Wednesday, June 3, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 1 | कोरोनाकाल और सामाजिक समीकरण | डॉ वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
प्रिय पाठकों, मैंने अपने इस ब्लॉग को नाम दिया है ....."विचार वर्षा"... इसी नाम से मेरा नया कॉलम वेब पोर्टल 'युवा प्रवर्तक' में आज से आरंभ हुआ है। प्रति बुधवार को प्रकाशित होने वाले मेरे इस कॉलम का पहला लेख आपके सामने प्रस्तुत है कृपया पढ़ें 🙏 अपने विचार से अवगत कराएं और शेयर करें 🙏
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक : 03.06.2020

मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं-
http://yuvapravartak.com/?p=34164

बुधवारीय स्तम्भ :

विचार वर्षा

कोरोनाकाल और सामाजिक समीकरण

- डॉ वर्षा सिंह

         यह कोरोना काल एक ऐसा समय है जब हमें अपनी जिंदगी के बारे में नए सिरे से सोचना होगा। देखा जाए तो यह मानव जीवन और सभ्यता का टर्निंग प्वाइंट है, जब कुछ नवीन मूल्यों को छोड़कर अपनी जड़ों की ओर लौटना जरूरी हो गया है। लेकिन यह लौटना लौटकर रुक जाने वाला नहीं है बल्कि यह नए रास्ते की ओर ले जाने वाला लौटना है।
         सबसे पहले बात करें सामाजिक मूल्यों की। पिछली सदी के उत्तरार्ध में सामाजिक मूल्यों में बड़ी तेजी से बदलाव आया और इस बदलाव ने जेनरेशन गैप को जन्म दिया। प्रौद्योगिक क्रांति और सूचनाओं के विस्फोट ने युवाओं को सिलिकॉन वैली पहुंचा दिया । अमूमन हर युवा के हाथ में मोबाइल टेबलेट लैपटॉप आ गया और वह आभासी दुनिया में समा था चला गया दूसरी ओर उन युवाओं के माता पिता अपनी परंपराओं को सहेजते हुए युवाओं को आभासी दुनिया में होते हुए देखते रहे। उनकी यह व्यवस्था उपजी बाजारवाद से जहां उन्होंने जाने- अनजाने अपनी संतान को बाज़ार का प्रोडक्ट बना दिया। हर माता-पिता को अपनी संतान पैकेज के रूप में दिखाई देने लगी। जब भावनाओं पर अर्थ तंत्र हावी हो जाता है तो संवेदनाओं के तार टूटने लगते हैं। यही हुआ जिसके फलस्वरूप उपजा एक शब्द "जेनरेशन गैप" यानी दो पीढ़ियों के बीच का फ़ासला।
       इस जेनरेशन गैप के लिए जिम्मेदार कौन है यह एक विवाद का विषय है ठीक वैसे ही जैसे पहले मुर्गी हुई या अंडा युवा पीढ़ी अपने माता पिता को दोषी मानती है और माता-पिता अपनी संतान को दोषी ठहराते हैं और पूरा समाज आधुनिक नजरिए को दोष देता है जबकि ध्यान से देखें तो हम पाएंगे कि बच्चे वही करते हैं जो उनके माता-पिता उन्हें करने के लिए प्रेरित करते हैं। बच्चे को पालने से उतरते ही स्कूल के हवाले कर दिया जाता है फिर कोचिंग के और फिर कैरियर प्लेसमेंट पैकेज के चक्रव्यूह में उतार दिया जाता है। यानी लगातार बच्चे मां बाप घर परिवार से दूर होते जाते हैं यदि उनके बीच कोई संबंध रह जाता है तो वह है अर्थ तंत्र का। ऐसी स्थिति में बच्चे अपने माता-पिता से तो दूर हो ही जाते हैं नाना -नानी, दादा -दादी के रिश्तो को भी सही ढंग से समझ ही नहीं पाते हैं । इस कोरोना काल में पूरा परिवार एक छत के नीचे जब एक बार फिर एकत्र हुआ तो ऐसे समय में बच्चों ने इन महत्वपूर्ण रिश्तो को समझा और महसूस किया । ठीक उसी प्रकार माता-पिता ने भी रिश्तों के महत्व को महसूस किया।
       जब पीढ़ियां साथ मिलकर रहती है तो उन्हें परस्पर एक दूसरे की भावनाओं को जानने समझने का अवसर मिलता है यदि पीढ़ियां परस्पर एक दूसरे की भावनाओं को समझने लगे तो जेनरेशन गैप जैसी कोई बात ही नहीं आएगी क्योंकि पीढ़ियों का अंतर जीवन में होने वाले परिवर्तन से ही उपजता है और परिवर्तन एक सतत प्रक्रिया है जो मानव जाति में होमोसेपियन्स काल से चली आ रही है। जब पहले व्यक्ति ने आग जलाना सीखा होगा, तब उसने अपने पूर्वजों को बेवकूफ ही समझा होगा। उसने सोचा होगा कि अरे मेरे पूर्वज आग जलाना भी नहीं जानते थे जबकि यह तो बहुत सरल-सी बात है? ठीक वैसे ही जैसे आज छोटे-छोटे बच्चे तक एंड्राइड मोबाइल बहुत आसानी से ऑपरेट कर लेते हैं, लेकिन जब उनके माता-पिता ऐसे मोबाइल्स के साथ दिक्कत महसूस करते हैं, तब बच्चों को लगता है कि अरे, हमारे माता-पिता तो पिछली पीढ़ी के हैं इसीलिए उनसे यह सारी चीजें ऑपरेट करते नहीं बन रही है। वे अपने माता पिता को बेवकूफ़ मानते हैं और अपने माता पिता के साथ एक उद्दंडता भरा व्यवहार करते हैं । यह जो सोच है, इसे बदलने का अवसर हमें कोरोना काल ने दिया। हर संकट कुछ न कुछ सिखा जाता है और कोरोनावायरस के  सामाजिक समीकरण ने सामाजिक ढांचे को, सामाजिक विकास की प्रक्रिया को और सामाजिक सामंजस्य को बदलने में अत्यंत प्रभावकारी भूमिका निभाई है। ज़रूरत है कि इस सीख को हम हमेशा याद रखें।
        और अंत में मेरी ये काव्यपंक्तियां ....
अहसासों की दहलीजों को, साफ करो फिर देखो,
हर पल अपने  साथ  हमेशा, नई  ख़बर  लाता है।
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