Wednesday, February 24, 2021

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 39 | संबंधों का गणित और महर्षि याज्ञवल्क्य | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज प्रस्तुत है मेरा आलेख -  "संबंधों का गणित और महर्षि याज्ञवल्क्य"
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 24.02.2021

मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं-
बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

संबंधों का गणित और महर्षि याज्ञवल्क्य
 
         - डॉ. वर्षा सिंह

    पिछले दिनों फोन पर मेरी बात मेरे एक पूर्व सहकर्मी से हुई। कार्यालयीन समस्याओं की चर्चा चली तो उन्होंने बताया कि स्टेब्लिशमेंट सेक्शन यानी स्थापना कक्ष के प्रभारी होने के कारण इन दिनों वे एक नॉमिनेशन प्रकरण को सुलझाने के लिए जुटे हुए हैं। मामला यह है कि एक लाईनमैन बिजली के खम्भे पर चढ़ कर सुधार कार्य कर रहा था। दुर्भाग्यवश लाईन चालू हो जाने के कारण खम्भे पर करंट आ जाने के कारण वह घातक दुर्घटना का शिकार हो कर अपनी जान से हाथ धो बैठा। चूंकि उस मृतक कर्मचारी की वैधानिक रूप से विवाहिता पत्नी के अलावा उसकी एक अवैधानिक पत्नी भी है, यानी किसी महिला से उसने विवाह किए बिना ही दैहिक संबंध बनाए थे जिससे उसके दो बच्चे भी हैं। अब मृतक कर्मचारी के देय क्लेमस की राशि को ले कर दोनों पत्नियां अपना दावा प्रस्तुत कर रही हैं। नॉमिनेशन में वैधानिक पत्नी का नाम दर्ज़ है लेकिन दूसरी स्त्री के पास राशनकार्ड, आधार कार्ड और बच्चों के पिता के रूप में मृतक के नाम के प्रमाणिक दस्तावेज हैं। जबकि ग़ैरक़ानूनी पत्नी को नियमानुसार पति के क्लेमस् नहीं दिए जा सकते हैं, बशर्ते दस्तावेजों के आईने में कहीं किसी स्तर पर कोई सहानुभूति का मसला न दिखाई दे जाए। दिलचस्प बात यह है कि मेरे सहकर्मी इस प्रकरण के निपटारे में दफ्तर को इतना अधिक समय देने लगे हैं कि उनके ख़ुद के परिवार में समय को ले कर कलह की स्थिति निर्मित हो गई है। वे अपनी यह व्यथा कथा सुनाते हुए मुझसे दुखी स्वर में कहने लगे - "वर्षा मेम, इस प्रकरण के कारण मैं अपने घर-परिवार को पर्याप्त समय नहीं दे पा रहा हूं और इसलिए आपकी भाभीजी मुझसे इन दिनों नाराज़ रहने लगीं हैं। अब क्या कहूं… काश उस बंदे ने या तो दूसरी स्त्री से अवैध संबंध न बनाए होते या संबंध बनाने पर अपनी संपत्ति, अपने क्लेमस का बंटवारा उस स्त्री और अपनी लीगल पत्नी के बीच कर दिया होता।" मेरे सहकर्मी की बात सही थी।
    अनेक प्रकरणों में ऐसा होता है। अव्वल तो समझदार व्यक्ति एकपत्नीव्रत होते हैं, अवैध संबंधों से दूरी बना कर चलते हैं तथापि यदि परिस्थितिवश ऐसे संबंध बन भी गए बहुत कम ही समझदार व्यक्ति ऐसे होते हैं जो अवैध संबंधों की स्थिति में अपनी अकस्मात मृत्यु को ध्यान में रखकर लीगल पत्नी और दूसरी स्त्री के भरणपोषण के विषय में सोचते हैं। वर्तमान समय में एकाध व्यक्ति ऐसा समझदार मिल जाए तो वाकई बड़े आश्चर्य की बात होगी। दरअसल संविधान सभा के सामने 11 अप्रैल 1947 को डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल पेश किया था। इस बिल में बिना वसीयत किए मृत्यु को प्राप्त हो जाने वाले हिंदू पुरुषों और महिलाओंं की संपत्ति के बंटवारे के संबंध में कानूनों को संहिताबद्ध किए जाने का प्रस्ताव था। इस विधेयक में विवाह संबंधी प्रावधानों में बदलाव किया गया था। यह दो प्रकार के विवाहों को मान्यता देता था - सांस्कारिक व सिविल। इसमें हिंदू पुरूषों द्वारा एक से अधिक महिलाओं से शादी करने पर प्रतिबंध और अलगाव संबंधी प्रावधान भी थे। बाद में 1955 में बनाए गए हिंदू मैरिज एक्ट के अनुसार एक बार में एक से ज्यादा शादी को ग़ैरक़ानूनी घोषित किया गया।   
    इस एक्ट के बनने से पहले बहुपत्नी प्रथा प्रचलन में थी, जिसके दुष्परिणाम स्त्रियों को ही भुगतने पड़ते थे। मुख्य रूप में से बहुपत्नी होने की स्थिति में पति की अकाल मृत्यु के बाद संपत्ति पर उत्तराधिकार को लेकर क्लेश, द्वेष, हिंसा आदि सामना महिलाओं को ही करना पड़ता था। 
   प्राचीन भारतीय ग्रंथों में बहुपत्नी वाली स्थिति में संपत्ति के बंटवारे के प्रति जागरूक महर्षि याज्ञवल्क्य का उल्लेख मिलता है। यह वही महर्षि याज्ञवल्क्य हैं जो यजुर्वेद प्रवर्तक, याज्ञिक सम्राट, महान दार्शनिक एवं विधिवेत्ता थे। साथ ही पारस्परिक संबंधों के गणितज्ञ भी।
      महर्षि याज्ञवल्क्य के पिता का नाम ब्रह्मरथ और माता का नाम देवी सुनन्दा था। पिता ब्रह्मरथ वेद-शास्त्रों के परम ज्ञाता थे। महर्षि याज्ञवल्क्य की वैदिक रीति से विवाह की गई दो पत्नियां थीं। पहली पत्नी भारद्वाज ऋषि की पुत्री कात्यायनी और दूसरी मित्र ऋषि की कन्या मैत्रेयी  थी। याज्ञवल्क्य उस दर्शन के प्रखर प्रवक्ता थे, जिसने इस संसार को मिथ्या स्वीकारते हुए भी उसे पूरी तरह नकारा नहीं। उन्होंने व्यावहारिक धरातल पर संसार की सत्ता को स्वीकार किया। एक दिन याज्ञवल्क्य  को लगा कि अब उन्हें गृहस्थ आश्रम छोड़कर वानप्रस्थ आश्रम को अपना कर वनगमन करना चाहिए। सोच-विचार कर तब उन्होंने अपनी दोनों पत्नियों के सामने अपनी संपत्ति को बराबर हिस्से में बांटने का प्रस्ताव रखा। कात्यायनी ने पति का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया, पर मैत्रेयी बेहद शांत स्वभाव की थी। अध्ययन, चिंतन और शास्त्रार्थ में उसकी गहरी रुचि थी। वह जानती थी कि धन-संपत्ति से आत्मज्ञान नहीं खरीदा जा सकता। इसलिए उन्होंने पति की संपत्ति लेने से मना कर दिया और कहा कि मैं भी वन में जाऊंगी और आपके साथ मिलकर ज्ञान और अमरत्व की खोज करूंगी। इस तरह कात्यायनी को ऋषि की सारी धन-संपत्ति मिल गई और मैत्रेयी अपने पति की विचार-संपदा की स्वामिनी बन गई। वर्तमान समय में मैत्रेयी जैसी समझदार पत्नियां भी नगण्यप्राय हैं।

    पौराणिक ग्रंथों में जिन विदुषी स्त्रियों का उल्लेख मिलता है, उनमें मैत्रेयी का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है क्योंकि उन्होंने ज्ञान की प्राप्ति के लिए समस्त सांसारिक सुखों को त्याग दिया था। वृहदारण्य को उपनिषद् में मैत्रेयी का अपने पति के साथ बहुत रोचक संवाद का उल्लेख मिलता है। मैत्रेयी ने याज्ञवल्क्य  से यह ज्ञान ग्रहण किया कि हमें कोई भी संबंध इसलिए प्रिय होता है क्योंकि उससे कहीं न कहीं हमारा स्वार्थ जुड़ा होता है। मैत्रेयी ने अपने पति से यह जाना कि आत्मज्ञान के लिए ध्यानस्थ, समर्पित और एकाग्र होना कितना आवश्यक है। याज्ञवल्क्य ने उसे उदाहरण देते हुए यह समझाया कि जिस तरह नगाड़े की आवाज़ के सामने हमें कोई दूसरी ध्वनि सुनाई नहीं देती, वैसे ही आत्मज्ञान के लिए सभी इच्छाओं का बलिदान आवश्यक होता है।
    याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी  से कहा कि जैसे सारे जल का एकमात्र आश्रय समुद्र है उसी तरह हमारे सभी संकल्पों का जन्म मन में होता है। जब तक हम जीवित रहते हैं, हमारी इच्छाएं भी जीवित रहती हैं। मृत्यु के बाद हमारी चेतना का अंत हो जाता है और इच्छाएं भी वहीं समाप्त हो जाती हैं। यह सुनकर मैत्रेयी  ने पूछा कि क्या मृत्यु ही अंतिम सत्य है? उसके बाद कुछ भी नहीं होता? यह सुनकर याज्ञवल्क्य  ने उसे समझाया कि हमें अपनी आत्मा को पहचानने की कोशिश करनी चाहिए। शरीर नश्वर है, पर आत्मा अजर-अमर है। यह न तो जन्म लेती है और न ही नष्ट होती है। आत्मा को पहचान लेना अमरता को पा लेने के बराबर है। वैराग्य का जन्म भी अनुराग से ही होता है। चूंकि मोक्ष का जन्म भी बंधनों में से ही होता है, इसलिए मोक्ष की प्राप्ति से पहले हमें जीवन के अनुभवों से भी गुजरना पडेगा। यह सब जानने के बाद भी मैत्रेयी की जिज्ञासा शांत नहीं हुई और वह आजीवन अध्ययन-मनन में लीन रही। महर्षि याज्ञवल्क्य यदि संपत्ति बंटवारे के विषय में नहीं सोचते तो विवाहिता पत्नी होने के बावजूद उपपत्नी होने के कारण मैत्रेयी का जीवन सुखमय नहीं रह पाता।
    याज्ञवल्क्य का जन्म ईसापूर्व 7वीं शताब्दी में हुआ था। याज्ञवल्क्य ने ही शतपथ ब्राह्मण ग्रंथ की रचना की थी। महर्षि याज्ञवल्क्य का उल्लेख अनेक धर्म ग्रंथो में मिलता है। मत्स्य पुराण में उल्लेखित है, 'वशिष्ठ कुल के गोत्रकार जिनको याज्ञदत्त नाम भी दिया जाता है।' विष्णुपुराण में इन्हें ब्रह्मरथ का पुत्र और वैशम्पायन का शिष्य कहा गया है। 
भागवत और विष्णु पुराण के अनुसार याज्ञवल्क्य ने सूर्य की उपासना की थी और सूर्यऋयी विद्या एवं प्रणावत्मक अक्षर तत्व इन दोनों की एकता यही उनके दर्शन का मूल सूत्र था। ऋषि याज्ञवल्क्य को सदानीरा कहा गया है। वे कौशिक कुल के थे, वायु और विष्णु पुराण के अनुसार याज्ञवल्क्य के पिता का नाम ब्रम्हा और श्रीमदभगवत के अनुसार देवरात था। 
    महाभारत सहित कई ग्रंथों में याज्ञवल्क्य को कौशिक ही कहा गया है। भारत में पुरुषों के साथ ही भारतीय महिला दार्शनिकों तथा साध्वियों की लम्बी परंपरा रही है। वेदों की ऋचाओं को गढ़ने में भारत की बहुत-सी स्त्रियों का योगदान रहा है उनमें से ही एक है गर्गवंश में वचक्नु नामक महर्षि की पुत्री 'वाचकन्वी गार्गी'। राजा जनक के काल में ऋषि याज्ञवल्क्य और ब्रह्मवादिनी कन्या गार्गी दोनों ही महान ज्ञानी थे। बृहदारण्यक उपनिषद् में दोनों के बीच हुए संवाद पर ही आधारित है।
माना जाता है कि राजा जनक प्रतिवर्ष अपने यहां शास्त्रार्थ करवाते थे। एक बार के आयोजन में महर्षि याज्ञवल्क्य को भी निमंत्रण मिला था। जनक ने शास्त्रार्थ विजेता के लिए सोने की मुहरें जड़ित एक हज़ार गायों को दान में देने की घोषणा कर रखी थी। उन्होंने कहा था कि शास्त्रार्थ के लिए जो भी पथारे हैं उनमें से जो भी श्रेष्ठ ज्ञानी विजेता बनेगा वह इन गायों को ले जा सकता है। निर्णय लेना अति कठिन कार्य था, क्योंकि अगर कोई ज्ञानी स्वयं को ही सबसे बड़ा ज्ञानवान मान ले तो वह भला ज्ञानी कैसे कहलाएगा!
     ऐसी स्थिति में ऋषि याज्ञवल्क्य ने अति आत्मविश्वास से भरकर अपने शिष्यों से कहा, 'हे शिष्यो! इन गायों को हमारे आश्रम की और हांक ले चलो।' इतना सुनते ही सब ऋषि याज्ञवल्क्य से शास्त्रार्थ करने लगे। याज्ञवल्क्य ने सबके प्रश्नों का यथाविधि उत्तर दिया। उस सभा में ब्रह्मवादिनी गार्गी भी बुलाई गयी थी। सबके पश्चात् गार्गी ने याज्ञवल्क्य से शास्त्रार्थ किया। दोनों के बीच शास्त्रार्थ प्रारंभ हुआ। आत्मविद्या के लिए ब्रह्मचर्य अनिवार्य माने जाने किन्तु याज्ञवल्क्य के एक नहीं, वरन् दो पत्नियों के पति होने पर प्रश्न चिन्ह लगाते हुए गार्गी ने याज्ञवल्क्य से ब्रम्हचर्य, विवाह और प्रेम सहित पारस्परिक संबंधों पर आधारित कई प्रश्न किए। अंततः महर्षि याज्ञवल्क्य के उद्धरण सहित सार्थक उत्तरों को सुन कर गार्गी पूर्णतः संतुष्ट हो गई और उसने अपनी पराजय स्वीकार कर ली, तब विद्वान और उदात्तमना याज्ञवल्क्य ने गार्गी से कहा कि प्रश्न पूछने पर ही उत्तर सामने आते हैं, जिनसे यह संसार का कल्याण होता है।

रामकथा में भी ब्रम्हचर्य, विवाह और प्रेम सहित पारस्परिक संबंधों की जटिलताओं का उल्लेख है। रामकथा में महर्षि याज्ञवल्क्य का भी उल्लेख बहुत आदरपूर्वक किया गया है। उन्हें श्रीहरि विष्णु के रामावतार का पूर्ण ज्ञान था। मुनि भारद्वाज (भरद्वाज) के आग्रह पर याज्ञवल्क्य ने रामकथा सुनाई थी। तुलसीदास ने रामचरित मानस के बालकाण्ड में किया है- 

भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। 
तिन्हहि राम पद अति अनुरागा॥
तापस सम दम दया निधाना। 
परमारथ पथ परम सुजाना॥ 
अर्थात्  भारद्वाज मुनि प्रयाग में बसते हैं, उनका राम के चरणों में अत्यंत प्रेम है। वे तपस्वी, निगृहीत चित्त, जितेन्द्रिय, दया के निधान और परमार्थ के मार्ग में बड़े ही ज्ञानी हैं।

माघ मकरगत रबि जब होई। 
तीरथपतिहिं आव सब कोई॥
देव दनुज किंनर नर श्रेनीं। 
सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥
अर्थात्  माघ में जब सूर्य मकर राशि पर जाते हैं, तब सब लोग तीर्थराज प्रयाग को आते हैं। देवता, दैत्य, किन्नर और मनुष्यों के समूह सब आदरपूर्वक त्रिवेणी में स्नान करते हैं।

पूजहिं माधव पद जलजाता। 
परसि अखय बटु हरषहिं गाता॥
भरद्वाज आश्रम अति पावन। 
परम रम्य मुनिबर मन भावन॥
अर्थात्  वेणीमाधव के चरणकमलों को पूजते हैं और अक्षयवट का स्पर्श कर उनके शरीर पुलकित होते हैं। भारद्वाज मुनि का आश्रम बहुत ही पवित्र, परम रमणीय और श्रेष्ठ मुनियों के मन को भाने वाला है।

तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा।
जाहिं जे मज्जन तीरथराजा॥
मज्जहिं प्रात समेत उछाहा। 
कहहिं परसपर हरि गुन गाहा।।
अर्थात्  तीर्थराज प्रयाग में जो स्नान करने जाते हैं, उन ऋषि-मुनियों का समाज वहां भारद्वाज के आश्रम में जुटता है। प्रातःकाल सब उत्साहपूर्वक स्नान करते हैं और फिर परस्पर भगवान्‌ के गुणों की कथाएँ कहते हैं।

ब्रह्म निरूपन धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग।
ककहिं भगति भगवंत कै संजुत ग्यान बिराग॥
अर्थात्  ब्रह्म का निरूपण, धर्म का विधान और तत्त्वों के विभाग का वर्णन करते हैं तथा ज्ञान-वैराग्य से युक्त भगवान्‌ की भक्ति का कथन करते हैं।

एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं। 
पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं॥
प्रति संबत अति होइ अनंदा। 
मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा॥
अर्थात्  इसी प्रकार माघ के महीने भर स्नान करते हैं और फिर सब अपने-अपने आश्रमों को चले जाते हैं। हर साल वहाँ इसी तरह बड़ा आनंद होता है। मकर में स्नान करके मुनिगण चले जाते हैं।

एक बार भरि मकर नहाए। 
सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए॥
जागबलिक मुनि परम बिबेकी। 
भरद्वाज राखे पद टेकी॥
अर्थात्  एक बार पूरे मकरभर स्नान करके सब मुनीश्वर अपने-अपने आश्रमों को लौट गए। परम ज्ञानी याज्ञवल्क्य मुनि को चरण पकड़कर मुनि भारद्वाज ने रख लिया।

सादर चरन सरोज पखारे। 
अति पुनीत आसन बैठारे॥
करि पूजा मुनि सुजसु बखानी। 
बोले अति पुनीत मृदु बानी॥
अर्थात्  आदरपूर्वक उनके चरण कमल धोए और बड़े ही पवित्र आसन पर उन्हें बैठाया। पूजा करके महर्षि याज्ञवल्क्य के सुयश का वर्णन किया और फिर अत्यंत पवित्र और कोमल वाणी से बोले-

नाथ एक संसउ बड़ मोरें। 
करगत बेदतत्त्व सबु तोरें॥
कहत सो मोहि लागत भय लाजा। 
जौं न कहउँ बड़ होइ अकाजा॥
अर्थात्  हे नाथ! मेरे मन में एक बड़ा संदेह है, वेदों का तत्त्व सब आपकी मुट्ठी में है अर्थात्‌ आप ही वेद का तत्त्व जानने वाले होने के कारण मेरा संदेह निवारण कर सकते हैं किन्तु उस संदेह को कहते मुझे भय और लाज आती है। भय इसलिए कि कहीं आप यह न समझें कि मेरी परीक्षा ले रहा है, लाज इसलिए कि इतनी आयु बीत गई, अब तक ज्ञान न हुआ और यदि नहीं कहता तो बड़ी हानि होती है क्योंकि अज्ञानी बना रहता हूँ ।

संत कहहिं असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव।।
होइ न बिमल बिबेक उर गुर सन किएँ दुराव॥
 अर्थात्  हे प्रभो! संत लोग ऐसी नीति कहते हैं और वेद, पुराण तथा मुनिजन भी यही बतलाते हैं कि गुरु के साथ छिपाव करने से हृदय में निर्मल ज्ञान नहीं होता।

अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू। 
हरहु नाथ करि जन पर छोहू॥
राम नाम कर अमित प्रभावा। 
संत पुरान उपनिषद गावा॥
अर्थात्  यही सोचकर मैं अपना अज्ञान प्रकट करता हूँ। हे नाथ! सेवक पर कृपा करके इस अज्ञान का नाश कीजिए। संतों, पुराणों और उपनिषदों ने राम नाम के असीम प्रभाव का गान किया है।

संतत जपत संभु अबिनासी। 
सिव भगवान ग्यान गुन रासी॥
आकर चारि जीव जग अहहीं। 
कासीं मरत परम पद लहहीं।।
अर्थात्  कल्याण स्वरूप, ज्ञान और गुणों की राशि, अविनाशी भगवान्‌ शम्भु निरंतर राम नाम का जप करते रहते हैं। संसार में चार जाति के जीव हैं, काशी में मरने से सभी परम पद को प्राप्त करते हैं।

सोपि राम महिमा मुनिराया। 
सिव उपदेसु करत करि दाया॥
रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही। 
कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही॥
अर्थात्  हे मुनिराज! वह भी राम नाम की ही महिमा है, क्योंकि शिव दया करके काशी में मरने वाले जीव को राम नाम का ही उपदेश दिया करते हैं इसी से उनको परम पद मिलता है। हे प्रभो! मैं आपसे पूछता हूँ कि वे राम कौन हैं? हे कृपानिधान! मुझे समझाकर कहिए।

एक राम अवधेस कुमारा। 
तिन्ह कर चरित बिदित संसारा॥
नारि बिरहँ दुखु लहेउ अपारा। 
भयउ रोषु रन रावनु मारा।।
अर्थात्  एक राम तो अवध नरेश दशरथ के कुमार हैं, उनका चरित्र सारा संसार जानता है। उन्होंने स्त्री के विरह में अपार दुःख उठाया और क्रोध आने पर युद्ध में रावण को मार डाला।

प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि।

सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि॥


अर्थात्  हे प्रभु! वही राम हैं या और कोई दूसरे हैं, जिनको त्रिपुरारी शिव जपते हैं? आप सत्य के धाम हैं और सब कुछ जानते हैं, ज्ञान विचार कर कहिए।

जैसें मिटै मोर भ्रम भारी। 
कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी॥
जागबलिक बोले मुसुकाई। 
तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई॥
अर्थात्  हे नाथ! जिस प्रकार से मेरा यह भारी भ्रम मिट जाए, आप वही कथा विस्तारपूर्वक कहिए। इस पर महर्षि याज्ञवल्क्य मुस्कुराकर बोले, रघुपति राम की प्रभुता को तुम जानते हो।

रामभगत तुम्ह मन क्रम बानी। 
चतुराई तुम्हारि मैं जानी॥
चाहहु सुनै राम गुन गूढ़ा 
कीन्हिहु प्रस्न मनहुँ अति मूढ़ा॥
अर्थात्  तुम मन, वचन और कर्म से राम के भक्त हो। तुम्हारी चतुराई को मैं जान गया। तुम राम के रहस्यमय गुणों को सुनना चाहते हो, इसी से तुमने ऐसा प्रश्न किया है मानो बड़े ही मूढ़ हो।

तात सुनहु सादर मनु लाई। 
कहउँ राम कै कथा सुहाई॥
महामोहु महिषेसु बिसाला। 
रामकथा कालिका कराला॥
अर्थात्  हे तात! तुम आदरपूर्वक मन लगाकर सुनो, मैं राम की सुंदर कथा कहता हूँ। अज्ञान विशाल महिषासुर है और राम की कथा उसे नष्ट कर देने वाली भयंकर काली देवी हैं।
     इस प्रकार महर्षि याज्ञवल्क्य ने मुनि भरद्वाज को राम कथा सुनाई, जो रामचरित मानस के अनेक छंदों यथा दोहा, चौपाइयों में वर्णित है।
    संपत्ति के बंटवारे को लेकर पारस्परिक संबंधों के गणितज्ञ महर्षि याज्ञवल्क्य का निश्चय स्पष्ट था जबकि उनकी दोनों पत्नियां उनकी विधिमान्य विवाहिताएं थीं। इसीलिए पारिवारिक कलह की स्थिति उत्पन्न नहीं हो पाई और वे दोनों पत्नियों के साथ न्याय करने में सफल हो कर ज्ञान मार्ग पर निरंतर अग्रसर रहकर सर्वजगत कल्याण के अपने संकल्प को पूरा कर सके।
      वर्तमान में दो पत्नियां रखना ग़ैरकानूनी हैं। फिर भी यदि किसी की ग़ैरक़ानूनी ही सही, दूसरी पत्नी है तो उसके लिए स्पष्ट कानून हैं कि अगर दूसरी शादी कानूनी नहीं है तो न तो दूसरी पत्नी और न ही उसके बच्चों को पति की पैतृक संपत्ति में क़ानूनी हक़ मिलेगा। 
   इसलिए समझदारी इसी में है कि कोई भी व्यक्ति या तो ग़ैरक़ानूनी ढंग से दूसरी पत्नी न रखे और यदि परिस्थितिवश रखे तो पहले ही उसके नाम कुछ धनराशि अथवा संपत्ति लिख दे ताकि उसकी मृत्यु के बाद वह पत्नी अपना और अपने बच्चों का भरणपोषण सुचारु रूप से कर सके। 

और अंत में प्रस्तुत हैं मेरे कुछ दोहे -

संबंधों  का   हर  गणित,  रहे  सदा  स्पष्ट।
सुख से फिर जीवन कटे,  रहे न कोई कष्ट।।

अनदेखा मत कीजिए, नारी का अधिकार ।
नर यदि है इक नाव तो, नारी है पतवार ।।

जिसके मन में है सदा, नारी का सम्मान ।
यह जीवन उसके लिए, "वर्षा" इक वरदान ।।
         ---------------------
#PostForAwareness #विचारवर्षा
#युवाप्रवर्तक #राम #दशरथ #अयोध्या #तुलसीदास #रामचरितमानस #रामायण #रामकथा #बालकाण्ड #त्रेतायुग #याज्ञवल्क्य  #भारद्वाज
#गार्गी #मैत्रेयी #कात्यायनी #संबंध #गणित

Wednesday, February 17, 2021

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 38 | जयद्रथ, जयंत और स्त्री की मर्यादा | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज प्रस्तुत है मेरा आलेख -  "जयद्रथ, जयंत और स्त्री की मर्यादा"
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 17.02.2021

मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं-

बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

जयद्रथ, जयंत और स्त्री की मर्यादा
            - डॉ. वर्षा सिंह

   अभी पिछले दिनों मेरे एक परिचित अपनी बहन ज्योति (परिवर्तित नाम) के साथ पैदल कहीं जा रहे थे। रास्ते में उनका कोई मित्र मिल गया जिसके द्वारा हालचाल पूछने के कारण वे ज़रा पीछे अटक गए… ज्योति अकेली आगे बढ़ गई।  राह में सामने से आ रहे दो मनचले युवकों ने यह समझा कि ज्योति अकेली ही जा रही है। वे मनचले युवक ज्योति से छेड़खानी करने लगे। ज्योति ने मदद के लिए भाई को पुकारा। ज्योति की पुकार सुनकर भाई और उनके मित्र का ध्यान ज्योति पर गया। मनचले युवकों द्वारा ज्योति से छेड़खानी करता देख दोनों को बहुत गुस्सा आया। उन दोनों ने मनचले युवकों को पकड़कर उनकी जमकर पिटाई की और ज्योति से माफी मांगने के लिए कहा। मनचले युवक रोते हुए ज्योति के पैरों पर गिर कर माफी मांगते हुए कहने लगे कि बहन हमें माफ कर दो, अब दुबारा कभी ऐसा नहीं करेंगे...। तब भविष्य के लिए समझाइश देकर भाई और उनके मित्र ने उन मनचले युवकों को छोड़ दिया।
       वर्तमान समय में महिलाओं से छेड़खानी के अनेक प्रकरण आए दिन सामने आते हैं। प्राचीन ग्रंथों में भी महिलाओं के प्रति कतिपय मनचले और ढीठ क़िस्म के लोगों द्वारा छेड़खानी करने के प्रसंग मिलते हैं। 
    ऐसा ही एक प्रसंग है महाभारत महाकाव्य में मिलता है। जयद्रथ सिंधु देश का राजा था और उसका विवाह दुर्योधन की बहन दुशाला से हुआ था। इस तरह वह कौरवों और पाडवों का रिश्तेदार था। महाभारत कथा के अनुसार पांडव कौरवों की कुटिल चाल में फंस कर चौसर के खेल में अपना सब कुछ हार बैठे थे और शर्त का पालन करते हुए बारह साल का वनवास व्यतीत कर रहे थे, तब एक दिन जयद्रथ संयोगवश उसी जंगल से गुजर रहा था जहां पांडव निवास कर रहे थे। दिन का समय था और पांडवों की पत्नी द्रौपदी नदी किनारे से पानी भर कर लौट रही थी। जयद्रथ ने अकेला देख कर द्रौपदी से छेड़खानी करते हुए उसे अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों में फुसलाने और अपने साथ ले जाने का प्रयास किया। द्रौपदी ने अपनी मर्यादा, आपसी रिश्तों की मर्यादा और पांडवों के क्रोध तथा बाहुबल का वास्ता दे कर जयद्रथ को समझाया भी, चेतावनी भी दी, लेकिन जयद्रथ नहीं माना और द्रौपदी को बलपूर्वक अपहृत कर अपने रथ में बिठा कर अपने साथ ले जाने लगा। पांडवों को जब इस बात की सूचना मिली तो उन्होंने जयद्रथ का पीछा किया  और उसके रथ को बीच रास्ते में रोक लिया। क्रोध के कारण भीम जयद्रथ का वध करने को उद्यत हो उठा, लेकिन चूंकि जयद्रथ कौरव एवं पाण्डवों की इकलौती बहन दुशाला का पति था, इसलिए अर्जुन ने भीम को ऐसा करने से रोक दिया। भीम ने अपना क्रोध शांत करने के लिए जयद्रथ के सिर के बाल मूंड कर उसे छोड़ दिया।
    द्रौपदी के द्वारा तिरस्कार किए जाने और पांडवों से पराजित होने के बाद जयद्रथ स्वयं को अपमानित महसूस करने लगा। अपने कथित अपमान का बदला लेने के लिए जयद्रथ ने आदिदेव शिव की घोर तपस्या की और तपस्या से शिव के प्रसन्न होने पर उसने शिव से पांडवों पर जीत हासिल करने का वरदान मांगा। तब शिव ने कहा कि पांडवों से जीतना या उन्हें मारना किसी के वश में नहीं है लेकिन जीवन में एक दिन वह किसी युद्ध में अर्जुन को छोड़ बाकी सभी भाईयों पर भारी पड़ेगा। कालांतर में जयद्रथ को मिला यही वरदान अभिमन्यु के मृत्यु का कारण बना जिससे आहत अर्जुन ने ही कृष्ण की माया से जयद्रथ का वध किया, जिसकी एक अलग ही कथा है।
   रामकथा में भी रावण-प्रसंग से इतर स्त्री-मर्यादा से छेड़छाड़ का एक और प्रसंग जयंत का मिलता है। जयंत देवताओं के राजा इन्द्र का पुत्र था। वाल्मीकि रामायण सहित रामचरितमानस में इसका उल्लेख हुआ है। कैकेयी के वचन से निबद्ध अयोध्यानरेश दशरथ ने युवराज राम को चौदह वर्ष का वनवास दे दिया था। मर्यादापुरुषोत्तम राम ने पिता की आज्ञा का पालन कर वनगमन किया। राम की पतिव्रता सहचरी सीता स्वेच्छा से राम के साथ वन में गईं और अनुज लक्ष्मण ने भी स्वेच्छा से वनगमन स्वीकार किया। उसी दौरान एक दिन चित्रकूट पर्वत के वनों में विचरण करते हुए राम और सीता विश्राम कर रहे थे। तभी वहां से निकल रहे देवताओं के राजा इंद्र के पुत्र जयंत की कुदृष्टि सीता पर पड़ गई।
वाल्मीकि रामायण में इस प्रसंग में जयंत द्वारा बुरी नियत से सीता को अपनी चोंच से चोट पहुंचाने और राम द्वारा जयंत को दण्डित करने का उल्लेख है। जबकि आंशिक परिवर्तित रूप में रामचरितमानस के अरण्यकाण्ड में जयंत की कुटिलता और राम द्वारा उसे दण्डित किए जाने का प्रसंग है। तुलसीदास जी शिव -पार्वती संवाद के अंतर्गत इसका कथा का लेख किया है। वे कहते हैं -

एक बार चुनि कुसुम सुहाए। 
निज कर भूषन राम बनाए॥
सीतहि पहिराए प्रभु सादर। 
बैठे फटिक सिला पर सुंदर॥
अर्थात् एक बार सुंदर फूल चुनकर राम ने अपने हाथों से भाँति-भाँति के गहने बनाए और सुंदर स्फटिक शिला पर विराजमान सीता को यह गहने बड़े आदर के साथ पहनाए - 

सुरपति सुत धरि बायस बेषा। 
सठ चाहत रघुपति बल देखा॥
जिमि पिपीलिका सागर थाहा। 
महा मंदमति पावन चाहा।।
अर्थात् देवराज इन्द्र का मूर्ख पुत्र जयन्त कौए का रूप धरकर रघुपति राम का बल देखना चाहता था। जैसे महान मंदबुद्धि चींटी समुद्र का थाह पाना चाहती हो।

सीता चरन चोंच हति भागा। 
मूढ़ मंदमति कारन कागा॥
चला रुधिर रघुनायक जाना। 
सींक धनुष सायक संधाना॥
अर्थात् वह मूढ़, मंदबुद्धि कौआ सीता के चरणों में चोंच मारकर भागा। जब रक्त बह चला, तब  रघुनायक राम ने इस बात को जान कर धनुष पर सींक यानी सरकंडे के बाण का संधान किया।

अति कृपाल रघुनायक सदा दीन पर नेह।
ता सन आइ कीन्ह छलु मूरख अवगुन गेह॥
अर्थात् रघुनायक राम, जो अत्यन्त ही कृपालु हैं और जिनका दीनों पर सदा प्रेम रहता है, उनसे भी उस अवगुणों के घर मूर्ख जयन्त ने आकर छल किया।

प्रेरित मंत्र ब्रह्मसर धावा। 
चला भाजि बायस भय पावा॥
धरि निज रूप गयउ पितु पाहीं। 
राम बिमुख राखा तेहि नाहीं॥
अर्थात् मंत्र से प्रेरित होकर वह ब्रह्मबाण दौड़ा। कौआ भयभीत होकर भाग चला और वह अपना असली रूप धरकर पिता इन्द्र के पास गया, पर राम का विरोधी जानकर इन्द्र ने उसको नहीं रखा।

भा निरास उपजी मन त्रासा। 
जथा चक्र भय रिषि दुर्बासा॥
ब्रह्मधाम सिवपुर सब लोका। 
फिरा श्रमित ब्याकुल भय सोका॥
अर्थात् तब जयंत निराश हो गया, और उसके मन में भय उत्पन्न हो गया, जैसे दुर्वासा ऋषि को चक्र से भय हुआ था। वह ब्रह्मलोक, शिवलोक आदि समस्त लोकों में थका हुआ और भय-शोक से व्याकुल होकर भागता फिरा।

काहूँ बैठन कहा न ओही। 
राखि को सकइ राम कर द्रोही ॥
मातु मृत्यु पितु समन समाना। 
सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना॥
अर्थात् पास रखना तो दूर, किसी ने उसे बैठने तक के लिए नहीं कहा। राम के द्रोही को भला कौन रख सकता है? काकभुशुण्डि कहते हैं- हे गरुड़ ! सुनिए, उसके लिए अर्थात् रामद्रोही के लिए माता मृत्यु के समान, पिता यमराज के समान और अमृत विष के समान हो जाता है।

मित्र करइ सत रिपु कै करनी। 
ता कहँ बिबुधनदी बैतरनी॥
सब जगु ताहि अनलहु ते ताता।
जो रघुबीर बिमुख सुनु भ्राता॥
अर्थात् मित्र सैकड़ों शत्रुओं की सी करनी करने लगता है। देवनदी गंगा उसके लिए यमपुरी की नदी हो जाती है। हे भाई! सुनिए, जो  रघुवीर के विमुख होता है, समस्त जगत उनके लिए अग्नि से भी अधिक गरम जलाने वाला हो जाता है।

नारद देखा बिकल जयंता। 
लगि दया कोमल चित संता॥
पठवा तुरत राम पहिं ताही। 
कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही।।
अर्थात् नारद ने जयन्त को व्याकुल देखा तो उन्हें दया आ गई, क्योंकि संतों का चित्त बड़ा कोमल होता है। उन्होंने उसे समझाकर तुरंत राम के पास भेज दिया। उसने अर्थात् जयंत ने जाकर पुकारकर कहा- हे शरणागत के हितकारी! मेरी रक्षा कीजिए।

आतुर सभय गहेसि पद जाई। 
त्राहि त्राहि दयाल रघुराई॥
अतुलित बल अतुलित प्रभुताई। 
मैं मतिमंद जानि नहीं पाई॥
अर्थात् आतुर और भयभीत जयन्त ने जाकर राम के चरण पकड़ लिए और कहा- हे दयालु रघुनाथ! रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए। आपके अतुलित बल और आपकी अतुलित प्रभुता, सामर्थ्य को मैं मन्दबुद्धि जान नहीं पाया था।

निज कृत कर्म जनित फल पायउँ। 
अब प्रभु पाहि सरन तकि आयउँ॥
सुनि कृपाल अति आरत बानी। एकनयन करि तजा भवानी॥
अर्थात् अपने कर्म से उत्पन्न हुआ फल मैंने पा लिया। अब हे प्रभु! मेरी रक्षा कीजिए। मैं आपकी शरण में आया हूँ। शिव कहते हैं- हे पार्वती! कृपालु राम ने उसकी अत्यंत आर्त्त दुःख भरी वाणी सुनकर उसे एक आँख का काना करके छोड़ दिया।

कीन्ह मोह बस द्रोह जद्यपि तेहि कर बध उचित।
प्रभु छाड़ेउ करि छोह को कृपाल रघुबीर सम॥
अर्थात् उसने मोहवश द्रोह किया था, इसलिए यद्यपि उसका वध ही उचित था, पर प्रभु ने कृपा करके उसे छोड़ दिया। राम के समान कृपालु और कौन होगा ?

  त्रेतायुग और द्वापरयुग के तो एकाध प्रसंग मिलते हैं किन्तु इस कलियुग में देवभूमि भारत में आए दिन कहीं न कहीं से जयद्रथ और जयंत सरीखे बुरी नियत वाले मनचलों द्वारा युवतियों के साथ छेड़छाड़ की घटनाएं सामने आती रहती हैं। राह चलते अकेली महिलाओं से छेड़खानी करना आम बात हो गई है। साथ ही अनेक बार युवती के साथ वाले रिश्तेदारों को इग्नोर कर युवती से छेड़खानी के मामले भी अक्सर सुनने-पढ़ने में आते हैं।
  पहले छेड़छाड़ के मामले में अधिकतम दो साल कैद की सजा का प्रावधान था, लेकिन निर्भया केस के बाद कानून में बदलाव हुआ है और अब छेड़छाड़ को विस्तार से व्याख्या करते हुए उसमें सज़ा के सख़्त प्रावधान किए गए। 2013 में जब कानून में संशोधन हुआ है तो उसके बाद के मामलों में छेड़छाड़ के लिए नए कानून के तहत सज़ा का प्रावधान रखा गया।
    कानूनी जानकारों के अनुसार छेड़छाड़ के मामले को अब अपराध की गंभीरता के हिसाब से व्याख्या की गई है और अलग-अलग सबसेक्शन में सज़ा का अलग-अलग प्रावधान किया गया है। भारतीय दंड संहिता के अनुसार यदि कोई व्यक्ति किसी महिला की मर्यादा को भंग करने के लिए उस पर हमला या जोर जबरदस्ती करता है, तो उस पर धारा 354 लगाई जाती है। आईपीसी की धारा 354 के तहत छेड़छाड़ के मामले में दोषी पाए जाने पर अधिकतम 5 साल क़ैद की सज़ा का प्रावधान किया गया है। साथ ही कम से कम एक साल कैद की सज़ा का प्रावधान किया गया है और इसे गैर-जमानती अपराध माना गया है। इस धारा का लक्ष्य स्त्री के अस्तित्व की रक्षा करना है तथा उसके आत्मसम्मान और उसकी अस्मिता की रक्षा करना है।
   प्रशासनिक स्तर पर स्कूल, काॅलेज, भीड़भाड़ वाले बाजार एवं अन्य इलाकों में महिलाओं के साथ होने वाली छेड़खानी, स्नेचिंग एवं छींटाकशी करने वालों की निगरानी के लिए पुलिस प्रशासन द्वारा समय- समय पर प्रत्येक थाने पर विशेष टीमें गठित की जाती हैं। इन टीमों में दो महिला पुलिस कर्मचारी और दो पुरुष पुलिस कर्मचारी शामिल किए जाते हैं जो अपने-अपने क्षेत्र में ऐसे भीड़-भाड़ वाले स्थानों जैसे शिक्षण संस्थान, मुख्य बाजार बस अड्डा, सार्वजनिक पार्क आदि स्थानों पर लगातार निगरानी रखी जाती है। टीमों के गठन का मुख्य उद्देश्य महिलाओं के होने वाली घटनाओं और उत्पीड़न को रोकना रहता है।
    इसके साथ ही मध्य प्रदेश में महिलाओं की सुरक्षा को ध्यान में रखकर राज्य स्तरीय महिला अपराध हेल्पलाइन स्थापित की गई है, जिसका फोन नम्बर 1090 है। इस नम्बर पर कहीं से भी कॉल किया जा सकता है। कॉल मिलने पर पुलिस द्वारा तत्काल सहायता मुहैया कराई जाती है।

    और अंत में प्रस्तुत हैं मेरे कुछ दोहे -

कुटिलभाव से जो करे, नारी का अपमान।
ऐसे जन का तोड़िए, दण्डित कर अभिमान।।

कभी न हो खण्डित तनिक, इतना रखिए ध्यान।
मां, बेटी, भाभी, बहन, पत्नी का सम्मान।।

पूजनीय नारी सदा, देवी का प्रतिमान।
"वर्षा" नर वे अधम हैं, जिन्हें नहीं संज्ञान।।

         ---------------------
#PostForAwareness #विचारवर्षा
#युवाप्रवर्तक #राम #दशरथ # #तुलसीदास #रामचरितमानस #रामायण #रामकथा #अरण्यकाण्ड #त्रेतायुग #महाभारत #जयद्रथ #जयंत
#इंद्र #छेड़खानी

Wednesday, February 10, 2021

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 37 | गौ संरक्षण और देवताओं की माता अदिति | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय ब्लॉग पाठको, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज प्रस्तुत है मेरा आलेख -  "गौ संरक्षण और देवताओं की माता अदिति"
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 10.02.2021

मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं-

   बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

 गौ संरक्षण और देवताओं की माता अदिति

                    - डॉ. वर्षा सिंह

     अक्सर यह समाचार पढ़ने-सुनने को मिलता है कि आए दिन किसी न किसी सड़क पर वाहनों की टक्कर से गाय, बछड़े और अन्य मवेशी घायल हो गए हैं। अनेक गौसेवा संगठन इस मौके पर रोष जताते हैं और प्रशासनिक और नपा, नगर निगम आदि के अधिकारियों को गायों की सुरक्षा के लिए ज्ञापन देते हैं। कुछ संगठनों के द्वारा खुद आवारा गायों को पकड़कर कांजी हाउस में छोड़ा जाता है, या गौशाला के सुपुर्द किया जाता है। बेसहारा गौवंश को सहारा देने के लिए सरकार की ओर से भी गौशालाओं को बजट मुहैया करवाया जाता है। परंतु इसके बाद भी बेसहारा गौवंश को गौशालाओं में इसलिए सहारा नहीं मिल पाता क्योंकि कामधेनु योजना आदि सरकारी योजनाओं में मिलने वाला बजट गौशालाओं के लिए पर्याप्त नहीं होता है। इन परिस्थितियों में अधिकतर गौशालाएं चन्दे पर ही निर्भर रहती हैं।
    भारतीय संस्कृति में गौ को माता का स्थान दिया गया है। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार  जब आदिकाल में देव और दानवों ने अमृत प्राप्त करने के लिए समुद्र मंथन किया था तब श्री हरि विष्णु ने कच्छप अवतार लेकर सुमेरू पर्वत को धारण किया और वासुकी नाग को रज्जू के तौर पर प्रयोग में लाकर मंथन किया, जिसमें प्रथम हलाहल विष की ज्वाला से रक्षार्थ रत्नस्वरूपा कामधेनु प्रकट हुई जो सभी मनोकामनाओं, संकल्प और आवश्यकता पूर्ण करने में सक्षम थी। पौराणिक कथाओं में गौ के विषय में एक और कथा मिलती है। जब सृष्टि का प्रारम्भ हुआ तो ब्रह्मा ने मनु को सृष्टि रचना का आदेश दिया जिसके कारण हम मानव कहलाते हैं। मनु जिनका नाम पर्थु था उन्होंने गौमाता की स्तुति की और गौकृपा अनुसार गौदोहन किया और पृथ्वी पर कृषि का प्रारंभ किया। पर्थु मनु के नाम से यह धरा पृथ्वी कहलाई।  प्राचीन ग्रंथों  में यह लेख भी मिलता है कि यदि समस्त देवी- देवताओं एवं पितरों को एक साथ प्रसन्न करना हो तो गौभक्ति-गौसेवा से बढ़कर कोई अनुष्ठान नहीं है। गौमाता के दर्शन मात्र से ऐसा पुण्य प्राप्त होता है जो बड़े-बड़े यज्ञ, दान आदि कर्मों से भी नहीं प्राप्त हो सकता।
 ‘गौ मे माता ऋषभ: पिता में दिवं शर्म जगती मे प्रतिष्ठा।’ 
   अर्थात् गाय मेरी माता और ऋषभ पिता हैं। वे इहलोक और परलोक में सुख, मंगल तथा प्रतिष्ठा प्रदान करें।

रामकथा में गौ के महत्व का वर्णन है। तुलसीदास ने रामचरितमानस के बालकाण्ड में लिखा है-
विप्र धेनु सुर संत हित, लीन्ह मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु, माया गुन गोपार।।

    अर्थात् ब्राह्मण, गौ, देवता और संतों के लिए भगवान ने मनुष्य का अवतार लिया। वे माया और उसके गुण (सत, रज, तम) और बाहरी तथा भीतरी इंद्रियों से परे हैं। उनका दिव्य शरीर उनकी अपनी इच्छा से ही निर्मित है।

इतना ही नहीं, बल्कि रघुवंश के राजा दिलीप गौसेवा के पर्याय माने जाते हैं। यहां तक कि रामजन्म सुरभि गाय के दुग्ध द्वारा तैयार खीर से माना गया है।
गाय-बैल की महिमा के बारे में हमारे प्राचीन वेदों में भी अनेक ऋचाएं, श्लोक आदि मिलते हैं। अर्थववेद में कहा गया है-

मित्र ईक्षमाण आवृत आनंद:युज्यमानों
वैश्वदेवोयुक्त: प्रजापति विर्मुक्त: सर्पम्।
एतद्वैविश्वरूपं सर्वरूपं गौरूपम् उपैनंविश्वरूपा:
सर्वरूपा: पशवस्तिष्ठन्ति य एवम् वेद।।

अर्थात् देखते समय गौ मित्र देवता है, पीठ फेरते समय आनंद है। हल तथा गाड़ी में जोतते समय बैल विश्वदेव है। जो जाने पर प्रजापति तथा जब खुला हो तो सबकुछ बन जाता है। यही विश्वरूप अथवा सर्वरूप है, यही गौरूप है। जिसे इस विश्वरूप का यर्थाथ ज्ञान होता है उसके पास विविध प्रकार के पशु रहते हैं।

बह्मवैर्वापुराण के कृष्णजन्म में गाय की महिमा का वर्णन है। गौवध का निषेध करते हुये वेद में कहा गया है-

माता रूद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यनाममृत्स्य नाभि:
प्रश्नु वोचं चिकितुषे जनायमा 
गामनागादितिं वधिष्ट।

    अर्थात गौ रूद्रों की माता, वसुओं की पुत्री, अदितिपुत्रों की बहन तथा धृतरूप अमृत का कोश है। प्रत्येक विचारशील मनुष्य से यही कहना है कि निरपराध व अवध्य गौ का कोई वध न करे।

ऋग्वेद के ही मंडल 6, सूक्त 28 (1) में लेख है कि -
आ गावो अग्मन्नुत भद्रमक्रन्त्सीदन्तु गोष्ठे रणयंत्वसमे ।
 अर्थात् गाय हमारे घर आएं और हमारा कल्याण करें, वे हमारी गौशाला में बैठें एवं हमारे ऊपर प्रसन्न हों ।
      अदिति संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ 'असीम' है। अदिति दक्ष प्रजापति की पुत्री थीं और कश्यप ॠषि की पत्नी थीं। अदिति को 'देवमाता' कहा गया है । वरुण, आदित्य, रुद्र, इन्द्र आदि अदिति के पुत्र कहे जाते हैं। साथ ही अनेक पौराणिक कथाओं में अदिति को विष्णु सहित कई देवताओं की जननी माना गया है। अदिति के पुत्रों को आदित्य कहा गया है। तैंतीस देवताओं में अदिति के बारह पुत्र शामिल हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं- विवस्वान्, अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इंद्र और त्रिविक्रम (भगवान वामन)। बारह आदित्यों के अलावा आठ वसु, ग्यारह रुद्र और दो अश्विनकुमार मिलाकर तैंतीस देवताओं का एक वर्ग है। यह माना जाता है कि अदिति आकाश को अवलंब प्रदान करती हैं, सभी जीवों का पालन और पृथ्वी का पोषण करती हैं। इस रूप में इन्हें गाय के रूप में भी दर्शाया गया है।
     
पौराणिक ग्रंथों के अनुसार समस्त देव ‍कुलों को जन्म देने वाली अदिति देवियों की भी माता हैं। अदिति को लोकमाता भी कहा गया है। अदिति के पति ऋषि कश्यप ब्रह्मा के मानस पुत्र माने जाते हैं। मान्यता के अनुसार इन्हें अनिष्टनेमी के नाम से भी जाना जाता है। इनकी माता 'कला' कर्दम ऋषि की पुत्री और कपिल देव की बहन थीं।
     अदिति के पुत्र विवस्वान् से वैवस्वत मनु का जन्म हुआ। महाराज मनु को इक्ष्वाकु, नृग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यन्त, प्रान्शु, नाभाग, दिष्ट, करुष और पृषध्र नामक दस श्रेष्ठ पुत्रों की प्राप्ति हुई। अदितिपुत्र विवस्वान को ही सूर्य कहा गया है जिनकी आकाश में स्थित सूर्य ग्रह से तुलना की गई। सूर्यपुत्र कर्ण सहित सूर्य के कई अन्य भी पुत्र थे। कृष्ण की माता देवकी को अदिति का अवतार कहा जाता है। सूर्य के परिवार की विस्तृत कथा भविष्य पुराण, मत्स्य पुराण, पद्म पुराण, ब्रह्म पुराण, मार्कण्डेय पुराण तथा साम्बपुराण में वर्णित है

      ऋग्वेद में अदिति को माता के रूप में पूज्य मान कर मातृदेवी की स्तुति में बीस मंत्र कहे गए हैं। उन मन्त्रों में अदितिर्द्यौः ये मन्त्र अदिति को माता के रूप में प्रदर्शित करता है -

अदितिर्द्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता स-पिता स-पुत्रः ।
विश्वे देवा अदितिः पञ्च जना अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम्।।

अर्थात् यह मित्रावरुण, अर्यमन्, रुद्रों, आदित्यों इंद्र आदि की माता हैं। इंद्र और आदित्यों को शक्ति अदिति से ही प्राप्त होती है। उसके मातृत्व की ओर संकेत अथर्ववेद (7.6.2) और वाजसनेयिसंहिता (21,5) में भी हुआ है। इस प्रकार उसका स्वाभाविक स्वत्व शिशुओं पर है और ऋग्वैदिक ऋषि अपने देवताओं सहित बार बार उसकी शरण जाता है एवं कठिनाइयों में उससे रक्षा की अपेक्षा करता है।
   अदिति का अर्थ मुक्त रहना है। 'दिति' यानी बंधना और अदिति यानी पाप के बंधन से रहित होना। ऋग्वेद (1,162,22) में उससे पापों से मुक्त करने की प्रार्थना की गई है। कुछ अर्थों में उसे गौ का भी पर्याय माना गया है। ऋग्वेद का में कहा गया है - 
मा गां अनागां अदिति वधिष्ट।। 
  अर्थात् गाय रूपी अदिति का वध मत करो। 

      कहा जाता है कि स्वर्ग में सत्ता के लोभ में दैत्यों और देवताओं में शत्रुता हो गई। दैत्यों और देवों के परस्पर अनेक युद्ध हुए। उन युद्धों दैत्यों ने देवताओं को पराजित कर दिया।  सभी देव गण वनों में विचरण करने लगे। उनकी यह दुर्दशा देखकर अदिति और कश्यप भी दुःखी हुए। तब महर्षि नारद के द्वारा सूर्योपासना का उपाय बताया गया। अदिति ने अनेक वर्षों तक सूर्य की घोर तपस्या की। अदिति के तप से सूर्य देव प्रसन्न हो गए। उन्होंने साक्षात् दर्शन दिये और वरदान मांगने को कहा। तब अदिति ने सूर्य से यह वरदान मांगा कि - "आप मेरे पुत्र रूप में जन्म लें”। कालान्तर में सूर्य का तेज अदिति के गर्भ में प्रतिष्ठित हुआ  किन्तु एक बार अदिति और कश्यप के मध्य कलह उत्पन्न हो गया। क्रोध में कश्यप अदिति के गर्भस्थ शिशु को “मृत” शब्द से सम्बोधित कर बैठे। उसी समय अदिति के गर्भ से एक प्रकाशपुंज बाहर आया। उस प्रकाशपुंज को देखकर कश्यप भयभीत हो गये। कश्यप ने सूर्य से क्षमा याचना की। उसी समय यह आकाशवाणी हुई कि – “आप दोनों इस पुंज का प्रतिदिन पूजन करें। उचित समय होते ही उस पुंज से एक पुत्ररत्न जन्म लेगा और आप दोनों की इच्छा को पूर्ण कर ब्रह्माण्ड में स्थित होगा।" तत्पश्चात कालांतर में उस पुंज से जो तेजस्वी बालक उत्पन्न हुआ, वही “आदित्य” या “मार्तण्ड” के नाम से विख्यात है। आदित्य का तेज असहनीय था। अतः युद्ध में दैत्य आदित्य के तेज को देखकर ही पलायन कर पाताललोक में चले गये। अन्त में आदित्य सूर्यदेव स्वरूप में ब्रह्माण्ड के मध्यभाग में स्थित हुए और ब्रह्माण्ड का संचालन करने लगे ।

     रामचरितमानस के बालकाण्ड में तुलसीदास शिव- पार्वती सम्वाद अंतर्गत देवताओं के निवेदन पर श्रीहरि विष्णु के उद्गार प्रकट करते हैं -

जानि सभय सुर भूमि सुनि बचन समेत सनेह।
गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह॥
    अर्थात् देवताओं और पृथ्वी को भयभीत जानकर और उनके स्नेहयुक्त वचन सुनकर शोक और संदेह को हरने वाली गंभीर आकाशवाणी हुई।

जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा। 
तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा॥
अंसन्ह सहित मनुज अवतारा। 
लेहउँ दिनकर बंस उदारा॥
     अर्थात् हे मुनि, सिद्ध और देवताओं के स्वामियों! डरो मत। तुम्हारे लिए मैं मनुष्य का रूप धारण करूँगा और उदार पवित्र सूर्यवंश में अंशों सहित मनुष्य का अवतार लूँगा।

कस्यप अदिति महातप कीन्हा। 
तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा॥
ते दसरथ कौसल्या रूपा। 
कोसलपुरीं प्रगट नर भूपा॥
     अर्थात् कश्यप और अदिति ने बड़ा भारी तप किया था। मैं पहले ही उनको वर दे चुका हूँ। वे ही दशरथ और कौसल्या के रूप में मनुष्यों के राजा होकर राम अयोध्या में प्रकट हुए हैं।

   सतयुग, त्रेतायुग और द्वापर में अदिति स्वरूपा गौ सदैव पूज्यनीय मानी गई है। इस कलियुग में गौ पूज्यनीय तो मानी जाती है किन्तु गौ की रक्षा हेतु जनचेतना का अभाव दिखाई देता है। अपने भविष्य की रक्षा और स्वयं के कल्याण हेतु लोग भिखारिणी के समान दर-दर, द्वार-द्वार भटकती गायों को रोटी खिला कर लोग बहुधा अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। किन्तु गौवंश के रक्षार्थ सार्थक क़दम उठाने वाले लोगों की संख्या बहुत कम है। मध्यप्रदेश के सागर शहर के गौपुत्र कहे जाने वाले समाजसेवी सूरज सोनी विगत 12 वर्ष से गौमाता की रक्षाकार्य में तन, मन, धन से जुटे हुए हैं। गौरक्षा के प्रति उनकी लगन को देख कर उन्हें गौरक्षा कमांडो फोर्स के प्रदेशाध्यक्ष का दायित्व भी सौंपा गया है। गौरक्षा कमांडो फोर्स का मूल कार्य है गौ माता के प्रति लोगों को जागृत करना। साथ ही सागर के रतौना ग्राम में स्थित गौशाला में भी गौवंश का पालन-पोषण किया जाता है।

     अतः वर्तमान समय में आवश्यकता है इन कतिपय समाजसेवियों की तरह जन-जन को गौवंश की रक्षा हेतु जागरूक होने की।

और अंत में प्रस्तुत हैं यहां मेरे कुछ दोहे -

मातृतुल्य गौ की करे, रक्षा सकल समाज।
धवल क्रांति होगी तभी, सुधरेंगे हर काज।।

सड़कों पर मत छोड़िए, गौ हैं मातु समान।
गौ सेवा से ही बढ़े, आन, बान औ शान।।

'वर्षा' गौ सेवक बने, युवा जगत जो आज।
गौ सेवा  होती   रहे,  चलता  रहे  रिवाज।।

              -------------------
#PostForAwareness #विचारवर्षा
#युवाप्रवर्तक #राम #दशरथ #कौशल्या #अदिति #तुलसीदास #गौ #गाय #गौवंश #रामचरितमानस #रामायण #रामकथा #बालकाण्ड #त्रेतायुग #ऋग्वेद #सूरज_सोनी #रतौना

Wednesday, February 3, 2021

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 36 | बुज़ुर्गों से व्यवहार और श्रवणकुमार | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज प्रस्तुत है मेरा आलेख -  "बुज़ुर्गों से व्यवहार और श्रवणकुमार"

हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 03.02.2021

मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं-

बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा


      बुज़ुर्गों से व्यवहार और श्रवणकुमार

                     -डॉ. वर्षा सिंह


        अभी बीते सप्ताह 29 - 30 जनवरी 2021 के अनेक प्रमुख समाचार पत्रों में प्रकाशित समाचारों के अनुसार मध्य प्रदेश के इंदौर शहर  में नगर निगम का अमानवीय चेहरा सामने आया है। वहां बुजुर्गों को निगम के कर्मचारियों ने जानवरों की तरह ठूंसकर कचरा गाड़ी में भरा और उन्हें शहर से बाहर छोड़ने जा पहुंचे। यह सब स्वच्छता के नाम पर हुआ। इस घटनाक्रम का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होने के बाद मध्यप्रदेश राज्य के नगरीय प्रशासन मंत्री माननीय भूपेंद्र सिंह ने इंदौर में बुजुर्गों के साथ हुई इस घटना पर सख़्त कार्रवाई करते हुए एक अधिकारी और एक कर्मचारी की सेवा समाप्त कर दीं तथा उनके निर्देश से सभी सम्मानीय बुजुर्गो को रैन बसेरा भिजवाया गया। यूं भी इन दिनों देश के अन्य हिस्सों की तरह इंदौर में भी कड़ाके की सर्दी पड़ रही है। बड़ी संख्या में बेसहारा बुजुर्ग सड़क किनारे रात काटने को मजबूर हैं। इन बुजुर्गों को इंदौर नगर निगम के कर्मचरियों ने स्वच्छता के नाम पर निगम के वाहन में ठूंसकर जानवरों की तरह भरा और उन्हें शहर से बाहर पड़ोसी जिला देवास के एक सीमावर्ती गांव में शिप्रा नदी के पार छोड़ने पहुंच गए। जब गांव वालों ने इसका विरोध किया तो निगम कर्मियों ने बुज़ुर्गों को सड़क पर उतारने के बाद फिर वाहन में बैठाया। इनमें से कई बुजुर्ग ऐसे भी थे जो ठीक से चल भी नहीं सकते थे। इस पूरे घटनाक्रम का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होने पर लोगों में नगर निगम की इस अमानवीयता के खिलाफ़ काफी गुस्सा भर उठा। सोशल मीडिया पर लोगों ने नगर निगम कर्मचारियों पर अपना ग़ुस्सा उतारा। लेकिन सोचने की बात यह है कि ऐसी घटनाएं क्यों घट रही हैं? बुज़ुर्गों के प्रति ऐसा रवैया अत्यंत दुखद है।

    बहुत दुख होता है ऐसी हृदयविदारक घटनाओं के समाचार पढ़ कर… कहां जा रहा है हमारा समाज और हम… हमारे शास्त्रों में माता-पिता के लिए कहा गया है कि  “मातृ देवो: भव:”, पितृ देवो: भव:” अर्थात् मां देवता के समान हैं,  पिता देवता के समान हैं।

रामचरितमानस के बालकाण्ड में तुलसीदास कहते हैं -

मातु पिता गुर प्रभु कै बानी। 

बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी॥

  अर्थात् माता, पिता, गुरु और स्वामी की बात को बिना ही विचारे शुभ समझकर मानना चाहिए।

  बालकाण्ड में ही तुलसीदास एक अन्य स्थान पर लिखते हैं - 

मानहिं मातु पिता नहिं देवा। 

साधुन्ह सन करवावहिं सेवा॥

  अर्थात् लोग माता-पिता और देवताओं को नहीं मानते  और साधुओं की सेवा करना तो दूर रहा, उल्टे उनसे सेवा करवाते हैं।


जिन्ह के यह आचरन भवानी। 

ते जानेहु निसिचर सब प्रानी॥

अर्थात् शिव कहते हैं कि- हे भवानी! जिनके ऐसे आचरण हैं, उन सब प्राणियों को राक्षस ही समझना।


    वर्तमान समय में लाइफ स्टाइल में आए परिवर्तन और कथित स्टेटस के दिखावे के चलते समाज में माता-पिता ही नहीं वरन् अन्य बुजुर्गों की भी अहमियत घट रही है। या तो उन्हें वृद्धाश्रम में भेज दिया जाता है, या फिर मरने के लिए सड़कों पर छोड़ दिया जाता है। आधुनिकता की तरफ तेज़ी से क़दम बढ़ाते आज के युवा बुज़ुर्गों के प्रति लापरवाह होते जा रहे हैं। यह समस्या सिर्फ़ भारत की नहीं वरन् पूरे विश्व की है और इसीलिए प्रत्येक वर्ष को 15 जून को 'विश्व बुज़ुर्ग दुर्व्यवहार रोकथाम जागरूकता दिवस' मनाया जाता है। दरअसल अंतर्राष्ट्रीय बुज़ुर्ग दुर्व्यवहार रोकथाम संघ की सलाह पर संयुक्त राष्ट्र ने 2006 में प्रस्ताव 66 /127 के तहत 15 जून को "बुज़ुर्ग दुर्व्यवहार रोकथाम दिवस" मनाना प्रारंभ किया। बुज़ुर्गों के साथ दुर्व्यवहार एक मानवाधिकार का मुद्दा है। 2017 में 'हेल्पेज  इंडिया' के मुख्य कार्यकारी अधिकारी' मैथ्यू चेरियन' का कहना है कि- 'आंकड़ों ने मुझे चौंका दिया बुज़ुर्गों के साथ दुर्व्यवहार एक संवेदनशील मुद्दा है।" 


    हमारी भारतीय संस्कृति में हमारे जन्मदाता का स्थान सर्वोच्च माना गया है। महाभारत महाकाव्य के रचियता महर्षि वेदव्यास ने माता के प्रति लिखा है कि –


नास्ति मातृसमा छाया, 

नास्ति मातृसमा गतिः।

नास्ति मातृसमं त्राण, 

नास्ति मातृसमा प्रिया।।

  अर्थात् माता के समान कोई छाया नहीं है, माता के समान कोई सहारा नहीं है। माता के समान कोई रक्षक नहीं है और माता के समान कोई प्रिय नहीं है।

      इसी प्रकार पिता की महिमा अनेक प्राचीन ग्रंथों में मिलती है। महान विचारक चाणक्य के अनुसार पांच प्रकार के पिता बताए गए हैं-


जनिता चोपनेता च यस्तु विद्यां प्रयच्छति।

अन्नदाता भयत्राता पञ्चैचे पितर: स्मृता:।।


अर्थात् जन्म देने वाला, शिक्षा देने वाला, यज्ञोपवीत आदि संस्कार करने वाला, अन्न देने वाला और भय से बचाने वाला ये सभी पिता ही हैं।

    माता-पिता की सेवा की चर्चा होते ही श्रवण कुमार का स्मरण किया जाना स्वाभाविक है।

श्रवण कुमार रामकथा में उल्लेखित एक ऐसा पात्र है, जो अपने माता पिता से अतुलनीय प्रेम के लिए जाना जाता है।

    त्रेतायुग के मातृ-पितृ भक्त श्रवण कुमार की कथा रामायण के अयोध्याकाण्ड में कुछ इस प्रकार है -  श्रवण कुमार के माता-पिता अंधे थे। श्रवणकुमार अत्यंत श्रद्धाभावना से उनकी सेवा करते थे। एक बार उनके माता-पिता की इच्छा तीर्थयात्रा करने की हुई। चूंकि माता-पिता दृष्टिहीन थे अतः श्रवण कुमार ने एक कांवर बनाया और उस कांवर में दोनों को बैठाकर कांवर को कंधे पर उठा कर यात्रा करने निकल पड़े। यात्रा के दौरान एक दिन वे अयोध्या के समीप वन में पहुंचे। रात्रि का समय था। माता-पिता को प्यास लगी। उन्होंने श्रवण कुमार से पानी मांगा। पानी ख़त्म हो चुका था। पास ही सरयू नदी बह रही थी। अतः श्रवण कुमार पानी लाने के लिए अपना तुंबा लेकर सरयू तट पर गए। 

   अयोध्या के राजा दशरथ दुर्योगवश उस स्थान पर आखेट के लिए आए हुए थे। दिन भर उन्हें कोई पशु नहीं मिला था। वे रात्रि के उस पहर में सरयू के समीप आखेट हेतु किसी पशु की तलाश में पहुंच गए थे। श्रवण कुमार ने जब पानी में अपना तुंबा डुबोया तो वहां आखेट के लिए घात लगाकर चौंकन्ने बैठे राजा दशरथ ने समझा कि कोई हिरन जल पी रहा है। उन्होंने तत्काल शब्दभेदी बाण छोड़ दिया। बाण श्रवण कुमार को लगा। बाण लगते ही श्रवण कुमार की हृदयविदारक चींख सुन कर दशरथ को अपनी भूल का अहसास हुआ। वे दौड़ कर श्रवण कुमार के पास पहुंचे और दुखी हो कर नसे क्षमा मांगने लगे। दशरथ को दुखी देख कर अपनी अंतिम सांसें गिनते हुए श्रवण कुमार ने दशरथ से कहा - हे राजन, मुझे अपनी मृत्यु का दु:ख नहीं है, किंतु मेरे माता-पिता के लिए मैं बहुत दु:खी हूं। वे अंधे हैं और इस समय प्यास से व्याकुल हैं। आप उन्हें जाकर मेरी मृत्यु का समाचार सुना दें और जल पिलाकर उनकी प्यास शांत करें। यह कह कर श्रवण कुमार मृत्योपरान्त दिव्य रूप धारण कर विमान में बैठ स्वर्ग को चले गए।  

    दुखी मन से दशरथ ने पुत्र श्रवण कुमार की मृत्यु का समाचार सुनाते हुए पूरी घटना श्रवण कुमार के माता-पिता को सुनाई और अपना अपराध स्वीकर कर लिया। तब श्रवण कुमार के शोकाकुल माता-पिता ने राजा दशरथ को यह शाप दिया कि - अरे निष्ठुर दशरथ ! यह हमारा शाप है कि तू भी हमारी ही तरह अपने प्राणप्रिय पुत्र के वियोग में तड़प-तड़प कर अपने प्राण त्याग करेगा। उन्होंने यह भी कहा कि वे अपना अपराध स्वीकार करने के कारण ही अभी तक जीवित हैं अन्यथा संपूर्ण कुल समेत कभी के नष्ट हो चुके होते। तदुपरांत उन दोनों ने एक चिता में प्रवेश कर प्राण त्याग दिये।

   रामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड में तुलसीदास ने इस कथा का पूर्ण उल्लेख नहीं करते हुए राम के वनगमन उपरांत पुत्रवियोग सहते दशरथ द्वारा कौशल्या को श्रवण कुमार के माता-पिता द्वारा दिए गए शाप के बारे में बताए जाने के संदर्भमात्र का उल्लेख किया है -  


धरि धीरजु उठि बैठ भुआलू। 

कहु सुमंत्र कहँ राम कृपालू॥

कहाँ लखनु कहँ रामु सनेही। 

कहँ प्रिय पुत्रबधू बैदेही॥

अर्थात् धीरज धरकर राजा दशरथ उठ बैठे और बोले- सुमंत्र! कहो, कृपालु राम कहाँ हैं? लक्ष्मण कहाँ हैं? स्नेही राम कहाँ हैं? और मेरी प्यारी बहू जानकी कहाँ है?


बिलपत राउ बिकल बहु भाँती। 

भइ जुग सरिस सिराति न राती॥

तापस अंध साप सुधि आई। 

कौसल्यहि सब कथा सुनाई॥

अर्थात् राजा व्याकुल होकर बहुत प्रकार से विलाप कर रहे हैं। वह रात युग के समान बड़ी हो गई, बीतती ही नहीं। राजा को अंधे तपस्वी श्रवणकुमार के पिता के शाप की याद आ गई। उन्होंने सब कथा कौसल्या को कह सुनाई।


भयउ बिकल बरनत इतिहासा। 

राम रहित धिग जीवन आसा॥

सो तनु राखि करब मैं काहा। 

जेहिं न प्रेम पनु मोर निबाहा॥

अर्थात् उस इतिहास का वर्णन करते-करते राजा व्याकुल हो गए और कहने लगे कि  राम के बिना जीने की आशा को धिक्कार है। मैं उस शरीर को रखकर क्या करूँगा, जिसने मेरा प्रेम का प्रण नहीं निबाहा?


 हा रघुनंदन प्रान पिरीते। 

तुम्ह बिनु जिअत बहुत दिन बीते॥

हा जानकी लखन हा रघुबर। 

हा पितु हित चित चातक जलधर॥

अर्थात् हा रघुकुल को आनंद देने वाले मेरे प्राण प्यारे राम! तुम्हारे बिना जीते हुए मुझे बहुत दिन बीत गए। हा जानकी, लक्ष्मण! हा रघुवीर! हा पिता के चित्त रूपी चातक के हित करने वाले मेघ!


राम राम कहि राम कहि राम राम कहि राम।

तनु परिहरि रघुबर बिरहँ राउ गयउ सुरधाम॥

अर्थात् राम-राम कहकर, फिर राम कहकर, फिर राम-राम कहकर और फिर राम कहकर राजा-राम के विरह में शरीर त्याग कर सुरलोक को सिधार गए।


जिअन मरन फलु दसरथ पावा। 

अंड अनेक अमल जसु छावा॥

जिअत राम बिधु बदनु निहारा। 

राम बिरह करि मरनु सँवारा॥

अर्थात्  जीने और मरने का फल तो दशरथ ने ही पाया, जिनका निर्मल यश अनेक ब्रह्मांडों में छा गया। जीते जी तो राम के चन्द्रमा के समान मुख को देखा और राम के विरह को निमित्त बनाकर अपना मरण सुधार लिया।

  

     वृद्धजन के आशीर्वाद से हम फूलते-फलते हैं, तरक्की करते हैं, जबकि उनके हृदय को ठेस पहुंचाने, उनकी उपेक्षा करने से हमें भी मानसिक सुखों से वंचित होना पड़ता है। बुज़ुर्गों को वृद्धाश्रम में भेजने या सड़कों पर मरने के लिए छोड़ देने के बजाए अपने साथ रखने की पहल करनी चाहिए। जो अकेले, असहाय हैं ऐसे माता-पिता तुल्य सभी वृद्धजनों, बुज़ुर्गों को सम्मान देना, उनकी सेवा करना भारतीय संस्कृति का अंग है किन्तु यह सब भूल कर माता-पिता सहित वृद्धजनों, बुज़ुर्गों से अमानवीय व्यवहार करना हमें शोभा नहीं देता। असंवेदनशील हो कर पहले उन्हें सड़कों पर रहने के लिए मज़बूर करना फिर उनसे पशुवत व्यवहार करना अत्यंत दुखद है। ऐसे कृत्यों की निंदा किए जाने, उन पर कठोर कार्यवाही किए जाने के साथ ही ऐसे असंवेदनशील व्यक्तियों का समाज से बहिष्कार किया जाना चाहिए, ताकि अन्य व्यक्ति इससे सबक ले सकें। 


और अंत में प्रस्तुत हैं यहां मेरे कुछ दोहे -


वृद्धों की सेवा करें, वृद्धों का सम्मान ।

उनके आशीर्वाद से, मिलता हमको मान ।। 


सहज न कलियुग में मिलें, ऐसे श्रवणकुमार ।

मातु-पिता हित हेतु जो, त्यागें सुख-संसार ।।


अपने हों या ग़ैर हों, करिए सदा प्रणाम ।

मातु-पिता-चरणों तले, "वर्षा" चारों धाम ।।


  -------------------------

#PostForAwareness #विचारवर्षा
#युवाप्रवर्तक #राम #लक्ष्मण #सीता #दशरथ #कौशल्या #श्रवण कुमार #तुलसीदास # # बुज़ुर्ग #रामचरितमानस #रामायण #रामकथा #बालकाण्ड   #वृद्धावस्था #चाणक्य #त्रेतायुग #इंदौर_नगरनिगम