प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि।
सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि॥
प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि।
सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि॥
बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा
बुज़ुर्गों से व्यवहार और श्रवणकुमार
-डॉ. वर्षा सिंह
अभी बीते सप्ताह 29 - 30 जनवरी 2021 के अनेक प्रमुख समाचार पत्रों में प्रकाशित समाचारों के अनुसार मध्य प्रदेश के इंदौर शहर में नगर निगम का अमानवीय चेहरा सामने आया है। वहां बुजुर्गों को निगम के कर्मचारियों ने जानवरों की तरह ठूंसकर कचरा गाड़ी में भरा और उन्हें शहर से बाहर छोड़ने जा पहुंचे। यह सब स्वच्छता के नाम पर हुआ। इस घटनाक्रम का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होने के बाद मध्यप्रदेश राज्य के नगरीय प्रशासन मंत्री माननीय भूपेंद्र सिंह ने इंदौर में बुजुर्गों के साथ हुई इस घटना पर सख़्त कार्रवाई करते हुए एक अधिकारी और एक कर्मचारी की सेवा समाप्त कर दीं तथा उनके निर्देश से सभी सम्मानीय बुजुर्गो को रैन बसेरा भिजवाया गया। यूं भी इन दिनों देश के अन्य हिस्सों की तरह इंदौर में भी कड़ाके की सर्दी पड़ रही है। बड़ी संख्या में बेसहारा बुजुर्ग सड़क किनारे रात काटने को मजबूर हैं। इन बुजुर्गों को इंदौर नगर निगम के कर्मचरियों ने स्वच्छता के नाम पर निगम के वाहन में ठूंसकर जानवरों की तरह भरा और उन्हें शहर से बाहर पड़ोसी जिला देवास के एक सीमावर्ती गांव में शिप्रा नदी के पार छोड़ने पहुंच गए। जब गांव वालों ने इसका विरोध किया तो निगम कर्मियों ने बुज़ुर्गों को सड़क पर उतारने के बाद फिर वाहन में बैठाया। इनमें से कई बुजुर्ग ऐसे भी थे जो ठीक से चल भी नहीं सकते थे। इस पूरे घटनाक्रम का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होने पर लोगों में नगर निगम की इस अमानवीयता के खिलाफ़ काफी गुस्सा भर उठा। सोशल मीडिया पर लोगों ने नगर निगम कर्मचारियों पर अपना ग़ुस्सा उतारा। लेकिन सोचने की बात यह है कि ऐसी घटनाएं क्यों घट रही हैं? बुज़ुर्गों के प्रति ऐसा रवैया अत्यंत दुखद है।
बहुत दुख होता है ऐसी हृदयविदारक घटनाओं के समाचार पढ़ कर… कहां जा रहा है हमारा समाज और हम… हमारे शास्त्रों में माता-पिता के लिए कहा गया है कि “मातृ देवो: भव:”, पितृ देवो: भव:” अर्थात् मां देवता के समान हैं, पिता देवता के समान हैं।
रामचरितमानस के बालकाण्ड में तुलसीदास कहते हैं -
मातु पिता गुर प्रभु कै बानी।
बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी॥
अर्थात् माता, पिता, गुरु और स्वामी की बात को बिना ही विचारे शुभ समझकर मानना चाहिए।
बालकाण्ड में ही तुलसीदास एक अन्य स्थान पर लिखते हैं -
मानहिं मातु पिता नहिं देवा।
साधुन्ह सन करवावहिं सेवा॥
अर्थात् लोग माता-पिता और देवताओं को नहीं मानते और साधुओं की सेवा करना तो दूर रहा, उल्टे उनसे सेवा करवाते हैं।
जिन्ह के यह आचरन भवानी।
ते जानेहु निसिचर सब प्रानी॥
अर्थात् शिव कहते हैं कि- हे भवानी! जिनके ऐसे आचरण हैं, उन सब प्राणियों को राक्षस ही समझना।
वर्तमान समय में लाइफ स्टाइल में आए परिवर्तन और कथित स्टेटस के दिखावे के चलते समाज में माता-पिता ही नहीं वरन् अन्य बुजुर्गों की भी अहमियत घट रही है। या तो उन्हें वृद्धाश्रम में भेज दिया जाता है, या फिर मरने के लिए सड़कों पर छोड़ दिया जाता है। आधुनिकता की तरफ तेज़ी से क़दम बढ़ाते आज के युवा बुज़ुर्गों के प्रति लापरवाह होते जा रहे हैं। यह समस्या सिर्फ़ भारत की नहीं वरन् पूरे विश्व की है और इसीलिए प्रत्येक वर्ष को 15 जून को 'विश्व बुज़ुर्ग दुर्व्यवहार रोकथाम जागरूकता दिवस' मनाया जाता है। दरअसल अंतर्राष्ट्रीय बुज़ुर्ग दुर्व्यवहार रोकथाम संघ की सलाह पर संयुक्त राष्ट्र ने 2006 में प्रस्ताव 66 /127 के तहत 15 जून को "बुज़ुर्ग दुर्व्यवहार रोकथाम दिवस" मनाना प्रारंभ किया। बुज़ुर्गों के साथ दुर्व्यवहार एक मानवाधिकार का मुद्दा है। 2017 में 'हेल्पेज इंडिया' के मुख्य कार्यकारी अधिकारी' मैथ्यू चेरियन' का कहना है कि- 'आंकड़ों ने मुझे चौंका दिया बुज़ुर्गों के साथ दुर्व्यवहार एक संवेदनशील मुद्दा है।"
हमारी भारतीय संस्कृति में हमारे जन्मदाता का स्थान सर्वोच्च माना गया है। महाभारत महाकाव्य के रचियता महर्षि वेदव्यास ने माता के प्रति लिखा है कि –
नास्ति मातृसमा छाया,
नास्ति मातृसमा गतिः।
नास्ति मातृसमं त्राण,
नास्ति मातृसमा प्रिया।।
अर्थात् माता के समान कोई छाया नहीं है, माता के समान कोई सहारा नहीं है। माता के समान कोई रक्षक नहीं है और माता के समान कोई प्रिय नहीं है।
इसी प्रकार पिता की महिमा अनेक प्राचीन ग्रंथों में मिलती है। महान विचारक चाणक्य के अनुसार पांच प्रकार के पिता बताए गए हैं-
जनिता चोपनेता च यस्तु विद्यां प्रयच्छति।
अन्नदाता भयत्राता पञ्चैचे पितर: स्मृता:।।
अर्थात् जन्म देने वाला, शिक्षा देने वाला, यज्ञोपवीत आदि संस्कार करने वाला, अन्न देने वाला और भय से बचाने वाला ये सभी पिता ही हैं।
माता-पिता की सेवा की चर्चा होते ही श्रवण कुमार का स्मरण किया जाना स्वाभाविक है।
श्रवण कुमार रामकथा में उल्लेखित एक ऐसा पात्र है, जो अपने माता पिता से अतुलनीय प्रेम के लिए जाना जाता है।
त्रेतायुग के मातृ-पितृ भक्त श्रवण कुमार की कथा रामायण के अयोध्याकाण्ड में कुछ इस प्रकार है - श्रवण कुमार के माता-पिता अंधे थे। श्रवणकुमार अत्यंत श्रद्धाभावना से उनकी सेवा करते थे। एक बार उनके माता-पिता की इच्छा तीर्थयात्रा करने की हुई। चूंकि माता-पिता दृष्टिहीन थे अतः श्रवण कुमार ने एक कांवर बनाया और उस कांवर में दोनों को बैठाकर कांवर को कंधे पर उठा कर यात्रा करने निकल पड़े। यात्रा के दौरान एक दिन वे अयोध्या के समीप वन में पहुंचे। रात्रि का समय था। माता-पिता को प्यास लगी। उन्होंने श्रवण कुमार से पानी मांगा। पानी ख़त्म हो चुका था। पास ही सरयू नदी बह रही थी। अतः श्रवण कुमार पानी लाने के लिए अपना तुंबा लेकर सरयू तट पर गए।
अयोध्या के राजा दशरथ दुर्योगवश उस स्थान पर आखेट के लिए आए हुए थे। दिन भर उन्हें कोई पशु नहीं मिला था। वे रात्रि के उस पहर में सरयू के समीप आखेट हेतु किसी पशु की तलाश में पहुंच गए थे। श्रवण कुमार ने जब पानी में अपना तुंबा डुबोया तो वहां आखेट के लिए घात लगाकर चौंकन्ने बैठे राजा दशरथ ने समझा कि कोई हिरन जल पी रहा है। उन्होंने तत्काल शब्दभेदी बाण छोड़ दिया। बाण श्रवण कुमार को लगा। बाण लगते ही श्रवण कुमार की हृदयविदारक चींख सुन कर दशरथ को अपनी भूल का अहसास हुआ। वे दौड़ कर श्रवण कुमार के पास पहुंचे और दुखी हो कर नसे क्षमा मांगने लगे। दशरथ को दुखी देख कर अपनी अंतिम सांसें गिनते हुए श्रवण कुमार ने दशरथ से कहा - हे राजन, मुझे अपनी मृत्यु का दु:ख नहीं है, किंतु मेरे माता-पिता के लिए मैं बहुत दु:खी हूं। वे अंधे हैं और इस समय प्यास से व्याकुल हैं। आप उन्हें जाकर मेरी मृत्यु का समाचार सुना दें और जल पिलाकर उनकी प्यास शांत करें। यह कह कर श्रवण कुमार मृत्योपरान्त दिव्य रूप धारण कर विमान में बैठ स्वर्ग को चले गए।
दुखी मन से दशरथ ने पुत्र श्रवण कुमार की मृत्यु का समाचार सुनाते हुए पूरी घटना श्रवण कुमार के माता-पिता को सुनाई और अपना अपराध स्वीकर कर लिया। तब श्रवण कुमार के शोकाकुल माता-पिता ने राजा दशरथ को यह शाप दिया कि - अरे निष्ठुर दशरथ ! यह हमारा शाप है कि तू भी हमारी ही तरह अपने प्राणप्रिय पुत्र के वियोग में तड़प-तड़प कर अपने प्राण त्याग करेगा। उन्होंने यह भी कहा कि वे अपना अपराध स्वीकार करने के कारण ही अभी तक जीवित हैं अन्यथा संपूर्ण कुल समेत कभी के नष्ट हो चुके होते। तदुपरांत उन दोनों ने एक चिता में प्रवेश कर प्राण त्याग दिये।
रामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड में तुलसीदास ने इस कथा का पूर्ण उल्लेख नहीं करते हुए राम के वनगमन उपरांत पुत्रवियोग सहते दशरथ द्वारा कौशल्या को श्रवण कुमार के माता-पिता द्वारा दिए गए शाप के बारे में बताए जाने के संदर्भमात्र का उल्लेख किया है -
धरि धीरजु उठि बैठ भुआलू।
कहु सुमंत्र कहँ राम कृपालू॥
कहाँ लखनु कहँ रामु सनेही।
कहँ प्रिय पुत्रबधू बैदेही॥
अर्थात् धीरज धरकर राजा दशरथ उठ बैठे और बोले- सुमंत्र! कहो, कृपालु राम कहाँ हैं? लक्ष्मण कहाँ हैं? स्नेही राम कहाँ हैं? और मेरी प्यारी बहू जानकी कहाँ है?
बिलपत राउ बिकल बहु भाँती।
भइ जुग सरिस सिराति न राती॥
तापस अंध साप सुधि आई।
कौसल्यहि सब कथा सुनाई॥
अर्थात् राजा व्याकुल होकर बहुत प्रकार से विलाप कर रहे हैं। वह रात युग के समान बड़ी हो गई, बीतती ही नहीं। राजा को अंधे तपस्वी श्रवणकुमार के पिता के शाप की याद आ गई। उन्होंने सब कथा कौसल्या को कह सुनाई।
भयउ बिकल बरनत इतिहासा।
राम रहित धिग जीवन आसा॥
सो तनु राखि करब मैं काहा।
जेहिं न प्रेम पनु मोर निबाहा॥
अर्थात् उस इतिहास का वर्णन करते-करते राजा व्याकुल हो गए और कहने लगे कि राम के बिना जीने की आशा को धिक्कार है। मैं उस शरीर को रखकर क्या करूँगा, जिसने मेरा प्रेम का प्रण नहीं निबाहा?
हा रघुनंदन प्रान पिरीते।
तुम्ह बिनु जिअत बहुत दिन बीते॥
हा जानकी लखन हा रघुबर।
हा पितु हित चित चातक जलधर॥
अर्थात् हा रघुकुल को आनंद देने वाले मेरे प्राण प्यारे राम! तुम्हारे बिना जीते हुए मुझे बहुत दिन बीत गए। हा जानकी, लक्ष्मण! हा रघुवीर! हा पिता के चित्त रूपी चातक के हित करने वाले मेघ!
राम राम कहि राम कहि राम राम कहि राम।
तनु परिहरि रघुबर बिरहँ राउ गयउ सुरधाम॥
अर्थात् राम-राम कहकर, फिर राम कहकर, फिर राम-राम कहकर और फिर राम कहकर राजा-राम के विरह में शरीर त्याग कर सुरलोक को सिधार गए।
जिअन मरन फलु दसरथ पावा।
अंड अनेक अमल जसु छावा॥
जिअत राम बिधु बदनु निहारा।
राम बिरह करि मरनु सँवारा॥
अर्थात् जीने और मरने का फल तो दशरथ ने ही पाया, जिनका निर्मल यश अनेक ब्रह्मांडों में छा गया। जीते जी तो राम के चन्द्रमा के समान मुख को देखा और राम के विरह को निमित्त बनाकर अपना मरण सुधार लिया।
वृद्धजन के आशीर्वाद से हम फूलते-फलते हैं, तरक्की करते हैं, जबकि उनके हृदय को ठेस पहुंचाने, उनकी उपेक्षा करने से हमें भी मानसिक सुखों से वंचित होना पड़ता है। बुज़ुर्गों को वृद्धाश्रम में भेजने या सड़कों पर मरने के लिए छोड़ देने के बजाए अपने साथ रखने की पहल करनी चाहिए। जो अकेले, असहाय हैं ऐसे माता-पिता तुल्य सभी वृद्धजनों, बुज़ुर्गों को सम्मान देना, उनकी सेवा करना भारतीय संस्कृति का अंग है किन्तु यह सब भूल कर माता-पिता सहित वृद्धजनों, बुज़ुर्गों से अमानवीय व्यवहार करना हमें शोभा नहीं देता। असंवेदनशील हो कर पहले उन्हें सड़कों पर रहने के लिए मज़बूर करना फिर उनसे पशुवत व्यवहार करना अत्यंत दुखद है। ऐसे कृत्यों की निंदा किए जाने, उन पर कठोर कार्यवाही किए जाने के साथ ही ऐसे असंवेदनशील व्यक्तियों का समाज से बहिष्कार किया जाना चाहिए, ताकि अन्य व्यक्ति इससे सबक ले सकें।
और अंत में प्रस्तुत हैं यहां मेरे कुछ दोहे -
वृद्धों की सेवा करें, वृद्धों का सम्मान ।
उनके आशीर्वाद से, मिलता हमको मान ।।
सहज न कलियुग में मिलें, ऐसे श्रवणकुमार ।
मातु-पिता हित हेतु जो, त्यागें सुख-संसार ।।
अपने हों या ग़ैर हों, करिए सदा प्रणाम ।
मातु-पिता-चरणों तले, "वर्षा" चारों धाम ।।
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