Wednesday, October 14, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 20 | हर बार अहिल्या ही क्यों | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय ब्लॉग पाठकों, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज पढ़िए "हर बार अहिल्या ही क्यों" और अपने विचारों से अवगत कराएं ...और शेयर करें 🙏
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 14.10.2020

मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं-
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बुधवासरीय स्तम्भ : विचार वर्षा   

       हर बार अहिल्या ही क्यों ...
                      - डॉ. वर्षा सिंह

  आज सुबह अख़बार खोलते ही यह ख़बर पढ़ने को मिली कि अपनी प्रेमिका से धोखा करके एक युवक एक दूसरी लड़की से शादी करने जा रहा था। प्रेमिका ने विवाह स्थल पर पहुंचकर बहुत बड़ा हंगामा किया, जिसके कारण लड़के की असलियत सामने आई और उसकी पोल खुल गई। लड़के के समाज वालों ने उस लड़के की शादी उसकी उस प्रेमिका से करवा देने की बात कही ताकि उसे न्याय मिल सके। इस ख़बर में सबसे बड़ी बात यह थी कि लड़के के समाज वालों ने लड़के की प्रेमिका अर्थात् अन्य समाज की एक ऐसी लड़की का साथ दिया जो लड़के के द्वारा छली गई थी। इसके साथ ही यह भी विचार मन में कौंध गया कि क्या वह लड़की छल करने वाले उस लड़के के साथ सुखी रह सकेगी। प्रश्न बड़ा पेचीदा है। स्त्रियों के साथ छल-कपट की घटनाएं हर समाज, हर देश, हर युग में होती रही हैं । मुझे याद आता है महान रशियन लेखक लेव टॉलस्टॉय का कालजयी उपन्यास 'पुनरुत्थान' - जिसमें एक युवा ज़मींदार अपनी एक नौकरानी पर आसक्त हो जाता है और उससे शारीरिक संबंध बना लेता है। जब उसी नौकरानी पर बदचलनी का आरोप लगाया जाता है और उस पर मुकद्दमा चलाया जाता है तो वह युवा ज़मींदार अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा गंवाने के डर से सच्चाई नहीं बताता है। परिणामतः उस नौकरानी को जूरी दोषी ठहरा कर साईबेरिया के कारावास की सज़ा सुना देती है। विडंबना यह कि वह युवा जमींदार स्वयं जूरी का सदस्य था। जब नौकरानी को अन्य क़ैदियों के साथ साईबेरिया रवाना किया जाता है तब उस युवा जमींदार को अहसास होता है कि उससे बहुत बड़ी ग़लती हो गई है और वह पश्चाताप करता हुआ नौकरानी के साथ-साथ साईबेरिया तक जाता है। लेकिन इससे सबकुछ पहले जैसा नहीं हो सकता था। कवि रहीम ने बड़े पते की बात कही है-
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय ।
टूटे से फिर ना जुड़े,  जुड़े गांठ पड़ जाए ।।

स्त्री के साथ किए गए छल की अनेक कथाएं हमारे पौराणिक ग्रंथों में मौज़ूद हैं। यहां तक कि रामकथा में स्त्री के साथ छल की घटनाएं हैं। रावण द्वारा सीता से छल की कथा तो सभी जानते हैं लेकिन एक कथा और है, इससे भी अधिक त्रासद। अहिल्या की कथा। गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या, जिसे किसी पुरुष नहीं बल्कि देवताओं के राजा इंद्र द्वारा छला गया और फिर पति द्वारा दिए गए श्राप के कारण उसे पाषाण बन कर वर्षों ही नहीं वरन् युगों तक अनेक लोगों के पदाघात सहन करने पड़े।

   सती अहिल्या की कथा का वर्णन वाल्मीकि रामायण, रामचरितमानस के बालकांड सहित अनेक पौराणिक ग्रंथों में मिलता है। अहिल्या न्यायसूत्र के रचयिता महर्षि गौतम की पत्नी थीं। ज्ञान में अनुपम अहिल्या स्वर्गिक रूप-गुणों से पूर्णतया संपन्न थीं। अहिल्या की सुंदरता के कारण सभी ऋषि-मुनि, देव और असुर उन पर मोहित थे। अपने अतुलनीय सौंदर्य और सरलता के कारण वे अपने पति की प्रिय थीं। इसके साथ ही वे अपने पति के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित थीं, इसीलिए वे सती अहिल्या कहलाती थीं । दोनों ही पति-पत्नी धर्म का पालन करते हुए आपसी सौहार्दपूर्ण वातावरण मेन प्रेमरस से परिपूर्ण दांपत्य का निर्वहन कर रहे थे। तभी एक दिन अचानक अहिल्या पर देवराज इंद्र की दृष्टि पड़ गई। वह अहिल्या के सौंदर्य पर आसक्त होकर उनका प्रेम पाने के लिए लालायित हो उठा। इंद्र को महर्षि गौतम की दैवीय शक्तियों और सामर्थ्य का ज्ञान था, इसके साथ ही वह अहिल्या के पतिनिष्ठ होने के सत्य से भी परिचित था। इंद्र के पास इन शक्तियों से पार पाने का सामर्थ्य नहीं था, पर वह अहिल्या को प्राप्त करने के लिए आतुर भी था। छल-कपट के आचरण से परिपूर्ण चतुर इंद्र स्वयं को संयमित कर सही अवसर की प्रतीक्षा करने लगा।
     समय अपनी गति से चलता रहा और एक दिन महर्षि गौतम ने अहिल्या से कहा कि उन्हें एक विशेष सिद्धि की प्राप्ति के लिए कम से कम छः माह तक वन के एकांतवास में तपस्या करने जाना है। अहिल्या ने उन्हें सहमति देते हुए उनकी प्रतीक्षा करने की बात कह विदा कर दिया। इंद्र तो ऐसे ही एक अवसर की प्रतीक्षा जाने कब से कर रहा था। ऋषि के जाते ही वह महर्षि गौतम का वेश धारण कर अहिल्या के पास पहुंच गया। पति को वापस देख जब अहिल्या चौंकीं तो उसने प्रेम जताते हुए कहा कि उनके सौंदर्यपाश ने वन में जाना असंभव बना दिया इसीलिए तपस्या का विचार छोड़ वापस आ गया।
     नियति का फेर कि पति के वेश में इन्द्र को अहिल्या पहचान नहीं पाईं। उसकी बात सुनकर अहिल्या ने समझा कि प्रेमवश सचमुच उनके पतिदेव ऋषि गौतम फ़िलहाल सिद्धि प्राप्ति हेतु वन में एकांतवास का विचार त्याग कर वापस आश्रम लौट आए हैं और उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक गौतम ऋषि का वेश धरे इंद्र का स्वागत किया। वे दोनों पहले से भी अधिक प्रेम से जीवन का आनंद लेने लगे। देखते ही देखते छः माह का समय व्यतीत हो गया और एक दिन अहिल्या ने प्रातः काल अपने आंगन में अपने पति की चिर-परिचित पुकार सुनी, जबकि ऋषि का रूप धरे इंद्र तब तक सो ही रहा था। एक पल में ही अहिल्या को अनर्थ का ज्ञान हो गया। महर्षि गौतम को सामने पाकर अहिल्या स्तब्ध रह गईं। तब तक इंद्र को भी ऋषि के आने का भान हो गया था तो बिना देरी किए वह वहां से भाग निकला। अहिल्या से सारा वृतांत जान ऋषि क्रोध से भर उठे और तुरंत ही उन्होंने श्राप दे दिया कि - 'जिस स्त्री को अपने पति के स्पर्श का भान न हुआ, वह जीवित नहीं हो सकती। अरी पतित नारी अहिल्या, तूने अपने पति अर्थात् मुझसे तन और मन से पत्थर की तरह कठोर व्यवहार किया है, तो जा मैं तुझे श्राप देता हूं कि तू भी पत्थर की हो जा।' महर्षि गौतम जैसे ज्ञानीपुरुष ने एक पल यह भी नहीं सोचा कि जब एक देवता छल करेगा तो मनुष्य कैसे बच सकेगा? अहिल्या एक मनुष्य ही तो थीं । मुद्दा ये है कि एक स्त्री होने के नाते दण्डित तो उसी को होना ही था। 
     अपने ऋषि पति के श्राप और इस पूरे घटनाक्रम का उत्तरदायी स्वयं को मानते हुए निराश अहिल्या ने अपने पति को रोते हुए समझाया कि आप इतनी दिव्य शक्तियों से संपन्न हैं। आप मुझे अकेला छोड़कर गए और बीते छः माह में आपको एक बार भी आभास न हुआ कि मेरे साथ कोई छल कर रहा है, तो मैं तो एक साधारण स्त्री हूं। मैंने अनजाने में अपराध किया है। भले ही मैं पराए पुरूष के साथ रही हूं, पर मेरा मन पवित्र है क्योंकि उस पुरूष को मैंने आप यानि अपना पति जानकर ही अपनाया था। तन और मन दोनों से ही मैं अपने पति के ही साथ थी।
      कमान से तीर निकलने के बाद लाख चाहने पर भी उसकी दिशा नहीं बदली जा सकती है। अहिल्या की बात सुनकर ऋषि उनसे सहमत हुए और कहा कि अब तो श्राप दिया जा चुका है, उसे वापस नहीं लिया जा सकता, किंतु तुम शिला बनकर यहां निवास करोगी। त्रेतायुग में जब भगवान विष्णु राम के रूप में अवतार लेंगे, तब उनके चरण रज से तुम्हारा उद्धार होगा।  उनके स्पर्श से ही तुम्हारा पाप धुलेगा और तुम वापस अपने स्त्री रूप को प्राप्त करोगी। ऋषि के श्राप को धारण करते हुए अहिल्या पत्थर की शिला बन गईं और घोर प्रतीक्षा के बाद श्रीराम के पावन चरणों के स्पर्श से पुनः स्त्री रूप में प्रकट हुईं।
 हुआ यह कि सतयुग की समाप्ति के बाद त्रेतायुग में भगवान विष्णु ने अयोध्या नरेश दशरथ के पुत्र राम के रूप में जन्म लिया और उनके लघुभ्राता लक्ष्मण के रूप में शेषनाग ने।
    किशोरावस्था में राम व लक्ष्मण की धनुर्विद्या की ख्याति सुनकर ऋषि विश्वामित्र ने राजा दशरथ से अपने आश्रम में ले जाने की अनुमति मांगी।  विश्वामित्र ने राजा दशरथ को बताया कि उनके वनाश्रम राक्षसगण उन्हें पूजा, हवन नहीं करने देते हैं। वे अनेक प्रकार से हवन-होम में बाधा पहुंचाते हैं। ऋषि मुनियों को तंग करते हैं। राक्षसों, असुरों से हमें राम और लक्ष्मण ही बचा सकते हैं। तब दशरथ ने कहा कि मेरे राम लखन अभी बालक हैं। वे ताकतवर असुरों से कैसे युद्ध कर पाएंगे। किन्तु विश्वामित्र ने राम लक्ष्मण को लेकर जाने हेतु राजा दशरथ को समझा लिया। राजा दशरथ ने राम और लक्ष्मण दोनों भाईयों को ऋषि मुनियों की रक्षा के लिए विश्वामित्र के साथ वन में भेज दिया। जहां उन्होंने ताड़का, सुबाहु जैसे यज्ञ विध्वंसकारी राक्षस-राक्षसियों का वध कर ऋषि - मुनियों को भयमुक्त किया।
       तत्पश्चात् विश्वामित्र के आश्रम में राम और लक्ष्मण अपने नित्यकर्मों और सन्ध्योवन्दनादि से निवृत हो कर प्रणाम करने के उद्देश्य से गुरु विश्वामित्र के पास पहुँचे। वहाँ उपस्थित आश्रमवासी तपस्वियों से राम और लक्ष्मण को ज्ञात हुआ कि मिथिला में राजा जनक ने धनुष यज्ञ का आयोजन किया है। उस धनुष यज्ञ में देश-देशान्तर के राजा लोग भाग लेने के लिये आ रहे हैं। तदोपरांत विश्वामित्र की आज्ञा से प्रातःकाल राम और लक्ष्मण ऋषि विश्वामित्र के साथ मिथिलापुरी के वन उपवन आदि देखने के लिये निकले। एक उपवन में उन्होंने एक निर्जन स्थान देखा। राम बोले, "गुरुदेव! यह स्थान देखने में तो आश्रम जैसा दिखाई देता है किन्तु क्या कारण है कि यहाँ कोई ऋषि या मुनि दृष्टिगोचर नहीं हो रहे हैं?"
इस पर विश्वामित्र ने कहा, "सतयुग में यह स्थान कभी ऋषि गौतम का आश्रम था। वे अपनी पत्नी अहिल्या के साथ यहां रह कर तपस्या करते थे। एक दिन गौतम ऋषि की अनुपस्थिति में इन्द्र ने गौतम के वेश में आकर अहिल्या से छलपूर्वक संबंध बनाए। अपने आश्रम को वापस आते हुये गौतम ऋषि की दृष्टि इन्द्र पर पड़ी। उस समय इन्द्र उन्हीं का वेश धारण किये हुये था। तत्काल वे सब कुछ समझ गये और उन्होंने इन्द्र को श्राप दे दिया। इसके बाद उन्होंने अपनी पत्नी को श्राप दिया कि तूने अपने पति से छल किया है अतः  हजारों वर्ष तक केवल हवा पीकर कष्ट उठाती हुई यहां शिला बन कर पड़ी रह। जब मर्यादापुरुषोत्तम राम इस वन में प्रवेश करेंगे तभी उनकी कृपा से तेरा उद्धार होगा। तभी तू अपना पूर्व शरीर धारण करके मेरे पास आ सकेगी।' यह कह कर गौतम ऋषि इस आश्रम को छोड़कर हिमालय पर जाकर तपस्या करने चले गये। अतः हे राम! अब तुम आश्रम के अन्दर जाकर अहिल्या का उद्धार करो।"
     विश्वामित्र की आज्ञा पाकर वे दोनों भाई आश्रम के भीतर प्रविष्ट हुये। वहां तपस्यारत अहिल्या कहीं दिखाई नहीं दे रही थी, केवल उसका तेज सम्पूर्ण वातावरण में व्याप्त हो रहा था। तभी शिला के रूप में वहां स्थित अहिल्या पर राम के चरण पड़ गए। राम के पवित्र चरणों का स्पर्श पाते ही अहिल्या एक बार फिर सुन्दर नारी के रूप में परिवर्तित हो गई। नारी रूप में अहिल्या ने सम्मुख पाकर राम और लक्ष्मण के श्रद्धापूर्वक चरणस्पर्श किये। अहिल्या को श्राप से मुक्ति मिल गई। तत्पश्चात् राम और लक्ष्मण मुनिराज विश्वामित्र के साथ पुनः मिथिलापुरी को लौट गए।
   रामचरितमानस के अनुसार अहिल्या का उद्धार राम की चरणधूलि प्राप्त करने से हुआ। बालकाण्ड में वर्णित है कि - 
आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं।।
पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा बिसेषी।।
  अर्थात् मार्ग में एक आश्रम दिखाई पड़ा। वहाँ पशु-पक्षी, कोई भी जीव-जन्तु नहीं था। पत्थर की एक शिला को देखकर प्रभु ने पूछा, तब मुनि ने विस्तारपूर्वक सब कथा कही।
गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।
चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर॥
अर्थात् गौतम मुनि की पत्नी अहिल्या ने श्रापवश पत्थर की देह धारण किया है जो आपके चरणकमलों की धूलि चाहती है। हे रघुवीर! इस पर कृपा कीजिये।
परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तपपुंज सही।
देखत रघुनायक जन सुख दायक सनमुख होइ कर जोरि रही।।
   अर्थात् श्रीराम के पवित्र और शोक को नाश करनेवाले चरणों का स्पर्श पाते ही सचमुच वह तपोमूर्ति अहिल्या प्रकट हो गई। भक्‍तों को सुख देने वाले रघुनायक को देख कर वह हाथ जोड़कर सामने खड़ी हो गई।
     इस प्रकार राम के चरणों का स्पर्श पा कर देवराज इंद्र से छली गई उस परित्यक्ता पाषाण के रूप में शापित सती नारी अहिल्या को श्राप से मुक्ति मिल गई और उन्हें पवित्र मानते हुए पंचकन्याओं में स्थान दिया गया। लेकिन क्या गौतम ऋषि और अहिल्या के संबंध पूर्ववत नैसर्गिक रह पाए?
     छल करने वाला दण्ड का भागी होता है मगर जब बात आती है पुरुषप्रधान समाज की तो दण्ड की भागी बनती है छली जाने वाली स्त्री। हर बार अहिल्या को ही पाषाण बनना पड़ता है। आज इस इक्कीसवीं सदी में भी। निर्दयी मां, घर से भागी हुई लड़की, आवारा, बदचलन और न जाने क्या-क्या। इसीलिए अब समय है पूरी गंभीरता से विचार करने का सामाजिक संतुलन वाली सामाजिक न्याय दृष्टि के बारे में।

और अंत में मेरी यह काव्य पंक्ति -

सहती रही है नारी अपमान की व्यथा।
हर दौर में मिलेगी छल-छद्म की कथा।

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6 comments:

  1. Replies
    1. आदरणीय शास्त्री जी, आपके प्रति हार्दिक आभार 🙏

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  2. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 16-10-2020) को "न मैं चुप हूँ न गाता हूँ" (चर्चा अंक-3856) पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित है.

    "मीना भारद्वाज"

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    1. हार्दिक आभार प्रिय मीना भारद्वाज जी 🙏

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  3. सटीक प्रस्तुति

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    1. बहुत धन्यवाद ओंकार जी 🙏

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