Wednesday, February 24, 2021

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 39 | संबंधों का गणित और महर्षि याज्ञवल्क्य | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज प्रस्तुत है मेरा आलेख -  "संबंधों का गणित और महर्षि याज्ञवल्क्य"
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 24.02.2021

मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं-
बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

संबंधों का गणित और महर्षि याज्ञवल्क्य
 
         - डॉ. वर्षा सिंह

    पिछले दिनों फोन पर मेरी बात मेरे एक पूर्व सहकर्मी से हुई। कार्यालयीन समस्याओं की चर्चा चली तो उन्होंने बताया कि स्टेब्लिशमेंट सेक्शन यानी स्थापना कक्ष के प्रभारी होने के कारण इन दिनों वे एक नॉमिनेशन प्रकरण को सुलझाने के लिए जुटे हुए हैं। मामला यह है कि एक लाईनमैन बिजली के खम्भे पर चढ़ कर सुधार कार्य कर रहा था। दुर्भाग्यवश लाईन चालू हो जाने के कारण खम्भे पर करंट आ जाने के कारण वह घातक दुर्घटना का शिकार हो कर अपनी जान से हाथ धो बैठा। चूंकि उस मृतक कर्मचारी की वैधानिक रूप से विवाहिता पत्नी के अलावा उसकी एक अवैधानिक पत्नी भी है, यानी किसी महिला से उसने विवाह किए बिना ही दैहिक संबंध बनाए थे जिससे उसके दो बच्चे भी हैं। अब मृतक कर्मचारी के देय क्लेमस की राशि को ले कर दोनों पत्नियां अपना दावा प्रस्तुत कर रही हैं। नॉमिनेशन में वैधानिक पत्नी का नाम दर्ज़ है लेकिन दूसरी स्त्री के पास राशनकार्ड, आधार कार्ड और बच्चों के पिता के रूप में मृतक के नाम के प्रमाणिक दस्तावेज हैं। जबकि ग़ैरक़ानूनी पत्नी को नियमानुसार पति के क्लेमस् नहीं दिए जा सकते हैं, बशर्ते दस्तावेजों के आईने में कहीं किसी स्तर पर कोई सहानुभूति का मसला न दिखाई दे जाए। दिलचस्प बात यह है कि मेरे सहकर्मी इस प्रकरण के निपटारे में दफ्तर को इतना अधिक समय देने लगे हैं कि उनके ख़ुद के परिवार में समय को ले कर कलह की स्थिति निर्मित हो गई है। वे अपनी यह व्यथा कथा सुनाते हुए मुझसे दुखी स्वर में कहने लगे - "वर्षा मेम, इस प्रकरण के कारण मैं अपने घर-परिवार को पर्याप्त समय नहीं दे पा रहा हूं और इसलिए आपकी भाभीजी मुझसे इन दिनों नाराज़ रहने लगीं हैं। अब क्या कहूं… काश उस बंदे ने या तो दूसरी स्त्री से अवैध संबंध न बनाए होते या संबंध बनाने पर अपनी संपत्ति, अपने क्लेमस का बंटवारा उस स्त्री और अपनी लीगल पत्नी के बीच कर दिया होता।" मेरे सहकर्मी की बात सही थी।
    अनेक प्रकरणों में ऐसा होता है। अव्वल तो समझदार व्यक्ति एकपत्नीव्रत होते हैं, अवैध संबंधों से दूरी बना कर चलते हैं तथापि यदि परिस्थितिवश ऐसे संबंध बन भी गए बहुत कम ही समझदार व्यक्ति ऐसे होते हैं जो अवैध संबंधों की स्थिति में अपनी अकस्मात मृत्यु को ध्यान में रखकर लीगल पत्नी और दूसरी स्त्री के भरणपोषण के विषय में सोचते हैं। वर्तमान समय में एकाध व्यक्ति ऐसा समझदार मिल जाए तो वाकई बड़े आश्चर्य की बात होगी। दरअसल संविधान सभा के सामने 11 अप्रैल 1947 को डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल पेश किया था। इस बिल में बिना वसीयत किए मृत्यु को प्राप्त हो जाने वाले हिंदू पुरुषों और महिलाओंं की संपत्ति के बंटवारे के संबंध में कानूनों को संहिताबद्ध किए जाने का प्रस्ताव था। इस विधेयक में विवाह संबंधी प्रावधानों में बदलाव किया गया था। यह दो प्रकार के विवाहों को मान्यता देता था - सांस्कारिक व सिविल। इसमें हिंदू पुरूषों द्वारा एक से अधिक महिलाओं से शादी करने पर प्रतिबंध और अलगाव संबंधी प्रावधान भी थे। बाद में 1955 में बनाए गए हिंदू मैरिज एक्ट के अनुसार एक बार में एक से ज्यादा शादी को ग़ैरक़ानूनी घोषित किया गया।   
    इस एक्ट के बनने से पहले बहुपत्नी प्रथा प्रचलन में थी, जिसके दुष्परिणाम स्त्रियों को ही भुगतने पड़ते थे। मुख्य रूप में से बहुपत्नी होने की स्थिति में पति की अकाल मृत्यु के बाद संपत्ति पर उत्तराधिकार को लेकर क्लेश, द्वेष, हिंसा आदि सामना महिलाओं को ही करना पड़ता था। 
   प्राचीन भारतीय ग्रंथों में बहुपत्नी वाली स्थिति में संपत्ति के बंटवारे के प्रति जागरूक महर्षि याज्ञवल्क्य का उल्लेख मिलता है। यह वही महर्षि याज्ञवल्क्य हैं जो यजुर्वेद प्रवर्तक, याज्ञिक सम्राट, महान दार्शनिक एवं विधिवेत्ता थे। साथ ही पारस्परिक संबंधों के गणितज्ञ भी।
      महर्षि याज्ञवल्क्य के पिता का नाम ब्रह्मरथ और माता का नाम देवी सुनन्दा था। पिता ब्रह्मरथ वेद-शास्त्रों के परम ज्ञाता थे। महर्षि याज्ञवल्क्य की वैदिक रीति से विवाह की गई दो पत्नियां थीं। पहली पत्नी भारद्वाज ऋषि की पुत्री कात्यायनी और दूसरी मित्र ऋषि की कन्या मैत्रेयी  थी। याज्ञवल्क्य उस दर्शन के प्रखर प्रवक्ता थे, जिसने इस संसार को मिथ्या स्वीकारते हुए भी उसे पूरी तरह नकारा नहीं। उन्होंने व्यावहारिक धरातल पर संसार की सत्ता को स्वीकार किया। एक दिन याज्ञवल्क्य  को लगा कि अब उन्हें गृहस्थ आश्रम छोड़कर वानप्रस्थ आश्रम को अपना कर वनगमन करना चाहिए। सोच-विचार कर तब उन्होंने अपनी दोनों पत्नियों के सामने अपनी संपत्ति को बराबर हिस्से में बांटने का प्रस्ताव रखा। कात्यायनी ने पति का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया, पर मैत्रेयी बेहद शांत स्वभाव की थी। अध्ययन, चिंतन और शास्त्रार्थ में उसकी गहरी रुचि थी। वह जानती थी कि धन-संपत्ति से आत्मज्ञान नहीं खरीदा जा सकता। इसलिए उन्होंने पति की संपत्ति लेने से मना कर दिया और कहा कि मैं भी वन में जाऊंगी और आपके साथ मिलकर ज्ञान और अमरत्व की खोज करूंगी। इस तरह कात्यायनी को ऋषि की सारी धन-संपत्ति मिल गई और मैत्रेयी अपने पति की विचार-संपदा की स्वामिनी बन गई। वर्तमान समय में मैत्रेयी जैसी समझदार पत्नियां भी नगण्यप्राय हैं।

    पौराणिक ग्रंथों में जिन विदुषी स्त्रियों का उल्लेख मिलता है, उनमें मैत्रेयी का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है क्योंकि उन्होंने ज्ञान की प्राप्ति के लिए समस्त सांसारिक सुखों को त्याग दिया था। वृहदारण्य को उपनिषद् में मैत्रेयी का अपने पति के साथ बहुत रोचक संवाद का उल्लेख मिलता है। मैत्रेयी ने याज्ञवल्क्य  से यह ज्ञान ग्रहण किया कि हमें कोई भी संबंध इसलिए प्रिय होता है क्योंकि उससे कहीं न कहीं हमारा स्वार्थ जुड़ा होता है। मैत्रेयी ने अपने पति से यह जाना कि आत्मज्ञान के लिए ध्यानस्थ, समर्पित और एकाग्र होना कितना आवश्यक है। याज्ञवल्क्य ने उसे उदाहरण देते हुए यह समझाया कि जिस तरह नगाड़े की आवाज़ के सामने हमें कोई दूसरी ध्वनि सुनाई नहीं देती, वैसे ही आत्मज्ञान के लिए सभी इच्छाओं का बलिदान आवश्यक होता है।
    याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी  से कहा कि जैसे सारे जल का एकमात्र आश्रय समुद्र है उसी तरह हमारे सभी संकल्पों का जन्म मन में होता है। जब तक हम जीवित रहते हैं, हमारी इच्छाएं भी जीवित रहती हैं। मृत्यु के बाद हमारी चेतना का अंत हो जाता है और इच्छाएं भी वहीं समाप्त हो जाती हैं। यह सुनकर मैत्रेयी  ने पूछा कि क्या मृत्यु ही अंतिम सत्य है? उसके बाद कुछ भी नहीं होता? यह सुनकर याज्ञवल्क्य  ने उसे समझाया कि हमें अपनी आत्मा को पहचानने की कोशिश करनी चाहिए। शरीर नश्वर है, पर आत्मा अजर-अमर है। यह न तो जन्म लेती है और न ही नष्ट होती है। आत्मा को पहचान लेना अमरता को पा लेने के बराबर है। वैराग्य का जन्म भी अनुराग से ही होता है। चूंकि मोक्ष का जन्म भी बंधनों में से ही होता है, इसलिए मोक्ष की प्राप्ति से पहले हमें जीवन के अनुभवों से भी गुजरना पडेगा। यह सब जानने के बाद भी मैत्रेयी की जिज्ञासा शांत नहीं हुई और वह आजीवन अध्ययन-मनन में लीन रही। महर्षि याज्ञवल्क्य यदि संपत्ति बंटवारे के विषय में नहीं सोचते तो विवाहिता पत्नी होने के बावजूद उपपत्नी होने के कारण मैत्रेयी का जीवन सुखमय नहीं रह पाता।
    याज्ञवल्क्य का जन्म ईसापूर्व 7वीं शताब्दी में हुआ था। याज्ञवल्क्य ने ही शतपथ ब्राह्मण ग्रंथ की रचना की थी। महर्षि याज्ञवल्क्य का उल्लेख अनेक धर्म ग्रंथो में मिलता है। मत्स्य पुराण में उल्लेखित है, 'वशिष्ठ कुल के गोत्रकार जिनको याज्ञदत्त नाम भी दिया जाता है।' विष्णुपुराण में इन्हें ब्रह्मरथ का पुत्र और वैशम्पायन का शिष्य कहा गया है। 
भागवत और विष्णु पुराण के अनुसार याज्ञवल्क्य ने सूर्य की उपासना की थी और सूर्यऋयी विद्या एवं प्रणावत्मक अक्षर तत्व इन दोनों की एकता यही उनके दर्शन का मूल सूत्र था। ऋषि याज्ञवल्क्य को सदानीरा कहा गया है। वे कौशिक कुल के थे, वायु और विष्णु पुराण के अनुसार याज्ञवल्क्य के पिता का नाम ब्रम्हा और श्रीमदभगवत के अनुसार देवरात था। 
    महाभारत सहित कई ग्रंथों में याज्ञवल्क्य को कौशिक ही कहा गया है। भारत में पुरुषों के साथ ही भारतीय महिला दार्शनिकों तथा साध्वियों की लम्बी परंपरा रही है। वेदों की ऋचाओं को गढ़ने में भारत की बहुत-सी स्त्रियों का योगदान रहा है उनमें से ही एक है गर्गवंश में वचक्नु नामक महर्षि की पुत्री 'वाचकन्वी गार्गी'। राजा जनक के काल में ऋषि याज्ञवल्क्य और ब्रह्मवादिनी कन्या गार्गी दोनों ही महान ज्ञानी थे। बृहदारण्यक उपनिषद् में दोनों के बीच हुए संवाद पर ही आधारित है।
माना जाता है कि राजा जनक प्रतिवर्ष अपने यहां शास्त्रार्थ करवाते थे। एक बार के आयोजन में महर्षि याज्ञवल्क्य को भी निमंत्रण मिला था। जनक ने शास्त्रार्थ विजेता के लिए सोने की मुहरें जड़ित एक हज़ार गायों को दान में देने की घोषणा कर रखी थी। उन्होंने कहा था कि शास्त्रार्थ के लिए जो भी पथारे हैं उनमें से जो भी श्रेष्ठ ज्ञानी विजेता बनेगा वह इन गायों को ले जा सकता है। निर्णय लेना अति कठिन कार्य था, क्योंकि अगर कोई ज्ञानी स्वयं को ही सबसे बड़ा ज्ञानवान मान ले तो वह भला ज्ञानी कैसे कहलाएगा!
     ऐसी स्थिति में ऋषि याज्ञवल्क्य ने अति आत्मविश्वास से भरकर अपने शिष्यों से कहा, 'हे शिष्यो! इन गायों को हमारे आश्रम की और हांक ले चलो।' इतना सुनते ही सब ऋषि याज्ञवल्क्य से शास्त्रार्थ करने लगे। याज्ञवल्क्य ने सबके प्रश्नों का यथाविधि उत्तर दिया। उस सभा में ब्रह्मवादिनी गार्गी भी बुलाई गयी थी। सबके पश्चात् गार्गी ने याज्ञवल्क्य से शास्त्रार्थ किया। दोनों के बीच शास्त्रार्थ प्रारंभ हुआ। आत्मविद्या के लिए ब्रह्मचर्य अनिवार्य माने जाने किन्तु याज्ञवल्क्य के एक नहीं, वरन् दो पत्नियों के पति होने पर प्रश्न चिन्ह लगाते हुए गार्गी ने याज्ञवल्क्य से ब्रम्हचर्य, विवाह और प्रेम सहित पारस्परिक संबंधों पर आधारित कई प्रश्न किए। अंततः महर्षि याज्ञवल्क्य के उद्धरण सहित सार्थक उत्तरों को सुन कर गार्गी पूर्णतः संतुष्ट हो गई और उसने अपनी पराजय स्वीकार कर ली, तब विद्वान और उदात्तमना याज्ञवल्क्य ने गार्गी से कहा कि प्रश्न पूछने पर ही उत्तर सामने आते हैं, जिनसे यह संसार का कल्याण होता है।

रामकथा में भी ब्रम्हचर्य, विवाह और प्रेम सहित पारस्परिक संबंधों की जटिलताओं का उल्लेख है। रामकथा में महर्षि याज्ञवल्क्य का भी उल्लेख बहुत आदरपूर्वक किया गया है। उन्हें श्रीहरि विष्णु के रामावतार का पूर्ण ज्ञान था। मुनि भारद्वाज (भरद्वाज) के आग्रह पर याज्ञवल्क्य ने रामकथा सुनाई थी। तुलसीदास ने रामचरित मानस के बालकाण्ड में किया है- 

भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। 
तिन्हहि राम पद अति अनुरागा॥
तापस सम दम दया निधाना। 
परमारथ पथ परम सुजाना॥ 
अर्थात्  भारद्वाज मुनि प्रयाग में बसते हैं, उनका राम के चरणों में अत्यंत प्रेम है। वे तपस्वी, निगृहीत चित्त, जितेन्द्रिय, दया के निधान और परमार्थ के मार्ग में बड़े ही ज्ञानी हैं।

माघ मकरगत रबि जब होई। 
तीरथपतिहिं आव सब कोई॥
देव दनुज किंनर नर श्रेनीं। 
सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥
अर्थात्  माघ में जब सूर्य मकर राशि पर जाते हैं, तब सब लोग तीर्थराज प्रयाग को आते हैं। देवता, दैत्य, किन्नर और मनुष्यों के समूह सब आदरपूर्वक त्रिवेणी में स्नान करते हैं।

पूजहिं माधव पद जलजाता। 
परसि अखय बटु हरषहिं गाता॥
भरद्वाज आश्रम अति पावन। 
परम रम्य मुनिबर मन भावन॥
अर्थात्  वेणीमाधव के चरणकमलों को पूजते हैं और अक्षयवट का स्पर्श कर उनके शरीर पुलकित होते हैं। भारद्वाज मुनि का आश्रम बहुत ही पवित्र, परम रमणीय और श्रेष्ठ मुनियों के मन को भाने वाला है।

तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा।
जाहिं जे मज्जन तीरथराजा॥
मज्जहिं प्रात समेत उछाहा। 
कहहिं परसपर हरि गुन गाहा।।
अर्थात्  तीर्थराज प्रयाग में जो स्नान करने जाते हैं, उन ऋषि-मुनियों का समाज वहां भारद्वाज के आश्रम में जुटता है। प्रातःकाल सब उत्साहपूर्वक स्नान करते हैं और फिर परस्पर भगवान्‌ के गुणों की कथाएँ कहते हैं।

ब्रह्म निरूपन धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग।
ककहिं भगति भगवंत कै संजुत ग्यान बिराग॥
अर्थात्  ब्रह्म का निरूपण, धर्म का विधान और तत्त्वों के विभाग का वर्णन करते हैं तथा ज्ञान-वैराग्य से युक्त भगवान्‌ की भक्ति का कथन करते हैं।

एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं। 
पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं॥
प्रति संबत अति होइ अनंदा। 
मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा॥
अर्थात्  इसी प्रकार माघ के महीने भर स्नान करते हैं और फिर सब अपने-अपने आश्रमों को चले जाते हैं। हर साल वहाँ इसी तरह बड़ा आनंद होता है। मकर में स्नान करके मुनिगण चले जाते हैं।

एक बार भरि मकर नहाए। 
सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए॥
जागबलिक मुनि परम बिबेकी। 
भरद्वाज राखे पद टेकी॥
अर्थात्  एक बार पूरे मकरभर स्नान करके सब मुनीश्वर अपने-अपने आश्रमों को लौट गए। परम ज्ञानी याज्ञवल्क्य मुनि को चरण पकड़कर मुनि भारद्वाज ने रख लिया।

सादर चरन सरोज पखारे। 
अति पुनीत आसन बैठारे॥
करि पूजा मुनि सुजसु बखानी। 
बोले अति पुनीत मृदु बानी॥
अर्थात्  आदरपूर्वक उनके चरण कमल धोए और बड़े ही पवित्र आसन पर उन्हें बैठाया। पूजा करके महर्षि याज्ञवल्क्य के सुयश का वर्णन किया और फिर अत्यंत पवित्र और कोमल वाणी से बोले-

नाथ एक संसउ बड़ मोरें। 
करगत बेदतत्त्व सबु तोरें॥
कहत सो मोहि लागत भय लाजा। 
जौं न कहउँ बड़ होइ अकाजा॥
अर्थात्  हे नाथ! मेरे मन में एक बड़ा संदेह है, वेदों का तत्त्व सब आपकी मुट्ठी में है अर्थात्‌ आप ही वेद का तत्त्व जानने वाले होने के कारण मेरा संदेह निवारण कर सकते हैं किन्तु उस संदेह को कहते मुझे भय और लाज आती है। भय इसलिए कि कहीं आप यह न समझें कि मेरी परीक्षा ले रहा है, लाज इसलिए कि इतनी आयु बीत गई, अब तक ज्ञान न हुआ और यदि नहीं कहता तो बड़ी हानि होती है क्योंकि अज्ञानी बना रहता हूँ ।

संत कहहिं असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव।।
होइ न बिमल बिबेक उर गुर सन किएँ दुराव॥
 अर्थात्  हे प्रभो! संत लोग ऐसी नीति कहते हैं और वेद, पुराण तथा मुनिजन भी यही बतलाते हैं कि गुरु के साथ छिपाव करने से हृदय में निर्मल ज्ञान नहीं होता।

अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू। 
हरहु नाथ करि जन पर छोहू॥
राम नाम कर अमित प्रभावा। 
संत पुरान उपनिषद गावा॥
अर्थात्  यही सोचकर मैं अपना अज्ञान प्रकट करता हूँ। हे नाथ! सेवक पर कृपा करके इस अज्ञान का नाश कीजिए। संतों, पुराणों और उपनिषदों ने राम नाम के असीम प्रभाव का गान किया है।

संतत जपत संभु अबिनासी। 
सिव भगवान ग्यान गुन रासी॥
आकर चारि जीव जग अहहीं। 
कासीं मरत परम पद लहहीं।।
अर्थात्  कल्याण स्वरूप, ज्ञान और गुणों की राशि, अविनाशी भगवान्‌ शम्भु निरंतर राम नाम का जप करते रहते हैं। संसार में चार जाति के जीव हैं, काशी में मरने से सभी परम पद को प्राप्त करते हैं।

सोपि राम महिमा मुनिराया। 
सिव उपदेसु करत करि दाया॥
रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही। 
कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही॥
अर्थात्  हे मुनिराज! वह भी राम नाम की ही महिमा है, क्योंकि शिव दया करके काशी में मरने वाले जीव को राम नाम का ही उपदेश दिया करते हैं इसी से उनको परम पद मिलता है। हे प्रभो! मैं आपसे पूछता हूँ कि वे राम कौन हैं? हे कृपानिधान! मुझे समझाकर कहिए।

एक राम अवधेस कुमारा। 
तिन्ह कर चरित बिदित संसारा॥
नारि बिरहँ दुखु लहेउ अपारा। 
भयउ रोषु रन रावनु मारा।।
अर्थात्  एक राम तो अवध नरेश दशरथ के कुमार हैं, उनका चरित्र सारा संसार जानता है। उन्होंने स्त्री के विरह में अपार दुःख उठाया और क्रोध आने पर युद्ध में रावण को मार डाला।

प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि।

सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि॥


अर्थात्  हे प्रभु! वही राम हैं या और कोई दूसरे हैं, जिनको त्रिपुरारी शिव जपते हैं? आप सत्य के धाम हैं और सब कुछ जानते हैं, ज्ञान विचार कर कहिए।

जैसें मिटै मोर भ्रम भारी। 
कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी॥
जागबलिक बोले मुसुकाई। 
तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई॥
अर्थात्  हे नाथ! जिस प्रकार से मेरा यह भारी भ्रम मिट जाए, आप वही कथा विस्तारपूर्वक कहिए। इस पर महर्षि याज्ञवल्क्य मुस्कुराकर बोले, रघुपति राम की प्रभुता को तुम जानते हो।

रामभगत तुम्ह मन क्रम बानी। 
चतुराई तुम्हारि मैं जानी॥
चाहहु सुनै राम गुन गूढ़ा 
कीन्हिहु प्रस्न मनहुँ अति मूढ़ा॥
अर्थात्  तुम मन, वचन और कर्म से राम के भक्त हो। तुम्हारी चतुराई को मैं जान गया। तुम राम के रहस्यमय गुणों को सुनना चाहते हो, इसी से तुमने ऐसा प्रश्न किया है मानो बड़े ही मूढ़ हो।

तात सुनहु सादर मनु लाई। 
कहउँ राम कै कथा सुहाई॥
महामोहु महिषेसु बिसाला। 
रामकथा कालिका कराला॥
अर्थात्  हे तात! तुम आदरपूर्वक मन लगाकर सुनो, मैं राम की सुंदर कथा कहता हूँ। अज्ञान विशाल महिषासुर है और राम की कथा उसे नष्ट कर देने वाली भयंकर काली देवी हैं।
     इस प्रकार महर्षि याज्ञवल्क्य ने मुनि भरद्वाज को राम कथा सुनाई, जो रामचरित मानस के अनेक छंदों यथा दोहा, चौपाइयों में वर्णित है।
    संपत्ति के बंटवारे को लेकर पारस्परिक संबंधों के गणितज्ञ महर्षि याज्ञवल्क्य का निश्चय स्पष्ट था जबकि उनकी दोनों पत्नियां उनकी विधिमान्य विवाहिताएं थीं। इसीलिए पारिवारिक कलह की स्थिति उत्पन्न नहीं हो पाई और वे दोनों पत्नियों के साथ न्याय करने में सफल हो कर ज्ञान मार्ग पर निरंतर अग्रसर रहकर सर्वजगत कल्याण के अपने संकल्प को पूरा कर सके।
      वर्तमान में दो पत्नियां रखना ग़ैरकानूनी हैं। फिर भी यदि किसी की ग़ैरक़ानूनी ही सही, दूसरी पत्नी है तो उसके लिए स्पष्ट कानून हैं कि अगर दूसरी शादी कानूनी नहीं है तो न तो दूसरी पत्नी और न ही उसके बच्चों को पति की पैतृक संपत्ति में क़ानूनी हक़ मिलेगा। 
   इसलिए समझदारी इसी में है कि कोई भी व्यक्ति या तो ग़ैरक़ानूनी ढंग से दूसरी पत्नी न रखे और यदि परिस्थितिवश रखे तो पहले ही उसके नाम कुछ धनराशि अथवा संपत्ति लिख दे ताकि उसकी मृत्यु के बाद वह पत्नी अपना और अपने बच्चों का भरणपोषण सुचारु रूप से कर सके। 

और अंत में प्रस्तुत हैं मेरे कुछ दोहे -

संबंधों  का   हर  गणित,  रहे  सदा  स्पष्ट।
सुख से फिर जीवन कटे,  रहे न कोई कष्ट।।

अनदेखा मत कीजिए, नारी का अधिकार ।
नर यदि है इक नाव तो, नारी है पतवार ।।

जिसके मन में है सदा, नारी का सम्मान ।
यह जीवन उसके लिए, "वर्षा" इक वरदान ।।
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10 comments:

  1. Replies
    1. हार्दिक धन्यवाद शिवम् कुमार पाण्डेय जी 🙏

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  2. सदैव की भाँति सुन्दर और ज्ञानवर्धक अंक।

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    1. विनम्रतापूर्वक आत्मीय आभार आदरणीय शास्त्री जी 🙏

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  3. याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी का संवाद बहुत रोचक था। सच कहा -"हमें कोई भी संबंध इसलिए प्रिय होता है क्योंकि उससे कहीं न कहीं हमारा स्वार्थ जुड़ा होता है।"
    पूरी तरह निस्वार्थी होने के वावजूद संबंधों में कोई न कोई स्वार्थ छुपा ही होता है। बेहद ज्ञानवर्धक और विचारणीय लेख,सादर नमन वर्षा जी

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    1. प्रिय कामिनी सिन्हा जी,
      यह मेरे लिए अत्यंत प्रसन्नता का विषय है कि आपने मेरे लेख को रुचिपूर्वक पढ़ा और विस्तृत प्रतिक्रिया दी।
      अत्यंत स्नेहिल धन्यवाद आपको 🙏
      सस्नेह,
      डॉ. वर्षा सिंह

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  4. बहुत अच्छा लगा आप के इस ब्लाग पर आकर, ज्ञानवर्धक रोचक प्रसंग याज्ञवल्क्य मैत्रेयी आदि का राम मय हो गया मन,बहुत विस्तृत , राधे राधे

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    1. हार्दिक स्वागत है आपका आदरणीय शुक्ला जी 🙏
      मुझे यह जान कर अत्यंत प्रसन्नता हुई कि आपको मेरा यह ब्लॉग अच्छा लगा।
      मेरा प्रयास हमेशा यही रहता है कि भारतीयता में निहित जीवनमूल्यों को आज के संदर्भों से जोड़ कर समाज को, अपने सुधी पाठकों को चिंतन के लिए प्रेरित करूं।
      आपके प्रति हार्दिक आभार एवं शुभकामनाओं सहित,
      सादर,
      डॉ. वर्षा सिंह

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  5. बहुत सुंदर पोस्ट।

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    1. हार्दिक धन्यवाद 🙏

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