Wednesday, October 28, 2020
बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 22 | मंदोदरी और सत्य की पक्षधारिता | डॉ. वर्षा सिंह
Wednesday, October 21, 2020
बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 21| स्त्री वस्तु नहीं | डॉ. वर्षा सिंह
प्रिय ब्लॉग पाठकों, "विचार वर्षा"... मेरे इस कॉलम में आज पढ़िए "स्त्री वस्तु नहीं" और अपने विचारों से अवगत कराएं ...और शेयर करें 🙏
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 21.10.2020
मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं-
https://yuvapravartak.com/?p=43462
बुधवारीय स्तम्भ: विचार वर्षा
स्त्री वस्तु नहीं
- डॉ. वर्षा सिंह
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।।
अर्थात् जहां स्त्रियों की पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं और जहां स्त्रियों की पूजा नही होती है, उनका सम्मान नही होता है वहां किये गये समस्त अच्छे कर्म निष्फल हो जाते हैं।
यही भारतीय संस्कृति का मूल मंत्र है। स्त्री का सम्मान समाज की सभ्यता को प्रतिबिम्बित करता है। ऐसी अनेक कथाएं, उपकथाएं एवं आख्यान हमारे पौराणिक ग्रंथों एवं महाकाव्यों में मिलते हैं जब स्त्री चाहे वह राक्षसी ही क्यों न हो यदि अपराध के लिए भी दण्डित की गई हो तब भी दण्ड देने वाले का यह कृत्य बौद्धिक जगत में विवाद का विषय रहा है। जैसे रामकथा का ही एक प्रसंग लिया जाए, राम के वनगमन का। बात उस समय की है जब दण्डक वन में राम, लक्ष्मण और सीता पर्णकुटी बना कर ठहरे हुए थे। राक्षसराज रावण की बहन शूर्पणखा उस वन में विचरण के लिए निकली। राम-लक्ष्मण का सौंदर्य और पौरुष देख वह उन दोनों पर मोहित हो गई। पहले उसने राम से प्रणय निवेदन किया। राम ने उसका प्रणय निवेदन अस्वीकार कर दिया क्योंकि वे विवाहित थे और एकपत्नी व्रती थे। तत्पश्चात वह लक्ष्मण के पास गई। लेकिन वहां भी निराशा ही हाथ लगी। तब शूर्पणखा सीता को अपने मार्ग में बाधा समझकर बोली -
अद्येमां भक्षयिष्यामि पश्यतस्तव मानुषीम् !
त्वया सह चरिष्यामि निःसपत्ना यथासुखम् !!(वाल्मीकिरामायण, अरण्यकाण्ड 18/16)
अर्थात् आज तुम्हारे देखते ही मैं इस मानुषी सीता को खा जाऊंगी और इस सौत के न रहने पर तुम्हारे साथ सुख पूर्वक विचरण करूंगी। यह सुन कर लक्ष्मण ने क्रोधित हो उसके नाक कान काट दिए।
कुछ विद्वान शूर्पणखा के नाक-कान काटे जाने को अनुचित मानते हैं। अनेक स्त्रीवादी लक्ष्मण के इस कृत्य को अविवेकी कृत्य ठहराते हुए इसे स्त्री पर अत्याचार मानते हैं। ऐसे सभी लोगों के तर्को का सारांश यही है कि लक्ष्मण से प्रणय निवेदन उस समय की एक सामान्य घटना थी जिसमें कुछ भी अनैतिक नहीं था। वे तर्क देते हैं कि पौराणिक कथाओं के अनुसार उस काल में यद्यपि विवाह का प्रस्ताव रखने के लिए सामान्यतः पुरुष की ओर से पहल की जाती थी परन्तु स्त्रियों को भी विवाह प्रस्ताव रखने का पूरा अधिकार था। तत्कालीन सामाजिक व्यवस्थाओं के अनुसार स्त्री की ओर से विवाह प्रस्ताव आने से कोई क्षत्रिय उसे मना नहीं कर सकता था। बहुविवाह भी प्रचलन में था। महाराज दशरथ की स्वयं तीन रानियां थीं। तर्क यह भी दिया जाता है कि श्रीराम के एकपत्नी व्रत के कारण वे शूर्पणखा से विवाह नहीं कर सकते थे और लक्ष्मण भी नहीं करना चाहते थे तो इसके लिए उन्हें यह अधिकार कैसे मिल गया कि उसकी नाक-काट कर उसे किसी अन्य के योग्य ही न छोड़ा जाए?
लक्ष्मण द्वारा शूर्पणखा के नाक-कान काटे जाने को उचित मानने वाले तर्क देते हैं कि मातृतुल्य भाभी सीता की रक्षा करने के लिए लक्ष्मण ने शूर्पणखा के नाक-कान काटे। राक्षसी प्रवृत्ति की स्त्री के लिए यही दण्ड उचित था। वह जीवित रहे और अपने कृत्य पर अजीवन पछताती रहे।
खैर, शूर्पणखा को इस प्रकार दण्डित किया जाना उचित था अथवा नहीं, यह एक लम्बी बहस का विषय है लेकिन इस कृत्य के कारण शेषनाग के अवतार लक्ष्मण को युगों बाद भी बहस का विषय बनना पड़ा है। क्योंकि इसमें स्त्री की भावना, उसके सम्मान एवं उसके अधिकारों की बात थी। शूर्पणखा जिस राक्षसी कुल की थी उसमें इच्छित व्यक्ति को प्राप्त करने के लिए साम, दाम, दण्ड, भेद आदि सब कुछ जायज़ था। लेकिन वर्तमान परिदृश्य बहुत विचित्र है। आज राजनीति में स्वयं स्त्रियां है लेकिन स्त्रियों के प्रति सम्मान की भावना तेजी से कम होती जा रही है। आज देश के विपक्षी दल के आयु और अनुभव में एक बड़े नेता विरोधी दल की महिला को ‘‘आईटम’’ कहते हैं, वह भी चुनावी सभा के भरे मंच से, सैंकड़ों लोगों की भीड़ के सामने। आज सामने प्रत्यक्ष भीड़ न भी हो तो सोशल मीडिया, टीवी चैनल्स के रूप में अप्रत्यक्ष भीड़ की कमी नहीं है। एक दिन एक वरिष्ठ नेता एक महिलानेत्री को ‘‘आईटम’’ कहता है तो ठीक इसके तीसरे दिन सत्ताधारी दल के एक मंत्री अपने विरोधी की पत्नी को ‘‘ रखैल’’ कह देते हैं। पक्ष और विपक्ष का आरोप-प्रत्यारोप। दुर्भाग्य से दोनों के केन्द्र में दांव पर लगा स्त्री का सम्मान।
‘‘अर्थववेद’’ में भी एक श्लोक है जिसमें स्त्रीअधिकारों एवं स्त्री स्वतंत्रता की बात कही गई है-
नास्य जाया शतवाही कल्याणी तल्पमा शये ।यस्मिन राष्ट्रे निरुध्यते ब्रह्मजायाचित्त्या ।।
अर्थात् जिस राष्ट्र में इस ब्रह्मजाया (नारी) को जड़ता पूर्वक प्रतिबन्ध में डाला जाता है। उस राष्ट्र में सैकड़ों कल्याण को धारण करने वाली ‘जाया’ (विद्या) भी फलित होने से वंचित रह जाती है।
पुराणों में ऐसी कई कथाएं हैं जिनमें स्त्री के साथ छल, कपट अथवा स्त्री को अपमानित किए जाने पर दोषी व्यक्ति को दण्ड मिला, फिर वह चाहे स्वयं देवता ही क्यों न हों। पुराणों में वर्णित एक ऐसी ही कथा है चंद्रमा यानी चंद्रदेव की। कहते हैं, वे देवताओं के गुरु बृहस्पति की पत्नी तारा पर मोहित हो गए थे। चन्द्रमा ने छल किया और तारा संग भोग-विलास में लिप्त रहे थे। जब इस पूरे घटनाक्रम का ज्ञान देवगुरु बृहस्पति को हुआ, तो उन्होंने चंद्रदेव को श्राप दे दिया।
एक अन्य कथा है श्रीहरि और वृंदा की। पुराणों के अनुसार, जालंधर नामक दानव के कारण देवताओं पर संकट आ गया। जालंधर की पत्नी का नाम था वृंदा। वृंदा महान पतिपरायण महिला थी। पुराणों के अनुसार, वृंदा के सतीत्व के कारण जालंधर को पराजित करना असंभव था। तब जगतपालक श्रीहरि ने जालंधर की मृत्यु के लिए स्वयं जालंधर का रूप रखा और वृंदा के पास पहुंच गए। देवता के छल को वृंदा भला कैसे समझ पाती अतः उसका सतीत्व भंग हो गया। तब जाकर भगवान शिव जालंधर दानव का वध करने में सफल हो पाए। लेकिन वृंदा ने श्रीहरि को श्राप दिया कि वे काले पत्थर में परिणत हो जाएं। और श्रीहरि को शालिकग्राम के रूप में नारी के इस अपमान की सज़ा भुगतनी पड़ी।
यजुर्वेद (5/10, शतायु) में स्त्रीशक्ति का आह्वान करते हुए लिखा गया है कि-‘‘हे नारी! तू स्वयं को पहचान। तू शेरनी हैं, तू शत्रु रूप मृगों का मर्दन करने वाली हैं, देवजनों के हितार्थ अपने अन्दर सामर्थ्य उत्पन्न कर। हे नारी! तू अविद्या आदि दोषों पर शेरनी की तरह टूटने वाली हैं, तू दिव्य गुणों के प्रचारार्थ स्वयं को शुद्ध कर। हे नारी! तू दुष्कर्म एवं दुर्व्यसनों को शेरनी के समान विश्वंस्त करने वाली हैं, धार्मिक जनों के हितार्थ स्वयं को दिव्य गुणों से अलंकृत कर।’’
पूजनीया महाभागाः पुण्याश्र्च गृहदीप्तयरूः।
स्रियः श्रियो गृहस्योक्तास्तमाद्रक्ष्या विशेषतः।।
विदुर नीति कहती है कि स्त्री को लक्ष्मी का स्वरूप माना गया है। हिंदू धर्म में किसी महिला के जन्म पर कहा जाता है कि स्वयं लक्ष्मी ने जन्म लिया है। जब कोई स्त्री किसी घर में ब्याह कर जाती है तो उसकी किस्मत वहां के लोगों से जुड़ जाती है। महिला के शुभ कदमों से ही घर में श्रेष्ठता और सम्पन्नता बनी रहती है। जिस घर में सदगुण सम्पन्न नारी सुखपूर्वक निवास करती है उस घर में लक्ष्मी जी का सदैव निवास रहता है। यदि घर की महिला सुखी, प्रसन्न और स्वस्थ है तो वह घर भी हमेशा भरा-पूरा रहता है। महिला किसी भी परिवार की धुरी होती है इसलिए महिलाओं का सम्मान अति आवश्यक है।
वेदों में स्त्री को 'अंबा', 'अम्बिका', 'दुर्गा', 'देवी', 'सरस्वती', 'शक्ति', 'ज्योति', 'पृथ्वी' आदि नामों से संबोधित किया गया है। इसके साथ ही स्त्री को मात।शक्ति के रूप में 'माता', 'मातु', 'मातृ', 'अम्मा', 'अम्मी', 'जननी', 'जन्मदात्री', 'जीवनदायिनी', 'जनयत्री', 'धात्री', 'प्रसू' आदि अनेक नामों से पुकारा जाता है। सामवेद में एक प्रेरणादायक मंत्र मिलता है, जिसका अभिप्राय है, 'हे जिज्ञासु पुत्र! तू माता की आज्ञा का पालन कर, अपने दुराचरण से माता को कष्ट मत दे। अपनी माता को अपने समीप रख, मन को शुद्ध कर और आचरण की ज्योति को प्रकाशित कर।'
प्रश्न यह उठता है कि जब हरेक भारतीय जीवन में अपने-अपने धर्मानुसार इस प्रकार की कथाएं, आख्यान, श्लोक बचपन से ही जुड़े हुए हैं फिर भी कुछ लोग राजनीति में आते ही नारी सम्मान की सारी शिक्षाएं मानों भूल जाते हैं। वे स्त्री को मनुष्य नहीं वरन् उपभोग की वस्तु समझने लगते हैं। तभी तो स्त्री को कोई ‘‘टंच माल’’ कहता है, तो कोई ‘‘आईटम’’, कोई ‘‘नचनिया’’ तो कोई उसके गालों की तुलना बिहार की सड़कों से करने लगता है। इस ओछेपन का प्रदर्शन करने वालों को समझना चाहिए कि चाहे उनके परिवार की स्त्रियां हों अथवा राजनीतिक मैदान में खड़ी स्त्रियां हों, वे समाज की सम्मानपात्र हैं कोई उपभोग की वस्तु नहीं।
और अंत में प्रस्तुत है मेरी ये काव्य पंक्तियां -
मां, भाभी है, बहन है नारी, सदा इसे सम्मान दो।मानव जीवन पाया है तो मानवता को मान दो।
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Wednesday, October 14, 2020
बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 20 | हर बार अहिल्या ही क्यों | डॉ. वर्षा सिंह
Wednesday, October 7, 2020
बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 19 | जीवन में मंथराओं की कमी नहीं | डॉ. वर्षा सिंह
जीवन में मंथराओं की कमी नहीं
- डॉ. वर्षा सिंह
मुझे आज अचानक एक पुराना वाकया याद आ गया। उन दिनों मैं विद्युत विभाग के जिस कार्यालय में पदस्थ थी, वहां मैं शिकायत कक्ष की प्रभारी थी। तब कुछ शासकीय योजनाओं को संचालित करने के लिए कार्यालय में नोडल अधिकारियों की संविदा नियुक्तियां हुई थीं। उनमें से एक अधिकारी द्वारा अन्यत्र नियमित नौकरी पर जाने और नोडल अधिकारी के पद से इस्तीफा देने के कारण एक पद रिक्त हो गया था। मेरे कार्यालय प्रमुख ने मुझे उस पद पर कार्य करने के संबंध में पूछा, जिसे मैंने मना कर दिया। मना करने के दो कारण थे एक तो शिकायत कक्ष का मेरा कार्य सुचारु रूप से चल रहा था, दूसरे मैं जानती थी कि नोडल अधिकारी के उस रिक्त पद पर कल को ऊपर से कोई दूसरा अधिकारी नियुक्त कर दिया जाएगा और मुझे अनावश्यक डिस्टर्ब होना पड़ेगा।
मेरे द्वारा मना करने वाली बात जब मेरे एक असिस्टेंट को पता चली, तो वह बहुत विचलित हो उठा। कहने लगा - मैडम जी, आपने मना करके अच्छा नहीं किया। आपको बड़े साहब से 'हां' कह देना चाहिए था।
'लेकिन क्यों ? जब मैं वह सेक्शन नहीं लेना चाहती हूं तो साफ़ क्यों न बताऊं ? फिर अपना ये कम्प्लेंट सेक्शन अच्छा है।' मैंने कहा था।
तब मेरा वह असिस्टेंट मुझे समझाने लगा था - 'अरे मैडम जी, यहां तो वही पुराना फर्नीचर है। टेबिल क्लॉथ वाली पुरानी टेबल, बाबाआदम के ज़माने का गोल कंप्यूटर मॉनिटर, सड़ियल की-बोर्ड और ये टूटी-फूटी कुर्सियां.. इनकी कीलों में रोज़ कपड़े फटते हैं। जबकि वहां नोडल अधिकारी के चैम्बर में सारा फर्नीचर एकदम नया है.. गोदरेज कंपनी का। एलसीडी डिस्प्ले वाला नया कंप्यूटर मॉनिटर है। अपने यहां कूलर है, वहां एसी है।'
एक बारगी मुझे भी लगा कि इसकी बात में दम तो है। फ़र्नीचर से ले कर स्टेशनरी और कम्प्यूटर तक सभी एकदम पुराने और बेहद ऊबाऊ हैं।
तभी मेरे असिस्टेंट ने अपनी बात आगे बढ़ाई - 'उस सीट पर सप्लायर भी आते हैं। अपने को चाय-पानी के लिए अपने वॉलेट खाली नहीं करने पड़ेंगे। मैडम जी, आप सीनियर भी हैं । साहब से कह दीजिए कि आपको नोडल अधिकारी बना दें। अभी भी समय है, साहब ने अभी और किसी को वह सीट नहीं ऑफर की है।'
मुझे उसकी यह बात खटकी। मैंने अपने विवेक से काम लेते हुए अपने उस असिस्टेंट को उल्टा समझाया ऐसे लालच में कभी नहीं फंसना चाहिए, अपनी कमाई की चाय ज़्यादा अच्छी होती है। ग़लत ढंग से की गई कमाई कभी न कभी ज़रूर धोखा देती है।
और फिर उस घटना के दो माह बाद …. जैसाकि ऑलरेडी इस्टीमेटेड था मेरे सेक्शन का भी रिनोवेशन हो गया। पूर्वयोजनानुसार सारा फर्नीचर बदल दिया गया। एलसीडी डिस्प्ले वाला नया कंप्यूटर आ गया। कूलर हटा कर एसी लगा दिए गए। यदि मैं उस समय अपने उस असिस्टेंट की बातों में आ कर नोडल अधिकारी का प्रभार ले लेती तो बहुत बड़ी टेंशन में फंस जाती। मेरा असिस्टेंट अपनी ऊपरी कमाई के लालच में मुझे मेरा लाभ दिखा कर मुझे भी कलंकित कर सकता था।
आज मैंं चिंतन करती हूं तो मुझे लगता है कि ऐसे सलाहकारों और रामकथा की मंथरा दासी में शायद ज़्यादा फ़र्क़ नहीं… रामकथा में दासी मंथरा ने अपनी रानी कैकेयी को जो सुझाव दिए थे वे उसकी दृष्टि में रानी कैकेयी और उसके पुत्र भरत के लिए तो लाभप्रद थे ही, उससे कहीं अधिक स्वयं मंथरा के लिए लाभकारी थे। भरत राजा बनते तो कैकेयी राजमाता और मंथरा राजमाता की ख़ास सेविका। दूर का निशाना मगर सही दिशा में एक ग़लत मंसूबे के साथ। अकसर लोग यह भूल जाते हैं कि ग़लत- सही के बीच की रेखा को मिटा कर बढ़ाए गए क़दम ठोकर ज़रूर खाते हैं।
महाराजा दशरथ की तीन रानियों कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी में कैकेयी अधिक सुंदर, युद्ध संचालन में योग्य थी। एक बार राजा दशरथ के साथ युद्ध मैदान में गई कैकेयी ने रथ के पहिए की कील निकलने पर कील के स्थान पर अपनी उंगली लगा कर राजा दशरथ के प्राणों की रक्षा की थी। तब दशरथ ने प्रसन्न हो कर कैकेयी से दो वरदान मांगने को कहा था। कैकेयी ने वे वरदान उसी समय नहीं मांगे थे, बल्कि बाद में कभी अन्य समय लेने का कह कर दशरथ को वचनबद्ध कर लिया था।
कालांतर में दशरथ ने जब अपने ज्येष्ठ पुत्र राम के राज्याभिषेक की बात की तो अपने स्वार्थ की पूर्ति को ध्यान में रख कर कैकेयी की अंतरंग दासी मन्थरा ने आकर कैकयी को यह समाचार सुनाया। यह सुनकर कैकयी आनंद में डूब गयी और समाचार सुनाने के बदले में मंथरा को अपना एक आभूषण भेंट किया। वाल्मीकि रामायण के अनुसार -
इदं तु मन्थरे मह्यमाख्यातं परमं प्रियम् ।
एतन्मे प्रियमाख्यातं किं वा भूय: करोमि ते ।।
रामे वा भरते वाहं विशेषं नोपलक्षये ।
तस्मात्तुुष्टस्मि यद्राजा रामं राज्येऽभिषेक्ष्यति ।।
न मे परं किञ्चिदितो वरं पुन: प्रियं प्रियार्हे सुवचं वचोऽमृतम् ।
तथा ह्यवोचस्त्वमतः प्रियोत्तरं वरं परं ते प्रदादामि तं वृणु ।।
(वाल्मीकि रामायण २ । ७। ३४-३६)
अर्थात् मन्थरे ! तूने मुझको यह बड़ा ही प्रिय संवाद सुनाया है, इसके बदले मैं तेरा और क्या उपकार करूं? यद्यपि भरत को राज्य देने की बात हुई थी, फिर भी राम और भरत में मैं कोई भेद नहीं देखती । मैं इस बात से बहुत प्रसन्न हूँ कि महाराज कल राम का राज्याभिषेक करेंगे । हे प्रियवादिनी ! राम के राज्याभिषेक का संवाद सुनने से बढ़ कर मुझे अन्य कुछ भी प्रिय नहीं है । ऐसा अमृत के समान सुखप्रद वचन सब नहीं सुना सकते । तूने यह वचन सुनाया है, इसके लिये तू जो चाहे सो पुरस्कार मांग ले ,मैं तुझे देती हूँ।
किन्तु मंथरा ने वह आभूषण एक ओर फेंक दिया और कैकयी को अनेक उदाहरण दे कर अपना मंतव्य प्रकट करते हुए भांति-भांति से समझाया। फिर भी कैकयी मंथरा की बात नहीं मानकर कहती है कि यह तो रघुकुल की रीत है कि ज्येष्ठ पुत्र ही राज्य संभालता है और मैं कैसे अपने पुत्र के बारे में सोचूं? राम तो सभी के प्रिय हैं।
यथा वै भरतो मान्यस्तथा भूयोऽपि राघव: । कौसल्यातोऽतिरिक्तं च मम शुश्रूषते बहु ।।
राज्यं यदि हि रामस्य भरतस्यापि तत्तदा ।
मन्यते हि यथाऽऽत्मानं तथा भ्रातॄन्स्तु राघव: ।।
(वाल्मीकि रामायण २। ८। १८ -१९)
अर्थात् मुझे भरत जितना प्यारा है, उससे कहीं अधिक प्यारे राम है , क्योंकि राम मेरी सेवा कौशल्या से भी अधिक करते है । रामको यदि राज्य मिलता है तो वह भरत को ही मिलता है, ऐसा समझना चाहिये, क्यों कि राम सब भाइयों को अपने ही समान समझते है ।
इस पर जब मन्थरा महाराज दशरथ की निन्दा करके कैकेयी को फिर भड़काने लगी, तब तो कैकेयी ने बड़ी बुरी तरह उसे फटकार दिया –
ईदृशी यदि रामे च बुद्धिस्तव समागता ।
जिह्वायाश्छेदनं चैंव कर्तव्यं तव पापिनि ।।
तब मंथरा ने तरह-तरह के दृष्टान्त सुना कर केकैयी से अपनी बात मनवा ही ली। अंततः कैकयी ने मंथरा की सारी बातें मान लीं और कोप भवन में जाकर राजा दशरथ को अपने दो वरदानों की याद दिलाई। राजा दशरथ ने कहा कि ठीक है वरदान मांग लो। तब कैकेयी ने अपने वरदान के रूप में राम का वनवास और भरत के लिए राज्य मांग लिया। यह वरदान सुनकर राजा दशरथ मानसिक रूप से आहत हो गए, चूंकि वे वचनबद्ध थे अतः वचनों से विमुख होना संभव नहीं था।
'रामचरितमानस' के अयोध्याकांड में भी तुलसीदास ने लिखा है कि मंथरा दासी के कहने पर ही राम के राज्याभिषेक होने के अवसर पर कैकेयी की मति मारी गयी और पुत्र भरत के राजतिलक की चकाचौंध भरी कल्पना में डूब कर उसने राजा दशरथ से दो वरदान मांगे। पहले वर में उसने भरत का राज्याभिषेक और दूसरे वर में भरत की राजगद्दी को निष्कंटक बनाने के कुटिल उद्देश्य से राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास मांग लिया।
नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकइ केरि।
अजस पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि।।
अर्थात् मन्थरा नाम की कैकेई की एक मंदबुद्धि दासी थी, उसे अपयश की पिटारी बनाकर सरस्वती उसकी बुद्धि को फेरकर चली गईं।
रचि पचि कोटिक कुटिलपन कीन्हेसि कपट प्रबोधु।
कहिसि कथा सत सवति कै जेहि बिधि बाढ़ बिरोधु।।
अर्थात् इस तरह करोड़ों कुटिलपन की बातें गढ़-छोलकर मन्थरा ने कैकेयी को उलटा-सीधा समझा दिया और सैकड़ों सौतों की कहानियां इस प्रकार सुना दीं कि कैकेयी का मन विचलित हो उठा।
परिणाम से सभी अवगत ही हैं। जहां एक ओर दशरथ शोकाकुल हो मृत्युशैय्या पर पहुंच गए। आज्ञाकारी राम वनगमन कर गए। भरत यह अनर्थ स्वीकार न कर राम की चरणपादुका के सेवक बन अयोध्या की सुरक्षा करते रहे। राम के साथ उनकी अर्धांगिनी सीता भी वनवासरत हो गईं जहां से लंकापति रावण ने उन्हें अपहृत कर लिया। … वहीं दूसरी ओर कैकेयी को वैधव्य और कलंकित नारी का तमगा हाथ लगा। मंथरा तो दासी थी, दासी रही। उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ा।
रामचरितमानस में तुलसीदास ने दासी मंथरा की ओर से यह चौपाई लिखी है -
कोउ नृप होइ हमैं का हानी ।
चेरि छाड़ि अब होब की रानी।।
अर्थात् - मुझे कोई लेना-देना नहीं, मैं तो दासी की दासी ही रहूंगी। रानी जी, आप सोचिए कि आप का क्या होगा।
तो क्या मंथरा ने निःस्वार्थ भावना से सुझाव दिया था। नहीं… ऐसा नहीं था। मंथरा का स्वयं का स्वार्थ निहित था उसकी इस चाल में। वह जानती थी कि भरत के राजा बनने पर कैकेयी राजमाता बन जाएंगी और मंथरा कैकेयी की निकटस्थ होने के कारण अयोध्या की प्रभावशाली महिला बन जाएगी।
रामकथा के इस प्रसंग का मर्म यही है कि चाहे कोई कितना भी सगा व्यक्ति क्यों न हो, उसके सुझाव पर स्वयं चिंतन किए बिना उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। वर्तमान समय में 'मंथराओं' की कमी नहीं है। शुभचिंतक बन कर हमारी निजी ज़िन्दगी में सेंध लगाने वाले 'मंथरा' रूपी व्यक्ति बहुत घातक होते हैं। इन्हें पहचानना बहुत ज़रूरी है। हमारे जीवन में अनेक ऐसे अवसर आते हैं जब हमारे निकटस्थ लोग हमारे हितरक्षक बन कर हमें हमारा लाभ दिखा कर तरह-तरह की समझाइश देते हैं। किन्तु सुझाव के अमल में लाए जाने से होने वाले लाभ और हानि का स्वयं चिंतन करना बहुत ज़रूरी होता है। यदि परिणाम से ज़्यादा दुष्परिणाम की आशंका नज़र आए तो कभी स्वयं 'कैकेयी' नहीं बने और किसी भी 'मंथरा' की सलाह को अमल में न लाएं।
और अंत में प्रस्तुत है मेरा यह दोहा -
अंतर्मन के खोल कर रखिए सारे द्वार ।
हर पहलू पर गौर से पूरा करें विचार।।
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प्रिय ब्लॉग पाठकों, "विचार वर्षा"... मेरा यह कॉलम आज युवाप्रवर्तक वेब पोर्टल पर भी प्रकाशित हुआ है।
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दिनांक 07.10.2020
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