत्र भारत में स्वच्छता का संचार करने हेतु महात्मा गांधी ने कहा था कि राजनीतिक स्वतंत्रता से ज्यादा जरूरी स्वच्छता है। यदि कोई व्यक्ति स्वच्छ नहीं है तो वह स्वस्थ नहीं रह सकता है। बेहतर साफ-सफाई से ही भारत के गांवों को आदर्श बनाया जा सकता है। हमें अपने शौचालय को अपने ड्रॉइंगरूम की तरह साफ रखना ज़रूरी है। नदियों को साफ रखकर हम अपनी सभ्यता को जिंदा रख सकते हैं। स्वच्छता को अपने आचरण में इस तरह अपनाया जाना चाहिए कि स्वच्छता हमारी आदत बन जाए।

    दुख की बात यह है कि महात्मा गांधी के ये विचार क़िताबों में सिमट कर रह गए। स्वतंत्र भारत में चहुंओर स्वच्छता की भावना से लोगों का सरोकार घटता चला गया। यत्र-तत्र कचरा फैलाना, पान-तम्बाकू का सेवन कर कहीं भी थूकना, मल-मूत्र त्याग के लिए निश्चित स्थान का उपयोग नहीं करना, नदियों-तालाबों का गंदगी प्रवाहित करने वाले नालों के रूप में इस्तेमाल करना तो आम बात हो गई साथ ही फैक्ट्रियों से निकलने वाले ज़हरीले धुएं, पराली जलाने से उत्पन्न वायुप्रदूषण आदि के कारण "स्वच्छताप्रिय भारत" पॉल्यूटेड इंडिया" में तब्दील हो गया। 

       स्वच्छता के मामले में विदेशों की तुलना में भारत का पिछड़ता ही चला गया। तब यहां स्वच्छता अभियान की आवश्यकता महसूस की गई। उसी के तहत स्वच्छ भारत अभियान के अंतर्गत भारतीय जनमानस में सुप्त स्वच्छता प्रेम को जगाने की कोशिश की गई। वैश्विक परिदृश्य में स्वच्छता के मामले में भारत की निरंतर बिगड़ती छवि में सुधार के उद्देश्य से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महात्मा गांधी की 145 जयंती पर 2 अक्टूबर, 2014 को स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत की। इसके लिए प्रधानमंत्री ने पांच वर्षों का लक्ष्य रखा ताकि 2 अक्टूबर 2019 को महात्मा गांधी की 150वीं जयंती तक महात्मा गांधी की ‘स्वच्छ भारत’ की परिकल्पना साकार हो सके। यह एक बहुत बड़ी सच्चाई है कि स्वच्छ भारत निर्माण के लिए हवा, पानी, ज़मीन सबकी स्वच्छता ज़रूरी है। यह स्वच्छता जीवन के लिए भी ज़रूरी है।

      हवा यानी वायु में जीवनदायिनी शक्ति है। इसलिए, इसकी स्वच्छता जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है। स्वच्छता का सीधा संबंध स्वास्थ्य से है और स्वास्थ्य जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं में से एक है। वेदों में वायु का शुद्धता पर बल देते हुए कहा गया है कि जीवन के लिए शुद्ध एवं प्रदूषण रहित वायु अति आवश्यक है -

वात आ वातु भेषतं शंभु मयोभु नो हृदे

      इसी प्रकार जल जीवन का प्रमुख तत्त्व है। इसकी स्वच्छता के बिना सभी निर्रथक है। ऋग्वेद में जल की विशेषता बताते हुए कहा गया है कि - 

अप्सु अन्तः अमृतं, अप्सु भेषजं

 अर्थात्, जल में अमृत है, जल में औषधि-गुण विद्यमान रहते हैं। 

    अथर्ववेद में पानी की शुद्धता को स्वस्थ जीवन के लिए नितान्त आवश्यक माना गया है -

शुद्धा न आपस्तन्वे क्षरन्तु

    अर्थात् शुद्ध जल के अभाव में जीवन नष्ट हो जाता है।

      रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास ने राम के निर्मल उदात्त चरित्र की उपमा हेतु निर्मल जल को चुना। बालकाण्ड की ये चौपाईयां देखें - 

लीला सगुन जो कहहिं बखानी। सोइ स्वच्छता करइ मल हानी॥

प्रेम भगति जो बरनि न जाई। सोइ मधुरता सुसीतलताई॥

    अर्थात् सगुण लीला का जो विस्तार से वर्णन करते हैं, वही राम सुयश रूपी जल की निर्मलता है, जो मल का नाश करती है और जिस प्रेमाभक्ति का वर्णन नहीं किया जा सकता, वही इस जल की मधुरता और सुंदर शीतलता है।

सो जल सुकृत सालि हित होई। राम भगत जन जीवन सोई॥

मेधा महि गत सो जल पावन। सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन॥

भरेउ सुमानस सुथल थिराना। सुखद सीत रुचि चारु चिराना॥

      अर्थात् राम सुयशरूपी जल हैं जो सत्कर्मरूपी धान के लिए हितकर हैं और राम के भक्तों का तो जीवन ही है। वह पवित्र जल बुद्धिरूपी पृथ्वी पर गिरा और सिमटकर सुहावने कानरूपी मार्ग से चला और मानस अर्थात् हृदयरूपी श्रेष्ठ स्थान में भरकर वहीं स्थिर हो गया। वही पुराना होकर सुंदर, रुचिकर, शीतल और सुखदाई हो गया।

     हमारे देश में गंगा का जल सबसे पवित्र माना जाता है। रामचरित मानस की इस चौपाई का यही मर्म है -

गंग सकल मुद मंगल मूला। 

सब सुख करनि हरनि सब सूला॥ 

   अर्थात् गंगा समस्त आनंद-मंगलों की मूल है। वह सब सुख देने और सब दुख हरने वाली है।

     इसीलिए राम स्वयं गंगा को प्रणाम करते हैं - 

उतरे राम देवसरि देखी। कीन्ह दंडवत हरषु विसैषी।।

       किन्तु वर्तमान में गंगा का जल भी शुद्ध नहीं रहा है। "नमामि गंगे" परियोजना के माध्यम से गंगा का पानी साफ़ करने मुहिम ज़ारी है। वर्ष 2014 में केंद्र सरकार द्वारा इस परियोजना की शुरुआत गंगा नदी के प्रदूषण को कम करने तथा गंगा नदी को पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से की गई थी। परिणाम अभी भी प्रतीक्षित हैं।

      पानी, हवा, वातावरण की स्वच्छता के साथ ही अंतःकरण की स्वच्छता यानी आंतरिक शुद्घि भी आवश्यक है, जो विवेक से उत्पन्न होती है और विवेक धर्म, आध्यात्म और चिन्तन के माध्यम से आता है। बाह्य स्वच्छता के समान ही अंतःकरण की शुद्घता भी महत्वपूर्ण है। सभी के प्रति प्रेम, सम्मान और परोपकार का भाव रख कर स्वयं का अंतःकरण स्वच्छ किया जा सकता है। परपीड़ा, परनिंदा, हिंसा के भाव स्वयं के अंतःकरण को दूषित बना देते हैं। रामचरितमानस की यह चौपाई परनिंदा करने वाले मनुष्यों के प्रति प्रहार करती है -

सब कै निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं॥

      अर्थात् जो मूर्ख मनुष्य सब की निंदा करते हैं, वे चमगादड़ होकर जन्म लेते हैं। 

दीपावली पर्व की तैयारी में अपना घर-द्वार चमकाते समय अक्सर लोग भूल जाते हैं कि अपना अंतःकरण भी स्वच्छ रखें तभी देवी लक्ष्मी प्रसन्न हो कर आतिथ्य स्वीकार करेंगी। बचपन में मैंने संस्कृत पाठ में उज्जैयिनी के यशस्वी राजा  विक्रमादित्य की एक कहानी पढ़ी थी। वह कुछ इस प्रकार थी - विक्रमादित्य ने अपनी प्रजा के कल्याणार्थ एक निमय बनाया था कि बाज़ार में जो भी वस्तु दिन भर में बगैर बिके रह जायगी शाम को उसे राजा क्रय कर लेंगे ताकि विक्रेता को हानि नहीं उठानी पड़े। राज्य के एक शिल्पकार ने लक्ष्मी और अलक्ष्मी दोनों की मूर्तियां बनायीं और उन्हें बाज़ार में बेचने बैठ गया। ज़ाहिर है लक्ष्मी की मूर्ति ऊंचे दाम पर बिक गई लेकिन अलक्ष्मी की मूर्ति के लिए कोई ख़रीददार नहीं मिला। शाम को नियमानुसार बिना बिकी सामग्रियों के साथ अलक्ष्मी की वह मूर्ति भी राजा विक्रमादित्य के महल में पहुंचा दी गई। रात्रि में जब राजा विक्रमादित्य सोए तो अचानक रात्रि के दूसरे पहर में ही उनकी नींद किसी की आहट से खुल गई। राजा ने देखा कि एक सुंदर स्त्री महल से बाहर जा रही है। राजा ने पूछा तो उसने उत्तर दिया कि वह विद्या की देवी सरस्वती है। महल में अलक्ष्मी के आ जाने के कारण वह महल छोड़ कर जा रही है। राजा ने सरस्वती को नहीं रोका। फिर थोड़ी देर बाद एक और सुंदर स्त्री महल से बाहर जा रही है। राजा ने उससे भी पूछा तो उसने उत्तर दिया कि वह धन की देवी लक्ष्मी है। महल में दरिद्रता की देवी अलक्ष्मी के आ जाने के कारण वह अब वहां नहीं रह सकती। अतः महल छोड़ कर जा रही है। राजा ने लक्ष्मी को भी नहीं रोका। 

इसी तरह अन्य देवी- देवतागण भी अलक्ष्मी के आगमन से रुष्ट हो कर अपना परिचय देते हुए महल से चले गए। राजा ने किसी को नहीं रोका। 

          अंत में श्वेत वस्त्रधारी एक दिव्य पुरुष जब महल से जाने लगा और राजा द्वारा पूछने पर उसने कहा कि "मैं धर्म हूं। चूंकि महल में अभाग्य, अकाल और दरिद्रता की देवी अलक्ष्मी का वास हो गया है अतः मैं भी यहां से जा रहा हूं।'' इस दफ़ा राजा ने उस पुरुष के पैर पकड़ लिए और उससे महल में ही रहने की विनती करने लगा। धर्म ने चकित हो कर पूछा कि "राजन, जब अन्य सभी देवी-देवता कूच कर गए तब तो तुमने किसी को नहीं रोका। मुझे ही क्यों रोक रहे हो ?"

राजा विक्रमादित्य ने उत्तर दिया कि "हे धर्म, यदि आप मेरे साथ हैं तो मुझे किसी की परवाह नहीं, लेकिन यदि आपने मेरा साथ छोड़ दिया तो मेरा जीवन व्यर्थ है। बिना धर्म के बुद्धि, विवेक, धन-सम्पदा, राज्य-सत्ता सब व्यर्थ है। मैंने राजधर्म के पालन करते हुए ही बिना बिकी वस्तु के रूप में अलक्ष्मी को महल में स्थान दिया है। अर्थात मैंने आपका पालन किया, इसलिये आप महल छोड़ कर मत जाएं।"

       विक्रमादित्य की राजधर्म का पालन करने  वाली बात का मर्म समझ कर धर्म वापस महल में लौट आया और उसने वचन दिया कि वह विक्रमादित्य को छोड़ कर कभी नहीं जाएगा। इसके बाद विक्रमादित्य ने देखा कि वे सभी देवी-देवता एक-एक कर महल में वापस लौट कर आ रहे हैं जो महल छोड़ कर चले गए थे। राजा ने उनसे उनकी वापसी का कारण पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया कि "जहां धर्म का वास होगा वहां हमें तो वास करना ही पड़ेगा। धर्म को छोड़ कर हम नहीं जा सकते।"

     धर्म अंतःकरण की स्वच्छता के लिए ज़रूरी है। बाह्य और आंतरिक वातावरण - जहां दोनों स्वच्छ रहते हैं वहां लक्ष्मी स्वयंमेव निवास करती हैं। 

      आईए, इस दीपावली पर हम संकल्प लें कि सिर्फ़ दीपोत्सव पर ही नहीं बल्कि हम पूरे वर्ष भर भीतर-बाहर से स्वयं स्वच्छ रहकर देश को स्वच्छ बनाए रखेंगे। और तब स्वच्छता के लिए किसी सरकारी मिशन, योजना, परियोजना की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।

और अंत में प्रस्तुत है मेरी ये काव्यपंक्तियां -

स्वच्छता के दीप की न रोशनी कभी हो कम

पास अपने आ सके कभी नहीं ज़रा भी तम

मान हो, सम्मान हो, भय न हो किसी का भी

हंसी-ख़ुशी रहें सभी, न हो किसी की आंख नम

        -------------

मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं-

https://yuvapravartak.com/?p=44409


#PostForAwareness #विचारवर्षा

#युवाप्रवर्तक #राम #दीपावली #रामचरितमानस #स्वच्छता #धर्म #विक्रमादित्य  #लक्ष्मी #नरेन्द्र_मोदी #तुलसीदास #महात्मा_गांधी #नमामि_गंगे #स्वच्छ_भारत


Wednesday, November 4, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 23 | लाईक, कमेंट्स, हैशटैग और जटायु | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय ब्लॉग पाठकों, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज पढ़िए "लाईक, कमेंट्स, हैशटैग और जटायु" और अपने विचारों से अवगत कराएं ...और शेयर करें 🙏
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 04.11.2020

मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं-

 बुधवारीय स्तम्भ : विचारवर्षा

    लाईक, कमेंट्स, हैशटैग और जटायु

          -डॉ. वर्षा सिंह

     पिछले दिनों किसी टीवी चैनल पर एक घटना की कुछ क्लिप्स बार-बार दोहराई जाती रही है। वह घटना किसी लड़की से दिनदहाड़े सरेआम मेनरोड पर की जा रही बदसलूकी की थी। एक लड़का किसी लड़की का हाथ पकड़ कर उसे घसीटते हुए अपने साथ ले जाने का प्रयास कर रहा था। लड़की का रो-रो कर बुरा हाल था। वह लड़के के चंगुल से निकलने को छटपटाते हुए "हेल्प मी", "प्लीज़ हेल्प मी" की आवाज़ें लगा रही थी। आसपास तमाशबीनों की भीड़ लगी थी। भीड़ में कुछ लोग घटना की वीडियोग्राफी करने में मशगूल थे। टीवी चैनल की महिला एंकर स्क्रीन पर टेलीकास्ट हो रहे इन सब दृश्यों की क्लिपस् रिपीट करके घटना की तहें टटोलने की जद्दोज़हद में जुटी लगभग चींख-चींख कर एंकरिंग कर रही थी। यथा - "कौन है यह लड़की ? क्या कुसूर है इसका ? कौन है यह लड़का? आप देख रहे हैं कि वह किस तरह लड़की का हाथ पकड़ कर घसीट रहा है… लड़की चींख-पुकार कर रही है। क्या वज़ह हो सकती है ? कहीं ये लवज़ेहाद का मामला तो नहीं ? ऑनर किलिंग का मामला भी हो सकता है। आप देख रहे हैं कि लड़की के टॉप की स्लीव फट गई है, बाल बिखर गए हैं, उसकी सेंडिल टूट गई है। आप देख रहे हैं कि लड़का लड़की से किस क़दर बदसलूकी पर उतारू है। आप हमारा चैनल देख रहे हैं तो अभी इसी वक़्त टीवी स्क्रीन की दायीं ओर आ रहे हैशटैग पर अपने कमेंट भेजिए। लाईक कीजिए अगर आपको इस तरह की रिपोर्ट्स और देखनी हैं तो प्लीज़ लाईक अस...हम यहां रुकते हैं एक छोटे से कॉमर्शियल ब्रेक के लिए, ज़ल्द ही लौटेंगे तब तक आप देखते रहिए….आपका अपना चैनल" आदि, आदि… ।
          टीवी पर उस घटना की वीडियोग्राफी और चैनल की महिला एंकर द्वारा उसकी सनसनीखेज प्रस्तुति देख कर मन विचलित हो उठा।
          टीवी पर दिखाया गया वीडियो ही नहीं बल्कि इस तरह के और भी वीडियो आए दिन सोशलमीडिया पर वायरल होते रहते हैं, जिसमें घटनाएं घटती रहती हैं, पीड़ित मदद के लिए आवाज़ लगाते रहते हैं और भावशून्य तमाशबीन भीड़ खड़ी देखती रहती है। भीड़ में से कुछ लोग अपने मोबाईल का कैमरा ऑन कर घटना की वीडियो बनाने में मशगूल रहते हैं। सोशलमीडिया पर इन वीडियो को अपलोड करने के बाद वे लाईक, कमेंट्स और हैशटैग के ज़रिए वायरल किए गए वीडियो की लोकप्रियता का आकलन कर उत्साहित हो कर किसी नई घटना के घटित होने का इंतज़ार करने लगते हैं। वस्तुतः यह बहुत खेदजनक है कि यह सच है हमारे समय का ।
        याद कीजिए त्रेतायुग में जब साधु का वेश धर कर रावण ने छलपूर्वक सीता का अपहरण किया था तो जटायु जैसे पक्षी ने भी मदद के लिए पुकारती सीता को रावण के हाथों से छुड़ाने का प्रयास किया था। भले ही उसे अपने इस प्रयास में घायल हो कर अपनी जान गंवानी पड़ी।
        पौराणिक ग्रंथों के अनुसार प्रजापति कश्यप की पत्नी विनता के दो पुत्र हुए थे- 'गरुड़' और 'अरुण'। अरुण सूर्य के सारथी बने। अरुण के पुत्र थे सम्पाती और जटायु।
       गिद्धराज जटायु वन में तपस्वी सा जीवन व्यतीत करते हुए पर्णकुटी बना कर रहते थे। उधर पिता अयोध्यानरेश दशरथ की आज्ञा का पालन करने हेतु राम भी पत्नी सीता और अनुज लक्ष्मण सहित दण्डकारण्य में पंचवटी नामक पर्णकुटी में निवास कर 14 वर्ष की अवधि व्यतीत कर रहे थे। एक दिन उस वन में लंकापति रावण की बहन शूर्पणखा आई। राम के आकर्षक स्वरूप पर मोहित हो कर उसने राम के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रख दिया। राम के द्वारा इंकार करने पर वह लक्ष्मण से विवाह हेतु अनुरोध करने लगी, लक्ष्मण के इंकार करने पर सीता को मार डालने की धमकी देने लगी। जिससे क्रोधित होकर राम की आज्ञा से लक्ष्मण ने सूर्पनखा के प्रणय निवेदन को ठुकराते हुए उसकी नाक और कान काट दिए थे। रावण ने राम द्वारा से अपनी बहन सूर्पनखा के अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए मारीचि नामक एक राक्षस को भेजा। मारीचि स्वर्ण मृग का वेश धर कर सीता के समक्ष इस प्रकार प्रस्तुत हुआ कि सीता उसके माया जाल को समझ नहीं पाने के कारण राम से स्वर्ण मृग को पकड़ने का अनुरोध करने लगीं। राम का अनुरोध टाल नहीं पाए और सीता के कहने पर कपट-मृग मारीच को पकड़ने के लिये सघन वन में प्रविष्ट हो गये। मारीचि के मायाजाल के वशीभूत सीता ने मारीचि को पकड़ने गए राम को लौटता नहीं देख और मारीचि द्वारा "लक्ष्मण, लक्ष्मण" की पुकार को राम द्वारा लगाई गई पुकार समझ कर व्याकुलावश लक्ष्मण को राम को खोजने की आज्ञा दे दी। लक्ष्मण अपने बाण से पंचवटी के द्वार पर एक सुरक्षा रेखा खींच कर राम को खोजने के लिये निकल पड़े। पूर्वषडयंत्रकारी योजनानुसार दोनों भाइयों के चले जाने के बाद आश्रम को सूना देखकर लंकाधिपति रावण ने सीता का हरण कर लिया और बलपूर्वक उन्हें रथ में बैठाकर आकाश मार्ग से लंका की ओर चल दिया। सीता ने रावण की पकड़ से छूटने का पूरा प्रयत्न किया, किंतु असफल रहने पर करुण विलाप करने लगीं। उनके विलाप को सुनकर वनवासी गिद्धराज जटायु ने रावण को ललकारा। रावण द्वारा जटायु की ललकार को अनसुना करने पर जटायु ने रावण पर प्रहार कर सीता को उसे चंगुल से छुड़ाने का भरसक प्रयास किया, लेकिन अन्त में रावण ने तलवार से जटायु के पंख काट डाले। जटायु मरणासन्न होकर भूमि पर गिर पड़ा और रावण सीता को अपहृत कर लंका की ओर चला गया।
       जब राम लक्ष्मण के साथ सीता की खोज करने के लिये निकले तो घायल जटायु ने उन्हें बताया कि सीता को लंका का राजा रावण अपहृत कर दक्षिण दिशा की ओर ले गया है और उसी ने मेरे पंखों को काट कर मुझे बुरी तरह से घायल कर दिया है। सीता की पुकार सुन कर मैंने उनकी सहायता के लिये रावण से युद्ध भी किया। ये मेरे द्वारा तोड़े हुए रावण के धनुष उसके बाण हैं। इधर उसके विमान का टूटा हुआ भाग भी पड़ा है। रावण ऋषि विश्वश्रवा एवं कैकसी का पुत्र और कुबेर का भाई है। 
         तत्पश्चात् जटायु की मृत्यु हो गई। दुखी राम ने गोदावरी तट पर जटायु का अंतिम संस्कार कर उसे मोक्षगति प्रदान की।

रामचरित मानस में तुलसीदास ने उक्त घटना को कुछ इस तरह वर्णित किया है। चौपाई देखें - 

गीधराज सुनि आरत बानी। रघुकुलतिलक नारि पहिचानी॥
अधम निसाचर लीन्हें जाई। जिमि मलेछ बस कपिला गाई॥
अर्थात् गिद्वराज जटायु ने सीताजी की दुःखभरी वाणी सुनकर पहचान लिया कि ये रघुकुल तिलक श्री रामचन्द्रजी की पत्नी हैं और नीच राक्षस उन्हें लिए जा रहा है, जैसे कपिला गाय म्लेच्छ के पाले पड़ गई हो।

 सीते पुत्रि करसि जनि त्रासा। करिहउँ जातुधान कर नासा॥
धावा क्रोधवंत खग कैसें। छूटइ पबि परबत कहुँ जैसें॥
अर्थात् जटायु ने कहा कि हे सीते पुत्री! भय मत कर। मैं इस राक्षस का नाश करूँगा। यह कहकर वह पक्षी क्रोध में भरकर ऐसे दौड़ा, जैसे पर्वत की ओर वज्र छूटता हो॥

रे रे दुष्ट ठाढ़ किन हो ही। निर्भय चलेसि न जानेहि मोही॥
आवत देखि कृतांत समाना। फिरि दसकंधर कर अनुमाना॥
अर्थात्  जटायु ने ललकारकर कहा कि रे रे दुष्ट! खड़ा क्यों नहीं होता? निडर होकर चल दिया! मुझे तूने नहीं जाना? उसको यमराज के समान आता हुआ देखकर रावण घूमकर मन में अनुमान करने लगा-

की मैनाक कि खगपति होई। मम बल जान सहित पति सोई॥
जाना जरठ जटायू एहा। मम कर तीरथ छाँड़िहि देहा॥
अर्थात् यह या तो मैनाक पर्वत है या पक्षियों का स्वामी गरुड़। पर वह गरुड़ तो अपने स्वामी विष्णु सहित मेरे बल को जानता है! कुछ पास आने पर रावण ने उसे पहचान लिया और बोला- यह तो बूढ़ा जटायु है। यह मेरे हाथ रूपी तीर्थ में शरीर छोड़ेगा।

सुनत गीध क्रोधातुर धावा। कह सुनु रावन मोर सिखावा॥
तजि जानकिहि कुसल गृह जाहू। नाहिं त अस होइहि बहुबाहू॥
अर्थात् यह सुनते ही गीध क्रोध में भरकर बड़े वेग से दौड़ा और बोला- रावण! मेरी सिखावन सुन। जानकी को छोड़कर कुशलपूर्वक अपने घर चला जा। नहीं तो हे बहुत भुजाओं वाले! ऐसा होगा कि-

राम रोष पावक अति घोरा। होइहि सकल सलभ कुल तोरा॥
उतरु न देत दसानन जोधा। तबहिं गीध धावा करि क्रोधा॥
अर्थात् राम के क्रोध रूपी अत्यन्त भयानक अग्नि में तेरा सारा वंश पतिंगे की तरह भस्म हो जाएगा। योद्धा रावण कुछ उत्तर नहीं देता। तब गीध क्रोध करके दौड़ा।

धरि कच बिरथ कीन्ह महि गिरा। सीतहि राखि गीध पुनि फिरा॥
चोचन्ह मारि बिदारेसि देही। दंड एक भइ मुरुछा तेही॥
अर्थात् जटायु ने रावण के बाल पकड़कर उसे रथ के नीचे उतार लिया, रावण पृथ्वी पर गिर पड़ा। गीध सीता को एक ओर बैठाकर फिर लौटा और चोंचों से मार-मारकर रावण के शरीर को विदीर्ण कर डाला। इससे उसे एक घड़ी के लिए मूर्च्छा आ गई।

तब सक्रोध निसिचर खिसिआना। काढ़ेसि परम कराल कृपाना॥
काटेसि पंख परा खग धरनी। सुमिरि राम करि अदभुत करनी॥
अर्थात् तब खिसियाए हुए रावण ने क्रोधयुक्त होकर अत्यन्त भयानक कटार निकाली और उससे जटायु के पंख काट डाले। पक्षीराज जटायु राम की अद्भुत लीला का स्मरण करके पृथ्वी पर गिर पड़ा।

        रामकथा का यह जटायु- रावण प्रसंग रामलीलाओं में अनेक बार देखा जाता है, प्रवचनों में अनेक बार सुना जाता है, किन्तु असंवेदनशीलता सोशल मीडिया भक्तों पर इस क़दर हावी हो गई है कि वे लोग उस दृश्य से कोई सीख लिए बिना तटस्थभाव से किसी महिला पर सरेआम अत्याचार होते देख कर सोशलमीडिया पर लाईक, कमेंट और हैशटैग के आभासी मोहजाल में उलझ कर महिला की सहायता करने का प्रयास करने के बजाए घटना का वीडियो बनाने में लगे रहते हैं। बात- बात में भारतीय संस्कृति की दुहाई देने वाले लोग भी उस समय नारी अपमान की घटनाओं को इस तरह अनदेखा कर देते हैं मानों उनके परिवार की महिलाओं के साथ तो कभी कोई ऊंचनीच हो ही नहीं सकती है। ऐसे समय पर "वसुधैव कुटम्बकम्" को भूल कर "मैं और मेरा परिवार" का हितरक्षण ही उनका मूलमंत्र बन जाता है।
     वस्तुतः आवश्यकता है समाज में व्याप्त नैतिक पतन के ऐसे कारकों को मिटा कर एक स्वस्थ वातावरण का निर्माण करने में सभी के योगदान की, जिसमें नारी का सम्मान क़ायम रहे… और यदि किन्हीं आसुरी शक्तियों के कारण नारी के सम्मान को कोई ठेस पहुंचे तो सभी एकजुट हो कर उसका प्रतिकार करें, विरोध करें, उन आसुरी शक्तियों का मुक़ाबला करें।
        
और अंत में प्रस्तुत है मेरी काव्यपंक्ति -

हो रही आहत मनुजता, और तुम खामोश हो।
बढ़ रही है स्वार्थपरता, और तुम खामोश हो।
     ---------------------
#PostForAwareness #विचारवर्षा
#युवाप्रवर्तक #राम #सीता #लक्ष्मण #रामचरितमानस #जटायु #दण्डकारण्य  #दशरथ #रावण #तुलसीदास #स्त्री  #लंका #अयोध्या #वीडियो #गिद्धराज