बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा
सुखी परिवार यानी 'कवन सो काज कठिन जग माहीं' का स्वावलंबन सूत्र
- डॉ. वर्षा सिंह
मेरी एक महिला मित्र की पुत्री का विवाह आगामी मई के प्रथम सप्ताह में होने जा रहा है। मेरी वह महिला मित्र इन दिनों अत्यधिक चिंतित रहती है। एक चिंता तो यह है कि योरोपीय देशों में कोरोना का तीसरा स्ट्रेन शुरू हो चुका है तो कहीं शादी के समय दूल्हे को भारत आने में कठिनाई न हो, कहीं शादी की तिथि आगे न बढ़ानी पड़े। इससे भी अधिक चिंता उन्हें इस बात की है कि उनकी बेटी विदेश में कैसे मैनेज करेगी। दरअसल बात यह है कि उसने अपनी पुत्री को अत्यधिक लाड़-प्यार में पाला है। घर का कोई भी काम उससे कभी नहीं कराया है। यहां तक कि उसे स्वयं गिलास उठाकर पानी भी नहीं पीने दिया है। अब वह इस बात को सोच-सोच कर चिंतित होने लगी है कि धनाढ्य परिवारों में ब्याही जाने के कारण ससुराल जाने पर उसकी वह लाड़ली वहां तो नौकर-चाकर होने के कारण मज़े से रह लेगी लेकिन विदेश में बसे पति के साथ विदेश जाने पर वहां नौकर या कामवाली बाई के अभाव में किस प्रकार निर्वाह कर पाएगी। विदेशों में कामवाली बाई रखने की प्रथा नहीं है। सभी को अपने कार्य स्वयं ही करने पड़ते हैं। मेरी उस महिला मित्र ने अपनी पुत्री को उच्च शिक्षा तो दिलवाई, लेकिन गृह कार्यों से उसे सर्वथा दूर रखा... और अब उसकी यह चिंता वाज़िब है कि उसकी पुत्री गृह कार्य जानने के अभाव में विदेश में अपने पति के साथ अकेली रह कर किस प्रकार अपने कार्यों को पूरा कर पाएगी।
बहरहाल, मेरे विचार से हमें अपने बच्चों को डिग्री-डिप्लोमा की पढ़ाई वाली शिक्षा के साथ ही इस प्रकार की भी शिक्षा देनी चाहिए कि वह अपने कार्य स्वयं करें। पठन-पाठन के अलावा उनमें अपने कार्यों को स्वयं करने की क्षमता का विकास करने के भी संस्कार देने चाहिए। अभी कोरोनावायरस के दौरान यह बात प्रमाणित हो गई कि जिन घरों में पति और पत्नी दोनों ने मिलकर घर के कामों को किया उन घरों में शांति और सौहार्द का वातावरण बना रहा। वहीं, जिन घरों में पत्नी अकेले काम करती रही और पति घर में रहते हुए सिर्फ आदेश देते रहे वहां पारिवारिक तनाव बढ़ता चला गया। इसीलिए परिवार में पति और पत्नी और यहां तक के बच्चों को भी घर के कामों में समान रूप से सहयोग देना चाहिए। इससे किसी एक सदस्य पर भार नहीं पड़ता है तो वह झुंझलाता भी नहीं है, लड़ाई-झगड़े भी नहीं होते हैं और सभी मिलजुल कर बड़ी से बड़ी आपदा को हंसते-हंसते झेल जाते हैं।
प्राचीन भारतीय ग्रंथों-शास्त्रों में भी स्वयं अपनी सहायता एवं रक्षा करने संबंधी अनेक प्रसंग दिए गए हैं। अनेक श्लोक योग और कर्म के आपसी सामंजस्य की व्याख्या करते हैं। एक श्लोक का अंश है- "योगक्षेमं वहाम्यहम्" … श्रीमद्भगवद्गीता के नौवें अध्याय के इस बाईसवें श्लोक का एक अर्थ यह भी है कि सफलता के लिए आवश्यक है कि हम अपने चित्त को एकाग्र कर, अपना लक्ष्य निश्चित कर उसकी पूर्ति के लिए उत्साह, संयम, सतत स्फूर्ति एवं सामर्थ्य से निरंतर कर्म करते रहेंगे तो सफलता स्वयं चल कर हमारे पास आयेगी। अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति का तात्पर्य योग है और प्राप्त वस्तु की रक्षा का तात्पर्य क्षेम है। योगक्षेम का अर्थ है अभाव की पूर्ति करना तथा प्राप्त वस्तु की रक्षा करना। ईश्वर ने हमें मानव जीवन दिया है, उसकी रक्षा करना हमारा उत्तरदायित्व है। बात-बात में ईश्वर को मदद के लिए पुकारना ठीक वैसा ही है जैसे हर कार्य में मदद के लिए माता-पिता का मुंह ताकना। स्वयं के पुरुषार्थ से किए गए कार्य में यदि असफलता भी मिले तो पीछे नहीं हटना चाहिए और न ही शोक मनाना चाहिए। बल्कि यह सोच कर इस बात का संतोष रखना चाहिए के बिना किसी की मदद लिए स्वयं इस कार्य को करने का प्रयास किया स्वयं प्रयास करना भी एक प्रकार का योग है। जो व्यक्ति स्वयं अपनी रक्षा करने का प्रयास करते हैं ईश्वर भी उनकी रक्षा करता है।
"हिम्मत ए मर्दा, मदद ए खुदा" उर्दू की इस कहावत का भी अर्थ यही है कि यदि इंसान खुद हिम्मत रखता है, खुदा उसकी मदद करता है यानी जो किसी काम को करने के लिए प्रयत्न करता है भगवान भी उसकी सहायता करते हैं।
बचपन में एक कथा, मेरे नाना जी अक्सर हमें सुनाया करते थे। वह कथा लगभग इस प्रकार थी। एक समय कभी किसी गांव के मुखिया का सबसे छोटा पुत्र जिसका नाम सुंदर था, वह अत्यंत आलसी और कामचोर किस्म का था। हर बात में वह मदद के लिए किसी न किसी को पुकारने लगता था। यहां तक कि यदि उसे बहुत प्यास लगी हो तब भी वह स्वयं पानी न पीकर, पानी पिलाने के लिए किसी को पुकारने लगता था कि 'मुझे प्यास लगी है कोई मुझे पानी पिला दो।' अपने कपड़े पहनने और उतारने के लिए भी वह अपनी मां, भाई-बहन या घर में काम कर रहे अनुचर की ओर ताकता था। तात्पर्य यह कि वह अपने आलस्यवश कोई भी काम स्वयं नहीं करता था। एक दिन की बात है वह और उसके भाई एक दूसरे गांव निमंत्रण पर गए। वहां किसी बात की थी छोटी सी बात पर विवाद हो जाने के कारण सुंदर गुस्से में अपने गांव की ओर वापस लौट पड़ा। बड़े भाइयों ने उसे समझाने का प्रयास किया। उसे साथ चलने के लिए रोकने का प्रयास किया। लेकिन गुस्से में वह बड़े भाइयों की बात सुने बगैर अकेला ही अपने गांव की ओर निकल पड़ा। हालांकि दोनों गांव के बीच की दूरी बहुत कम थी लेकिन दोनों के बीच में जंगल पड़ता था। चलते-चलते अंधेरा घिर आया। रास्ते में जंगली जानवरों की आवाज सुनकर सुंदर घबरा गया। डर के कारण वह आगे न बढ़कर वहीं रास्ते में एक पेड़ के नीचे खड़ा हो गया। तभी अचानक उसे शेर के दहाड़ने की आवाज़ सुनाई थी। शेर की आवाज़ सुनकर सुंदर ज़ोर-ज़ोर से मदद के लिए पिता, मां, बहन, भाइयों, अनुचरों आदि को पुकारने लगा। वह कुछ और ज़्यादा डरा तो ईश्वर से मदद के लिए गुहार लगाने लगा। किंतु रक्षा के लिए किसी को नहीं आता देख कर वह थरथर कांपने लगा। तभी उसे यह समझ में आया कि शेर की वह दहाड़ उसके निकट आती जा रही है। शेर को अपने क़रीब आता जान कर सुंदर की समझ में नहीं आया कि वह क्या करें। वहां मदद के लिए न कोई आया और न किसी के आने की संभावना ही थी। तब सुंदर ने स्वविवेक से यह विचार किया कि उसे अपनी रक्षा के लिए स्वयं ही कोई उपाय करना पड़ेगा वरना यदि शेर और अधिक निकट आया तो निश्चय ही वह उसे मारकर खा जाएगा। तब उसने सोचा कि यदि जिस पेड़ के नीचे वह खड़ा हुआ है उस पर वह चढ़ जाए तो फिर शेर उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा।
सुंदर को पेड़ पर चढ़ना नहीं आता था किंतु शेर द्वारा खाए जाने के डर से और अपनी जान बचाने की चिंता से आनन-फानन वह पेड़ में चढ़ने का प्रयास करने लगा। नीचे की कुछ डालियों को पकड़ता हुआ वह येन केन प्रकारेण, पेड़ पर चढ़ने लगा। चढ़ते-चढ़ते वह काफी ऊंचाई पर पहुंच गया और वहां पहुंच कर एक मजबूत सी शाखा को पकड़कर निश्चिंत भाव से बैठ गया।
तब तक शेर पेड़ के निकट आ चुका था। शेर को मनुष्य की गंध लग चुकी थी। वह दहाड़ते हुए पेड़ के ऊपर की ओर सुंदर की ओर देखने लगा। सुंदर ने पेड़ की शाखा को मजबूती से पकड़ रखा था। शेर काफी देर तक वहां घूमता रहा फिर किसी अन्य जानवर की आहट पाकर शिकार के लिए वह वहां पर से दूर चला गया। शेर के जाने के बाद भी सुंदर पेड़ पर ही बैठा रहा।
सुंदर के भाई वहीं उस दूसरे गांव में रात्रि विश्राम के लिए रुक गए थे। दूसरे दिन सुबह होने पर वे अपने गांव की ओर वापस लौटे। उन्होंने यही सोचा था कि सुंदर शाम को ही अपने घर पहुंच चुका होगा। उधर रात को पेड़ पर चढ़कर बैठे हुए सुंदर की आंख लग गई थी। वह पेड़ पर ही डालियों के बीच पैर डाल कर सो गया था। सुबह होते ही जब उसकी नींद खुली और उसे रात की समूची घटना याद आई तो वह घबरा कर रोने लगा। तभी अपने गांव की ओर लौटते हुए, उस पेड़ के पास से गुजरते हुए सुंदर के भाइयों ने जब सुंदर के रोने की आवाज़ सुनी तो वे आवाज़ की दिशा में ऊपर देखने लगे। वहां पेड़ पर बैठे सुंदर को देखकर वे आश्चर्यचकित रह गए। वे तो यही समझ रहे थे कि सुंदर तो अपने घर पहुंच गया होगा लेकिन वह तो यहां पेड़ के ऊपर बैठा हुआ रो रहा है।
सुंदर के भाइयों ने सुंदर को आवाज़ लगाई और उसे नीचे उतर आने के लिए कहा। लेकिन सुंदर पेड़ से नीचे उतरने का प्रयास कर ही नहीं पा रहा था। वह अपने भाइयों से कहने लगा कि मुझे नीचे उतारो। मुझसे पेड़ से नीचे उतरते नहीं बन रहा है। यह सुन कर सुंदर के सबसे बड़े भाई ने सुंदर से पूछा कि तुमसे तो पेड़ पर चढ़ते भी नहीं बनता था, तब भला तुम पेड़ के ऊपर कैसे चढ़ गए? बड़े भाई की बात सुनकर सुंदर ने उन्हें पूरी घटना सुनाई कि किस तरह शेर के आने पर जब मदद के लिए पुकारने पर कोई नहीं आया तो वह स्वयं ही प्रयास कर पेड़ पर चढ़ गया। सुंदर की यह बात सुनकर बड़े भाई ने उससे कहा कि जिस तरह तुम अपनी स्वयं की हिम्मत से पेड़ के ऊपर चढ़ गए और तुमने अपने जीवन की रक्षा की, उसी प्रकार अब तुम प्रयास करो और पेड़ पर से नीचे यहां जमीन पर उतर आओ। तब सुंदर ने कहा कि लेकिन अब तो आप मेरी मदद के लिए हैं। मैं स्वयं प्रयास क्यों करूं। यह सुनकर बड़े भाई को हंसी आ गई। वह हंसकर कहने लगे कि तो ठीक है, लो हम लोग जा रहे हैं। अब तुम स्वयं प्रयास कर नीचे आ जाना।
बड़े भाई की बात सुनकर सुंदर समझ गया कि उसे स्वयं ही नीचे उतरने का प्रयास करना पड़ेगा। थोड़ी देर प्रयास करने पर वह धीरे-धीरे डालियों को पकड़ता हुआ नीचे जमीन पर आ गया। उसके बड़े भाई ने उससे कहा कि क्यों ! तुमने देखा न ! तुमने हिम्मत की तो तुम पहले पेड़ पर स्वयं ही चढ़ गए और फिर तुमने हिम्मत की तो तुम स्वयं ही पेड़ से नीचे उतर आए। इस प्रकार तुमने अपनी सहायता स्वयं की है। मेरे प्रिय छोटे भाई सुंदर ! यह जान लो कि जो व्यक्ति स्वयं अपनी सहायता करते हैं ईश्वर उनकी मदद करता है। तो अब तुम ईश्वर को धन्यवाद दो कि उसने तुम्हें हिम्मत दी और इस प्रकार तुम्हारी सहायता की। बड़े भाई की बातें सुनकर सुंदर की आंखें खुल गईं और उसने निश्चय कर लिया कि अब वह अपने छोटे-बड़े किसी भी काम के लिए किसी अन्य को सहायता के लिए नहीं पुकारेगा बल्कि अपने सभी काम वह स्वयं करेगा। साथ ही वह संकट में फंसे हुए दूसरे व्यक्तियों की मदद करने का भी प्रयास करेगा।
अनेक ऐसे दृष्टान्त हैं कि संकट आने पर सुंदर की भांति अन्य व्यक्ति भी किसी न किसी तरह अपना काम स्वयं कर अपने जीवन की रक्षा करने का प्रयास करते हैं। किंतु यदि पहले से ही वे इस प्रकार के संस्कारों से संस्कारित हों कि संकट की स्थिति के बजाय सामान्य परिस्थितियों में भी अपना काम स्वयं करें, अपनी रक्षा के उपाय स्वयं करें तो निश्चित रूप से जीवन में उन्हें कभी असफलता का सामना नहीं करना पड़ेगा और न ही छोटी-छोटी बातों के लिए ईश्वर से गुहार लगा कर अपने कार्यों के लिए दूसरों का मुंह ताकना पड़ेगा।
प्रसंगवश मैं यहां चर्चा करना चाहूंगी स्वयंसहायता समूहों की। वर्तमान में स्वयंसहायता समूहों के माध्यम से निम्न, निम्न मध्यम एवं मध्यम वर्गीय महिलाएं गरीबी निवारण और महिला सशक्तिकरण के लक्ष्यों को पूरा करने में अपनी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इस प्रकार वे सकारात्मक ऊर्जा और दृढ़ इच्छाशक्ति से न केवल अपने घरों या परिवारों की स्थिति सुधार रही हैं, बल्कि राष्ट्र की प्रगति और विकास में भी योगदान दे रही हैं। देश की प्रगति और विकास के लिए महिलाओं और पुरुषों का साथ मिलकर काम करना महत्वपूर्ण है और ऐसे समूह अपने क्षेत्र के नागरिकों, विशेष रूप से महिलाओं के जीवन में सुधार लाने और उन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने के लिए समर्पित रूप से काम कर रहे हैं। शासन से मिलने वाले ऋण से शुरू किए गए समेकित कार्योँ से इन समूहों में महिलाएं अपने कमाए धन से घर चलाती हैं, और भविष्य के लिए बचत भी करती हैं जो अपने आप में एक उल्लेखनीय उपलब्धि है।
रामकथा में भी इस प्रकार के अनेक प्रसंग मिलते हैं। रामचरितमानस में तुलसीदास ने सुंदरकांड की इस चौपाई में राम-लक्ष्मण संवाद में लक्ष्मण द्वारा कहलवाया है कि -
कादर मन कहुँ एक अधारा।
दैव दैव आलसी पुकारा।।
अर्थात् देवता-देवता आलसी और शक्तिहीन पुकारते हैं। जो स्वयं अपने भरोसे पर काम करते हैं ईश्वर स्वयं उसकी सहायता करता है।
वहीं किष्किंधा काण्ड में अगद, जामवंत और हनुमान का सम्वाद देखें -
अंगद कहइ जाउँ मैं पारा।
जियँ संसय कछु फिरती बारा॥
जामवंत कह तुम्ह सब लायक।
पठइअ किमि सबही कर नायक॥
अर्थात् अंगद ने कहा- मैं पार तो चला जाऊंगा, परंतु लौटते समय के लिए हृदय में कुछ संदेह है। जाम्बवान् ने कहा- तुम सब प्रकार से योग्य हो, परंतु तुम सबके नेता हो, तुम्हे कैसे भेजा जाए?
कहइ रीछपति सुनु हनुमाना।
का चुप साधि रहेहु बलवाना॥
पवन तनय बल पवन समाना।
बुधि बिबेक बिग्यान निधाना॥
अर्थात् ऋक्षराज (रीछों के राजा) जाम्बवान् ने हनुमान से कहा- हे हनुमान्! हे बलवान्! सुनो, तुमने यह क्या चुप साध रखी है? तुम पवन के पुत्र हो और बल में पवन के समान हो। तुम बुद्धि-विवेक और विज्ञान की खान हो।
कवन सो काज कठिन जग माहीं।
जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं॥
राम काज लगि तव अवतारा।
सुनतहिं भयउ पर्बताकारा॥
अर्थात् जगत् में कौन सा ऐसा कठिन काम है जो हे तात! तुमसे न हो सके। राम के कार्य के लिए ही तो तुम्हारा अवतार हुआ है। यह सुनते ही हनुमान पर्वत के आकार के अत्यंत विशालकाय हो गए।
कनक बरन तन तेज बिराजा।
मानहुँ अपर गिरिन्ह कर राजा॥
सिंहनाद करि बारहिं बारा।
लीलहिं नाघउँ जलनिधि खारा॥
अर्थात् उनका सोने का सा रंग है, शरीर पर तेज सुशोभित है, मानो दूसरा पर्वतों का राजा सुमेरु हो। हनुमान ने बार-बार सिंहनाद करके कहा- मैं इस खारे समुद्र को खेल में ही लाँघ सकता हूँ।
…. और इस तरह अपनी क्षमताओं का स्मरण करने पर महाबली हनुमान ने समुद्र को पार कर लंका पहुंच कर सीता का समाचार प्राप्त किया फिर वापस लौट कर वह समाचार राम को ला कर दिया। इस प्रकार हनुमान ने सम्पूर्ण जगत के उद्धारक, समस्त प्रणियों के सहायक राम की सहायता की।
प्रत्येक व्यक्ति में कुछ न कुछ क्षमता होती ही है, लेकिन उसका उसे भान नहीं होता। बालकथा का सुंदर पेड़ पर चढ़ने की क्षमता तो रखता था किन्तु कभी उसे इस कार्य को करने की प्रेरणा नहीं मिली थी। आरामदायक जीवनशैली ने उसे आलसी बना दिया था। संकट की घड़ी आने पर उसकी उस क्षमता ने अनजाने में ही उसके जीवन की रक्षा की। इसी प्रकार मेरी महिला मित्र की उच्च शिक्षा प्राप्त पुत्री में भी गृह कार्य करने की क्षमता तो थी किंतु उससे कभी वह कार्य नहीं कराए जाने के कारण आज मेरी महिला मित्र इस उधेड़बुन में लगी हुई चिंताग्रस्त रहती है कि विवाह के बाद विदेश में बसने जाने वाली उनकी पुत्री अपने घर की देखभाल कैसे संपादित कर पाएगी।
इसीलिए ज़रूरी है कि व्यक्ति को उसकी क्षमताओं का भान रहे। वह अपने कार्यों को भलीभांति सम्पादित कर अपनी रक्षा के बारे में. सचेत रह कर सुगमतापूर्वक अपना जीवन यापन करे।
और अंत में प्रस्तुत हैं मेरे कुछ दोहे -
खुद में ही विकसित करें, निज क्षमता की धूप।
स्वावलंब को साध कर, जीवन को दें रूप।।
कर्म बढ़ाता मान है, कर्म बढ़ाता ज्ञान।
कर्मवान पाता सदा, हर पग में सम्मान।।
घर के कामों में सभी, रोज बंटाएं हाथ।
'वर्षा' संकट हो भले, बना रहेगा साथ।।
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सादर नमस्कार,
ReplyDeleteआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 19-03-2021) को
"माँ कहती है" (चर्चा अंक- 4010) पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित हैं।
धन्यवाद.
…
"मीना भारद्वाज"
हार्दिक आभार प्रिय मीना भारद्वाज 🙏
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अंक।
ReplyDeleteआपको श्रम को सलाम।
हार्दिक धन्यवाद आदरणीय 🙏
Deleteयह जान कर मुझे प्रसन्नता हुई कि मेरा यह लेख आपको पसन्द आया है।
कर्म बढ़ाता मान है, कर्म बढ़ाता ज्ञान।
ReplyDeleteकर्मवान पाता सदा, हर पग में सम्मान।।
बहुत ही सुंदर और श्रमसाध्य लेख वर्षा जी,मेरी तरफ से ढेरों बधाई एवं शुभकामना
बहुत धन्यवाद प्रिय कामिनी जी 🙏
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत सार्थक लेख...🌹🙏🌹
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद 🙏
Deleteकर्मठता का सार्थक पाठ पढ़ाती शानदार प्रस्तुति ।
ReplyDeleteकथा बिल्कुल विषय को प्रभावशाली बनाती और भी सभी उद्धरण सटीक ।
बहुत सुंदर लेख बहुत बहुत बधाई वर्षा जी।
बहुत धन्यवाद आदरणीया 🙏
Deleteवाह!बेहतरीन आलेख आदरणीय वर्षा दी।
ReplyDeleteप्रभावशाली विषय पर सराहनीय लेखन...कहानी.. दोहे...वाह!
आपके श्रम को नमन।
हार्दिक धन्यवाद प्रिय अनीता जी 🙏
Deleteतो ग़ज़ल कहने वाली शायरा इतने अच्छे लेख भी रचती हैं । इस लेख की प्रशंसा के लिए शब्द पर्याप्त नहीं । ऐसे उच्च कोटि के लेख बहुत कम पढ़ने को मिलते हैं । जो इन विचारों पर भलीभांति मनन करके उन्हें अपने व्यक्तित्व का अंग बना ले, आजीवन लाभान्वित होगा ।
ReplyDeleteआपकी टिप्पणी उत्साहवर्धक है आदरणीय, हृदयतल की गहराइयों से आभार 🙏
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