Dr. Varsha Singh |
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 10.06.2020
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बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा
मन तेरा मंदिर
- डॉ. वर्षा सिंह
मेरी एक महिला मित्र की माता जी मोबाईल पर चर्चा के दौरान अपनी नाराज़गी प्रकट करते हुए मुझसे बोलीं कि 'कोरोना से बचाव के लिए किए गए लॉकडाउन में बाज़ार, स्कूल-कॉलेज, शादी समारोह बंद कर दिए थे, वो तो ठीक है लेकिन भगवान के मंदिर बंद नहीं करने चाहिए थे। यह भी नहीं सोचा कि भगवान और मंदिर को बंद कर दिया तो भक्तों की रक्षा कौन करेगा ? उनकी यह बात सुन कर मैंने उनसे कहा कि चाची जी, भगवान सिर्फ़ मंदिर में नहीं वे तो हमारे मन में मौज़ूद हैं, प्रकृति के कण-कण में मौजूद हैं। लेकिन चाची जी अपनी बात पर अड़ी रहीं। वे कुछ भी सुनने के मूड में नहीं थी। उनकी आस्था का केंद्र सिर्फ मंदिर और उसमें स्थित भगवान की प्रतिमा है।
चाची जी की भांति ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जो कर्मकांडी पूजन को ही भगवान की सच्ची आराधना मानते हैं। जबकि भारतीय संस्कृति में ईश्वर की आराधना साकार और निराकार दोनों रूपों में की जाती है। साकार यानी मूर्ति स्थापित कर मंदिर में पूजा और निराकार यानी मन में ईश्वर का स्मरण, ध्यान और आराधना।
सन् 1935 की नितिन बोस द्वारा निर्देशित हिन्दी फ़िल्म "धूप छाँव" जिसमें निर्देशक नितिन बोस द्वारा हिन्दी फिल्मों में पार्श्व गायन की परंपरा आरंभ की थी, में संगीतकार रायचंद बोरल द्वारा के.सी. डे के स्वर में रिकॉर्ड किया गया एक गीत था ….
बाबा मन की आँखें खोल / मन की आँखें खोल बाबा / मतलब की सब दुनियादारी / मतलब के सब हैं संसारी / जग में तेरा हो हितकारी / तन मन का सब जोर लगाकर नाम हरि का बोल / बाबा मन की आँखें खोल…। इसी तरह 1978
में रिलीज़ फिल्म "भक्ति में शक्ति" में एक गीत था…
मन तेरा मंदिर, आखेँ दिया बाती / होठों की है थालीयाँ, बोल फुलबाती / रोम रोम जिव्हा तेरा नाम पुकारती / आरती ओ मैया आरती / ओ ज्योतावालीये माँ तेरी आरती….।
संत कबीर ने भी कहा है कि "मन न रँगाए रँगाए जोगी कपड़ा" अर्थात् गेरुआ वस्त्र धारण करने भर से योगी नहीं बना जाता, योगी बनने और ईश्वर को पाने के लिए पहले मन का मैल धोना पड़ता है। मंदिर के पट खोलने से अधिक महत्वपूर्ण है हृदय के पट खोलना।
इस कोरोनाकाल से पूर्व कितने ही धर्मपरायण व्यक्ति प्रतिदिन मंदिर जाते रहे हैं। भांति-भांति के प्रवचनकर्ताओं के सानिध्य का लाभ उठा कर धार्मिक आख्यान सुनते रहे हैं। इधर कोरोनाकाल में लॉकडाउन के दौरान दूरदर्शन पर पुनः प्रसारित रामायण, महाभारत जैसे धार्मिक सीरियल मन लगाकर देखते रहे हैं। किन्तु यदि उनसे पूछा जाए कि इन्हें देख-सुन कर आपने अपने जीवन में कौन सी शिक्षा ग्रहण की है तो वे निरुत्तरीत रह जाएंगे। सम्भवतः मंदिर जाने से ले कर प्रवचन, सीरियल आदि सारे उपक्रमों का उनके जीवन में "टाइम पास" जैसा ही स्थान है। मंदिर के पट यदि बंद रखे गए तो मानव जीवन की सुरक्षा हेतु ही। यह भी तो सोचिए कि यदि मानव ही नहीं रहे तो मंदिर में स्थापित ईश्वर की प्रतिमा का पूजन कौन करेगा। भगवान और भक्त अलग नहीं हैं एक दूसरे से। साकार रूप की आराधना संभव नहीं हो पाए तो निराकार रूप की आराधना करने में भला संकोच क्यों ? क्या हमारी आस्था सिर्फ़ पत्थरों, रेत-गारे से बने मंदिर तक ही सीमित है ?
नहीं… ईश्वर हमारे हृदय में, हमारे मन में स्थापित हैं और उनकी ऊर्जा हमारी चेतना में समाई हुई है। हमें स्मरण रखना चाहिए कि मानव कल्याण हेतु ही मंदिरों को लॉकडाउन में बंद रखा गया। यदि हम सचमुच ईश्वर को मानते हैं, आस्तिक हैं तो मंदिर के बंद-खुले दरवाजों के इर्द गिर्द रख कर अपनी भक्ति को सीमित नहीं करना चाहिए बल्कि बगैर किसी तर्क-कुतर्क के संपूर्ण मानव जाति के कल्याण को दृष्टिगत रखते हुए "सर्वजनहिताय" के पथ का अनुसरण करना चाहिए।
और अंत में मेरा एक शेर .....
मंदिर हो कि मस्जिद हो, गिरजा हो कि गुरुद्वारा,
चाहत है अगर रब की, तू दिल में बना खिड़की।
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कृपया यूट्यूब पर देखने के लिए इस लिंक पर जाएं...
https://youtu.be/7bfS4E55fME
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