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दिनांक 21.10.2020
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बुधवारीय स्तम्भ: विचार वर्षा
स्त्री वस्तु नहीं
- डॉ. वर्षा सिंह
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।।
अर्थात् जहां स्त्रियों की पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं और जहां स्त्रियों की पूजा नही होती है, उनका सम्मान नही होता है वहां किये गये समस्त अच्छे कर्म निष्फल हो जाते हैं।
यही भारतीय संस्कृति का मूल मंत्र है। स्त्री का सम्मान समाज की सभ्यता को प्रतिबिम्बित करता है। ऐसी अनेक कथाएं, उपकथाएं एवं आख्यान हमारे पौराणिक ग्रंथों एवं महाकाव्यों में मिलते हैं जब स्त्री चाहे वह राक्षसी ही क्यों न हो यदि अपराध के लिए भी दण्डित की गई हो तब भी दण्ड देने वाले का यह कृत्य बौद्धिक जगत में विवाद का विषय रहा है। जैसे रामकथा का ही एक प्रसंग लिया जाए, राम के वनगमन का। बात उस समय की है जब दण्डक वन में राम, लक्ष्मण और सीता पर्णकुटी बना कर ठहरे हुए थे। राक्षसराज रावण की बहन शूर्पणखा उस वन में विचरण के लिए निकली। राम-लक्ष्मण का सौंदर्य और पौरुष देख वह उन दोनों पर मोहित हो गई। पहले उसने राम से प्रणय निवेदन किया। राम ने उसका प्रणय निवेदन अस्वीकार कर दिया क्योंकि वे विवाहित थे और एकपत्नी व्रती थे। तत्पश्चात वह लक्ष्मण के पास गई। लेकिन वहां भी निराशा ही हाथ लगी। तब शूर्पणखा सीता को अपने मार्ग में बाधा समझकर बोली -
अद्येमां भक्षयिष्यामि पश्यतस्तव मानुषीम् !
त्वया सह चरिष्यामि निःसपत्ना यथासुखम् !!(वाल्मीकिरामायण, अरण्यकाण्ड 18/16)
अर्थात् आज तुम्हारे देखते ही मैं इस मानुषी सीता को खा जाऊंगी और इस सौत के न रहने पर तुम्हारे साथ सुख पूर्वक विचरण करूंगी। यह सुन कर लक्ष्मण ने क्रोधित हो उसके नाक कान काट दिए।
कुछ विद्वान शूर्पणखा के नाक-कान काटे जाने को अनुचित मानते हैं। अनेक स्त्रीवादी लक्ष्मण के इस कृत्य को अविवेकी कृत्य ठहराते हुए इसे स्त्री पर अत्याचार मानते हैं। ऐसे सभी लोगों के तर्को का सारांश यही है कि लक्ष्मण से प्रणय निवेदन उस समय की एक सामान्य घटना थी जिसमें कुछ भी अनैतिक नहीं था। वे तर्क देते हैं कि पौराणिक कथाओं के अनुसार उस काल में यद्यपि विवाह का प्रस्ताव रखने के लिए सामान्यतः पुरुष की ओर से पहल की जाती थी परन्तु स्त्रियों को भी विवाह प्रस्ताव रखने का पूरा अधिकार था। तत्कालीन सामाजिक व्यवस्थाओं के अनुसार स्त्री की ओर से विवाह प्रस्ताव आने से कोई क्षत्रिय उसे मना नहीं कर सकता था। बहुविवाह भी प्रचलन में था। महाराज दशरथ की स्वयं तीन रानियां थीं। तर्क यह भी दिया जाता है कि श्रीराम के एकपत्नी व्रत के कारण वे शूर्पणखा से विवाह नहीं कर सकते थे और लक्ष्मण भी नहीं करना चाहते थे तो इसके लिए उन्हें यह अधिकार कैसे मिल गया कि उसकी नाक-काट कर उसे किसी अन्य के योग्य ही न छोड़ा जाए?
लक्ष्मण द्वारा शूर्पणखा के नाक-कान काटे जाने को उचित मानने वाले तर्क देते हैं कि मातृतुल्य भाभी सीता की रक्षा करने के लिए लक्ष्मण ने शूर्पणखा के नाक-कान काटे। राक्षसी प्रवृत्ति की स्त्री के लिए यही दण्ड उचित था। वह जीवित रहे और अपने कृत्य पर अजीवन पछताती रहे।
खैर, शूर्पणखा को इस प्रकार दण्डित किया जाना उचित था अथवा नहीं, यह एक लम्बी बहस का विषय है लेकिन इस कृत्य के कारण शेषनाग के अवतार लक्ष्मण को युगों बाद भी बहस का विषय बनना पड़ा है। क्योंकि इसमें स्त्री की भावना, उसके सम्मान एवं उसके अधिकारों की बात थी। शूर्पणखा जिस राक्षसी कुल की थी उसमें इच्छित व्यक्ति को प्राप्त करने के लिए साम, दाम, दण्ड, भेद आदि सब कुछ जायज़ था। लेकिन वर्तमान परिदृश्य बहुत विचित्र है। आज राजनीति में स्वयं स्त्रियां है लेकिन स्त्रियों के प्रति सम्मान की भावना तेजी से कम होती जा रही है। आज देश के विपक्षी दल के आयु और अनुभव में एक बड़े नेता विरोधी दल की महिला को ‘‘आईटम’’ कहते हैं, वह भी चुनावी सभा के भरे मंच से, सैंकड़ों लोगों की भीड़ के सामने। आज सामने प्रत्यक्ष भीड़ न भी हो तो सोशल मीडिया, टीवी चैनल्स के रूप में अप्रत्यक्ष भीड़ की कमी नहीं है। एक दिन एक वरिष्ठ नेता एक महिलानेत्री को ‘‘आईटम’’ कहता है तो ठीक इसके तीसरे दिन सत्ताधारी दल के एक मंत्री अपने विरोधी की पत्नी को ‘‘ रखैल’’ कह देते हैं। पक्ष और विपक्ष का आरोप-प्रत्यारोप। दुर्भाग्य से दोनों के केन्द्र में दांव पर लगा स्त्री का सम्मान।
‘‘अर्थववेद’’ में भी एक श्लोक है जिसमें स्त्रीअधिकारों एवं स्त्री स्वतंत्रता की बात कही गई है-
नास्य जाया शतवाही कल्याणी तल्पमा शये ।यस्मिन राष्ट्रे निरुध्यते ब्रह्मजायाचित्त्या ।।
अर्थात् जिस राष्ट्र में इस ब्रह्मजाया (नारी) को जड़ता पूर्वक प्रतिबन्ध में डाला जाता है। उस राष्ट्र में सैकड़ों कल्याण को धारण करने वाली ‘जाया’ (विद्या) भी फलित होने से वंचित रह जाती है।
पुराणों में ऐसी कई कथाएं हैं जिनमें स्त्री के साथ छल, कपट अथवा स्त्री को अपमानित किए जाने पर दोषी व्यक्ति को दण्ड मिला, फिर वह चाहे स्वयं देवता ही क्यों न हों। पुराणों में वर्णित एक ऐसी ही कथा है चंद्रमा यानी चंद्रदेव की। कहते हैं, वे देवताओं के गुरु बृहस्पति की पत्नी तारा पर मोहित हो गए थे। चन्द्रमा ने छल किया और तारा संग भोग-विलास में लिप्त रहे थे। जब इस पूरे घटनाक्रम का ज्ञान देवगुरु बृहस्पति को हुआ, तो उन्होंने चंद्रदेव को श्राप दे दिया।
एक अन्य कथा है श्रीहरि और वृंदा की। पुराणों के अनुसार, जालंधर नामक दानव के कारण देवताओं पर संकट आ गया। जालंधर की पत्नी का नाम था वृंदा। वृंदा महान पतिपरायण महिला थी। पुराणों के अनुसार, वृंदा के सतीत्व के कारण जालंधर को पराजित करना असंभव था। तब जगतपालक श्रीहरि ने जालंधर की मृत्यु के लिए स्वयं जालंधर का रूप रखा और वृंदा के पास पहुंच गए। देवता के छल को वृंदा भला कैसे समझ पाती अतः उसका सतीत्व भंग हो गया। तब जाकर भगवान शिव जालंधर दानव का वध करने में सफल हो पाए। लेकिन वृंदा ने श्रीहरि को श्राप दिया कि वे काले पत्थर में परिणत हो जाएं। और श्रीहरि को शालिकग्राम के रूप में नारी के इस अपमान की सज़ा भुगतनी पड़ी।
यजुर्वेद (5/10, शतायु) में स्त्रीशक्ति का आह्वान करते हुए लिखा गया है कि-‘‘हे नारी! तू स्वयं को पहचान। तू शेरनी हैं, तू शत्रु रूप मृगों का मर्दन करने वाली हैं, देवजनों के हितार्थ अपने अन्दर सामर्थ्य उत्पन्न कर। हे नारी! तू अविद्या आदि दोषों पर शेरनी की तरह टूटने वाली हैं, तू दिव्य गुणों के प्रचारार्थ स्वयं को शुद्ध कर। हे नारी! तू दुष्कर्म एवं दुर्व्यसनों को शेरनी के समान विश्वंस्त करने वाली हैं, धार्मिक जनों के हितार्थ स्वयं को दिव्य गुणों से अलंकृत कर।’’
पूजनीया महाभागाः पुण्याश्र्च गृहदीप्तयरूः।
स्रियः श्रियो गृहस्योक्तास्तमाद्रक्ष्या विशेषतः।।
विदुर नीति कहती है कि स्त्री को लक्ष्मी का स्वरूप माना गया है। हिंदू धर्म में किसी महिला के जन्म पर कहा जाता है कि स्वयं लक्ष्मी ने जन्म लिया है। जब कोई स्त्री किसी घर में ब्याह कर जाती है तो उसकी किस्मत वहां के लोगों से जुड़ जाती है। महिला के शुभ कदमों से ही घर में श्रेष्ठता और सम्पन्नता बनी रहती है। जिस घर में सदगुण सम्पन्न नारी सुखपूर्वक निवास करती है उस घर में लक्ष्मी जी का सदैव निवास रहता है। यदि घर की महिला सुखी, प्रसन्न और स्वस्थ है तो वह घर भी हमेशा भरा-पूरा रहता है। महिला किसी भी परिवार की धुरी होती है इसलिए महिलाओं का सम्मान अति आवश्यक है।
वेदों में स्त्री को 'अंबा', 'अम्बिका', 'दुर्गा', 'देवी', 'सरस्वती', 'शक्ति', 'ज्योति', 'पृथ्वी' आदि नामों से संबोधित किया गया है। इसके साथ ही स्त्री को मात।शक्ति के रूप में 'माता', 'मातु', 'मातृ', 'अम्मा', 'अम्मी', 'जननी', 'जन्मदात्री', 'जीवनदायिनी', 'जनयत्री', 'धात्री', 'प्रसू' आदि अनेक नामों से पुकारा जाता है। सामवेद में एक प्रेरणादायक मंत्र मिलता है, जिसका अभिप्राय है, 'हे जिज्ञासु पुत्र! तू माता की आज्ञा का पालन कर, अपने दुराचरण से माता को कष्ट मत दे। अपनी माता को अपने समीप रख, मन को शुद्ध कर और आचरण की ज्योति को प्रकाशित कर।'
प्रश्न यह उठता है कि जब हरेक भारतीय जीवन में अपने-अपने धर्मानुसार इस प्रकार की कथाएं, आख्यान, श्लोक बचपन से ही जुड़े हुए हैं फिर भी कुछ लोग राजनीति में आते ही नारी सम्मान की सारी शिक्षाएं मानों भूल जाते हैं। वे स्त्री को मनुष्य नहीं वरन् उपभोग की वस्तु समझने लगते हैं। तभी तो स्त्री को कोई ‘‘टंच माल’’ कहता है, तो कोई ‘‘आईटम’’, कोई ‘‘नचनिया’’ तो कोई उसके गालों की तुलना बिहार की सड़कों से करने लगता है। इस ओछेपन का प्रदर्शन करने वालों को समझना चाहिए कि चाहे उनके परिवार की स्त्रियां हों अथवा राजनीतिक मैदान में खड़ी स्त्रियां हों, वे समाज की सम्मानपात्र हैं कोई उपभोग की वस्तु नहीं।
और अंत में प्रस्तुत है मेरी ये काव्य पंक्तियां -
मां, भाभी है, बहन है नारी, सदा इसे सम्मान दो।मानव जीवन पाया है तो मानवता को मान दो।
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बहुत बढ़िया विचारणीय आलेख, वर्षा दी।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद ज्योति जी 🙏
Deleteबहुत सुंदर लेख।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद शिवम् कुमार जी 🙏
Deleteउपयोगी और विचारप्रधान आलेख।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद आदरणीय शास्त्री जी 🙏🍁🙏
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