Wednesday, July 8, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 6 | भगवान का अधूरा रह जाना | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
प्रिय ब्लॉग पाठकों, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज पढ़िए "भगवान का अधूरा रह जाना" 🙏 अपने विचारों से अवगत कराएं और शेयर करें 🙏
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 08.07.2020

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बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

भगवान का अधूरा रह जाना
           -डॉ. वर्षा सिंह

          अभी पिछले दिनों आषाढ़ मास में पुरी सहित देश के अनेक भागों में रथ यात्रा निकाली गई। भगवान जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा की प्रतिमाओं का रथ यात्रा के दौरान पूजन अर्चन किया गया । इन प्रतिमाओं के निर्माण की कहानी भी अद्भुत है।       
           पौराणिक कथाओं के अनुसार मालवा के राजा इंद्रद्युम्न को एक बार सपने में भगवान जगन्नाथ ने दर्शन दिया और कहा कि द्वारका से तैरकर पुरी की तरफ आ रहे एक बड़े से पेड़ के टुकडे़ से तुम मेरी, दाऊ बलभद्र और बहन सुभद्रा की मूर्ति का निर्माण कराओ। लकड़ी के लट्ठे से मूर्ति निर्माण कैसे किया जाएगा, यह सोच कर राजा चिंतित हो गए। एक दिन विश्वकर्मा वृद्ध मूर्तिकार के रूप में राजा के पास आए और कहा कि एक कमरे में वह मूर्ति का निर्माण करना चाहते हैं लेकिन धैर्यपूर्वक मूर्ति के पूर्ण होने की प्रतीक्षा की जाए और जब तक वह न कहें कमरे का दरवाज़ा न खोला जाए। कुछ दिनों तक कमरे से मूर्ति निर्माण की ध्वनि बाहर आती रही, इसके बाद आवाज़ आना बंद आ गई। राजा को मूर्तिकार के विषय में चिंता होने लगी, उनका धैर्य समाप्त हो गया और उन्होंने कमरे का द्वार खुलवा दिया। कमरा खुलते ही राजा हैरान रह गए क्योंकि कमरे के अंदर कोई नहीं था और भगवान जगन्नाथ के साथ सुभद्रा और बलभद्र की अधूरी मूर्ति विराजमान थी। राजा को अपने किए पर बहुत पश्चाताप हो रहा था। लेकिन इसे ही दैवयोग मानकर इसी मूर्ति को मंदिर में स्थापित करवा दिया।  राजा के द्वारा दरवाज़ा खोल देने के कारण जगन्नाथपुरी की प्रतिमा निर्माण अधूरा रह गया क्योंकि मूर्ति निर्माता विश्वकर्मा ने जो कहा था कि धैर्य रखो, उस पर अमल नहीं किया गया।
       इस कथा को एक धार्मिक कथा के रूप में हम सभी लगभग अपने बचपन के दिनों से पढ़ते, सुनते आ रहे हैं, किन्तु इस कथा में समाहित इसके मर्म को हम आत्मसात नहीं करते हैं। यदि इस कथा के मर्म पर दृष्टि डालें तो हम पाएंगे कि देव प्रतिमाओं के अधूरे रह जाने की यह कथा आज भी प्रासंगिक है। दरअसल, आज की युवा पीढ़ी में भी धैर्य नहीं है। वे अनेक क्षेत्रों में एक साथ हाथ आज़माते हुए प्रत्येक क्षेत्र में शीघ्रता से सफलता हासिल कर लेना चाहते हैं। लेकिन ऐसी स्थिति में प्रायः सफलता हाथ नहीं लगती क्योंकि उनका ज्ञान अधूरा रहता है और धैर्यपूर्वक किसी एक क्षेत्र में निपुणता हासिल करने की लगन नहीं रहती। जिसके कारण अक्सर उन्हें हताशा ही हाथ लगती है और इस हताशा के चलते कभी-कभी वे आत्मघाती कदम भी उठा लेते हैं।
      समाचारों में ऐसी अनेक घटनाएं सुनने, पढ़ने, देखने को मिलती हैं जिनमें किसी क्षेत्र विशेष में इच्छित परिणाम अथवा पूर्ण सफलता हासिल नहीं कर पाने और धैर्य खो बैठने के कारण युवा आत्महत्या करने के लिए प्रेरित हो जाते हैं। परीक्षा में असफलता, प्रेम में असफलता, कैरियर में असफलता… आदि, ऐसी किसी भी तरह की असफलता  मिलने पर वे धैर्यपूर्वक "बीती ताहि बिसार के आगे की सुध लेय" पर अमल नहीं करते हुए अपने जीवन की इहलीला समाप्त कर जीवन से ही पलायन कर जाते हैं।
       संत कबीर ने कहा है -
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।

       अर्थात् मन में धीरज रखने से सब कुछ होता है। यदि कोई माली फल प्राप्ति की आशा में उतावला हो कर किसी पेड़ को प्रतिदिन सौ घड़े पानी से सींचने लग जाए तब भी फल तो ऋतु आने पर ही लगेगा !
           इसलिए यदि धैर्य रखा जाए तो जैसे ईश्वर की पूर्णता प्राप्त होती है वैसे ही प्रत्येक कार्य में भी सफलता मिलती है। जी हां, यदि ईश्वर की पूर्ण प्रतिमा प्राप्ति की इच्छा है तो प्रतिमा के पूर्ण होने तक धैर्य का दामन थामे रखना होगा… और इसी प्रकार किसी भी क्षेत्र में सफलता हासिल करने की लालसा है, तो धैर्यपूर्वक पूरे मनोयोग से उस कार्य को करते रहना होगा।
और अंत में मेरी ये काव्यपंक्तियां ….
विषम परिस्थिति में भी जिसने, धीरज नहीं गंवाया है ।
पूर्ण सफलता पा कर उसने, मनचाहा फल पाया है।
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