Wednesday, September 23, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 17 | अक्षरों की ब्रम्ह सत्ता | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय ब्लॉग पाठकों, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज पढ़िए "अक्षरों की ब्रम्ह सत्ता" और अपने विचारों से अवगत कराएं ...और शेयर करें 🙏
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दिनांक 23.09.2020

मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं-

 बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

          अक्षरों की ब्रम्ह सत्ता             
                      - डॉ. वर्षा सिंह

    शासकीय छत्रसाल स्नातकोत्तर महाविद्यालय, पन्ना में अपनी बी.एससी. की पढ़ाई के दौरान, "रोज़" शीर्षक कहानी मैंने अपनी सामान्य हिन्दी विषय की पाठ्यपुस्तक में पढ़ी थी। घरेलू स्त्री के जीवन और उसकी मनोदशा पर प्रख्यात हिन्दी साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वत्यस्यायन 'अज्ञेय' द्वारा लिखी इस कहानी का सार कुछ इस प्रकार है - 
          "रोज़" कहानी की मुख्य पात्र मालती है जो रिश्ते में लेखक की बहन एवं बाल सखा है। वे दोनों बचपन में साथ साथ पले और बढ़े हैं। विद्यार्थी जीवन में मालती अत्यंत चंचल और उच्श्रृंखल प्रवृति के लड़की थी, उसे पढ़ने से अधिक खेलने में रूचि थी। उसकी शादी महेश्वर नामक डॉक्टर से होती है जो एक सहृदय और अपने काम में रुचि लेने वाले व्यक्ति है। शहर से दूर किसी पहाड़ी क्षेत्र में उसकी पोस्टिंग होने के कारण वह पत्नी मालती और पुत्र टिटी के साथ सरकारी मकान में रहता है। लेखक एक बार मालती से मिलने वहां आता है। वह देखता है कि विवाह के बाद मालती का स्वभाव बदल गया है। उसका जीवन मशीन तुल्य हो गया है। वह सुबह उठकर अपने पति के लिए नाश्ता बनती है, फिर दोपहर का भोजन, फिर शाम का भोजन। वह गृह कार्यों  में इस प्रकार लगी रहती है मानो वह मानवी नहीं बल्कि कोई यंत्र हो। उसका जीवन यांत्रिक हो गया है। लेखक ने यह महसूस किया कि उसके आने पर मालती उत्साहित नहीं हुई। वरन् मात्र औपचरिकतावश उससे बातें करती रही।       
मालती का छोटा बच्चा टिटी सदैव रोता रहता है, किन्तु मालती बच्चे के रोने को रोज़ की बात मान कर ध्यान नहीं देती। घड़ी का घंटा बजने पर मालती उक्ताहट भरे स्वर में हर दफ़ा घंटे की ध्वनि के अनुरूप कहती उठती है - चार बज गए, पांच बज गए, ग्यारह बज गए आदि। लेखक ने महसूस किया कि मालती के घर का वातावरण बोझिल और उकताहट भरा हुआ है। कोई उत्साह और उमंग नहीं है। पहाड़ पर स्थित इस सरकारी मकान में न तो ठीक से पानी आता है और न तो हरी सब्जी उपलब्ध होती है। कोई समाचार पत्र नहीं आता और न ही यहां पढ़ने लिखने का कोई साधन है।  लेखक अपने साथ मालती और उसके परिवार के लिए उपहारस्वरूप कुछ आम लाया था। वे आम काग़ज़ में लिपटे थे। वह काग़ज़ किसी पुराने अख़बार का टुकड़ा था। मालती ने आम अपने आंचल में डाल लिए और अख़बार के उस पन्ने को उठा कर पढ़ने लगी। शाम की मद्धिम रोशनी में नल के पास खड़ी मालती ने उस अख़बार के टुकड़े को जब दोनों ओर से पूरा पढ़ लिया तब उसे एक ओर फेंक नल से आम धोने लगी। लेखक को याद आया कि यह वही मालती है जो अपने स्कूली दिनों में पढ़ने से इतनी अधिक अरुचि रखती थी कि पाठ्यपुस्तकों को फाड़ कर फेंक देती थी और इस कृत्य पर पिता द्वारा पीटे जाने पर ढिठाई से कहती थी कि मैंने क़िताब फाड़ कर फेंक दी है, मैं नहीं पढ़ूंगी।
       प्रतिदिन एक जैसी ऊबाऊ और यांत्रिक दिनचर्या के बीच चंद अक्षरों के लिए तरसती स्त्री की कथा "रोज़" के इसी अंश ने मुझे बेहद प्रभावित किया। आज भी मैं जब सामान पर लपेटे गए किसी पुराने अख़बार के टुकड़े को देखती हूं तो "रोज़" कहानी का यह घटना क्रम मुझे बरबस याद आ जाता है। जिन अक्षरों से मालती कभी दूर भागती थी, उन अक्षरों के प्रति एक अप्रत्यक्ष, अनजानी ललक उसे उन अक्षरों को देखने- पढ़ने के लिए प्रेरित करने लगी थी। अक्षरों की माया है ही ऐसी। यदि कोई व्यक्ति एक बार साक्षर हो जाए, किसी भी लिपि के अक्षरों को पहचानने, अक्षरों के युग्म अर्थात् शब्दों को जानने लगे तो ताज़िन्दगी वह अक्षरों के अनजाने, अदृश्य इंद्रजाल से दूर नहीं जा पाता। जहां कहीं भी कुछ लिखा हुआ मिलता है, दृष्टि पड़ते ही वह उसे पढ़ डालता है। फिर चाहे वह लिखा हुआ उससे संबंधित हो अथवा नहीं। चाहे वह उस लिखे का अर्थ समझ पा रहा हो अथवा नहीं। 
     अक्षरों में ऐसा कौन सा आकर्षण रहता है कि वे हमारे मनोमस्तिष्क को बांध लेते हैं। दरअसल हर अक्षर एक सिम्बल यानी प्रतीक है एक निश्चित ध्वन्याकृति का। हर एक अक्षर दूसरे अक्षर से भिन्न होता है, उसकी सम्पूर्ण सत्ता भिन्न होती है... आकृति, ध्वनि, स्वरूप, युक्ति, संयुक्ति, उच्चारण आदि।
    अक्षर क्या है ? सीधे-सादे शब्दों में कहें तो जो क्षर न हो, अर्थात् जिसका नाश न हो, उसे अक्षर कहते हैं । भाषाविज्ञान में 'अक्षर' या शब्दांश ध्वनियों की एक संगठित इकाई को कहते हैं। अक्षरों के परस्पर योग से शब्द बनते हैं। किसी भी शब्द को अंशों में तोड़कर बोला जा सकता है और शब्दांश शब्द के वह अंश होते हैं जिन्हें और ज़्यादा छोटा नहीं बनाया जा सकता वरना शब्द की ध्वनियां बदल जाती हैं। इसी प्रकार लिपि या लेखन प्रणाली का अर्थ होता है किसी भी भाषा की लिखावट या लिखने का ढंग। ध्वनियों को लिखने के लिए जिन चिह्नों का प्रयोग किया जाता है, वही लिपि कहलाती है, जो अक्षरों  लिपि और भाषा दो अलग अलग चीज़ें होती हैं। भाषा वह है जो बोली जाती है, उसे किसी भी लिपि में लिख सकते हैं, किसी भी लिपि के अक्षरों से प्रकट कर सकते हैं। जैसे हिन्दी सर्वमान्य देवनागरी लिपि में लिखी जाती है, किन्तु सुविधा हेतु उसे रोमन,  खरोष्ठी आदि में लिखा जा सकता है। ये शब्द चिन्ह ही तो अक्षर हैं। प्राचीन इज़िप्ट के लेख चित्रलिपि में पाए गए हैं। 
     अक्षर शब्द का अर्थ है - 'जो न घट सके, न नष्ट हो सके'। इसका प्रयोग पहले 'वाणी' या 'वाक्‌' के लिए एवं शब्दांश के लिए होता था। 'वर्ण' के लिए भी अक्षर का प्रयोग किया जाता रहा। यही कारण है कि लिपि संकेतों द्वारा व्यक्त वर्णों के लिए भी आज 'अक्षर' शब्द का प्रयोग सामान्य जन करते हैं। भाषा के वैज्ञानिक अध्ययन ने अक्षर को अंग्रेजी 'सिलेबल' (syllable) का अर्थ प्रदान कर दिया है, जिसमें स्वर, स्वर तथा व्यंजन, अनुस्वार सहित स्वर या व्यंजन ध्वनियाँ सम्मिलित मानी जाती हैं।
     एक अन्य परिभाषा के अनुसार एक ही आघात या बल में बोली जाने वाली ध्वनि या ध्वनि समुदाय की इकाई को अक्षर कहा जाता है। वस्तुतः भाषा के दो रूप हैं पहला लिखित और दूसरा मौखिक। मौखिक रूप का ध्वनि से संबंध होता है, अक्षर का संबंध ध्वनि के उच्चारण पक्ष से है। 'अक्षर' शब्द संस्कृत के 'क्षर' धातु के 'अ' उपसर्ग लगाकर बना है। जिसका शाब्दिक अर्थ है -'अनश्वर' या 'अटल' ।

     हिंदी भाषा में अक्षर शब्द का प्रयोग चार अर्थों में किया जाता है -  पहले अर्थ में अक्षर का प्रयोग अरबी भाषा के 'हर्फ़' अंग्रेजी भाषा के 'लेटर' और संस्कृत भाषा के 'वर्ण चिन्ह' के रूप में किया जाता है।  दूसरे अर्थ में इस का प्रयोग अनश्वर या अटल ईश्वर के रूप में किया जाता है। तीसरे अर्थ में इस का प्रयोग स्वर के लिए किया जाता है। इसी आधार पर स्वरों को मूल स्वर व संयुक्त स्वरों में विभाजित किया गया है। चौथे अर्थ में इस का प्रयोग 'अक्ष' या 'शीर्ष' बलाघात अर्थ में किया जाता है।

    यहां मैं अक्षर के दूसरे अर्थ में अनश्वर या अटल ईश्वर के रूप में किए जाने वाले प्रयोग पर चर्चा करना चाहूंगी।

ऋग्वेद में कहा गया है - 
एतावानस्य महिमातो ज्यायांश्च पुरूषः।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।। 3।।
(मण्डल 10 सुक्त 90 मंत्र 3)
इसका मूल भावार्थ यह है कि अक्षर पुरुष परब्रह्म सर्वशक्तिमान है तथा सर्व ब्रह्मण्ड उसी के अंश मात्र पर ठहरे हैं।

     अक्षर मानों परमाणु है और शब्द अणु। अक्षर का प्रयोग अनश्वर या अटल ईश्वर के रूप में भी किया जाता है। अक्षर ऊर्जा का प्रतिरूप है। 'ऊं' का उच्चारण करने कर ऊ और म् की ध्वनि आध्यात्मिक अनुभूति से साक्षात्कार कराती है। इसी तरह 'राम' का उच्चारण करने पर र, आ, और म की त्रिवेणी से निर्मित ऊर्जा भगवान राम के सम्पूर्ण अस्तित्व के क्षणांश में हमारे भीतर समाहित हो जाती है।

भगवत् गीता में एक श्लोक है -
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।
भूतभावोद्भवकरो विसर्ग: कर्मसञ्ज्ञित: ।। गीता 8/3।।
    अर्थात् जिसका कभी नाश नहीं होता, जो हमेशा क्षररहित है, अक्षर है, वही ब्रह्म है, ब्रह्म सदैव अपरिवर्तन है। परमात्मा ही ब्रह्म है। परब्रह्म का जो प्रत्येक शरीर में अंतर आत्मा का भाव है उसका नाम स्वभाव है, वह स्वभाव ही अध्यात्म कहलाता है। भूत वस्तु को उत्पन्न करने वाला जो त्याग है, वह त्याग रूप यज्ञ कर्म नाम से कहा जाता है। इस बीज रूप यज्ञ से ही वृष्टि आदि के सभी भूतप्राणी पैदा होते हैं।
     आशय यह कि मेरे विचार से अक्षर ऊर्जा का प्रतिरूप है। अतः अक्षरों का यदि दुरुपयोग किया जाए तो वह घातक होता है, और यदि अक्षरों का सदुपयोग किया जाए तो वह विश्व कल्याण का कारक सिद्ध होता है। अक्षर रूपी परमाणु से निर्मित शब्द किसी आणविक ऊर्जा से कम नहीं होते। "राम" में निहित ऊर्जा मोक्षदायिनी है, जबकि उसके उलट "मार" हिंसा का प्रतिरूप अशांति का स्त्रोत है। तो आइए, अब हम - आप स्वयं तय करें कि अक्षरों का प्रयोग हम किस तरह करें, राम के रूप में अथवा मार के रूप में।

और अंत में प्रस्तुत हैं मेरी यह काव्यपंक्ति-

अक्षरों के ब्रह्म को जो जानता है
शब्द की वो ही महत्ता मानता है

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10 comments:

  1. आपका ब्लॉग बहुत सुन्दर एवं गहन ज्ञान से भरा हुआ है, मुझे ख़ुशी होगी आपकी रचनाओं व संकलनों का अध्ययन करना - - नमन सह।

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    1. सुस्वागतम्

      हार्दिक आभार... आपको मेरा यह ब्लॉग पसंद आया इस हेतु बहुत बहुत धन्यवाद 🙏💐🙏

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    1. हार्दिक धन्यवाद महोदय जी 💐🙏💐

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  3. Replies
    1. बहुत धन्यवाद आपको अनुराधा जी 🙏💐🙏

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  4. "राम" में निहित ऊर्जा मोक्षदायिनी है, जबकि उसके उलट "मार" हिंसा का प्रतिरूप अशांति का स्त्रोत है
    बहुत ही सुंदर और विचारणीय लेख,हम बिना सोचे समझे कुछ भी बोल जाते है कुछ भी लिख जाते है। कभी नहीं विचारते की हर शब्द,हर अक्षर की अपनी ऊर्जा होती है जो सामने वाले को ही नहीं हमें भी प्रभावित करती है.सादर नमन आपको

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    1. आपको मेरा लेख, मेरे विचार पसंद आए इस हेतु मैं आपकी आभारी हूं। हार्दिक धन्यवाद 💐🙏💐

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  5. हार्दिक आभार मीना जी 🙏💐🙏

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  6. बहुत धन्यवाद सुशील कुमार जी 🙏💐🙏

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