Wednesday, April 21, 2021

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 47 | रामजन्म और मां की चिरविदाई | डॉ. वर्षा सिंह


प्रिय ब्लॉग पाठकों, कल 20 अप्रैल 2021 दुर्गाष्टमी की सुबह मेरी माता जी डॉ. विद्यावती "मालविका" की चिरविदा की सुबह बन कर आई। 06 अप्रैल 2021 को हुए हृदयाघात ने तमाम ईलाज के बाद भी 14 दिन बाद उन्हें हमसे छीन लिया। "रामजन्म और मां की चिरविदाई" के जरिए अपनी पीड़ा आप सबसे साझा कर रही हूं। आभार युवा प्रवर्तक 🙏 दिनांक 21.04.2021

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बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा


रामजन्म और मां की चिरविदाई

       - डॉ. वर्षा सिंह


( नोट :- इस लेख में रामजन्म के अंश मां की चिरविदाई के पूर्व के हैं।)


   कल 20 अप्रैल 2021 दुर्गाष्टमी की सुबह मेरी माता जी डॉ. विद्यावती "मालविका" की चिरविदाई की सुबह बन कर आई। 06 अप्रैल 2021 को हुए हृदयाघात ने तमाम ईलाज के बाद भी 14 दिन बाद उन्हें हमसे छीन लिया।

मां को चिरविदा देने का दर्द ताज़िन्दगी बना रहता है। कल दुर्गाष्टमी को मां को हमेशा के लिए खोने का दुख निजी तौर पर हमें आज रामनवमी को रामजन्म की ख़ुशी का अहसास नहीं करा पा रहा है।



 श्रीहरि विष्णु के सातवें अवतार राम

       राम का जन्म त्रेता युग में माना जाता है मर्यादा पुरषोत्तम राम का जन्म अयोध्या में राजा दशरथ के यहां हुआ था। राम श्रीहरि विष्णु के सातवें अवतार हैं। उनके पहले के अवतार हैं -

मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, वामन और परशुराम।

चाक्षुषमन्वन्तर में सम्पूर्ण पृथ्वी के जलमग्न हो जाने पर पृथ्वी को नौका बना कर भावी वैवश्वत मनु की रक्षा करने हेतु श्रीहरि विष्णु ने मत्स्यावतार लिया।


समुद्र मंथन के समय देवता तथा असुरों की सहायता करने के लिये श्रीहरि विष्णु ने कच्छप के रूप में अवतार लिया।


राक्षस हिरण्याक्ष ने जब पृथ्वी को जल में डुबो दिया था तब श्रीहरि विष्णु ने वराह अवतार लेकर पृथ्वी का कल्याण किया था।


श्रीहरि विष्णु का नृसिंह के रूप में अवतार हुआ जिन्होंने हिरण्यकशिपु दैत्य को मार कर प्रह्लाद की रक्षा की।


दैत्य बलि को पाताल भेज कर देवराज इन्द्र को स्वर्ग का राज्य प्रदान करने हेतु श्रीहरि विष्णु ने वामन के रूप में अवतार लिया।


अभिमानी क्षत्रिय राजाओं का इक्कीस बार विनाश करने के लिये परशुराम के रूप में अवतार लिया।


और फिर सातवें अवतार में राम के रूप में श्रीहरि विष्णु ने अवतार ले कर रावण के अत्याचार से विप्रों, धेनुओं, देवताओं और संतों की रक्षा की।



रामचरितमानस के बालकाण्ड में तुलसीदास ने रामजन्म का बहुत सुंदर वर्णन किया है -


जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल।

चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल॥

अर्थात् योग, लग्न, ग्रह, वार और तिथि सभी अनुकूल हो गए। जड़ और चेतन सब हर्ष से भर गए। क्योंकि राम का जन्म सुख का मूल है।


नौमी तिथि मधु मास पुनीता। 

सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥

मध्यदिवस अति सीत न घामा। 

पावन काल लोक बिश्रामा॥

अर्थात् पवित्र चैत्र का महीना था, नवमी तिथि थी। शुक्ल पक्ष और भगवान का प्रिय अभिजित्‌ मुहूर्त था। दोपहर का समय था। न बहुत सर्दी थी, न धूप-गरमी थी। वह पवित्र समय सब लोकों को शांति देने वाला था।


सीतल मंद सुरभि बह बाऊ। 

हरषित सुर संतन मन चाऊ॥

बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा। 

स्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा॥

अर्थात् शीतल, मंद और सुगंधित पवन बह रहा था। देवता हर्षित थे और संतों के मन में बड़ा चाव था। वन फूले हुए थे, पर्वतों के समूह मणियों से जगमगा रहे थे और सारी नदियाँ अमृत की धारा बहा रही थीं।


सो अवसर बिरंचि जब जाना। 

चले सकल सुर साजि बिमाना॥

गगन बिमल संकुल सुर जूथा। 

गावहिं गुन गंधर्ब बरूथा॥

अर्थात् जब ब्रह्मा ने वह भगवान के प्रकट होने का अवसर जाना तब उनके समेत सारे देवता विमान सजा-सजाकर चले। निर्मल आकाश देवताओं के समूहों से भर गया। गंधर्वों के दल गुणों का गान करने लगे।


बरषहिं सुमन सुअंजुलि साजी। 

गहगहि गगन दुंदुभी बाजी॥

अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा। 

बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा॥

अर्थात् और सुंदर अंजलियों में सजा-सजाकर पुष्प बरसाने लगे। आकाश में घमाघम नगाड़े बजने लगे। नाग, मुनि और देवता स्तुति करने लगे और बहुत प्रकार से अपनी-अपनी सेवा -उपहार भेंट करने लगे।


सुर समूह बिनती करि पहुँचे निज निज धाम।

जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम॥

अर्थात् देवताओं के समूह विनती करके अपने-अपने लोक में जा पहुँचे। समस्त लोकों को शांति देने वाले, जगदाधार प्रभु प्रकट हुए।


भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।

हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥

लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुजचारी।

भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी॥

अर्थात् दीनों पर दया करने वाले, कौसल्या के हितकारी कृपालु प्रभु प्रकट हुए। मुनियों के मन को हरने वाले उनके अद्भुत रूप का विचार करके माता हर्ष से भर गई। नेत्रों को आनंद देने वाला मेघ के समान श्याम शरीर था, चारों भुजाओं में अपने विशिष्ट आयुध धारण किए हुए थे, दिव्य आभूषण और वनमाला पहने थे, बड़े-बड़े नेत्र थे। इस प्रकार शोभा के समुद्र तथा खर राक्षस को मारने वाले भगवान प्रकट हुए।


कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता।

माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता॥

करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता।

सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता॥

अर्थात् दोनों हाथ जोड़कर माता कहने लगी- हे अनंत! मैं किस प्रकार तुम्हारी स्तुति करूँ। वेद और पुराण तुम को माया, गुण और ज्ञान से परे और परिमाण रहित बतलाते हैं। श्रुतियाँ और संतजन दया और सुख का समुद्र, सब गुणों का धाम कहकर जिनका गान करते हैं, वही भक्तों पर प्रेम करने वाले लक्ष्मीपति भगवान मेरे कल्याण के लिए प्रकट हुए हैं।


ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै।

मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै॥

उपजा जब ग्याना प्रभु मुसुकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै।

कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै॥

अर्थात् वेद कहते हैं कि तुम्हारे प्रत्येक रोम में माया के रचे हुए अनेकों ब्रह्माण्डों के समूह भरे हैं। वे तुम मेरे गर्भ में रहे- इस हँसी की बात के सुनने पर धीर -विवेकी पुरुषों की बुद्धि भी स्थिर नहीं रहती अर्थात् विचलित हो जाती है। जब माता को ज्ञान उत्पन्न हुआ, तब प्रभु मुस्कुराए। वे बहुत प्रकार के चरित्र करना चाहते हैं। अतः उन्होंने पूर्व जन्म की सुंदर कथा कहकर माता को समझाया, जिससे उन्हें पुत्र का वात्सल्यमय प्रेम प्राप्त हो अर्थात् भगवान के प्रति पुत्र भाव हो जाए।


माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा।

कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा॥

सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा।

यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा॥

अर्थात् माता की वह बुद्धि बदल गई, तब वह फिर बोली- हे तात! यह रूप छोड़कर अत्यन्त प्रिय बाललीला करो, मेरे लिए यह सुख परम अनुपम होगा। माता का यह वचन सुनकर देवताओं के स्वामी सुजान भगवान ने बालक रूप ले कर रोना शुरू कर दिया। तुलसीदास  कहते हैं कि जो इस चरित्र का गान करते हैं, वे श्री हरि का पद पाते हैं और फिर संसार रूपी कूप में नहीं गिरते।


बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार।

निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार॥

अर्थात् ब्राह्मण, गो, देवता और संतों के लिए भगवान ने मनुष्य का अवतार लिया। वे अज्ञानमयी, मलिना माया और उसके गुण यथा सत्‌, रज, तम और बाहरी तथा भीतरी इन्द्रियों से परे हैं। उनका दिव्य शरीर अपनी इच्छा से ही बना है, किसी कर्म बंधन से परवश होकर त्रिगुणात्मक भौतिक पदार्थों के द्वारा नहीं।


सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी। 

संभ्रम चलि आईं सब रानी॥

हरषित जहँ तहँ धाईं दासी। 

आनँद मगन सकल पुरबासी॥

अर्थात् बच्चे के रोने की बहुत ही प्यारी ध्वनि सुनकर सब रानियाँ उतावली होकर दौड़ी चली आईं। दासियाँ हर्षित होकर जहाँ-तहाँ दौड़ीं। सारे पुरवासी आनंद में मग्न हो गए।


दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना। 

मानहु ब्रह्मानंद समाना॥

परम प्रेम मन पुलक सरीरा। 

चाहत उठन करत मति धीरा।।

अर्थात् राजा दशरथ पुत्र का जन्म कानों से सुनकर मानो ब्रह्मानंद में समा गए। मन में अतिशय प्रेम है, शरीर पुलकित हो गया। आनंद में अधीर हुई बुद्धि को धीरज देकर और प्रेम में शिथिल हुए शरीर को संभालकर वे उठना चाहते हैं।


जाकर नाम सुनत सुभ होई। 

मोरें गृह आवा प्रभु सोई॥

परमानंद पूरि मन राजा। 

कहा बोलाइ बजावहु बाजा॥

अर्थात् जिनका नाम सुनने से ही कल्याण होता है, वही प्रभु मेरे घर आए हैं। यह सोचकर राजा का मन परम आनंद से पूर्ण हो गया। उन्होंने बाजे वालों को बुलाकर कहा कि बाजा बजाओ।


गुर बसिष्ठ कहँ गयउ हँकारा। 

आए द्विजन सहित नृपद्वारा॥

अनुपम बालक देखेन्हि जाई। 

रूप रासि गुन कहि न सिराई॥

अर्थात् गुरु वशिष्ठ के पास बुलावा गया। वे ब्राह्मणों को साथ लिए राजद्वार पर आए। उन्होंने जाकर अनुपम बालक को देखा, जो रूप की राशि है और जिसके गुण कहने से समाप्त नहीं होते।


नंदीमुख सराध करि जातकरम सब कीन्ह।

हाटक धेनु बसन मनि नृप बिप्रन्ह कहँ दीन्ह॥

अर्थात् फिर राजा ने नांदीमुख श्राद्ध करके सब जातकर्म-संस्कार आदि किए और ब्राह्मणों को सोना, गो, वस्त्र और मणियों का दान दिया।


ध्वज पताक तोरन पुर छावा। 

कहि न जाइ जेहि भाँति बनावा॥

सुमनबृष्टि अकास तें होई। 

ब्रह्मानंद मगन सब लोई॥

अर्थात् ध्वजा, पताका और तोरणों से नगर छा गया। जिस प्रकार से वह सजाया गया, उसका तो वर्णन ही नहीं हो सकता। आकाश से फूलों की वर्षा हो रही है, सब लोग ब्रह्मानंद में मग्न हैं।


बृंद बृंद मिलि चलीं लोगाईं। 

सहज सिंगार किएँ उठि धाईं॥

कनक कलस मंगल भरि थारा। 

गावत पैठहिं भूप दुआरा॥

अर्थात् स्त्रियाँ झुंड की झुंड मिलकर चलीं। स्वाभाविक श्रृंगार किए ही वे उठ दौड़ीं। सोने का कलश लेकर और थालों में मंगल द्रव्य भरकर गाती हुईं राजद्वार में प्रवेश करती हैं।


करि आरति नेवछावरि करहीं। 

बार बार सिसु चरनन्हि परहीं॥

मागध सूत बंदिगन गायक। 

पावन गुन गावहिं रघुनायक॥

अर्थात्  वे आरती करके निछावर करती हैं और बार-बार बच्चे के चरणों पर गिरती हैं। मागध, सूत, वन्दीजन और गवैये रघुकुल के स्वामी के पवित्र गुणों का गान करते हैं।


सर्बस दान दीन्ह सब काहू। 

जेहिं पावा राखा नहिं ताहू॥

मृगमद चंदन कुंकुम कीचा। 

मची सकल बीथिन्ह बिच बीचा॥

अर्थात् राजा ने सब किसी को भरपूर दान दिया। जिसने पाया उसने भी नहीं रखा वरन्

लुटा दिया। नगर की सभी गलियों के बीच-बीच में कस्तूरी, चंदन और केसर की कीच मच गई।


गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा कंद।

हरषवंत सब जहँ तहँ नगर नारि नर बृंद॥

अर्थात् घर-घर मंगलमय बधावा बजने लगा, क्योंकि शोभा के मूल भगवान प्रकट हुए हैं। नगर के स्त्री-पुरुषों के झुंड के झुंड जहाँ-तहाँ आनंदमग्न हो रहे हैं।



और अब मां की चिरविदा का दर्द आप सब से साझा कर रही हूं… उन्हें याद करते हुए...


 स्व. डॉ. विद्यावती "मालविका"


   मेरी मां डॉ. विद्यावती "मालविका" सागर नगर की एक ऐसी साहित्यकार थीं जिनका साहित्य-सृजन अनेक विधाओं, यथा- कहानी, एकांकी, नाटक एवं विविध विषयों पर शोध प्रबंध से ले कर कविता और गीत तक विस्तृत है। लेखन के साथ ही चित्रकारी के द्वारा भी उन्होंने अपनी मनोभिव्यक्ति प्रस्तुत की है। सन् 1928 की 13 मार्च को उज्जैन में जन्मीं डॉ. विद्यावती 'मालविका' ने अपने जीवन के लगभग 6 दशक बुन्देलखण्ड में व्यतीत किए हैं, जिसमें 30 वर्ष से अधिक समय से वे मकरोनिया, सागर में निवासरत रही हैं। डॉ. 'मालविका' को अपने पिता संत ठाकुर श्यामचरण सिंह एवं माता श्रीमती सुमित्रा देवी "अमोला" से साहित्यिक संस्कार मिले। पिता संत श्यामचरण सिंह एक उत्कृष्ट साहित्यकार एवं गांधीवादी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। उन्होंने छत्तीसगढ़ क्षेत्र में अस्पृश्यता उन्मूलन एवं नशाबंदी में उल्लेखनीय योगदान दिया था। डॉ. विद्यावती अपने पिता के विचारों से अत्यंत प्रभावित रहीं और उन्होंने 12-13 वर्ष की आयु से ही साहित्य सृजन आरम्भ कर दिया था। बौद्ध धर्म एवं प्रणामी सम्प्रदाय पर उन्होने विशेष अध्ययन एवं लेखन किया।


डॉ. विद्यावती 'मालविका' का  संघर्षमय जीवन


डॉ. विद्यावती 'मालविका' का जीवन अत्यंत संघर्षमय रहा। दो बेटियों के जन्म के कुछ समय बाद ही उन्हें वैधव्य का असीम दुख सहन करना पड़ा, किन्तु वे अपने कर्त्तव्य से विमुख नहीं हुईं। ससुराल पक्ष से कोई सहायता न मिलने पर उन्होंने शिक्षिका के रूप में आत्मनिर्भरतापूर्वक अपने वृद्ध पिता को सहारा दिया और अपने अनुज कमल सिंह को पढ़ा-लिखा कर योग्य बनाया जो कि आदिम जाति कल्याण विभाग मघ्यप्रदेश शासन के हायर सेकेंडरी स्कूल के प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हुए। डॉ. विद्यावती ने अपने बलबूते पर अपनी दोनों पुत्रियों वर्षा सिंह और शरद सिंह का लालन-पालन कर उन्हें उच्च शिक्षित किया। उन्होंने व्याख्याता के रूप में मध्यप्रदेश शासन के शिक्षा विभाग में उज्जैन, रीवा एवं पन्ना आदि स्थानों में अपनी सेवाऐं दीं और सन् 1988 में सेवानिवृत्त हुईं। वे शासकीय सेवा के साथ ही लेखन एवं शोध कार्यां में सदैव संलग्न रहीं। स्वाध्याय से हिन्दी में एम.ए. करने के उपरांत सन् 1966 में आगरा विश्वविद्यालय से उन्होंने ''मध्ययुगीन हिन्दी संत साहित्य पर बौद्ध धर्म का प्रभाव'' विषय में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। पीएच.डी. में उनके शोध निर्देशक (गाइड) हिन्दी तथा बौद्ध दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान राहुल सांकृत्यायन एवं पाली भाषा तथा बौद्ध दर्शन के अध्येता डॉ. भिक्षु धर्मरक्षित थे। उनका यह शोध प्रबंध आज भी युवा शोधकर्ताओं के लिए दिशानिर्देशक का काम करता है।


मां डॉ. 'मालविका' की प्रकाशित पुस्तकें


इनकी अब तक अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकीं हैं जिनमें प्रमुख हैं - कामना, पूर्णिमा, बुद्ध अर्चना (कविता संग्रह) श्रद्धा के फूल, नारी हृदय (कहानी संग्रह), आदर्श बौद्ध महिलाएं, भगवान बुद्ध (जीवनी) बौद्ध कलाकृतियां (पुरातत्व), सौंदर्य और साधिकाएं (निबंध संग्रह), अर्चना (एकांकी संग्रह), मध्ययुगीन हिन्दी संत साहित्य पर बौद्ध धर्म का प्रभाव, महामति प्राणनाथ-एक युगान्तरकारी व्यक्तित्व (शोध ग्रंथ) आदि। ''आदर्श बौद्ध महिलाएं'' पुस्तक का बर्मी एवं नेपाली भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित हुआ।


कई पुरस्कारों से हुई सम्मानित


डॉ. 'मालविका' को हिन्दी साहित्य सेवा के लिए अनेक पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त हुए। जिनमें उल्लेखनीय हैं- सन् 1957 में स्वतंत्रता संग्राम शताब्दी सम्मान समारोह में मध्यप्रदेश शासन का साहित्य सृजन सम्मान, सन् 1958 में उत्तरप्रदेश शासन का कथा लेखन सम्मान, सन् 1959 में उत्तरप्रदेश शासन का जीवनी लेखन सम्मान, सन् 1964 में मध्यप्रदेश शासन का कथा साहित्य सम्मान, सन् 1966 में मध्यप्रदेश शासन का मीरा पुरस्कार प्रदान किया गया। सेवानिवृत्ति के बाद भी डॉ. विद्यावती ने अपना लेखन सतत् जारी रखा। उनके इस साहित्य के प्रति सर्मपण को देखते हुए उन्हें सन् 1998 में महारानी लक्ष्मीबाई शास. उ.मा. कन्या विद्यालय क्रमांक-एक, सागर द्वारा ''वरिष्ठ साहित्यसेवी सम्मान'', सन् 2000 में भारतय स्टेट बैंक सिविल लाइनस् शाखा सागर द्वारा ''साहित्यसेवी सम्मान'', वर्ष 2007 में मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन सागर द्वारा ''सुंदरबाई पन्नालाल रांधेलिया स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सम्मान'' एवं सन् 2016 में हिन्दी दिवस पर श्यामलम् संस्था सागर द्वारा ''आचार्य भगीरथ मिश्र हिन्दी साहित्य सम्मान'' से सम्मानित किया गया। 


उल्लेखनीय है कि अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों में डॉ. विद्यावती 'मालविका' का ससम्मान उल्लेख किया गया है, यथा :- मध्यभारत का इतिहास (चतुर्थ खंड), बुद्ध की देन, हिन्दी की महिला साहित्यकार , आधुनिक हिन्दी कवयित्रियों के प्रेमगीत, मध्यप्रदेश के साहित्यकार, रेत में कुछ चिन्ह, डॉ. ब्रजभूषण सिंह 'आदर्श' सम्मान ग्रंथ आदि। उनकी कुछ पुस्तकें इंटरनेट पर भी पढ़ी जा सकती हैं। नाट्यशोध संस्थान, कोलकता में उनका एकांकी संग्रह '''अर्चना' संदर्भ ग्रंथ के रूप में पढ़ाया जाता है। इसी प्रकार नव नालंदा महाविहार, नालंदा, सम विश्वविद्यालय, बिहार के एम.ए. हिन्दी पाठ्यक्रम के चौथे प्रश्नपत्र बौद्ध धर्म- दर्शन और हिन्दी साहित्य के अंतर्गत ''मध्ययुगीन हिन्दी संत साहित्य पर बौद्ध धर्म का प्रभाव'' ग्रंथ पढ़ाया जाता है।

बुन्देलखण्ड पर विशेष लेखन कार्य करते हुए डॉ. विद्यावती ने ''दैनिक भास्कर'' के सागर संस्करण में वर्ष 1997-98 में सागर संभाग की कवयित्रियां शीर्षक धारावाहिक लेखमाला तथा वर्ष 1998-99 में बुंदेली शहीद महिलाओं पर आधारित ''कलम आज उनकी जय बोल'' शीर्षक धारावाहिक लेखमाला लिखी। इसके साथ ही दैनिक ''आचरण'' सागर में बुन्देली इतिहास, साहित्य, संस्कृति एवं वैभव से संबंधित अनेक लेख प्रकाशित हुए हैं। आकाशवाणी के इंदौर, उज्जैन, भोपाल एवं छतरपुर केन्द्रों से उनके रेडियो नाटकों का धारावाहिक प्रसारण किया जाता रहा है। उनकी कविताओं का नियमित रूप से पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन होता रहा है। अपने बुजुर्गों से मिली साहित्य सृजन की इस परम्परा को डॉ. विद्यावती ने न केवल अपनाया अपितु हमें यानी अपनी दोनों पुत्रियों को भी साहित्यिक संस्कार दिए। मैं यानी उनकी बड़ी पुत्री डॉ. वर्षा सिंह साहित्य साधना में लीन हूं तथा मेरी अनुजा यानी उनकी छोटी पुत्री डॉ. (सुश्री) शरद सिंह उपन्यास एवं कथा लेखन के क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित कर चुकी हैं।


कल हुई ब्रम्हलीन डॉ विद्यावती "मालविका"


हमारी मां साहित्यकार डा.विद्यावती "मालविका"  93 वर्ष की आयु में कल सुबह दुर्गाष्टमी के पवित्र दिन सुबह 9.30 पर ब्रम्हलीन हो गयीं है। हृदयाघात के बाद सागर स्थित स्थानीय सुयश अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था। पिछले कई दिनों से साहित्यकार हम दोनो बहिने अपनी माँ की सेवा में लगी हुई थी। उनके निधन से साहित्य जगत को अपूरणीय क्षति पहुची है। उनके निधन पर साहित्यप्रेमियों, शुभचिन्तको और जनप्रतिनिधियों ने शोक व्यक्त किया है।

   शायद देवी दुर्गा की यही इच्छा थी कि वे हमारी मां को नवरात्रि में परलोक धाम ले जाएं। 


रामचरित मानस के बालकाण्ड की इस चौपाई को याद कर आज मैं अपना दुख भुलाने की असफल चेष्टा कर रही हूं - 

होइहि सोइ जो राम रचि राखा। 

को करि तर्क बढ़ावै साखा॥

अस कहि लगे जपन हरिनामा। 

गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥


अर्थात्  जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन शाखा (विस्तार) बढ़ावे। मन में ऐसा कहकर आदि देव शिव श्रीहरि का नाम जपने लगे और सती वहाँ गईं जहाँ सुख के धाम प्रभु राम थे।


और अंत में …. रामरक्षा स्त्रोत से यह श्लोक...


लोकाभिरामं रणरंगधीरं 

राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्। 

कारुण्यरूपं करुणाकरंतं 

श्रीरामचंद्रं शरणं प्रपद्ये ।।

    अर्थात् मैं सम्पूर्ण लोकोंमें सुन्दर तथा रणक्रीडामें धीर, कमलनेत्र, रघुवंश नायक, करुणाकी मूर्ति और करुणाके भण्डार रुपी श्रीरामचंद्र की शरण में हूँ।


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8 comments:

  1. आदरणीय वर्षा दीदी,
    आपकी माताजी के बारे में, उनके जीवन के बारे में पढ़ा। आप दोनों बहनों की विद्वत्ता आपकी विदुषी माताजी का आशीष है, उनके महान संस्कार आपके लेखन में झलकते हैं।
    माँ को खोना एक बड़ी क्षति तो है, परंतु दुर्गाष्टमी का बहुत बड़ा दिन पूज्य माताजी ने प्रयाण के लिए चुना, वे बड़ी पुण्यात्मा रही होंगी। ईश्वर से उनकी आत्मा की चिरशांति की प्रार्थना है। श्रद्धा सुमन अर्पण हैं।

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    1. 😥🙏 दुख की इस घड़ी में ढाढस बंधाने के लिए आपके प्रति आभार मीना शर्मा जी 🙏

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  2. विगत कुछ दिवसों से आपकी माता जी के विषय में ही चिंतित था किंतु आपसे अथवा शरद जी से संपर्क साधने का कोई माध्यम मुझे उपलब्ध नहीं था। कल फ़ेसबुक पर शरद जी की एक पोस्ट के अवलोकन से वस्तुस्थिति का आभास हुआ। आपकी माता जी एक असाधारण व्यक्तित्व थीं एवं आप दोनों बहनें धन्य हैं जो ऐसी महामानवी के उदर से आपने जन्म लिया। आपके दुख को समझ सकता हूँ, अनुभूत कर सकता हूँ। आप और शरद जी अपने दुख में मुझे एवं अपने सभी प्रशंसकों एवं शुभचिंतकों को भी सम्मिलित समझें।

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    1. 🙏😥 इस गहन दुख की बेला में आपकी इस सदाशयता के प्रति आभार... 🙏😥

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  3. वर्षा जी, मां को खोने की दारुण बेला में एक यशस्विनि माँ का भरे मन से ये परिचय हृदय भेद गया! इतनी जुझारू माँ की संतान होना और उनके समकक्ष साहित्य का सदगुण ग्रहण कर उनका नाम रोशन करना कोई कम बड़ी उपलब्धि नहीं! पुण्यात्मा माँ का परिचय और जीवन संघर्ष के साथ, वैधव्य की पीड़ा को भूल दो होनहार बेटियों का उत्तम लालन पालन झझकोर गया! एक अकेली महिला के लिए उन दिनों ये कहाँ आसान रहा होगा! दिवंगत माँ की पुण्य स्मृति को
    अश्रुपूरित कोटि नमन! दुःख की इस घडी में हम सब आपके साथ हैं! 🙏🙏😔

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  4. बहुत सुंदर अंक प्रभु राम जन्म का, मन को आनन्द प्रदान करने वाला, सार्थक सृजन।
    मां को सादर नमन गर्व है आप ऐसी जुझारू और आदरणीया मां की संतान हैं , विनम्र श्रद्धांजलि मां जी को, संतान का पूरा जीवन मां के दिए संस्कारों और सीख पर टिक पाता है।



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