श्रीराम का नाम मात्र एक नाम नहीं
- डॉ. वर्षा सिंह
नाम व्यक्ति की पहचान होता है और प्रत्येक नाम का अपना एक महत्व होता है। नाम के संदर्भ में जब बात श्रीराम के नाम की आती है तो वह मात्र एक नाम नहीं है बल्कि समूचा व्यक्तित्व प्रबंधन है…और आज 5 अगस्त 2020 बुधवार को करीब 500 वर्षों के बाद राम जन्मभूमि अयोध्या में भव्य श्रीराम मंदिर के भूमि पूजन के साथ मंदिर की आधारशिला रखी जा रही है और राम मंदिर फिर से बनने जा रहा है, यह भारत के लिए न सिर्फ ऐतिहासिक बल्कि भावनात्मक रूप से सबसे बड़ा दिन है... मैं अपने ये विचार आप सबसे साझा कर रही हूं कि इस एक राम नाम में व्यक्तित्व की वह सारी खूबियां मौजूद हैं जिन्हें समझने और जानने के बाद कोई भी व्यक्ति स्वयं को परिष्कृत कर सकता है और अपने जीवन में सफलताएं अर्जित कर सकता है। अक्सर लोग श्रीराम के नाम को धर्म से जोड़ कर ही देखते हैं किंतु उनका नाम धर्म का पर्याय नहीं अपितु संपूर्ण माननीय विशेषताओं का पर्याय है।
व्यक्तित्व प्रबंधन के लिए किन विशेषताओं की आवश्यकता होती है हम पहले इस पर गौर करेंगे। सबसे पहली विशेषता होती है आत्मविश्वास की। श्रीराम का नाम आत्मविश्वास पैदा करता है। राम कथा में ही इसका एक सुंदर उदाहरण देखा जा सकता है। जब वानर सेना भारत और लंका के बीच सेतु बनाने का प्रयास कर रही थी तो उनके द्वारा समुद्र में डाले गए सारे के सारे पाषाण डूबते जा रहे थे और सेतु बनने का नाम ही नहीं ले रहा था। सभी चिंतित थे कि सेतु कैसे बनेगा? यदि सेतु नहीं बनेगा तो वानर सेना राम सहित लंका कैसे पहुंच पाएगी और सीता जी को रावण के चंगुल से कैसे मुक्त करा पाएगी ? लेकिन इस चिंता के साथ ही उनके मन में यह विश्वास जगा कि यदि पाषाण पर श्रीराम का नाम लिखकर समुद्र में डाला जाए तो पाषाण डूबेगा नहीं।
"रामचरितमानस" का यह सोरठा देखें -
सुनहु भानुकुल केतु, जामवंत कर जोरि कह।
नाथ नाम तव सेतु, नर चढ़ि भव सागर तरहिं॥
अर्थात् जाम्बवान् ने हाथ जोड़कर कहा- हे सूर्यकुल की कीर्ति को बढ़ाने वाले ध्वजास्वरूप हे नाथ श्री रामजी! सबसे बड़ा सेतु तो स्वयं आपका नाम ही है, जिस पर चढ़कर अर्थात् जिसका आश्रय लेकर मनुष्य संसार रूपी समुद्र से पार हो जाते हैं।
…. और हुआ भी यही। पाषाण पर श्रीराम का नाम लिखकर जब पत्थरों को समुद्र के पानी में डाला गया तो वह पत्थर तैरने लगे और आपस में इस तरह जुड़ते चले गए कि एक ऐसा सुदृढ़ सेतु बन गया जिस पर से होकर वानर सेना लंका तक जा सकती थी। भले ही यह अतिशयोक्ति प्रतीत हो किंतु इसके पीछे छिपा यथार्थ समझने की आवश्यकता है। यदि मन में विश्वास हो तो कोई भी कार्य असंभव नहीं है । वानर सेना के मन में श्री राम के प्रति अटूट विश्वास था। यह श्रीराम के नाम के प्रति विश्वास ही था जिसने उनके भीतर आत्मविश्वास जगा दिया और वे सेतु बनाने में सफल हो सके।
आत्म प्रबंधन या व्यक्तित्व प्रबंधन के लिए दूसरी विशेषता चाहिए आज्ञाकारिता की। श्रीराम जैसा आज्ञाकारी और कोई व्यक्तित्व अनुकरणीय नहीं है। श्रीराम चाहते तो वे अपने पिता दशरथ की आज्ञा को ठुकरा कर राजा बने रह सकते थे। सतयुग के बाद अनेक ऐसे उदाहरण सामने आते हैं जब पुत्रों ने अपने पिता की आज्ञा की अवहेलना करते हुए स्वयं को राज सिंहासन पर स्थापित किया। यदि हम मुगल काल में देखें तो पिता और पुत्र के बीच टकराव का वीभत्स रूप दिखाई देता है। आगरा से अजमेर तक नंगे पांव चलकर मन्नतें मांग कर जिस पुत्र को अकबर ने पाया था वही पुत्र सलीम बड़ा होकर अपने पिता के विरुद्ध तलवार खींच कर खड़ा हो जाता है। उसका मकसद सिर्फ राजसत्ता यानी सिंहासन पाना था। इसके आगे देखें तो और भी दुर्भाग्यपूर्ण दृश्य दिखाई देता है जब औरंगजेब अपने पिता शाहजहां को इसलिए कारागार में बंदी बना देता है कि वह स्वयं बादशाह बन सके। देखा जाए तो वह अपने पिता को उम्र कैद की सजा दे देता है। अब यदि तुलना करके देखें तो सम्मान और प्रतिष्ठा उस व्यक्ति के नाम को मिलती है जिसने अपने पिता की आज्ञा का पालन करते हुए राजसत्ता का मोह त्याग कर 14 वर्ष के वनवास को स्वीकार किया, वहीं जिस पुत्र ने अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह किया अथवा अपने पिता को कारावास में डाल दिया उसे इतिहास में भी लांछन ही मिला। अब अच्छा और श्रेष्ठ व्यक्तित्व किसका माना जाएगा श्रीराम का या पितृहंता पुत्रों का? स्पष्ट है कि श्रीराम का ही व्यक्तित्व श्रेष्ठ कहलाएगा और एक श्रेष्ठ व्यक्तित्व का नाम श्रेष्ठ आत्म निर्माण की प्रेरणा देता है । ऐसे व्यक्तित्व से सीख मिलती है कि कैसे अपने आप को उत्तम बनाया जाए।
व्यक्तित्व प्रबंधन के लिए तीसरी विशेषता चाहिए सद्भावना की। यदि मन में दूसरों के प्रति कटुता का भाव नहीं है अपितु सद्भावना के विचार हैं तो ऐसा व्यक्ति विशाल व्यक्तित्व का कहलाएगा। यदि श्रीराम के व्यक्तित्व का आकलन किया जाए तो उनमें सद्भावना का सागर लहराता हुआ दिखाई देता है। उनके मन में अपने पिता, अपनी माता कैकई और अपने भाइयों के प्रति कटुता का भाव रंच मात्र नहीं था। उन्होंने भाई भरत को राज सत्ता देना सहर्ष स्वीकार कर लिया था। जिससे भाइयों के मध्य सदैव सद्भाव बना रहा। भरत राजसत्ता का भार ग्रहण करते हुए सिंहासन पर नहीं बैठे क्योंकि उनके सामने श्रीराम के सद्भाव का उदाहरण था। भरत ने भी श्रीराम के पद चिन्हों पर चलते हुए सद्भाव का परिचय दिया तथा श्रीराम की खड़ाऊ को सिंहासन पर रखकर राज्य किया अर्थात वह श्रीराम के प्रतिनिधि बनकर ही शासन संभालते रहे जबकि आगे चलकर द्वापर युग में हम देखें तो पाएंगे कि राजसत्ता के लिए ही भाइयों के बीच रक्त की नदियां बह गई और महाभारत का भयावह युद्ध हुआ। आज भी जमीन-जायदाद को लेकर भाइयों के बीच विवाद चलता रहता है। यह विवाद कभी कोर्ट कचहरी तक जाता है तो कभी-कभी आपसी मारपीट और हत्या तक पहुंच जाता है। यह सद्भावना की कमी के कारण होता है। यदि श्रीराम के चरित्र का अनुकरण किया जाए तो 14 वर्ष के वनवास के बाद भी राज्य शासन प्रतीक्षारत मिलता है यह बात गंभीरता से विचार करने योग्य है। सद्भावना का गुण व्यक्तित्व को उच्चता और श्रेष्ठता प्रदान करता है। अतः जब हम अपने व्यक्तित्व के प्रबंधन पर विचार करते हैं तो हमें श्रीराम के व्यक्तित्व का स्मरण करना चाहिए किसी धर्म विशेष से छोड़कर नहीं बल्कि एक श्रेष्ठतम व्यक्तित्व के रूप में, जिसने युगों-युगों तक अपने व्यक्तित्व से सभी को प्रभावित किया।
आज के उपभोक्तावादी युग में व्यक्ति स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरे को सबसे छोटा सिद्ध करने पर तुला रहता है, भले ही ऐसा करते हुए वह स्वयं छोटा साबित हो जाता है। जबकि देखा जाए तो इस दुनिया में न कोई बड़ा होता है और न कोई छोटा। प्रत्येक मनुष्य की अपनी अहमियत होती है। कुर्सी पर अधिकारी के रूप में बैठने वाला व्यक्ति अथवा बड़े से बड़े पद पर आसीन व्यक्ति ही बड़ा नहीं होता है वरन् बड़ा तो वह भी होता है जो छोटा काम करता प्रतीत होता है। जबकि वस्तुतः कोई काम छोटा नहीं होता है। यदि मोची जूता न बनाएं अथवा न सुधारे तो नंगे पांव घूमने की नौबत आ जाएगी। इसी प्रकार यदि कुंभकार घड़े न बनाएं, दीया न बनाएं, तो न ठंडा पानी मिलेगा और न पूजा के लिए माटी के पवित्र दीपक मिलेंगे। छोटे बड़े का भेदभाव करना ही मूर्खता है। इस तरह की मूर्खता व्यक्तित्व को छोटा बना देती है, वहीं सभी व्यक्तियों को समान समझना और उनके गुणों का सम्मान करना व्यक्तित्व को विराटता प्रदान करता है, जैसा कि हम श्री राम के व्यक्तित्व में देख सकते हैं। उन्होंने न शबरी को छोटा समझा और न वानरों को।
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता।
मानउँ एक भगति कर नाता।।
अर्थात् श्रीराम ने शबरी से कहा- हे भामिनि! मेरी बात सुन! मैं तो केवल एक भक्ति का ही संबंध मानता हूँ॥
राम ने उन सभी के प्रेम और गुण को स्वीकार किया और उन्हें भी श्रेष्ठता का अनुभव होने दिया। यही तो व्यक्तित्व की श्रेष्ठता है। श्रीराम के व्यक्तित्व से इस गुण को भी आत्मसात करने की आवश्यकता है यदि हम अपने व्यक्तित्व को श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं।
श्रीराम एक वैश्विक चरित्र हैं। उन्होंने राज्य विस्तार के लिए कभी दूसरे देश पर आक्रमण नहीं किया, लेकिन जब सीता जी का अपहरण कर लिया गया तो उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि वे अन्याय के विरुद्ध खड़े हो सकते हैं और अन्यायी को दंडित कर सकते हैं। वे मात्र दो भाई थे राम और लक्ष्मण जिन्होंने रावण की विशाल सेना का सामना करने का निश्चय किया और लंका पहुंचकर सीता जी को मुक्त करा लाने का निश्चय किया। जब कोई व्यक्ति अच्छे कार्य के लिए दृढ़ निश्चय से मैदान में उतरता है तो उसे समर्थक अपने आप मिल जाते हैं जैसे कि श्रीराम को संपूर्ण वानर सेना, भाल्लुक सेना और यहां तक कि गिद्ध पक्षी से भी सहायता और समर्थन प्राप्त हुआ । यह आत्मविश्वास सभी को समान मानने का गुण ही था जिसने श्री राम को ऐसे विपरीत युद्ध में विजयश्री दिलवाई। आज जीवन में अनेक विपरीत परिस्थितियां पाई जाती हैं। बेरोजगारी सबसे बड़े विपरीत परिस्थिति है जिससे युवा अक्सर घबरा जाते हैं और निराशा में डूब जाते हैं, ऐसे युवाओं को श्रीराम के व्यक्तित्व से प्रेरणा लेनी चाहिए कि परिस्थितियां कितनी भी विपरीत क्यों न हो अगर सच्चे मन से सिर्फ निश्चय के साथ डटे रहा जाए तो सफलता एक न एक दिन अवश्य मिलती है।
तात्पर्य यह है कि श्रीराम का नाम मात्र एक नाम नहीं है जिसे भजन के रूप में गा कर, सुबह-शाम स्मरण कर अपने व्यक्तित्व को विकसित मान लिया जाए। यदि व्यक्तित्व को समुचित विकास करना है, वर्तमान जीवन में सफलताएं प्राप्त करनी हैं तो श्रीराम के व्यक्तित्व के गुणों को आत्मसात करके स्वयं के व्यक्तित्व प्रबंधन को निखारना चाहिए।
और अंत में मेरा यह दोहा -
राम नाम के मर्म को, यदि समझें हम-आप।
बैर, क्लेष, कुण्ठा मिटे, मिटे सकल संताप ।।
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