Wednesday, March 10, 2021

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 41 | सुखद दाम्पत्य जीवन और रामकथा में महाशिवरात्रि | डॉ. वर्षा सिंह



प्रिय मित्रों, "विचार वर्षा"... मेरे इस कॉलम में आज प्रस्तुत है मेरा आलेख - "सुखद दाम्पत्य जीवन और रामकथा में महाशिवरात्रि" हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏 दिनांक 10.03.2021 मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं- https://yuvapravartak.com/?p=49629#more-49629


बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा


सुखद दाम्पत्य जीवन और रामकथा में महाशिवरात्रि


                   - डॉ. वर्षा सिंह


    भारतीय पंचांग के अनुसार प्रत्येक चंद्र मास के कृष्ण पक्ष का चौदहवां दिन अर्थात् अमावस्या से पूर्व चतुर्दशी का दिन शिवरात्रि के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार एक वर्ष में 12 शिवरात्रि पर्व एवं व्रत होते हैं किन्तु फाल्‍गुन कृष्‍ण पक्ष की चतुर्दशी को पड़ने वाली शिवरात्रि का विशेष महत्‍व है। यह शिवरात्रि महाशिवरात्रि के नाम से जानी जाती है। मान्‍यता है कि इसी दिन आदि शक्ति देवी पार्वती और आदि देव शिव का विवाह हुआ था। इसीलिये इस दिन का विशेष महत्‍व है। इस वर्ष 2021 में यह महाशिवरात्रि पर्व 11 मार्च, बृहस्पतिवार को अर्थात् कल मनाया जाएगा।

     भौगोलिक एवं यौगिक दृष्टि से देखें तो प्रत्येक वर्ष फरवरी-मार्च माह में पृथ्वी का उत्तरी गोलार्द्ध इस प्रकार अवस्थित होता है। जिसक परिणामस्वरूप प्राकृतिक रूप से मनुष्य के भीतर ऊर्जा का संचार ऊपर की ओर होता है। इस प्रकार प्रकृति परोक्ष रूप से मनुष्य को उसके आध्यात्मिक शिखर तक ले जाने में अपना योगदान देती है। इसीलिए इस  महाशिवरात्रि को एक उत्सव मनाया जाता है। ब्रह्माण्ड और तारामंडल सभी जिस ऊर्जा से संचालित होते हैं वस्तुतः वही जीवन है। महाशिवरात्रि आध्यात्मिक पथ पर चलने वाले साधकों के लिए बहुत महत्व रखती है। यह उनके लिए भी बहुत महत्वपूर्ण है जो पारिवारिक परिस्थितियों में हैं और संसार की महत्वाकांक्षाओं में मग्न हैं। पारिवारिक परिस्थितियों में मग्न लोग महाशिवरात्रि को शिव के विवाह के उत्सव की तरह मनाते हैं। सांसारिक महत्वाकांक्षाओं में मग्न लोग महाशिवरात्रि को, शिव के द्वारा अपने शत्रुओं पर विजय पाने के दिवस के रूप में मनाते हैं। परंतु, साधकों के लिए, यह वह दिन है, जिस दिन वे कैलाश पर्वत के साथ एकात्म हो गए थे। वे एक पर्वत की भांति स्थिर व निश्चल हो गए थे। यौगिक परंपरा में, शिव को किसी देवता की तरह नहीं पूजा जाता। उन्हें आदि गुरु माना जाता है, पहले गुरु, जिनसे ज्ञान उपजा। ध्यान की अनेक सहस्राब्दियों के पश्चात्, एक दिन वे पूर्ण रूप से स्थिर हो गए। वही दिन महाशिवरात्रि का था। उनके भीतर की सारी गतिविधियां शांत हुईं और वे पूरी तरह से स्थिर हुए, इसलिए साधक महाशिवरात्रि को स्थिरता की रात्रि के रूप में मनाते हैं, और इसीलिए इस पर्व का आज भी महत्व है। चतुर्दशी अर्थात् शिवरात्रि चंद्रमास का सबसे अंधकारपूर्ण दिन होता है। यह अंधकार पर ऊर्जा के प्रकाश की विजय का दिन है।  शिव का शाब्दिक अर्थ है, ‘जो नहीं है’। ‘जो है’, वह अस्तित्व और सृजन है। ‘जो नहीं है’, वह शिव है। ‘जो नहीं है’, उसका अर्थ है, सूक्ष्म दृष्टि से देखी गई संरचना। जैसे ब्रह्मांड की असीम शून्यता में भी अनेक ग्रह, नक्षत्र विद्यमान हैं किन्तु सामान्य आंखों से वे दिखाई नहीं देते मात्र शून्यता या असीम रहता ही दिखाई देती है यही असीम रिक्त था शिव है शून्य से उपज कर शून्य में विलीन होना जीवन का मूल सत्य है और यही सत्य शिव है हमारे शास्त्रों में कहा गया है सत्यम शिवम सुंदरम। शिव निराकार, निर्गुण और अमूर्त सत्य है। महाशून्य है। 


    पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बार देवी पार्वती ने आदि देव शिव से पूछा कि - ‘ऐसा कौन-सा श्रेष्ठ तथा सरल व्रत-पूजन है, जिससे मृत्युलोक के प्राणी आपकी कृपा सहज ही प्राप्त कर लेते हैं?’ उत्तर में शिव ने देवी पार्वती को ‘शिवरात्रि’ के व्रत का विधान बताया और यह कथा सुनाई - किसी समय में चित्रभानु नामक एक शिकारी था। वह पशुओं का शिकार करके अपने कुटुम्ब को पालता था। परिस्थितिवश वह एक साहूकार का ऋणी हो गया और समय पर ऋण नहीं चुका पाया। जिस कारण साहूकार ने चित्रभानु को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी। शिवमठ में शिव पूजन हो रहा था । चित्रभानु ने चतुर्दशी को शिवरात्रि व्रत की कथा सुनी। शाम होते ही साहूकार ने चित्रभानु को अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के लिए फिर कहा। शिकारी ने सोच- विचार कर अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का वचन दे दिया। साहूकार ने यह सुन कर उसे बंधन से मुक्त कर दिया। । घर आ कर चित्रभानु जंगल में शिकार के लिए निकला।  दिन भर बंदी गृह में रहने के कारण वह भूख-प्यास से व्याकुल था। शिकार करने के लिए उसने एक तालाब के किनारे बेल-वृक्ष पर मचान बनाया। बेल वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो विल्वपत्रों से ढका हुआ था। इसलिए चित्रभानु को उसका पता नहीं चला।

मचान बनाते समय उसने जो टहनियां तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरीं। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे चित्रभानु का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गए। एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी हिरणी तालाब पर पानी पीने पहुंची। चित्रभानु ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, हिरणी बोली, ‘मैं गर्भिणी हूं। शीघ्र ही प्रसव करूंगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत हो जाऊंगी' ।  चित्रभानु ने उसे जाने दिया। थोड़ी देर बाद रात्रि के तीसरे पहर में एक दूसरी हिरणी वहां आई। उसके समीप आने पर चित्रभानु ने धनुष पर बाण चढ़ाया। तो वह हिरणी दुखी स्वर में प्रार्थना करने लगी कि - ‘हे पारधी! मैं थोड़ी देर पहले ऋतु से निवृत्त हुई हूं। कामातुर विरहिणी हूं। अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूं। मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊंगी।’ चित्रभानु ने उसे भी जाने दिया। दो बार शिकार से वंचित रह कर चित्रभानु चिंता में पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। तभी एक अन्य हिरणी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली। शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर नहीं लगाई। वह तीर छोड़ने ही वाला था कि हिरणी बोली, ‘हे पारधी! मैं इन बच्चों को इनके पिता के संरक्षण में दे कर शीघ्र लौट आऊंगी। इस समय मुझे छोड़ दो। यह सुन कर चित्रभानु हंसा और बोला-  'सामने आए शिकार को छोड़ दूं, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूं। मेरे बच्चे भूख-प्यास से तड़प रहे होंगे। उत्तर में हिरणी ने फिर कहा- 'जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी। इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर मैं थोड़ी देर के लिए जीवनदान मांग रही हूं। हे पारधी! मेरा विश्वास कर, मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूं।'

    हिरणी का दीन स्वर सुनकर चित्रभानु को उस पर दया आ गई। उसने उस हिरणी को भी जाने दिया। शिकार के अभाव में बेल-वृक्ष पर बैठा चित्रभानु बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। सुबह होने को आई तो एक हृष्ट-पुष्ट हिरण उसी रास्ते पर आया। चित्रभानु ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्य करेगा। चित्रभानु की तनी प्रत्यंचा देखकर हिरण विनीत स्वर में बोला - 'हे पारधी भाई! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन हिरणियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि मुझे उनके वियोग में एक क्षण भी दुःख न सहना पड़े। मैं उन हिरणियों का पति हूं। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण का जीवन देने की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे सामने उपस्थित होऊंगा।'

हिरण की बात सुनते ही चित्रभानु के सामने पूरी रात का घटनाचक्र घूम गया, उसने सारी कथा हिरण को सुना दी। तब हिरण ने कहा कि- ‘मेरी तीनों पत्नियां जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएंगी। अतः जैसे तुमने उन पर विश्वास कर उन्हें जाने दिया है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूं।’ 

     उपवास, रात्रि-जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ने से चित्रभानु का हिंसक हृदय निर्मल हो गया था। उसमें भगवद् शक्ति का वास हो गया था। धनुष-बाण उसके हाथ से सहज ही छूट गए। शिव की कृपा से उसका हिंसक हृदय करुणा भाव से भर गया। वह अपने अतीत के कर्मों को याद करके पश्चाताप करने लगा। अपने वचन के अनुसार थोड़ी ही देर बाद वह हिरण सपरिवार चित्रभानु के समक्ष उपस्थित हो गया ताकि वह उनका शिकार कर सके, लेकिन जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता और सामूहिक प्रेम भावना देखकर चित्रभानु को बड़ी ग्लानि हुई। उसकी आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी। उस हिरण के परिवार को न मारकर चित्रभानु ने अपने कठोर हृदय को जीव हिंसा से हटाकर सदा के लिए कोमल एवं दयालु बना लिया। देवलोक से सभी देवी-देवता भी इस घटना को देख रहे थे। सभी ने पुष्प-वर्षा की। तब शिकारी चित्रभानु और हिरण परिवार को मोक्ष की प्राप्ति हुई।


     शिव औघरदानी कहलाते हैं। भोलेनाथ कहलाते हैं। नीलकंठ कहलाते हैं । सहस्त्र नाम हैं शिव के। अनेक आख्यान हैं गाथाएं हैं देवी पार्वती और महदेव शिव की। शिवपुराण और देवीभागवत सरीखे ग्रंथ भारतीय संस्कृति की अनमोल धरोहर हैं। ऐसे शिव और पार्वती के विवाह का प्रसंग आध्यात्मिक रहस्यों को अपने में समाहित किए हुए है। इसलिए रामकथा में  शिव विवाह का प्रसंग भी शामिल है। शिव विवाह में देवाधिदेव महादेव के विश्वास रूप और महादेवी पार्वती के श्रद्धा रूप को दर्शाता है। आज भी मानव जीवन में विवाह इन्हीं बातों पर टिका हुआ है।

विश्वास और श्रद्धा पर वैवाहिक जीवन टिका रहता है। इसलिए कि देवी पार्वती को विवाह से पूर्व बताया और समझाया गया कि भस्म रमाने वाले, भांग धतूरा खाने वाले, बैल की सवारी करने वाले कैसे उसे सुखी रख पाएंगे। देवी पार्वती के मन की श्रद्धा और भक्ति इन बातों से नहीं बदली। उन्होंने यह तय कर लिया कि वह विवाह करेंगी तो मात्र शिव से। शिव-पार्वती एक दूसरे के सखा, स्वामी और दास हैं। साथ ही राम पूर्ण ब्रह्म परमात्मा है। शिव राम के भक्त हैं और राम शिव के भक्त।  रामचरित मानस में शिव-पार्वती विवाह का वर्णन है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार सती को ही पार्वती, दुर्गा, काली, गौरी, उमा, जगदंबा, गिरिजा, अंबे सहित कई नामों से पुकारा जाता है। भागवत पुराण में आदि शक्ति देवी के 18 रूपों का वर्णन किया गया है। 

   सती के आत्मोत्सर्ग के बाद शिव तपस्यालीन हो कर समाधिस्थ हो गए। असुरों के उत्पात से सृष्टि व्याकुल हो उठी। शिव-शक्ति के मिलन से उत्पन्न योद्धा पुत्र ही तारकासुर सरीखे उन असुरों का संहार कर सकता था। तब देवी सती ने हिमालय की पुत्री पार्वती के रूप में जन्म लिया। शिव की पतिरूप में प्राप्ति के लिए देवी पार्वती भी कठोर तप करने लगीं। किन्तु शिव विवाह नहीं करने हेतु अडिग थे। तब श्रीहरि विष्णु के त्रेता अवतार राम ने शिव से प्रार्थना की, कि वे शक्तिस्वरूपा देवी पार्वती से विवाह कर लें। 

  

 रामचरितमानस के बालकाण्ड में महाकवि तुलसीदास ने इस प्रसंग का बहुत सुंदर वर्णन किया है - 


अब बिनती मम सुनहु सिव जौं मो पर निज नेहु।

जाइ बिबाहहु सैलजहि यह मोहि मागें देहु॥

अर्थात् राम ने शिव से कहा-  हे शिव! यदि मुझ पर आपका स्नेह है, तो अब आप मेरी विनती सुनिए। मेरी मांग पर ध्यान दे कर आप जाकर पार्वती के साथ विवाह कर लें।


 कह सिव जदपि उचित अस नाहीं। 

नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं॥

सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। 

परम धरमु यह नाथ हमारा।।

अर्थात् शिव ने कहा- यद्यपि ऐसा उचित नहीं है, परन्तु स्वामी की बात भी मिटाई नहीं जा सकती। हे नाथ! मेरा यही परम धर्म है कि मैं आपकी आज्ञा को सिर पर रखकर उसका पालन करूँ।


मातु पिता गुर प्रभु कै बानी। 

बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी॥

तुम्ह सब भाँति परम हितकारी। 

अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी॥ 

अर्थात् माता, पिता, गुरु और स्वामी की बात को बिना ही विचारे शुभ समझकर करना मानना चाहिए। फिर आप तो सब प्रकार से मेरे परम हितकारी हैं। हे नाथ! आपकी आज्ञा मेरे सिर पर है।


प्रभु तोषेउ सुनि संकर बचना। 

भक्ति बिबेक धर्म जुत रचना॥

कह प्रभु हर तुम्हार पन रहेऊ। 

अब उर राखेहु जो हम कहेऊ॥

अर्थात् शिवजी की भक्ति, ज्ञान और धर्म से युक्त वचन सुनकर राम संतुष्ट हो गए और  कहा- हे हर! आपकी प्रतिज्ञा पूरी हो गई। अब आप अपने हृदय में वह बात रखिए मैंने जो कहा है।


अंतरधान भए अस भाषी। संकर सोइ मूरति उर राखी॥

तबहिं सप्तरिषि सिव पहिं आए। बोले प्रभु अति बचन सुहाए॥

अर्थात् इस प्रकार कहकर राम अन्तर्धान हो गए। शिव ने उनकी वह मूर्ति अपने हृदय में रख ली। उसी समय सप्तर्षि शिव के पास आए। महादेव ने उनसे अत्यन्त सुहावने वचन कहे।


पारबती पहिं जाइ तुम्ह प्रेम परिच्छा लेहु।

गिरिहि प्रेरि पठएहु भवन दूरि करेहु संदेहु॥

अर्थात् आप लोग पार्वती के पास जाकर उनके प्रेम की परीक्षा लीजिए और हिमाचल को कहकर उन्हें पार्वती को लिवा लाने के लिए भेजिए तथा पार्वती को घर भिजवाइए और उनके संदेह को दूर कीजिए।

  

सप्तर्षि द्वारा परीक्षा लेने, महर्षि नारद द्वारा तरह-तरह से शिव के प्रति आसक्ति त्यागने का प्रयास करने के बाद भी देवी पार्वती विचलित नहीं हुईं। तुलसीदास आगे कहते हैं कि -


जाइ मुनिन्ह हिमवंतु पठाए।

करि बिनती गिरजहिं गृह ल्याए॥

बहुरि सप्तरिषि सिव पहिं जाई। 

कथा उमा कै सकल सुनाई॥

अर्थात् मुनियों ने जाकर हिमवान् को पार्वती के पास भेजा और वे विनती करके उनको घर ले आए, फिर सप्तर्षियों ने शिव के पास जाकर उनको पार्वती की सारी कथा सुनाई।


भए मगन सिव सुनत सनेहा। 

हरषि सप्तरिषि गवने गेहा॥

मनु थिर करि तब संभु सुजाना। 

लगे करन रघुनायक ध्याना।।

अर्थात् पार्वती का प्रेम सुनते ही शिव आनन्दमग्न हो गए। सप्तर्षि प्रसन्न होकर अपने घर ब्रह्मलोक को चले गए। तब सुजान शिव मन को स्थिर करके रघुनायक राम का ध्यान करने लगे।


राम के आग्रह, ऋषियों और देवताओं के अथक प्रयासों तथा कामदेव-रति प्रसंग के पश्चात् अंततः …. शिव- पार्वती विवाह सम्पन्न हुआ। तुलसीदास कहते हैं -


पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। 

हियँ हरषे तब सकल सुरेसा॥

बेदमन्त्र मुनिबर उच्चरहीं। 

जय जय जय संकर सुर करहीं॥

अर्थात् जब महेश्वर शिव ने पार्वती का पाणिग्रहण किया, तब इन्द्रादि सब देवता हृदय में बड़े ही हर्षित हुए। श्रेष्ठ मुनिगण वेदमंत्रों का उच्चारण करने लगे और देवगण शिव का जय-जयकार करने लगे।


बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। 

सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना॥

हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। 

सकल भुवन भरि रहा उछाहू॥

अर्थात् अनेक प्रकार के बाजे बजने लगे। आकाश से नाना प्रकार के फूलों की वर्षा हुई। शिव-पार्वती का विवाह हो गया। सारे ब्राह्माण्ड में आनंद भर गया।


    पति–पत्नी का संबंध जन्म जन्मांतर का होता है। विवाह के समय पति एवं पत्नी सात जन्मों का वचन ले कर सात फेरे पूर्ण कर साथ रहने का वादा करते हैं। यह संबंध प्रेम और विश्वास पर ही टिका रहता है। वर्तमान समय में महाशिवरात्रि पर्व इसी बात की याद दिलाता है कि आदि शक्ति देवी पार्वती और आदि देव शिव की भांति अपने हृदय को प्रेम और विश्वास के अटूट बंधन में बांध कर ही सफल दाम्पत्य जीवन व्यतीत किया जा सकता है। 


और अंत में प्रस्तुत हैं मेरे कुछ दोहे -


जगहित विष का पान कर, जगत मिटाई पीर।

शिव पूजन कीजे सदा, मन में रख कर धीर ।।


जिसके कर्मों में निहित, स्वार्थरहित परमार्थ।

कष्ट हरे, पीड़ा हरे, वह सच्चा पुरुषार्थ।।


पूजन कर शिव-शक्ति का, पाएं हर्ष अनंत।

सुखमय जीवन में रहे, हर दिन नया वसंत ।।


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2 comments:

  1. उपयोगी और जानकारीपरक अंक।
    शिव त्रयोदशी की बहुत-बहुत बधाई हो।

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    1. हार्दिक आभार आदरणीय शास्त्री जी 🙏

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