Wednesday, December 23, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 30 | मर्यादा, फ़रिश्ते और सती सुलोचना | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज प्रस्तुत है-  " मर्यादा, फ़रिश्ते और सती सुलोचना" 
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 23.12.2020

मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं-

बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

मर्यादा, फ़रिश्ते और सती सुलोचना 
     
     -     डॉ. वर्षा सिंह

     जाड़े में धूप बहुत अच्छी लगती है। पिछले दिनों नहाने के बाद अपने गीले बालों को सुखाने के उद्देश्य से मैं अपने घर की दूसरी मंज़िल पर बालकनी में आ रही धूप में कुर्सी डाल कर बैठी थी। तभी नीचे सड़क पर शोर सुनाई दिया। मैंने उत्सुकतावश झांक कर देखा, मेरी कॉलोनी के दो बच्चे मोनू और लकी आपस में झगड़ रहे थे और एक बच्चे लकी की मम्मी उन्हें समझा रही थी। झगड़े की वज़ह थी ऑनलाइन पढ़ाई के दौरान मोनू ने लकी के इंटरनेट का वाई-फाई पासवर्ड जान कर डाटा चुरा लिया था… लकी कह रह था कि मोनू ने एक तो मेरा इंटरनेट पासवर्ड चुराया फिर मुझसे ही लड़ रहा है और मुझे मार रहा है। मैं भी इस फ्रम्पिश, रबिश मोनू को मारूंगा। आप मुझे मत रोकिए …. और लकी की मम्मी अपने बेटे लकी को समझा रही थी कि आपस में लड़ना बुरी बात है, इंटरनेट का पासवर्ड बदल लो ताकि भविष्य में फिर ऐसी नौबत न आए। फिर मोनू को भी समझाया कि चोरी अच्छी बात नहीं है, वे उसकी मम्मी से कह कर उसे और अधिक इंटरनेट डाटा दिलवा देंगी। यह सुन कर मोनू तो अपनी ग़लती स्वीकार करके चला गया लेकिन लकी फिर भी मोनू को मारने बात दोहरा रहा था। लकी की मम्मी लकी को समझाते हुए अपने घर जाने लगी। वह कह रही थी कि ''मोनू चोरी करता है, मारपीट करता है, क्या तुम भी उस जैसे बन जाओगे? फिर उसमें और तुममें फ़र्क ही क्या रहेगा?  लोग तुम्हें भी फ्रम्पिश (झगड़ालू), फूलिश (मूर्ख), रबिश (तुच्छ) कहेंगे।'' 
   मुझे लकी की मम्मी की बात बेहद अच्छी और समझदारीपूर्ण लगी। मुझसे रहा नहीं गया। मैं लकी को पुकार कर बोल पड़ी - "सही कह रही हैं तुम्हारी मम्मी ! लकी, तुम तो जीनियस हो, दूसरों की बुरी आदतों से दूर ही रहना बेटा, वरना तुम भी उन जैसे ही कहलाओगे।"
    मेरी बात सुन कर लकी की मम्मी ने सिर उठा कर मुझे देखा और मुझसे अभिवादन कर कृतज्ञता भाव से कहने लगी-" थैंक्यू दीदी, मैं हमेशा यही समझाती हूं लकी को कि दूसरे ख़राब आदतों वाले लड़कों जैसे मत बनो, अपनी मर्यादा मत भूलो...।"
फिर कुछ और बातें करने के बाद वह लकी को ले कर अपने घर चली गई।
किन्तु मेरे विचारों की श्रृंखला कड़ी-दर-कड़ी जुड़ती चली गई।
       मुझे याद आ गई मर्यादित होने से संबंधित वह कहानी जो एक फ़क़ीर से संबंधित है और बहुत पहले मैंने कहीं किसी पत्रिका में पढ़ी थी। कहानी कुछ इस प्रकार है कि एक बार एक फ़क़ीर अपने शागिर्दों के साथ कहीं जा रहे था। रास्ते में उसके शागिर्दों का एक विरोधी मिल गया। वह उसके शागिर्दों को बुरा-भला कहने लगा। जब फ़क़ीर और उसके शागिर्दों ने कोई जवाब नहीं दिया तो वह उसके शागिर्दों को गालियां देने पर उतर आया। गालियां सुन कर भी फ़क़ीर कुछ नहीं बोला। लेकिन शागिर्दों से नहीं रहा गया। वे बर्दाश्त नहीं कर पाए और पलट कर वे भी उस विरोधी को गाली देने लगे। अभी तक फ़क़ीर जो शागिर्दों के साथ खड़े था, शागिर्दों द्वारा उस विरोधी को गाली देते ही, शागिर्दों का साथ छोड़ कर आगे बढ़ लिया। जब फ़क़ीर के शागिर्दों ने देखा कि वे अकेले पड़ गए हैं, तो वे भी वहां से आगे बढ़ कर फ़क़ीर के पास पहुंच गए और दुखी स्वर में कहने लगे कि - "गुरू जी, वह हमें गालियां दे रहा था और आप हमें वहां अकेला छोड़ कर आगे बढ़ गए। ऐसा क्यों किया आपने ? हमने ऐसा हरगिज़ नहीं सोचा था कि आप ऐसे हालात में हमें अकेला छोड़ देंगे।"
      तब फ़क़ीर ने फरमाया कि - "मेरे शागिर्दों, मैं देख रहा था कि वह तुम्हारा विरोधी जब तुम्हें बुरा-भला कह रहा था, फिर गालियां दे रहा था तो तुम्हारी हिफ़ाज़त वहां अदृश्य रूप में मौज़ूद फ़रिश्ते कर रहे थे। लेकिन जब तुमने भी उलट कर उसके जैसी गालियां उसे देनी शुरू कर दीं, तो वे फ़रिश्ते वहां से रुख़सत हो गए… और मेरे शागिर्दों, जब वहां फ़रिश्ते नहीं रुके तो मैं भला कैसे रुकता ! क्योंकि तुममें और उस शख़्स में कोई फ़र्क रहा ही कहां था। अगर वह तुम्हें गालियां दे रहा था तो तुम भी उसे गालियां दे रहे थे।"
    फ़क़ीर के शागिर्दों को अपनी ग़लती समझ में आ गई थी और वे शर्मिंदगी महसूस करने लगे थे।

      रामकथा में भी एक बहुत सुंदर प्रसंग है सती सुलोचना और मेघनाद का। त्रेतायुग की सती सुलोचना की कथा का उल्लेख वाल्मीकि रचित रामायण और तुलसीदास रचित रामचरितमानस में नहीं है। किन्तु अनेक पौराणिक ग्रंथों सहित प्राचीन तमिल ग्रंथों में इसका प्रमुखता से उल्लेख मिलता है। 

    सुलोचना लंकापति रावण के पराक्रमी पुत्र मेघनाद की पत्नी व भगवान विष्णु के शेषनाग वासुकी की पुत्री थी। इंद्र को परास्त करने के कारण मेघनाद को ब्रह्मा जी द्वारा इंद्रजीत नाम दिया गया था। लंकापति रावण द्वारा सीता हरण के पश्चात राम द्वारा शांति के अनेक प्रयासों के बावजूद युद्ध अनिवार्य हो गया था। युद्ध में रावणपुत्र मेघनाद भी युद्ध भूमि में बड़े दमखम के साथ आया। रामचरितमानस के लंका काण्ड में उल्लेख है -
कहँ कोसलाधीस द्वौ भ्राता। धन्वी सकल लोत बिख्याता।।
कहँ नल नील दुबिद सुग्रीवा। अंगद हनूमंत बल सींवा।।
अर्थात् मेघनाद ने पुकारकर कहा- समस्त लोकों में प्रसिद्ध धनुर्धर कौशलाधीश दोनों भाई कहाँ हैं? नल, नील, द्विविद, सुग्रीव और बल की सीमा वाले अंगद और हनुमान्‌ कहाँ हैं?

कहाँ बिभीषनु भ्राताद्रोही। आजु सबहि हठि मारउँ ओही।।
अस कहि कठिन बान संधाने। अतिसय क्रोध श्रवन लगि ताने।।
अर्थात् भाई से द्रोह करने वाला विभीषण कहाँ है? आज मैं सबको और उस दुष्ट को तो हठपूर्वक अवश्य ही मारूँगा। ऐसा कहकर उसने धनुष पर कठिन बाणों का सन्धान किया और अत्यंत क्रोध करके उसे कान तक खींचा।
   भीषण युद्ध के दौरान राम ने राक्षस युवराज मेघनाद के सभी मायायुक्त बाणों को काट दिया। इससे क्रोधित होकर मेघनाद राम के प्रति अनर्गल बातें उच्चारित करने लगा। लक्षमण से सहन नहीं हुआ और वे मेघनाद से युद्ध करने लगे।
आयसु मागि राम पहिं अंगदादि कपि साथ।
लछिमन चले क्रुद्ध होइ बान सरासन हाथ।।
अर्थात्  राम से आज्ञा माँगकर, अंगद आदि वानरों के साथ हाथों में धनुष-बाण लिए हुए लक्ष्मण क्रुद्ध होकर युद्ध करने चल पड़े।

     बहुत देर तक लक्षमण और मेघनाद के मध्य भीषण युद्ध हुआ। तुलसीदास कहते हैं -

नाना बिधि प्रहार कर सेषा। राच्छस भयउ प्रान अवसेषा॥
रावन सुत निज मन अनुमाना। संकठ भयउ हरिहि मम प्राना।।
अर्थात् लक्ष्मण उस पर अनेक प्रकार से प्रहार करने लगे। राक्षस के प्राणमात्र शेष रह गए। रावणपुत्र मेघनाद ने मन में अनुमान किया कि अब तो प्राण संकट आ बना, ये मेरे प्राण हर लेंगे।
बीरघातिनी छाड़िसि साँगी। तेजपुंज लछिमन उर लागी॥
मुरुछा भई सक्ति के लागें। तब चलि गयउ निकट भय त्यागें॥
अर्थात् तब उसने वीरघातिनी शक्ति चलाई। वह तेजपूर्ण शक्ति लक्ष्मण की छाती में लगी। शक्ति लगने से उन्हें मूर्छा आ गई। तब मेघनाद भय छोड़कर उनके पास चला गया।

    शक्ति बाण के आघात से मूर्छित लक्ष्मण को पुनर्जागृत करने के लिए सुषेण वैद्य के परामर्श पर राम की आज्ञा से हनुमान औषधि ले कर आए। यह चौपाई देखें -
देखा सैल न औषध चीन्हा। सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा॥
अर्थात् हनुमान ने पर्वत को देखा, पर औषध न पहचान सके। तब हनुमान ने पूरा पर्वत ही उखाड़ लिया।
      औषधि से लक्षमण की मूर्च्छा समाप्त हो गई। वे पूर्व की भांति स्वस्थ हो गए। स्वस्थ होते ही लक्ष्मण मेघनाद का वध करने की प्रतिज्ञा लेकर  युद्ध भूमि में जाने के लिये तत्पर हुए, तब राम ने कहा- "लक्ष्मण,  युद्ध भूमि  में जाकर तुम अपनी वीरता और रणकौशल से रावणपुत्र मेघनाद का वध तो दोगे, इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है। लेकिन एक बात का विशेष ध्यान रखना कि मेघनाद का मस्तक भूमि पर किसी भी प्रकार न गिरे। क्योंकि मेघनाद एकनारी-व्रत का पालक है और उसकी पत्नी परम पतिव्रता है। ऐसी पतिव्रता स्त्री के पति का मस्तक अगर पृथ्वी पर गिर पड़ा तो हमारी सारी सेना का ध्वंस हो जाएगा और हमें युद्ध में विजय की आशा त्याग देनी पड़ेगी।"
इसके बाद लक्षमण और मेघनाद के बीच पुनः भीषण युद्ध हुआ।
और अंत में - 
सुमिरि कोसलाधीस प्रतापा। सर संधान कीन्ह करि दापा॥ 
छाड़ा बान माझ उर लागा। मरती बार कपटु सब त्यागा॥
अर्थात् कौशलपति राम के प्रताप का स्मरण करके लक्ष्मण ने वीरोचित दर्प करके बाण का संधान किया। बाण छोड़ते ही मेघनाद की छाती के बीच में लगा। मरते समय मेघनाद ने सब कपट त्याग दिया।

        तब राम की आज्ञानुसार लक्ष्मण ने अपने बाणों से मेघनाद का मस्तक उतार लिया, पर उसे पृथ्वी पर नहीं गिरने दिया। हनुमान उस मस्तक को रघुनंदन के पास ले शिविर में ले आये।

       इसके बाद की कथा में मेघनाद की पत्नी सुलोचना का उल्लेख रामचरित मानस में नहीं किया गया है। रामकथा को लिपिबद्ध करने वाले अन्य प्राचीन ग्रन्थों में मेघनाद की पतिव्रता पत्नी सुलोचना का इस प्रकार उल्लेख किया गया है कि इसी दौरान मृत मेघनाद की दाहिनी भुजा आकाश में उड़ती हुई सुलोचना के पास जाकर गिरी। सुलोचना चकित हो गयी।  पर उसने भुजा को स्पर्श नहीं किया। उसने सोचा, सम्भव है यह भुजा किसी अन्य व्यक्ति की हो। ऐसी स्थिति में पर-पुरुष के स्पर्श का दोष उस पर लग जाएगा। तब उसने भुजा से कहा-  "यदि तुम मेरे स्वामी की भुजा हो, तो मेरे पतिव्रत की शक्ति से युद्ध का सारा वृत्तांत लिख दो।" दासी ने भुजा को लेखनी पकड़ा दी। भुजा ने लिखा- " हे प्राणप्रिये, यह भुजा मेरी ही है। युद्ध भूमि में राम के महापराक्रमी भाई लक्ष्मण से मेरा युद्ध हुआ। लक्ष्मण ने कई वर्षों से पत्नी, अन्न और निद्रा का त्याग कर रखा है। वे तेजस्वी तथा समस्त दैवी गुणों से सम्पन्न है। संग्राम में मैंने उन पर शक्ति बाण का प्रयोग किया था, किन्तु हनुमान द्वारा औषधि लाने के कारण वे मृत्यु के द्वार से लौट आए और मेरे वध का प्रण लिया। उसीका परिणाम है कि उन्हीं के बाणों से मेरा प्राणान्त हो गया। मेरा शीश राम के पास है।"
       यह देखकर सुलोचना व्याकुल हो गयी और विलाप करने लगी।  पुत्र-वधु के विलाप को सुनकर लंकापति रावण ने आकर कहा-  "शोक न कर पुत्री। प्रात: होते ही सहस्त्रों मस्तक मेरे बाणों से कट-कट कर पृथ्वी पर गिर जाऐंगे। मैं रक्त की नदियां बहा दूंगा।"
       किन्तु पतिव्रता सुलोचना बोली- " भला इससे मेरा क्या लाभ होगा, पिताजी। सहस्त्रों नहीं करोड़ों शीश भी मेरे स्वामी के शीश के आभाव की पूर्ति नहीं कर सकेंगे।" और सुलोचना ने  सती होने का निश्चय किया,  किंतु पति के शीश बिना यह संभव नहीं था।  सुलोचना ने अपने ससुर रावण से राम के पास जाकर पति का शीश लाने की प्रार्थना की। किंतु रावण इसके लिए तैयार नहीं हुआ। उसने सुलोचना से कहा कि वह स्वयं राम के पास जाकर मेघनाद का शीश ले आए। सुलोचना शत्रु के शिविर में जाने की बात से सहम गई थी, लेकिन उस वक्त रावण की पत्नी मंदोदरी ने उसे समझाया कि  राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, इसीलिए उनके पास जाने में तुम्हें किसी भी प्रकार का भय नहीं करना चाहिए।  
      सुलोचना ने वैसा ही किया। सुलोचना के आने का समाचार सुनते ही राम खड़े हो गये और स्वयं चलकर सुलोचना के पास आये और बोले-  "देवी, तुम्हारे पति विश्व के महान योद्धा और पराक्रमी थे। उनमें बहुत से सद्गुण थे किंतु विधि की लिखी को कौन बदल सकता है।   सुलोचना ने अश्रुपूरित नयनों से प्रभु की ओर देखा और बोली-  "राघवेन्द्र, मैं सती होने के लिये अपने पति का मस्तक लेने के लिये यहां  आई हूं। राम ने शीघ्र ही ससम्मान मेघनाद का शीश मंगवाया और सुलोचना को दे दिया।
      पति का छिन्न शीश देखते ही सुलोचना का हृदय अत्यधिक द्रवित हो गया। अत्यंत दुख में डूबी सुलोचना ने पास खड़े लक्ष्मण की ओर देखा और कहा-  "हे सुमित्रानन्दन, तुम भूलकर भी गर्व मत करना की मेघनाथ का वध मैंने किया है। मेघनाद को धराशायी करने की शक्ति विश्व में किसी के पास नहीं थी। यह तो दो पतिव्रता नारियों का भाग्य था। आपकी पत्नी उर्मिला भी पतिव्रता हैं और मैं भी पति चरणों में अनुरक्ती रखने वाली उनकी अनन्य उपसिका हूं। पर मेरे पति मेघनाद पतिव्रता नारी सीता का अपहरण करने वाले पिता रावण का अन्न खाते थे और उन्हीं के लिए युद्ध में उतरे थे, इसीलिए वे युद्ध भूमि में वीरगति को प्राप्त हो गए हैं।"
     इसके बाद सुलोचना पति का सिर लेकर वापस लंका आ गई। लंका में समुद्र के तट पर एक चंदन की चिता तैयार की गयी। पति का सिर गोद में लेकर सुलोचना चिता पर बैठी और धधकती हुई अग्नि में कुछ ही क्षणों में सती हो गई। तब से सुलोचना, सती सुलोचना के नाम से विख्यात हुई।

     रामकथा के इस प्रसंग में यह बिन्दु अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि राम यदि चाहते तो रावण द्वारा सीता हरण का बदला लेने के लिए रावण की पुत्रवधू सुलोचना को बंदी बना सकते थे। किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। बल्कि सुलोचना की प्रशंसा करते हुए उसका पूरा सम्मान किया। राम यदि रावण के कृत्यों का अनुकरण करते, बदले की भावना रखते तो फिर राम और रावण में फ़र्क ही क्या रह जाता! राम के उदात्त चरित्र की अनेक विशेषताओं में से यह भी एक विशेषता है….. और इसीलिए अतुलनीय, परमपूजनीय मर्यादापुरुषोत्तम राम का चरित्र शताब्दियों बाद आज भी अनुकरणीय है।

     माता-पिता के द्वारा दिए गए संस्कार मनुष्य के भावी जीवन का मार्ग प्रशस्त करते हैं। ऐसे उद्धरण हमें यही बताते हैं कि कभी किसी के ग़लत आचरण को नहीं अपनाना चाहिए। मर्यादित आचरण करने वाले को किसी तरह का भय नहीं रहता। जबकि बदले की भावना से किए गए कार्य सदैव अनुचित ही होते हैं। स्वयं पर नियंत्रण रख कर अर्थात् अपनी मर्यादा में रह कर बुराई के रास्ते से दूर रहना ही हमें अपनी अलग पहचान देता है और विषम परिस्थितियों में बुरी शक्तियों से हमारी रक्षा करता है।

और अंत में प्रस्तुत हैं मेरे ये दोहे -

मर्यादा तजिए नहीं, यही बने पहचान ।
दूजे को जो मान दे, उसे मिले सम्मान ।।

अच्छाई की राह पर बनते बिगड़े काम ।
बुरे काम का तो सदा बुरा मिले परिणाम ।।
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4 comments:

  1. Replies
    1. हार्दिक आभार आदरणीय शास्त्री जी 🙏

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  2. Replies
    1. आपका सदैव हार्दिक स्वागत है मेरे इस ब्लॉग पर भी आदरणीय 🙏

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