प्रिय मित्रों, "विचार वर्षा"... मेरे इस कॉलम में आज पढ़िए "अहिंसा, परहित और शबरी" ...अपने विचारों से अवगत कराएं ...और शेयर करें 🙏
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 18.11.2020
मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं-
बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा
अहिंसा, परहित और शबरी
-डॉ. वर्षा सिंह
मेरे स्कूली दिनों में हिन्दी विषय के अंतर्गत कुछ ख़ास विषयों पर हमसे निबन्ध लेखन कराया जाता था। जैसे - साहित्य समाज का दर्पण है, मेरे प्रिय साहित्यकार, मेरे प्रिय कवि, परहित सरिस धरम नहिं भाई, विज्ञान वरदान है या अभिशाप, विद्यार्थी और अनुशासन, जनसंख्या नियंत्रण आदि-आदि।
उन दिनों विषय के अनुरूप प्रस्तावना से प्रारंभ हो कर निष्कर्ष तक के एक निश्चित फ्रेम में 150- 200 शब्दों में लिखे गए निबन्ध परीक्षा उत्तीर्ण करने के उद्देश्य से तैयार किए जाते थे।
आज विचार करने पर मैं यह पाती हूं कि इन तमाम विषयों में से "परहित सरिस धरम नहिं भाई" पंक्ति मनुष्य की धार्मिक प्रवृत्ति से कहीं अधिक मानवीय प्रवृत्ति से संबद्घ है। यह पंक्ति रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड की है। जिसमें राम अपने अनुज भरत की विनती पर साधु और असाधु का भेद बताने के बाद कहते हैं कि -
परहित सरिस धरम नहिं भाई
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ।।
निर्नय सकल पुरान बेद कर।
कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर।।
अर्थात् परोपकार से बढ़कर कोई उत्तम कर्म नहीं है और दूसरों को पीड़ा पहुंचाने से बढ़कर कोई नीच कर्म नहीं। समस्त पुराणों और वेदों का यही निर्णय अर्थात् आशय है जो मैंने तुमसे कहा है और इस बात को सभी पण्डित लोग जानते हैं।
शिव ने हलाहल विष का पान कर दिव्य शक्ति से अपने कण्ठ में इसीलिए स्थित किया ताकि सम्पूर्ण विश्व उस विष के प्रभाव से नष्ट नहीं हो। शिव की कल्याणकारी भावना परहित का पर्याय है।
शिवमहिम्न स्तोत्र का यह स्तोत्र देखें -
अकाण्ड-ब्रह्माण्ड-क्षयचकित-देवासुरकृपा-
विधेयस्याऽऽसीद् यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः।।
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो।
विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवन-भय-भंग-व्यसनिनः।।
अर्थात् जब समुद्रमंथन हुआ तब अन्य मूल्यवान रत्नों के साथ महाभयानक विष निकला, जिससे समग्र सृष्टि का विनाश हो सकता था। हे शिव, आपने बड़ी कृपा करके उस विष का पान किया। विषपान करने से आपके कंठ में नीला चिन्ह हो गया और आप नीलकंठ कहलाये। परंतु हे प्रभु, क्या ये आपको कुरुप बनाता है ? कदापि नहीं, ये तो आपकी शोभा को और बढ़ाता है। जो व्यक्ति औरों के दुःख दूर करता है उसमें अगर कोई विकार भी हो तो वो पूजा पात्र बन जाता है।
सचमुच यह जगज़ाहिर बात है कि परोपकार की भावना ही वास्तव में मानव को मानव बनाती है। मानवता का भाव वही है जब कोई मानव किसी व्यक्ति, प्राणी, समाज, देश की निःस्वार्थ भाव से सहायता करे। ‘स्व’ के संकीर्ण दायरे से निकलकर ‘पर’ के उदात्त धरातल पर खड़ा मानव निःस्वार्थ भाव से जनकल्याण के कार्य करता है। हम सभी जानते हैं कि अभी पिछले दिनों कोरोना वायरस के बढ़ते संक्रमण को रोकने के लिए किये गए लॉकडाउन के दौर में अपने घर- गांव से बाहर फंसे प्रवासी मजदूरों को घर भेजने की व्यवस्था करने वाले बॉलीवुड एक्टर सोनू सूद ने इसी मानवता का परिचय दिया। वे वर्तमान में भी प्रवासी मज़दूरों के हितरक्षण के प्रति जागरूक हैं।
यजुर्वेद में लिखा है -
मित्रस्याहं भक्षुसा सर्वाणि भूतानि समीक्षे।।
अर्थात्, सभी प्राणियों के प्रति सहृदयता का परिचय देना ही जीवन का सही लक्षण है।
जैन धर्म की बुनियाद ही अहिंसा और परमार्थ पर आधारित है। जैन ग्रंथों में तीर्थंकर देव नेमीनाथ का वृत्तांत कुछ इस प्रकार मिलता है कि द्वापरयुग में नेमीनाथ मूक पशुओं के वध से क्षुब्ध होकर गिरनार पर्वत पर चले गए थे। वहां कठोर तप के बाद उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई और मोक्ष के साथ वे तीर्थंकर कहलाए। नेमिनाथ जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकरों में से बाईसवें तीर्थंकर थे। नेमिनाथ का जन्म सौरीपुर, द्वारका के हरिवंश कुल में श्रावण माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को चित्रा नक्षत्र में हुआ था। उनकी माता का नाम शिवा देवी और पिता का नाम राजा समुद्रविजय था। जैन धर्म-ग्रंथों की प्राचीन अनुश्रुतियों के अनुसार नेमिनाथ का विवाह मथुरा के राजा उग्रसेन की पुत्री राजुलमती से तय किया गया था। विवाह हेतु जब नेमिनाथ मथुरा पहुंचे तो वहाँ उन्होंने एक बाड़े में क्रंदन करते कई पशुओं को देखा। ये सारे पशु बारातियों के भोजन हेतु मारे जाने वाले थे। यह देखकर नेमिनाथ का हृदय करुणा से व्याकुल हो उठा, उन्हें लगा कि उनके विवाह के लिए इतने पशुओं का वध किया जाएगा तो ऐसे विवाह से तो ब्रह्मचर्य जीवन ही उत्तम है। ऐसे विचार आते ही नेमिनाथ के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया और वे विवाह का विचार छोड़कर तपस्या को चले गए। नेमिनाथ ने सौरीपुर में श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को दीक्षा ग्रहण की थी। इसके बाद 54 दिनों तक कठोर तप करने के बाद गिरनार पर्वत पर 'मेषश्रृंग वृक्ष' के नीचे अमावस्या को 'कैवल्य ज्ञान' को प्राप्त किया। 70 साल तक साधक जीवन जीने के बाद आषाढ़ शुक्ल की अष्टमी को नेमिनाथ ने एक हज़ार साधुओं के साथ गिरनार पर्वत पर निर्वाण को प्राप्त किया। बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ को जैन धर्म में श्रीकृष्ण के समकालीन और उनका चचेरा भाई माना जाता है।
ऐसे अनेक प्रसंग हैं जब हिंसा के विरुद्ध, परहितरक्षण हेतु व्यक्ति उठ खड़े हुए और उन्होंने हिंसा का विरोध किया। त्रेतायुग में शबरी को ही लीजिए, वही महान भक्त शबरी जो राम को जूठे बेर खिलाए जाने हेतु जानी जाती है। इस प्रसंग के अलावा शबरी की जीवनकथा के उस अंश से बहुत कम व्यक्ति परिचित हैं, जिसमें शबरी ने भी विवाहोत्सव में होने वाले पशुओं का वध रोकने के उद्देश्य से गृहत्याग कर दिया था। शबरी भील जनजाति के राजा की इकलौती पुत्री थी। शबरी का वास्तविक नाम श्रमणा था। विवाहयोग्य होने पर शबरी का विवाह एक भील कुमार से तय किया गया था। विवाह से पहले सैकड़ों बकरे-भैंसे आदि पशु बलि के लिए लाये गए थे। जिन्हें देख शबरी को बहुत मानसिक पीड़ा हुई। उसे लगा कि यह कैसा विवाह है जिसके लिए इतने सारे पशुओं की हत्या की जाएगी। मन ही मन दृढ़ निश्चय करके वह कन्या शबरी विवाह के एक दिन पहले गृह त्याग कर दंडकारण्य चली गई। वहां ऋषि मतंग ने शबरी को अपने आश्रम शरणदे कर अपनी शिष्या स्वीकार किया। अनुश्रुति है कि अन्य ऋषियों ने इसका भारी विरोध किया। गृहत्याग कर आई भील कन्या भला ऋषि आश्रम में कैसे रह सकती है! किन्तु मतंग ऋषि ने शबरी को पितृवत् संरक्षण दे कर अपने आश्रम में जीवनपर्यंत आश्रय दिया।
ऋषि मतंग जब इहलीला समाप्त कर स्वर्ग लोक जाने लगे तब उन्होंने शबरी को उपदेश किया कि वह परमात्मा मैं अपना ध्यान और विश्वास बनाये रखे। परमात्मा सबसे प्रेम करते हैं। उनके लिए कोई व्यक्ति उच्च या निम्न जाति का नहीं है। उनके लिए सब समान हैं। फिर उन्होंने शबरी को बताया कि एक दिन विष्णु के अवतार राम इस आश्रम में अवश्य आएंगे और उनके दर्शन से शबरी को मोक्ष की प्राप्ति होगी। ऋषि मतंग के स्वर्गारोहण के बाद शबरी ईश्वर भजन में लगी रही और धैर्यपूर्वक राम के आगमन की प्रतीक्षा करती रही…. और एक दिन श्रीराम उसके आश्रम के द्वार पर आए।
वनवास के दौरान जब सीता का हरण लंकापति रावण ने कर लिया, तब व्याकुल राम और लक्ष्मण सीता की खोज में मतंग मुनि के आश्रम तक आ पहुंचे। जहां उन्हें ज्ञात हुआ कि आश्रम में मतंग मुनि की शिष्या शबरी नामक एक वृद्ध स्त्री अपने गुरु की आज्ञा से अपने कुटिया में कई वर्षों से राम के आगमन की प्रतीक्षा कर रही है।
लक्ष्मण सहित राम जब वहां पहुँचे तो भाव विभोर होकर शबरी ने राम का सत्कार किया। रामचरित मानस के अरण्यकाण्ड में तुलसीदास कहते हैं -
सबरी देखि राम गृहँ आए। मुनि के बचन समुझि जियँ भाए।।
अर्थात् शबरी ने राम को घर में आए देखा, तब मुनि मतंगजी के वचनों को याद करके उनका मन प्रसन्न हो गया।
सरसिज लोचन बाहु बिसाला। जटा मुकुट सिर उर बनमाला।।
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई।।
अर्थात् कमल सदृश नेत्र और विशाल भुजाओं वाले, सिर पर जटाओं का मुकुट और हृदय पर वनमाला धारण किए हुए सुंदर, साँवले और गोरे दोनों भाइयों के चरणों में शबरी लिपट पड़ी।
प्रेम मगन मुख बचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा।।
सादर जल लै चरन पखारे। पुनि सुंदर आसन बैठारे।।
अर्थात् शबरी प्रेम में मग्न हो गई, मुख से वचन नहीं निकलता। बार-बार चरण-कमलों में सिर नवा रही है, फिर उसने जल लेकर आदरपूर्वक दोनों भाइयों के चरण धोए और फिर उन्हें सुंदर आसनों पर बैठाया।
तब उदात्त हृदय के धनी, करुणा के साक्षात स्वरूप राम ने शबरी को भामिनी कह कर संबोधित किया। भामिनी शब्द एक अत्यन्त आदरणीय नारी के लिए प्रयोग किया जाता है -
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे।।
जोगि बृंद दुरलभ गति जोई। तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई।।
अर्थात् हे भामिनि! मुझे वही अत्यंत प्रिय है। फिर तुझ में तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है। अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिए सुलभ हो गई है।
शबरी यह सुन कर धन्य हो गयी। उसकी भक्ति और विश्वास उसके इष्टदेव राम को उसके द्वार तक खींच लाया। फिर शबरी ने मीठे फलों से राम का सत्कार किया और सीता की खोज के लिए सुग्रीव तथा हनुमान के बारे में अवगत करा कर उन्हें उनसे मिलने का मार्ग बताया। तत्पश्चात् शबरी राम के आदेशानुसार मृत्युलोक को छोड़ कर मोक्षगति प्राप्त कर स्वर्ग चली गयी।
वाल्मीकि रामायण के अरण्यकाण्ड में शबरी को श्रमणी कहा गया है -
तामुवाच ततो राम: श्रमणीं धार्मसंस्थिताम्।।
उसी अरण्यकांड में शबरी को सिद्धा भी कहा है। अर्थात् अपनी आध्यात्मिक एकाग्रता से, अपने विश्वास और अपनी भक्ति के चरमोत्कर्ष पर पहुंच कर शबरी ने अपने इष्टदेव के दर्शन कर लिए।
रामचरितमानस में भी कहा गया है -
कहे रघुपति सुन भामिनी बाता,
मानहु एक भगति कर नाता।
अर्थात् राम ने कहा की हे भामिनी सुनो, मैं केवल प्रेम का नाता ही मानता हूं। परिवार, जाति का मेरे लिए कोई महत्व नहीं है।
बुंदेली लोकगीत में भी शबरी की गाथा का बहुत सुंदर चित्रण मिलता है -
प्रेम बिबस भगवान, शबरी घर आये,
लम्बी-लम्बी झाडू शबरी डगर बटोरी,
एई डगरिया आये राम, शबरी घर आये। प्रेम...
कुश की चटइया शबरी झाड़ बिछाई,
आसन लगाये भगवान, शबरी घर आये। प्रेम...
काठ की मटकिया शबरी जल भर ल्याई,
चरण पखारूं मैं भगवान, शबरी घर आये। प्रेम...
मीठी-मीठी बेर शबरी दौना भर ल्याई,
भोग लगावे भगवान, शबरी घर आये। प्रेम...
तुलसीदास आस रघुबर की,
शिव री बैकुण्ठ पठाये, शबरी घर आये। प्रेम…
आज भी "माता शबरी का आश्रम" के नाम से प्रसिद्ध स्थल छत्तीसगढ़ के शिवरीनारायण में शिवरीनारायण मंदिर परिसर में स्थित है। शिवरीनारायण छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा ज़िले में आता है। यह बिलासपुर से 64 और रायपुर से 120 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस स्थान को पहले शबरी के नाम पर शबरीनारायण कहा जाता था जो बाद में शिवरीनारायण के रूप में पहचाना जाने लगा। महानदी, जोंक और शिवनाथ नदी के तट पर स्थित यह मंदिर एवं आश्रम प्रकृति के सुंदर दृष्यों से परिपूर्ण हैं।
विवाह कर गृहस्थ जीवन का सुख-भोग करने के बजाए परहित के लिए, प्राणियों की जीवनरक्षा के लिए जहां एक ओर जैन तीर्थंकर नेमिनाथ ने गिरनार पर्वत पर जा कर कठोर तपस्या कर लोककल्याण में जीवन अर्पित किया तो वहीं दूसरी ओर रामकथा की श्रमणी शबरी ने एक कन्या होते हुए भी गृहत्याग का निर्णय कर वनगमन किया और मतंग ऋषि के आश्रम में तपस्विनी का जीवन व्यतीत करना अधिक श्रेयस्कर समझा।
विरले ही मनुष्य ऐसे मिलते हैं जो अपने जीवन में "परहित सरिस धरम नहिं भाई" को चरितार्थ करते हैं ….और इसीलिए वे सदैव पूज्यनीय, स्मरणीय और अनुकरणीय होते हैं।
और अंत में प्रस्तुत हैं मेरी ये काव्यपंक्तियां -
सीख अगर देता है कोई, तो क्या स्वयं निभाता है ?
सही मायने में वह ज्ञानी, जिसने कर्मों में ढाला ।
"वर्षा" वे जन पूजनीय हैं जो परहित के लिए जिए,
शिव ने गले लगाया हंस कर विष से भरा हुआ प्याला ।
-------------
#PostForAwareness #विचारवर्षा
#युवाप्रवर्तक #राम #दीपावली #रामचरितमानस #अहिंसा #धर्म #परहित #शबरी #ऋषि_मतंग #तुलसीदास #सोनू_सूद #शिव #शिवरीनारायण #तीर्थंकर_नेमिनाथ
बहुत-बहुत आभार आपके प्रति 🙏
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद सुशील कुमार जी 🙏
ReplyDeleteशबरी के संदर्भ में अहिंसा और परहित की सटीक सहज व्याख्या...
ReplyDeleteइस प्रेरक लेख के लिए साधुवाद 🙏
बहुत धन्यवाद प्रिय बहन डॉ. (सुश्री) शरद सिंह 🙏
Delete