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दिनांक 28.10.2020
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बुधवारीय स्तम्भ: विचार वर्षा
मंदोदरी और सत्य की पक्षधारिता
-डॉ. वर्षा सिंह
पिछले दिनों ही आश्विन अथवा क्वांर की नवरात्रि के भक्ति काल का समापन हुआ है। नवरात्रि में नौ दिनों तक आदि शक्ति देवी माता दुर्गा के नौ रूपों की उपासना के बाद दसवीं तिथि दशहरा पर्व अथवा विजयादशमी पर्व के रूप में मनाई जाती है। विजयादशमी अर्थात असत्य पर सत्य की विजय का पर्व। राम सत्य के प्रतीक हैं और रावण असत्य का प्रतीक। ऐसा नहीं है कि रावण विद्वान नहीं था वरन् वह ज्ञानी और अनेक विद्याओं में पारंगत था। युद्ध कला, राजनीति के साथ ही काव्यसृजन में उसका कोई सानी नहीं। शिव की भक्ति में लीन होकर रावण ने शिव तांडव स्तुति की रचना की है जो शताब्दियों बाद आज भी श्रेष्ठ काव्य रचना के रूप में मानी जाती है। राम को रावण से शत्रुता नहीं थी।राम ने रावण से युद्ध भी बिना किसी बैरभाव के किया। यदि रावण सीता का हरण नहीं करता तो राम उससे युद्ध भी नहीं करते। अथवा यदि रावण अंगद, हनुमान, विभीषण एवं मंदोदरी की बात मान लेता तो राम से उसका युद्ध नहीं होता और उसे अपने पुत्र, भाई, परिजन सहित स्वयं के प्राण नहीं गंवाने पड़ते। रावण अपना शत्रु स्वयं था। काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह - इन पांचों अवगुणों से वह स्वयं को मुक्त नहीं रख पाया। उसके पांडित्य और ज्ञान पर यह पांचों अवगुण भारी पड़े और अहंकार के वशीभूत होकर वह यह भी भूल गया कि सीता का अपहरण करना उसकी सोने की लंका को जला कर राख कर सकता है उसकी विद्वत्ता की आभा को नष्ट कर सकता है।
अहंकार के वशीभूत होकर रा्वण ने अपनी विदुषी पत्नी की बात भी कभी नहीं मानी। रावण की पत्नी मंदोदरी ने रावण को अनेक बार समझाने का प्रयास किया किंतु रावण ने उसे अनदेखा ही नहीं किया बल्कि मंदोदरी को बुरा भला कह कर उसे अपमानित भी किया।
रामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड में मंदोदरी और रावण का संवाद तुलसीदास ने कुछ इस प्रकार वर्णित किया है -
रहसि जोरि कर पति पग लागी। बोली बचन नीति रस पागी॥
कंत करष हरि सन परिहरहू। मोर कहा अति हित हियँ धरहू॥
अर्थात् मंदोदरी एकांत में हाथ जोड़कर पति रावण के चरणों लगी और नीतिरस में पगी हुई वाणी बोली- हे प्रियतम! श्री हरि से विरोध छोड़ दीजिए। मेरे कहने को अत्यंत ही हितकर जानकर हृदय में धारण कीजिए।
तव कुल कमल बिपिन दुखदाई। सीता सीत निसा सम आई॥
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें। हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें॥
अर्थात् सीता आपके कुल रूपी कमलों के वन को दुःख देने वाली जाड़े की रात्रि के समान आई है। हे नाथ। सुनिए, सीता को लौटाए बिना शम्भु और ब्रह्मा के किए भी आपका भला नहीं हो सकता।
मंदोदरी के यह वचन सुन कर अहंकारी रावण अट्टहास कर उठा। उसने मद में चूर हो कर मंदोदरी की समझाइश को हंसी में उड़ा दिया-
श्रवन सुनी सठ ता करि बानी। बिहसा जगत बिदित अभिमानी॥
सभय सुभाउ नारि कर साचा। मंगल महुँ भय मन अति काचा॥
अर्थात् मूर्ख और जगप्रसिद्ध अभिमानी रावण कानों से उसकी वाणी सुनकर खूब हंसा और बोला- स्त्रियों का स्वभाव सचमुच ही बहुत डरपोक होता है। मंगल में भी भय करती हो। तुम्हारा मन, हृदय बहुत ही कच्चा यानी कमजोर है।
जौं आवइ मर्कट कटकाई। जिअहिं बिचारे निसिचर खाई॥
कंपहिं लोकप जाकीं त्रासा। तासु नारि सभीत बड़ि हासा॥
अर्थात् यदि वानरों की सेना आवेगी तो बेचारे राक्षस उसे खाकर अपना जीवन निर्वाह करेंगे। लोकपाल भी जिसके डर से काँपते हैं, उसकी स्त्री डरती हो, यह बड़ी हँसी की बात है।
यह वही रावणपत्नी मंदोदरी है जिसका उल्लेख पौराणिक ग्रंथ ब्रह्म पुराण में पंचकन्या के रूप में मिलता है -
अहल्या, द्रौपदी, तारा, कुंती, मंदोदरी तथा।
पंचकन्या: स्मरेतन्नित्यं महापातकनाशम्॥
अर्थात् अहिल्या (ऋषि गौतम की पत्नी), द्रौपदी (पांडवों की पत्नी), तारा (वानरराज बाली की पत्नी), कुंती (पांडु की पत्नी) तथा मंदोदरी (रावण की पत्नी)। इन पांच कन्याओं का प्रतिदिन स्मरण करने से सारे पाप धुल जाते हैं। ये पांच स्त्रियां विवाहिता होने पर भी कन्याओं के समान ही पवित्र मानी गई है।
मंदोदरी... रावण की पत्नी थी। वह स्वर्ग की एक अप्सरा की पुत्री जो अत्याधिक सौंदर्यवान और आकर्षक थी, वह एक ऐसी समर्पित रानी थी जो असुर सम्राट रावण को जनहित समझाने का प्रयास करती थी। सोने की लंका की महारानी मंदोदरी, रामकथा का एक ऐसा पात्र है जिसकी चर्चा के बिना रामकथा पूरी नहीं होती। रावण की मृत्यु के बाद लंका में मंदोदरी का मान सम्मान कम नहीं हुआ, वह लंका की रानी बनी रही। पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बार मधुरा नामक एक अप्सरा भगवान शिव की तपस्या भंग करने के उद्देश्य से कैलाश पर्वत पहुंची। देवी पार्वती जो तब ललिता रूप में अन्यत्र तपस्या रत थीं, को वहां न पाकर वह अपने सम्मोहक नृत्य और गायन से भगवान शिव को आकर्षित करने का प्रयत्न करने लगी। देवी पार्वती को अपनी अंतर्शक्ति से इस बात का ज्ञान हो गया और वे कैलाश पर्वत पर पहुंचीं तो भगवान शिव की तपस्या को भंग करने के प्रयास में लगी मधुरा को देखकर वे अत्यंत क्रोधित हो गईं और क्रोध में आकर उन्होंने मधुरा को मेढक बन कर कुंए में रहने का श्राप दे दिया। तभी भगवान शिव तपस्या समाप्त कर जाग्रत हो गए। उन्हें घटना की जानकारी होने और मधुरा द्वारा अपनी ग़लती स्वीकार कर क्षमायाचना करने पर देवी पार्वती से श्राप वापस लेने का अनुरोध किया। तब पार्वती ने मधुरा से कहा कि कठोर तप के बाद ही वह अपने असल स्वरूप में आ सकती है और वो भी 12 वर्ष बाद। उधर असुरों के शिल्पकार मयासुर और उनकी अप्सरा पत्नी हेमा के दो पुत्र थे, लेकिन वे चाहते थे कि उनकी एक पुत्री भी हो। इसी इच्छा को पूर्ण करने के लिए उन दोनों ने कठोर तपस्या करनी शुरू की, ताकि ईश्वर उनसे प्रसन्न होकर एक पुत्री दे दें। इसी बीच मधुरा की कठोर तपस्या के 12 साल भी पूर्ण होने वाले थे। जैसे ही मधुरा की तपस्या के 12 वर्ष पूर्ण हुए वह अपने असल स्वरूप में आ गई और कुएं से बाहर आने के लिए वह मदद के लिए पुकारने लगी। हेमा और मय वहीं तप में लीन थे। मधुरा की आवाज सुनकर दोनों कुएं के पास गए और उसे बचा लिया। बाद में उन दोनों ने मधुरा को पुत्री के रूप में गोद ले लिया और उसका नाम मंदोदरी रखा। एक बार रावण, मयासुर से मिलने आया और वहां उनकी सुंदर पुत्री को देखकर उस पर मंत्रमुग्ध हो गया। रावण ने मंदोदरी से विवाह करने की इच्छा प्रकट की, जिसे दानव मयासुर ने अस्वीकार कर दिया। लेकिन रावण ने हार नहीं मानी और बलपूर्वक मंदोदरी से विवाह कर लिया। मंदोदरी जानती थी कि रावण, भगवान शिव का भक्त है, इसलिए शिव से बैर की आशंका को ध्यान में रख कर अपने पिता की सुरक्षा के लिए वह रावण के साथ विवाह करने के लिए तैयार हो गई। रावण और मंदोदरी के तीन पुत्र थे - अक्षय कुमार, मेघनाद और अतिकाय।
रावण बहुत अहंकारी था, मंदोदरी जानती थी कि सीताहरण रावण की एक बहुत बड़ी भूल है। जिस मार्ग पर वह चल रहा है, उस मार्ग पर सिवाय विनाश के कुछ हासिल नहीं होगा। उसने बहुत प्रयास किए कि रावण सही मार्ग पर चल पड़े, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मंदोदरी चाहती थी कि रावण, अयोध्या के युवराज राम की पत्नी सीता को उनके पति के पास भेज दे। किन्तु अहंकारी रावण ने मंदोदरी की सलाह नहीं मानी। अंततः राम-रावण युद्ध हुआ, तब एक पतिव्रता स्त्री की तरह मंदोदरी ने अपने पति का साथ दिया और रावण के जीवित लौट आने की कामना के साथ उसे रणभूमि के लिए विदा किया। युद्ध के अंतिम दिन रावण की मृत्यु का समाचार पा कर मंदोदरी भी युद्ध भूमि पर गई और वहां अपने पति, पुत्रों और अन्य संबंधियों का विनाश देखकर अत्यंत दुखी हुई।
रामचरितमानस की इस चौपाई में मंदोदरी की व्यथा का वर्णित है -
पति सिर देखत मंदोदरी। मुरुछित बिकल धरनि खसि परी॥
जुबति बृंद रोवत उठि धाईं। तेहि उठाइ रावन पहिं आईं॥
अर्थात् पति के सिर देखते ही मंदोदरी व्याकुल और मूर्च्छित होकर धरती पर गिर पड़ी। स्त्रियाँ रोती हुई उठ दौड़ीं और मंदोदरी को उठाकर मृत रावण के पास आईं।
युद्ध समापन उपरांत राम के सीता और लक्ष्मण सहित अयोध्यागमन के पूर्व मंदोदरी ने भगवान राम से अपने भविष्य के प्रति मार्गदर्शन देने की प्रार्थना की। भगवान राम ने लंका के सुखद भविष्य हेतु विभीषण को राजपाट सौंप दिया और मंदोदरी को यह सुझाव दिया कि वह विभीषण से विवाह कर ले ताकि विभीषण निश्चिंत हो कर लंका की जनता के लिए कल्याणकारी कार्य कर सके। भगवान राम अपनी पत्नी सीता और भ्राता लक्ष्मण के साथ वापस अयोध्या लौटे तब मंदोदरी ने राम के सुझाव पर मंथन कर उसे स्वीकार करते हुए विभीषण से विवाह कर लिया। विवाह के पश्चात उसने विभीषण के साथ मिल कर लंका के साम्राज्य को सही दिशा की ओर बढ़ाना प्रारंभ किया।
रामकथा में आसुरी शक्तियों में विभीषण सत्य के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है क्योंकि वह रावण से खुला विद्रोह कर राम के पक्ष में आ जाता है। वहीं मंदोदरी भी सत्य के पक्ष में अडिग खड़ी रहती है किन्तु एक पतिव्रता स्त्री की मर्यादा का पालन करते हुए उसके द्वारा खुला विद्रोह नहीं किए जाने के कारण रामकथा में उसकी यह महत्ता विभीषण से पीछे रह जाती है। इसीलिये सत्य का पक्षधर होना ही पर्याप्त नहीं होता। सत्य के पक्ष में खुल कर आवाज़ उठाना भी आवश्यक होता है।
और अंत में प्रस्तुत है मेरी काव्यपंक्ति -
जब ग़लत होता दिखे, तो बोलना भी है ज़रूरी।
बंधनों से मुक्त हो, स्वर खोलना भी है ज़रूरी ।
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सुन्दरकांड के रावण मंदोदरी संवाद और राम रावण युद्ध पर समीक्षात्मक लेख के साथ आपकी अंतिम पंक्तियां अन्तस् छू गई-
ReplyDeleteजब ग़लत होता दिखे, तो बोलना भी है ज़रूरी।
बंधनों से मुक्त हो, स्वर खोलना भी है ज़रूरी ।
बहुत खूब...अत्यंत सुन्दर सृजन ।
आपने मेरा लेख पढ़ा और सराहा....
Deleteबहुत बहुत धन्यवाद प्रिय मीना जी 🙏🍁🙏
मन्दोदरी मं विवेक था वह जानती थी,पति को चेताने में भी पीछे नहीं रही थी ,लेकिन पत्नी होने के नाते विषम काल में रावण का साथ निभाना भी उसका कर्तव्य था.
ReplyDeleteजी हां, प्रतिभा जी यही लिखा है मैंने कि मंदोदरी भी सत्य के पक्ष में अडिग खड़ी रहती है किन्तु एक पतिव्रता स्त्री की मर्यादा का पालन करते हुए उसके द्वारा खुला विद्रोह नहीं किए जाने के कारण रामकथा में उसकी यह महत्ता विभीषण से पीछे रह गई।
Deleteआपके प्रति हार्दिक आभार 🙏
आपका सदैव स्वागत है मेरे इस ब्लॉग पर 🍁🙏🍁
सादर
डॉ. वर्षा सिंह
बहुत उपयोगी और जानकारीपरक आलेख।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय शास्त्री जी 🙏
Deleteबहुत सुंदर एवं पठनीय लेख। सादर।
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद मीना शर्मा जी 🙏
Deleteअत्यंत प्रसन्नता का विषय है कि आपने मेरी इस पोस्ट को चर्चा मंच हेतु चयनित किया।
ReplyDeleteहार्दिक आभार मीना जी 🙏