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Wednesday, December 30, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 31| आत्ममुग्धता, सती अनुसूया और नववर्ष के संकल्प | डॉ. वर्षा सिंह


प्रिय मित्रों, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज प्रस्तुत है मेरा आलेख -  "आत्ममुग्धता, सती अनुसूया और नववर्ष के संकल्प" 
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 30.12.2020

मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं-

बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

आत्ममुग्धता, सती अनुसूया और नववर्ष के संकल्प   
    -डॉ. वर्षा सिंह

नववर्ष 2021 के आगमन में मात्र एक दिन शेष है …. और अनेक खट्टी मीठी यादें छोड़ कर जाते हुए वर्ष 2020 के इन अंतिम दिनों की सुबह, अख़बार में स्थानीय समाचारों वाले पृष्ठ पर प्रकाशित एक समाचार ने मन विचलित कर दिया। समाचार एक बाइक दुर्घटना में जान से हाथ धो बैठे युवक से संबंधित था। उस युवक को मैं जानती थी। वह कुछ महीनों के लिए आउटसोर्सिंग के ज़रिए विद्युत विभाग में लाइन परिचारक के रूप में काम कर चुका था। वहां किसी मसले पर प्रभारी कनिष्ठ अभियंता यानी अपने बॉस से खटपट हो जाने के कारण उसने वह जॉब छोड़ दिया था और स्वतंत्र रूप से इलेक्ट्रीशियन का काम करने लगा था। तब यही सुना था कि वह अपने आपको दुनिया से ऊपर समझता था, सही है तो वह स्वयं, बाकी सभी लोग ग़लत हैं। या यह कह सकते हैं वह एक तरह की आत्ममुग्धता यानी नॉर्सिसिज़म का शिकार था। समाचार में दुर्घटना की वज़ह उस युवक द्वारा एक ट्रक को ओव्हरटेक करने में हुई चूक को बताया गया था। ओव्हरटेक करते समय ऐसी चूक हो जाना ही घातक दुर्घटना का कारण बनती है। प्रायः बाईक चालक आत्ममुग्धताजनित ओव्हरकांफिडेंस की वज़ह से ही सामने जा रही गाड़ी की रफ़्तार का सही अंदाज़ा नहीं लग पाता और रफ़्तार का सही- सही आकलन नहीं कर पाने के कारण उस गाड़ी के रांग साइड वाले बाजू से निकल कर आगे बढ़ने की चाहत ही ऐसी घातक सड़क दुर्घटना का कारण बन जाती है।
     आत्मगौरव यानी सेल्फकांफिडेंस जितना लाभप्रद सिद्ध होता है उतनी ही आत्ममुग्धता यानी नॉर्सिसिज़म घातक सिद्ध होती है। यह आत्ममुग्धता प्रायः घमण्ड का भी कारण बन जाती है। इसके अनेक रूप हैं, अनेक उदाहरण हैं। आजकल तो यह फैशन बन गया है। नम्रता विलुप्त होती जा रही है और स्वयं को मानो सर्वशक्तिमान भगवान समझ कर दूसरों को स्वयं से कमतर, उपेक्षित समझने- आंकने का चलन बढ़ता जा रहा है।
   प्रसंगवश मैं स्मरण दिलाना चाहूंगी कि  परी कथाओं में "स्नो व्हाइट और सात बौने" की कहानी में यही हुआ था। यूरोप की एक बहुप्रचलित लोककथा के अनुसार किसी राज्य में एक राजा की रानी ने एक सुन्दर सी बेटी को जन्म दिया, जिसका नाम उन्होंने स्नो व्हाइट रखा। पूरे राज्य में खुशियां ही खुशियां थी, लेकिन यह खुशी ज्यादा दिनों तक नहीं रह सकी। कुछ दिनों बाद जब राजा और रानी जंगल में घूमने गए, तो एक जादूगरनी ने मौका पाकर रानी को चिड़िया बना दिया और अपने पास पिंजरे में कैद कर लिया। रानी के अचानक गायब होने से राजा को लगा कि रानी की मौत हो गई। राजा बहुत दुखी हुए और उन्होंने स्नो व्हाइट की देखभाल और मां के प्यार के लिए दोबारा शादी की। लेकिन, जिससे उन्होंने शादी की, वो वही जादूगरनी थी जिसने रानी को चिड़िया बनाकर कैद कर लिया था। उस जादूगरनी ने रूप बदलकर राजा के साथ शादी की थी। उसकी चिड़िया को देख स्नो व्हाइट बहुत खुश हुई और उसने वो चिड़िया उससे मांग ली। इस बात से अनजान की वो चिड़िया उसकी मां है, स्नो व्हाइट उसे बहुत प्यार से अपने पास रखती। उस जादूगरनी को इस बात का घमण्ड था कि वह पूरी दुनिया में सबसे खूबसूरत है। उस जादूगरनी के पास एक जादुई आईना था, जिससे वह घमण्ड की हद तक जा पहुंचे आत्ममुग्धता या नॉर्सिसिज़म में भर कर हर रोज पूछती कि "ऐ मेरे आईने, बता कि दुनिया में सबसे सुंदर कौन है?" हर बार आईने का जवाब होता - "मेरी मलिका, आप ही हैं दुनिया की सबसे सुंदर औरत। "
   लेकिन जब स्नो व्हाइट जब बड़ी हुई तो उस 
आईने ने का जवाब बदल गया। जादूगरनी को पूछने पर वह कहने लगा - "मेरी मलिका, आप हैं दुनिया की सबसे सुंदर औरत। लेकिन आपसे भी ज़्यादा सुंदर है स्नो व्हाइट ।"
    यह सुनकर जादूगरनी को बहुत गुस्सा आता। एक दिन उसने फैसला कर लिया कि वो स्नो व्हाइट को मार डालेगी। फिर उसने स्नो व्हाइट की जान लेने के तरह-तरह के प्रयास किए, लेकिन स्नो व्हाइट जंगल में भाग गई। जादूगरनी ने समझा कि स्नो व्हाइट मर चुकी है और वह ख़ुश हो गई।
       स्नो व्हाइट जब वह जंगल में भटक रही थी कि उसकी नजर एक छोटी-सी झोपड़ी पर गई। वहां, उसने देखा कि बहुत छोटी-छोटी सात प्लेट लगी हैं और उसमें कई तरह के भोजन हैं। स्नो व्हाइट को भूख भी लगी थी, तो उसने हर प्लेट में से थोड़ा-थोड़ा भोजन कर लिया और फिर वहां लगे सात बिस्तर में से एक  पर लेट गई। लेटे-लेटे उसे नींद आ गई और वो सो गई। तभी वहां सात बौने आए। जैसे ही उनकी नजर स्नो व्हाइट पर पड़ी, उसकी खूबसूरती देख बौने उसे देखते ही रह गए। तभी स्नो व्हाइट की नींद खुली और उसने डरते हुए बौनों को सारी बात बताई। बौने उसकी बात सुनकर चौंक गए और उन्होंने स्नो व्हाइट को हमेशा अच्छा खाना बनाने और उनके घर की देखरेख करने की शर्त पर अपने साथ रख लिया।
   एक दिन उस जादूगरनी रानी ने फिर से अपने जादुई आईने से पूछा कि "ऐ मेरे आईने, बता कि दुनिया में सबसे सुंदर कौन है?" आईने ने फिर कहा, "मेरी मलिका, आप हैं दुनिया की सबसे सुंदर औरत। लेकिन आपसे भी ज़्यादा सुंदर है स्नो व्हाइट ।"’
     रानी यह सुनकर हैरान रह गई । वह समझ रही थी कि स्नो व्हाइट मर चुकी है। जादुई आईने ने उसे बताया कि स्नो व्हाइट बौनों की झोपड़ी में रहती है। यह सुनने के बाद जादूगरनी रानी ने जादू से जहरीला सेब बनाया और उसे स्नो व्हाइट को खिला कर स्नो व्हाइट को मारने के लिए अपना रूप बदलकर स्नो व्हाइट के पास पहुंची। उसने स्नो व्हाइट को सेब चखने के लिए वो जहरीला सेब दिया। स्नो व्हाइट उसे बूढ़ी औरत समझकर मना नहीं कर सकी और उसने वह जहरीला सेब चख लिया। सेब चखते ही स्नो व्हाइट को नींद आने लगी। तभी वह जादूगरनी अपने असली रूप में आ गई और स्नो व्हाइट के सामने हंसने लगी। स्नो व्हाइट अपनी सौतेली मां को देख हैरान रह गई और गहरी नींद में चली गई। उसके कुछ देर बाद ही वहां बौने आए और स्नो व्हाइट को वहां पड़ा देख वो दुखी हो गए। उन्होंने स्नो व्हाइट को मृत समझ कर उसे एक शीशे के ताबूत में रख दिया। तभी वहां घूमता-फिरता एक राजकुमार आया जो स्नो व्हाइट से पहले मिल चुका था। स्नो व्हाइट को वहां इस तरह ताबूत में देख कर वह बहुत दुखी हुआ। उसने बौनों से स्नो व्हाइट को अंतिम विदा देने के उद्देश्य से उसका स्पर्श करने की इच्छा प्रकट की। दुखी बौनों ने इसे स्वीकार कर ताबूत का ढक्कन खोल दिया। राजकुमार ने द्रवित हो कर स्नो व्हाइट के माथे का स्पर्श किया फिर अचानक भावुकतावश स्नो व्हाइट को चूम लिया। राजकुमार और बौने चकित रह गए। यह क्या ? राजकुमार ने के चूमते ही जादूगरनी का जादू समाप्त हो गया और स्नो व्हाइट को होश आ गया। स्नो व्हाइट ने अपने पिता, अपनी मां और जादूगरनी के बारे में सारी बात बताने पर बौनों और राजकुमार को बतायी। तब वे सभी राजा के पास पहुंचे। स्नो व्हाइट को देख राजा खुश हो गया। उन्होंने राजा को सारी बात बता दी और फिर बौनों ने अपनी शक्ति से जादूगरनी के जादू को खत्म कर दिया। जादू खत्म होते ही चिड़िया बनी असली रानी यानी स्नो व्हाइट की मां अपने रूप में आ गई। राजा और स्नो व्हाइट रानी को देख बहुत खुश हुए और जादूगरनी को बंदी बनाने का आदेश दे दिया। जादूगरनी का जादू समाप्त हो जाने के कारण उसका वह जादुई आईना भी टूट कर नष्ट हो गया। राजा-रानी ने स्नो व्हाइट का विवाह उस  राजकुमार से कर दिया और  बौनों को उचित उपहार दे कर विदा कर दिया। 
   स्नो व्हाइट की इस कहानी में जादूगरनी रानी द्वारा पूरी दुनिया में स्वयं को सबसे ज़्यादा सुंदर समझने का आत्ममुग्धता यानी नॉर्सिसिज़म, मासूम स्नो व्हाइट की मुसीबतों का कारण बन गया था। लेकिन तमाम चालें चलने के बावज़ूद निर्दोष स्नो व्हाइट को वह हानि नहीं पहुंचा पाई, उल्टे वह जादूगरनी इस कहानी में खलनायिका के रूप में जानी गई।    

    हमारे प्राचीन ग्रंथों में ऐसी कथाएं वर्णित हैं जिनके पठन-मनन से हम यह समझ सकते हैं कि आत्ममुग्धता में स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझने का घमण्ड और दूसरों को स्वयं से कमतर समझना उचित नहीं होता। ऐसी समझ के वशीभूत किए गए कार्यों में अनेक दफ़ा पासे उल्टे पड़ जाते हैं। इस तरह का आत्ममुग्धता अथवा स्वयं को सबसे ज़्यादा मानने का भ्रम सिर्फ़ मानव ही नहीं देवी- देवताओं में भी जब उत्पन्न हो जाता है तो उन्हें भी विपरीत परिस्थितियों का सामना करने हेतु विवश होना पड़ता है। 
     हमारे पौराणिक ग्रंथों में एक कथा है सती अनुसूया की, जिसमें त्रिदेवियों ब्रह्माणी, लक्ष्मी और महागौरी ने पतिव्रत-धर्मपालन के मामले में आत्ममुग्धता के चलते स्वयं को सबसे ज़्यादा और अनुसूया को स्वयं से कमतर समझने की भूल कर दी थी। 
     त्रेतायुग में प्रजापति कर्दम और देवहूति की नौ कन्याओं में से एक थी अनसूया, जिसका विवाह महर्षि अत्रि से हुआ था। अनुसूया पतिव्रता स्त्री थी और उसके पतिव्रत धर्म का तेज इतना अधिक था कि उसके कारण आकाशमार्ग से जाते देवों को उसकी तेजस्विता का अनुभव होता था। इसी कारण लोग उन्हें 'सती अनसूया' भी कहते थे। प्रचलित कथा के अनुसार एक बार महर्षि नारद त्रिदेव - ब्रह्मा, विष्णु और महेश के दर्शन की अभिलाषा से स्वर्ग लोक पहुंचे। वहां त्रिदेवियों सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती से चर्चा के दौरान वे कह बैठे कि तीनों लोकों अर्थात् स्वर्ग लोक, मृत्यु लोक और पातल लोक में अनसूया से बढ़कर कोई पतिव्रता स्त्री नहीं है। नारद मुनि की बात सुनकर त्रिदेवियों को बहुत बुरा लगा। उन्होंने महर्षि नारद से कहा कि - " असम्भव, यह कैसे सम्भव हो सकता है कि मृत्यु लोक की कोई मानवी हम देवियों से अधिक पतिव्रता हो। हम नहीं मान सकतीं, नारद जी ! आप मिथ्या भाष कर रहे हैं।" 
"आप लोगों को विश्वास नहीं है तो आप स्वयं इस बात का पता लगा लें।" - कह कर नारद तो वहां से चले गए लेकिन त्रिदेवियों की आत्ममुग्धता यानी नॉर्सिसिज़म पर कुठाराघात कर गए थे।

जब इस आत्ममुग्धता पर कुठाराघात की पीड़ा असहनीय हो गई तो त्रिदेवियों ने अपने पतियों अर्थात् त्रिदेव - ब्रह्मा, विष्णु और महेश को अनसूया के सतीत्व की परीक्षा लेने के लिए मृत्युलोक भेजा। उचित-अनुचित के विषय में विचार किए बिना पत्नियों के अनुरोध पर तीनों देवता महर्षि अत्रि के आश्रम में साधु वेष में जा पहुंचे। महर्षि अत्रि वहां नहीं थे। त्रिदेवों ने उनकी पतिव्रता धर्मपत्नी अनसूया से नग्नावस्था में भोजन करवाने का अनुरोध किया। अनुसूया असमंजस में पड़ गई। यह कैसा अनुरोध है? साधु हो कर ऐसी अनुचित भिक्षा की मांग ? किन्तु साधुओं को बिना भोजन कराये वापस भी नहीं भेज सकती थी। तब अनुसूया ने युक्तिपूर्वक निर्णय ले कर आश्रम में रखे अपने पति अत्रि के कमंडल से तीनों देवों पर जल छिड़ककर उन्हें शिशु रूप में परिवर्तित कर दिया और नग्नावस्था में स्तनपान करा दिया। अनेक वर्षों तक जब तीनों देव अपने स्थानों पर नहीं पहुंचे तो चिंतित होकर तीनों देवियां अनुसूया के आश्रम पहुंची, और अनुसूया से कहने लगीं कि अनेक वर्षों पहले हमारे पति आपके आश्रम में आए थे, वे कहां हैं? कृपया हमारे पतियों को हमें सौंप दीजिए।” अनुसूया ने विनम्रतापूर्वक त्रिदेवियों को प्रणाम किया और कहा कि - “देवियों! उन पालनों में सोने वाले शिशु यदि आप के पति हैं तो इनको आप ले जा सकती हैं।” तीनों देवियों ने चकित रह गईं, वहां तीन पालने रखे थे जिनमें एक समान लगने वाले तीनों शिशु गहरी निद्रा में सो रहे थे। इस पर लक्ष्मी, सरस्वती और पार्वती संकोच करने लगीं। तभी वहां महर्षि नारद आ गए। उन्होंने त्रिदेवियों से पूछा, -”अरे, क्या आप अपने पति को पहचान नहीं पा रही हैं ?” नारद  के ऐसा कहने पर देवियों ने लज्जित हो गईं। उन्होंने आत्ममुग्धता में पड़ कर अनुसूया से उसके पतिव्रता होने की परीक्षा लेने के लिए क्षमा मांगी और शीघ्रता से एक-एक शिशु को उठा लिया। तत्काल ही वे शिशु एक साथ त्रिमूर्तियों के रूप में प्रकट हो गए। नारद जी हंस कर बोले - "अरे, यह क्या?" सबने देखा कि सरस्वती ने शिव को, लक्ष्मी ने ब्रह्मा को और पार्वती ने विष्णु को उठा लिया है। वे तीनों देवियां अत्यंत लज्जित होकर दूर जा खड़ी हो गई। देवगण समझ गए कि देवियों को सबक मिल चुका है कि आत्ममुग्धता सदैव अच्छी नहीं होती। इसके परिणाम गम्भीर भी हो सकते हैं। तब मुस्कुराते हुए ब्रह्मा, विष्णु और महेश इस तरह सटकर खड़े हो गए, मानो तीनों एक ही मूर्ति के रूप में मिल गए हो। उन्होंने त्रिदेवियों से कहा - "देवियों, मृत्यु लोक में भी पतिव्रता स्त्रियों की कमी नहीं है। आत्ममुग्धता घमण्ड का कारण बन जाता है और घमण्ड बुद्धि के विनाश का कारण।" 
      उसी समय महर्षि अत्रि अपने आश्रम लौट आए। वहां त्रिमूर्तियों को पाकर उनकी अर्चना करने लगे। चूंकि अनुसूया ने अपने कर्तव्य, अपने संस्कार, अपनी मर्यादा की रक्षा हेतु अपनी सूझबूझ से देवगण को शिशुरूप प्रदान कर दिया था और माता अनुसूया के लालनपालन में देवगण पुत्र रूप में अपने दिन बिता चुके थे अतः त्रिमूर्तियों ने प्रसन्न होकर अत्रि एवं अनुसूया को वरदान दिया कि वे सभी स्वयं उनके पुत्र के रूप में अवतार लेंगे। बाद में त्रिमूर्तियों की समन्वित शक्ति का अवतरण विष्णु अवतारी दत्तात्रेय के रूप में, ब्रह्मा के स्वररूप से चन्दमा अर्थात् सोमदेव और शिव के स्वरूप से महर्षि दुर्वासा उत्पन्न हुए। इसीलिए पुराणों में अनुसूया को सती शिरोमणि का स्थान दिया गया है।
      वर्तमान समय में चित्रकूट धाम में मंदाकिनी नदी के तट पर सती अनुसूया अथवा अनुसुइया आश्रम एक पवित्र एवं धार्मिक सिद्ध स्थल माना जाता है। इस आश्रम का सौन्दर्य एवं भव्यता दर्शनीय है। यहां निर्मित मुख्य मन्दिर का सौन्दर्य अद्वितीय है। यहां दीवारों पर भव्य चित्रकारी की गई है। महर्षि अत्रि के साथ अनुसूया के विवाह का दृश्य, अनुसूया का पति की आज्ञा से पानी लेने जाने का दृश्य, त्रिदेव ब्रम्हा, विष्णु, महेश भिक्षुवेश में माता से भोजन मांगने का दृश्य, त्रिदेवों को बालक रूप में पालने पर झुलाने का दृश्य, त्रिदेवियों द्वारा अपनी भूल से पति वियोग में परेशान एवं अनुसूया से क्षमा मांगने आदि दृश्य चित्रित किए गए हैं। 
     इसी प्रकार उत्तराखंड स्थित चमोली ज़िले में भी गोपेश्वर नामक स्थान में भी अनसूया मंदिर स्थापित है। एक अन्य अनुश्रुति के अनुसार अनसूया मंदिर के निकट अनसूया आश्रम में त्रिदेवों - ब्रह्मा, विष्णु व महेश ने अनुसूया के सतीत्व की परीक्षा ली थी। तब से इस स्थान पर सती मां अनसूया को पुत्रदायिनी के रूप में पूजा जाता है। मार्गशीष पूर्णिमा को प्रत्येक वर्ष दत्तात्रेय जयंती पर गोपेश्वर में दो दिन विशाल मेला भी लगता है। 

रामकथा में भी सती अनुसूया का उल्लेख बहुत आदरपूर्वक मिलता है। रामचरितमानस के अरण्यकाण्ड में तुलसीदास ने अनुसूया आश्रम में राम, सीता, लक्षमण के आगमन का वर्णन करते हुए लिखा है -

अनुसुइया के पद गहि सीता। मिली बहोरि सुसील बिनीता॥
रिषिपतिनी मन सुख अधिकाई। आसिष देइ निकट बैठाई॥
अर्थात् फिर परम शीलवती और विनम्र सीता अनुसूया अथवा अनुसुइया के चरण पकड़कर उनसे मिलीं। ऋषि पत्नी के मन में बड़ा सुख हुआ। उन्होंने आशीष देकर सीता को पास बैठा लिया।

दिब्य बसन भूषन पहिराए। जे नित नूतन अमल सुहाए॥
कह रिषिबधू सरस मृदु बानी। नारिधर्म कछु ब्याज बखानी॥
अर्थात्  और उन्हें ऐसे दिव्य वस्त्र और आभूषण पहनाए, जो नित्य-नए निर्मल और सुहावने बने रहते हैं। फिर ऋषि पत्नी अपनी मधुर और कोमल वाणी से स्त्रियों के कुछ धर्म बखान कर कहने लगीं।

मातु पिता भ्राता हितकारी। मितप्रद सब सुनु राजकुमारी॥
अमित दानि भर्ता बयदेही। अधम सो नारि जो सेव न तेही॥
अर्थात्  हे राजकुमारी! सुनिए- माता, पिता, भाई सभी हित करने वाले हैं, परन्तु ये सब एक सीमा तक ही सुख देने वाले हैं, परन्तु हे वैदेही! पति तो मोक्ष रूपी असीम सुख देने वाला है। वह स्त्री अधम है, जो ऐसे पति की सेवा नहीं करती।

इस प्रकार स्नो व्हाइट की कथा उसकी जादूगरनी सौतेली रानीमां की आत्ममुग्धता और अनुसूया की कथा त्रिदेवियों की आत्ममुग्धता के दुष्परिणाम को व्याख्यायित करने वाली भी कथा है। आत्ममुग्धता यानी नॉर्सिसिज़म मनोविज्ञान में मनोरोग की श्रेणी में रखा गया है। जिससे ग्रसित व्यक्ति स्वयं के समक्ष समस्त जगत को हीन और तुच्छ समझने का भ्रम पाल लेता है। वर्तमान समय में संस्कारों में गिरावट के चलते सबसे आगे बढ़ने की अंधी दौड़ में शामिल हमारे देश की युवापीढ़ी किसी महामारी के समान ही घातक आत्ममुग्धता की मानसिक बीमारी से लगातार ग्रसित होती जा रही है, जिसके दुष्परिणाम भी गाहेबगाहे दिखाई देते रहते हैं। 
     हम सभी नववर्ष में आगामी समय में अपनी, अपने समाज अपने देश- दुनिया की बेहतरी के लिए कुछ न कुछ संकल्प ज़रूर लेते हैं। तो आईए, वर्ष 2020 में तेज़ी से फैली वैश्विक कोरोना महामारी से समूचे विश्व के मुक्त होने की कल्याणकारी भावना के साथ ही इस नववर्ष  2021 में अन्य संकल्पों के साथ ही हमें यह भी संकल्प लेना होगा कि हम आत्ममुग्धता की महामारी से भी स्वयं को बचाए रखें और दूसरे व्यक्तियों के आत्मसम्मान की उपेक्षा न करते हुए अपने भीतर सभी को समान रूप से देखने वाली एक साफसुथरी दृष्टि को विकसित कर भारतीय जीवन मूल्यों का संरक्षण करें।
    और अंत में प्रस्तुत है मेरा यह मुक्तक - 

यूं  स्वयम्  के  लिए  सोचते  हैं सभी
कुछ तो  सोचें  कभी  दूसरों के लिए
मुग्ध हो कर स्वयं पर जिए भी तो क्या
शिव वही  जो  गरल  मुस्कुरा के पिए

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Wednesday, December 23, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 30 | मर्यादा, फ़रिश्ते और सती सुलोचना | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज प्रस्तुत है-  " मर्यादा, फ़रिश्ते और सती सुलोचना" 
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 23.12.2020

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बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

मर्यादा, फ़रिश्ते और सती सुलोचना 
     
     -     डॉ. वर्षा सिंह

     जाड़े में धूप बहुत अच्छी लगती है। पिछले दिनों नहाने के बाद अपने गीले बालों को सुखाने के उद्देश्य से मैं अपने घर की दूसरी मंज़िल पर बालकनी में आ रही धूप में कुर्सी डाल कर बैठी थी। तभी नीचे सड़क पर शोर सुनाई दिया। मैंने उत्सुकतावश झांक कर देखा, मेरी कॉलोनी के दो बच्चे मोनू और लकी आपस में झगड़ रहे थे और एक बच्चे लकी की मम्मी उन्हें समझा रही थी। झगड़े की वज़ह थी ऑनलाइन पढ़ाई के दौरान मोनू ने लकी के इंटरनेट का वाई-फाई पासवर्ड जान कर डाटा चुरा लिया था… लकी कह रह था कि मोनू ने एक तो मेरा इंटरनेट पासवर्ड चुराया फिर मुझसे ही लड़ रहा है और मुझे मार रहा है। मैं भी इस फ्रम्पिश, रबिश मोनू को मारूंगा। आप मुझे मत रोकिए …. और लकी की मम्मी अपने बेटे लकी को समझा रही थी कि आपस में लड़ना बुरी बात है, इंटरनेट का पासवर्ड बदल लो ताकि भविष्य में फिर ऐसी नौबत न आए। फिर मोनू को भी समझाया कि चोरी अच्छी बात नहीं है, वे उसकी मम्मी से कह कर उसे और अधिक इंटरनेट डाटा दिलवा देंगी। यह सुन कर मोनू तो अपनी ग़लती स्वीकार करके चला गया लेकिन लकी फिर भी मोनू को मारने बात दोहरा रहा था। लकी की मम्मी लकी को समझाते हुए अपने घर जाने लगी। वह कह रही थी कि ''मोनू चोरी करता है, मारपीट करता है, क्या तुम भी उस जैसे बन जाओगे? फिर उसमें और तुममें फ़र्क ही क्या रहेगा?  लोग तुम्हें भी फ्रम्पिश (झगड़ालू), फूलिश (मूर्ख), रबिश (तुच्छ) कहेंगे।'' 
   मुझे लकी की मम्मी की बात बेहद अच्छी और समझदारीपूर्ण लगी। मुझसे रहा नहीं गया। मैं लकी को पुकार कर बोल पड़ी - "सही कह रही हैं तुम्हारी मम्मी ! लकी, तुम तो जीनियस हो, दूसरों की बुरी आदतों से दूर ही रहना बेटा, वरना तुम भी उन जैसे ही कहलाओगे।"
    मेरी बात सुन कर लकी की मम्मी ने सिर उठा कर मुझे देखा और मुझसे अभिवादन कर कृतज्ञता भाव से कहने लगी-" थैंक्यू दीदी, मैं हमेशा यही समझाती हूं लकी को कि दूसरे ख़राब आदतों वाले लड़कों जैसे मत बनो, अपनी मर्यादा मत भूलो...।"
फिर कुछ और बातें करने के बाद वह लकी को ले कर अपने घर चली गई।
किन्तु मेरे विचारों की श्रृंखला कड़ी-दर-कड़ी जुड़ती चली गई।
       मुझे याद आ गई मर्यादित होने से संबंधित वह कहानी जो एक फ़क़ीर से संबंधित है और बहुत पहले मैंने कहीं किसी पत्रिका में पढ़ी थी। कहानी कुछ इस प्रकार है कि एक बार एक फ़क़ीर अपने शागिर्दों के साथ कहीं जा रहे था। रास्ते में उसके शागिर्दों का एक विरोधी मिल गया। वह उसके शागिर्दों को बुरा-भला कहने लगा। जब फ़क़ीर और उसके शागिर्दों ने कोई जवाब नहीं दिया तो वह उसके शागिर्दों को गालियां देने पर उतर आया। गालियां सुन कर भी फ़क़ीर कुछ नहीं बोला। लेकिन शागिर्दों से नहीं रहा गया। वे बर्दाश्त नहीं कर पाए और पलट कर वे भी उस विरोधी को गाली देने लगे। अभी तक फ़क़ीर जो शागिर्दों के साथ खड़े था, शागिर्दों द्वारा उस विरोधी को गाली देते ही, शागिर्दों का साथ छोड़ कर आगे बढ़ लिया। जब फ़क़ीर के शागिर्दों ने देखा कि वे अकेले पड़ गए हैं, तो वे भी वहां से आगे बढ़ कर फ़क़ीर के पास पहुंच गए और दुखी स्वर में कहने लगे कि - "गुरू जी, वह हमें गालियां दे रहा था और आप हमें वहां अकेला छोड़ कर आगे बढ़ गए। ऐसा क्यों किया आपने ? हमने ऐसा हरगिज़ नहीं सोचा था कि आप ऐसे हालात में हमें अकेला छोड़ देंगे।"
      तब फ़क़ीर ने फरमाया कि - "मेरे शागिर्दों, मैं देख रहा था कि वह तुम्हारा विरोधी जब तुम्हें बुरा-भला कह रहा था, फिर गालियां दे रहा था तो तुम्हारी हिफ़ाज़त वहां अदृश्य रूप में मौज़ूद फ़रिश्ते कर रहे थे। लेकिन जब तुमने भी उलट कर उसके जैसी गालियां उसे देनी शुरू कर दीं, तो वे फ़रिश्ते वहां से रुख़सत हो गए… और मेरे शागिर्दों, जब वहां फ़रिश्ते नहीं रुके तो मैं भला कैसे रुकता ! क्योंकि तुममें और उस शख़्स में कोई फ़र्क रहा ही कहां था। अगर वह तुम्हें गालियां दे रहा था तो तुम भी उसे गालियां दे रहे थे।"
    फ़क़ीर के शागिर्दों को अपनी ग़लती समझ में आ गई थी और वे शर्मिंदगी महसूस करने लगे थे।

      रामकथा में भी एक बहुत सुंदर प्रसंग है सती सुलोचना और मेघनाद का। त्रेतायुग की सती सुलोचना की कथा का उल्लेख वाल्मीकि रचित रामायण और तुलसीदास रचित रामचरितमानस में नहीं है। किन्तु अनेक पौराणिक ग्रंथों सहित प्राचीन तमिल ग्रंथों में इसका प्रमुखता से उल्लेख मिलता है। 

    सुलोचना लंकापति रावण के पराक्रमी पुत्र मेघनाद की पत्नी व भगवान विष्णु के शेषनाग वासुकी की पुत्री थी। इंद्र को परास्त करने के कारण मेघनाद को ब्रह्मा जी द्वारा इंद्रजीत नाम दिया गया था। लंकापति रावण द्वारा सीता हरण के पश्चात राम द्वारा शांति के अनेक प्रयासों के बावजूद युद्ध अनिवार्य हो गया था। युद्ध में रावणपुत्र मेघनाद भी युद्ध भूमि में बड़े दमखम के साथ आया। रामचरितमानस के लंका काण्ड में उल्लेख है -
कहँ कोसलाधीस द्वौ भ्राता। धन्वी सकल लोत बिख्याता।।
कहँ नल नील दुबिद सुग्रीवा। अंगद हनूमंत बल सींवा।।
अर्थात् मेघनाद ने पुकारकर कहा- समस्त लोकों में प्रसिद्ध धनुर्धर कौशलाधीश दोनों भाई कहाँ हैं? नल, नील, द्विविद, सुग्रीव और बल की सीमा वाले अंगद और हनुमान्‌ कहाँ हैं?

कहाँ बिभीषनु भ्राताद्रोही। आजु सबहि हठि मारउँ ओही।।
अस कहि कठिन बान संधाने। अतिसय क्रोध श्रवन लगि ताने।।
अर्थात् भाई से द्रोह करने वाला विभीषण कहाँ है? आज मैं सबको और उस दुष्ट को तो हठपूर्वक अवश्य ही मारूँगा। ऐसा कहकर उसने धनुष पर कठिन बाणों का सन्धान किया और अत्यंत क्रोध करके उसे कान तक खींचा।
   भीषण युद्ध के दौरान राम ने राक्षस युवराज मेघनाद के सभी मायायुक्त बाणों को काट दिया। इससे क्रोधित होकर मेघनाद राम के प्रति अनर्गल बातें उच्चारित करने लगा। लक्षमण से सहन नहीं हुआ और वे मेघनाद से युद्ध करने लगे।
आयसु मागि राम पहिं अंगदादि कपि साथ।
लछिमन चले क्रुद्ध होइ बान सरासन हाथ।।
अर्थात्  राम से आज्ञा माँगकर, अंगद आदि वानरों के साथ हाथों में धनुष-बाण लिए हुए लक्ष्मण क्रुद्ध होकर युद्ध करने चल पड़े।

     बहुत देर तक लक्षमण और मेघनाद के मध्य भीषण युद्ध हुआ। तुलसीदास कहते हैं -

नाना बिधि प्रहार कर सेषा। राच्छस भयउ प्रान अवसेषा॥
रावन सुत निज मन अनुमाना। संकठ भयउ हरिहि मम प्राना।।
अर्थात् लक्ष्मण उस पर अनेक प्रकार से प्रहार करने लगे। राक्षस के प्राणमात्र शेष रह गए। रावणपुत्र मेघनाद ने मन में अनुमान किया कि अब तो प्राण संकट आ बना, ये मेरे प्राण हर लेंगे।
बीरघातिनी छाड़िसि साँगी। तेजपुंज लछिमन उर लागी॥
मुरुछा भई सक्ति के लागें। तब चलि गयउ निकट भय त्यागें॥
अर्थात् तब उसने वीरघातिनी शक्ति चलाई। वह तेजपूर्ण शक्ति लक्ष्मण की छाती में लगी। शक्ति लगने से उन्हें मूर्छा आ गई। तब मेघनाद भय छोड़कर उनके पास चला गया।

    शक्ति बाण के आघात से मूर्छित लक्ष्मण को पुनर्जागृत करने के लिए सुषेण वैद्य के परामर्श पर राम की आज्ञा से हनुमान औषधि ले कर आए। यह चौपाई देखें -
देखा सैल न औषध चीन्हा। सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा॥
अर्थात् हनुमान ने पर्वत को देखा, पर औषध न पहचान सके। तब हनुमान ने पूरा पर्वत ही उखाड़ लिया।
      औषधि से लक्षमण की मूर्च्छा समाप्त हो गई। वे पूर्व की भांति स्वस्थ हो गए। स्वस्थ होते ही लक्ष्मण मेघनाद का वध करने की प्रतिज्ञा लेकर  युद्ध भूमि में जाने के लिये तत्पर हुए, तब राम ने कहा- "लक्ष्मण,  युद्ध भूमि  में जाकर तुम अपनी वीरता और रणकौशल से रावणपुत्र मेघनाद का वध तो दोगे, इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है। लेकिन एक बात का विशेष ध्यान रखना कि मेघनाद का मस्तक भूमि पर किसी भी प्रकार न गिरे। क्योंकि मेघनाद एकनारी-व्रत का पालक है और उसकी पत्नी परम पतिव्रता है। ऐसी पतिव्रता स्त्री के पति का मस्तक अगर पृथ्वी पर गिर पड़ा तो हमारी सारी सेना का ध्वंस हो जाएगा और हमें युद्ध में विजय की आशा त्याग देनी पड़ेगी।"
इसके बाद लक्षमण और मेघनाद के बीच पुनः भीषण युद्ध हुआ।
और अंत में - 
सुमिरि कोसलाधीस प्रतापा। सर संधान कीन्ह करि दापा॥ 
छाड़ा बान माझ उर लागा। मरती बार कपटु सब त्यागा॥
अर्थात् कौशलपति राम के प्रताप का स्मरण करके लक्ष्मण ने वीरोचित दर्प करके बाण का संधान किया। बाण छोड़ते ही मेघनाद की छाती के बीच में लगा। मरते समय मेघनाद ने सब कपट त्याग दिया।

        तब राम की आज्ञानुसार लक्ष्मण ने अपने बाणों से मेघनाद का मस्तक उतार लिया, पर उसे पृथ्वी पर नहीं गिरने दिया। हनुमान उस मस्तक को रघुनंदन के पास ले शिविर में ले आये।

       इसके बाद की कथा में मेघनाद की पत्नी सुलोचना का उल्लेख रामचरित मानस में नहीं किया गया है। रामकथा को लिपिबद्ध करने वाले अन्य प्राचीन ग्रन्थों में मेघनाद की पतिव्रता पत्नी सुलोचना का इस प्रकार उल्लेख किया गया है कि इसी दौरान मृत मेघनाद की दाहिनी भुजा आकाश में उड़ती हुई सुलोचना के पास जाकर गिरी। सुलोचना चकित हो गयी।  पर उसने भुजा को स्पर्श नहीं किया। उसने सोचा, सम्भव है यह भुजा किसी अन्य व्यक्ति की हो। ऐसी स्थिति में पर-पुरुष के स्पर्श का दोष उस पर लग जाएगा। तब उसने भुजा से कहा-  "यदि तुम मेरे स्वामी की भुजा हो, तो मेरे पतिव्रत की शक्ति से युद्ध का सारा वृत्तांत लिख दो।" दासी ने भुजा को लेखनी पकड़ा दी। भुजा ने लिखा- " हे प्राणप्रिये, यह भुजा मेरी ही है। युद्ध भूमि में राम के महापराक्रमी भाई लक्ष्मण से मेरा युद्ध हुआ। लक्ष्मण ने कई वर्षों से पत्नी, अन्न और निद्रा का त्याग कर रखा है। वे तेजस्वी तथा समस्त दैवी गुणों से सम्पन्न है। संग्राम में मैंने उन पर शक्ति बाण का प्रयोग किया था, किन्तु हनुमान द्वारा औषधि लाने के कारण वे मृत्यु के द्वार से लौट आए और मेरे वध का प्रण लिया। उसीका परिणाम है कि उन्हीं के बाणों से मेरा प्राणान्त हो गया। मेरा शीश राम के पास है।"
       यह देखकर सुलोचना व्याकुल हो गयी और विलाप करने लगी।  पुत्र-वधु के विलाप को सुनकर लंकापति रावण ने आकर कहा-  "शोक न कर पुत्री। प्रात: होते ही सहस्त्रों मस्तक मेरे बाणों से कट-कट कर पृथ्वी पर गिर जाऐंगे। मैं रक्त की नदियां बहा दूंगा।"
       किन्तु पतिव्रता सुलोचना बोली- " भला इससे मेरा क्या लाभ होगा, पिताजी। सहस्त्रों नहीं करोड़ों शीश भी मेरे स्वामी के शीश के आभाव की पूर्ति नहीं कर सकेंगे।" और सुलोचना ने  सती होने का निश्चय किया,  किंतु पति के शीश बिना यह संभव नहीं था।  सुलोचना ने अपने ससुर रावण से राम के पास जाकर पति का शीश लाने की प्रार्थना की। किंतु रावण इसके लिए तैयार नहीं हुआ। उसने सुलोचना से कहा कि वह स्वयं राम के पास जाकर मेघनाद का शीश ले आए। सुलोचना शत्रु के शिविर में जाने की बात से सहम गई थी, लेकिन उस वक्त रावण की पत्नी मंदोदरी ने उसे समझाया कि  राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, इसीलिए उनके पास जाने में तुम्हें किसी भी प्रकार का भय नहीं करना चाहिए।  
      सुलोचना ने वैसा ही किया। सुलोचना के आने का समाचार सुनते ही राम खड़े हो गये और स्वयं चलकर सुलोचना के पास आये और बोले-  "देवी, तुम्हारे पति विश्व के महान योद्धा और पराक्रमी थे। उनमें बहुत से सद्गुण थे किंतु विधि की लिखी को कौन बदल सकता है।   सुलोचना ने अश्रुपूरित नयनों से प्रभु की ओर देखा और बोली-  "राघवेन्द्र, मैं सती होने के लिये अपने पति का मस्तक लेने के लिये यहां  आई हूं। राम ने शीघ्र ही ससम्मान मेघनाद का शीश मंगवाया और सुलोचना को दे दिया।
      पति का छिन्न शीश देखते ही सुलोचना का हृदय अत्यधिक द्रवित हो गया। अत्यंत दुख में डूबी सुलोचना ने पास खड़े लक्ष्मण की ओर देखा और कहा-  "हे सुमित्रानन्दन, तुम भूलकर भी गर्व मत करना की मेघनाथ का वध मैंने किया है। मेघनाद को धराशायी करने की शक्ति विश्व में किसी के पास नहीं थी। यह तो दो पतिव्रता नारियों का भाग्य था। आपकी पत्नी उर्मिला भी पतिव्रता हैं और मैं भी पति चरणों में अनुरक्ती रखने वाली उनकी अनन्य उपसिका हूं। पर मेरे पति मेघनाद पतिव्रता नारी सीता का अपहरण करने वाले पिता रावण का अन्न खाते थे और उन्हीं के लिए युद्ध में उतरे थे, इसीलिए वे युद्ध भूमि में वीरगति को प्राप्त हो गए हैं।"
     इसके बाद सुलोचना पति का सिर लेकर वापस लंका आ गई। लंका में समुद्र के तट पर एक चंदन की चिता तैयार की गयी। पति का सिर गोद में लेकर सुलोचना चिता पर बैठी और धधकती हुई अग्नि में कुछ ही क्षणों में सती हो गई। तब से सुलोचना, सती सुलोचना के नाम से विख्यात हुई।

     रामकथा के इस प्रसंग में यह बिन्दु अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि राम यदि चाहते तो रावण द्वारा सीता हरण का बदला लेने के लिए रावण की पुत्रवधू सुलोचना को बंदी बना सकते थे। किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। बल्कि सुलोचना की प्रशंसा करते हुए उसका पूरा सम्मान किया। राम यदि रावण के कृत्यों का अनुकरण करते, बदले की भावना रखते तो फिर राम और रावण में फ़र्क ही क्या रह जाता! राम के उदात्त चरित्र की अनेक विशेषताओं में से यह भी एक विशेषता है….. और इसीलिए अतुलनीय, परमपूजनीय मर्यादापुरुषोत्तम राम का चरित्र शताब्दियों बाद आज भी अनुकरणीय है।

     माता-पिता के द्वारा दिए गए संस्कार मनुष्य के भावी जीवन का मार्ग प्रशस्त करते हैं। ऐसे उद्धरण हमें यही बताते हैं कि कभी किसी के ग़लत आचरण को नहीं अपनाना चाहिए। मर्यादित आचरण करने वाले को किसी तरह का भय नहीं रहता। जबकि बदले की भावना से किए गए कार्य सदैव अनुचित ही होते हैं। स्वयं पर नियंत्रण रख कर अर्थात् अपनी मर्यादा में रह कर बुराई के रास्ते से दूर रहना ही हमें अपनी अलग पहचान देता है और विषम परिस्थितियों में बुरी शक्तियों से हमारी रक्षा करता है।

और अंत में प्रस्तुत हैं मेरे ये दोहे -

मर्यादा तजिए नहीं, यही बने पहचान ।
दूजे को जो मान दे, उसे मिले सम्मान ।।

अच्छाई की राह पर बनते बिगड़े काम ।
बुरे काम का तो सदा बुरा मिले परिणाम ।।
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Wednesday, December 16, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 29 | परपीड़ा आनंद और सती प्रसंग | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज पढ़िए " परपीड़ा आनंद और सती प्रसंग" ...अपने विचारों से अवगत कराएं ...और शेयर करें 🙏
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 16.12.2020

मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं-

बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

       परपीड़ा आनंद और सती प्रसंग
     
                    डॉ. वर्षा सिंह

पिछले दिनों एक अजीब सा वाकिया घटित हुआ। दरअसल हुआ यह कि मेरी एक परिचित रजनी (परिवर्तित नाम) का फोन आया। फोन करते हुए उसकी आवाज में खुशी छलक रही थी । वह हंस कर बोली - " वर्षा, एक मज़ेदार बात बताऊं।"
 मैंने कहा - "हां बताइए, क्या हुआ ?"
"अरे, तुम सुनोगी तो तुम्हें भी बहुत मज़ा आएगा।" वह चहक कर बोली।
मैंने पूछा - "क्या हुआ कुछ तो बताएं तो..."
वह बोली - "अरे जानती हो, वह जो मेरी ननद की देवरानी की रीवा वाली बहन है न, वह इन दिनों अपनी बेटी गुड्डी की शादी के लिए बड़ी फड़फड़ा रही है। उसकी बेटी को वहीं रीवा के पास सिरमौर वाले ठाकुर साहब के यहां पसंद भी कर लिया गया, सगाई भी हो गई और पता नहीं फिर क्या चक्कर चला कि वह सगाई टूट गई।"
मैं रजनी की बात सुनकर अफसोस प्रकट करने लगी - "अरे, यह तो बड़ा बुरा हुआ, लड़कियों की सगाई इस तरह टूट जाना अच्छा नहीं माना जाता है हमारे समाज में।"
लेकिन रजनी हंस कर बोली-"अरे जाने भी दो टूटने दो सगाई, अपने को क्या फर्क पड़ता है। मैंने तो दरअसल इसलिए तुमको फोन लगाया है कि … जानती हो क्या हुआ? हमें तो मालूम हो गया था कि गुड्डी की सगाई टूट गई है, लेकिन जब अभी तुम्हारे जीजा जी टूर पर रीवा गए तो मैंने उनसे कहा था कि सुनो जी, ज़रा अनजान बन कर पूरा हाल पूछना कि गुड्डी की सगाई क्यों टूटी, क्या हुआ… मज़ा आएगा। पहले तो तुम्हारे जीजा जी ने ना-नुकुर की, फिर मेरे बार-बार कहने पर राज़ी हो गए और उनके घर गए। वहां जा कर जैसे ही उन्होंने पूछा कि गुड्डी की शादी का किस तारीख का मुहूर्त निकला है? तो वह लोग सकते में आ गए, उनका इतना सा मुंह रह गया। कहने लगे, अरे कहां, गुड्डी की तो सगाई ही टूट गई है। तब तुम्हारे जीजा जी ने कहा अरे, यह तो बहुत बुरा हुआ। अब तो गुड्डी की शादी में बहुत दिक्कत आएगी। तुम्हारे जीजा जी रीवा से लौट के आए, मुझे सारी बात बताई तो मैंने फौरन गुड्डी की मम्मी को फोन लगाया, बोली क्या हुआ, अभी रीवा से लौट कर ये कह रहे हैं, गुड्डी की सगाई टूट गई। क्या हुआ ? मेरी बात सुन कर वो तो धरी रह गईं। कोई जवाब नहीं सूझा। बेटी सगाई टूट गई है, अब किस मुंह से बात करेंगी। मैं अनजान सी सवाल पर सवाल पूछती रही, साथ ही मैंने उन्हें डराया भी ख़ूब कि अब देखना, गुड्डी की शादी कहीं भी नहीं हो पाएगी। सगाई टूटी तो समझो क़िस्मत फूटी। वो सही में डर गई। बहुत मज़ा आया।"

रजनी की बात सुनकर मैं सोच में पड़ गई मुझे लगा कि कुछ लोग दूसरों की पीड़ा अथवा विषम परिस्थितियों का मज़ाक बनाने को स्वयं की बुद्धिमानी मान कर आनंदित होते हैं। उन्हें स्वयं के इस आनंद की इतनी अधिक चाहत होती है कि मज़ाक बनाते समय वे यह भी नहीं सोचते कि उनका आनंद किसी दुखी- पीड़ित व्यक्ति के मन को और अधिक दुख पहुंचा सकता है। जिसका परिणाम असहनीय और दुखद हो सकता है। 
अक्सर ऐसा भी होता है कि कई दफ़ा लोग संदेहवश अपनी होशियारी के चलते विषम परिस्थितियों में किसी की सहनशीलता की परीक्षा लेने के उद्देश्य से उसका दिल दुखा बैठते हैं। अपनी चतुराई पर अहंकार नहीं करना चाहिए। साथ ही अकारण किसी के धैर्य की परीक्षा नहीं लेनी चाहिए। इसका परिणाम बहुत बुरा भी हो सकता है। रजनी तो मनुष्य ही है, दुखी जन की परीक्षा लेने का कार्य देवी देवता भी हैं तो उसका दुष्परिणाम उन्हें भोगना पड़ता है।

ऐसा ही एक प्रसंग रामचरित मानस में भी है। तुलसीदास रचित रामचरितमानस एक ऐसी कृति है जिसमें पावन रामकथा के माध्यम से ऐसे अनेक शिक्षाप्रद प्रसंगों को बड़ी सुंदरता से पिरोया गया है, जो मनुष्य के जीवन एवं सम्पूर्ण समाज को दिशा प्रदान करने में सक्षम हैं।
ऐसा एक प्रसंग है - शिव - सती संवाद का। रामचरित मानस के बालकाण्ड में तुलसीदास ने इस प्रसंग का विस्तार से वर्णन किया है -

प्रसंग इस प्रकार है कि एक समय की बात है कि शिव अपनी पत्नी सती के साथ विचरण कर रहे थे। तभी उन्होंने देखा कि रावण द्वारा सीता का अपहरण किये जाने के बाद राम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ सीता के वियोग में वन-वन भटक रहे है -
करि छलु मूढ़ हरी बैदेही। प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही॥
मृग बधि बंधु सहित हरि आए। आश्रमु देखि नयन जल छाए॥
अर्थात् मूर्ख रावण ने छल करके सीताजी को हर लिया। उसे राम के वास्तविक प्रभाव का कुछ भी पता न था। मृग को मारकर भाई लक्ष्मण सहित श्री हरि आश्रम में आए और उसे खाली देखकर अर्थात् वहाँ सीता को न पाकर उनके नेत्रों में आँसू भर आए।
बिरह बिकल नर इव रघुराई। खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई॥
कबहूँ जोग बियोग न जाकें। देखा प्रगट बिरह दुखु ताकें।।
अर्थात् रघुनाथ मनुष्यों की भाँति विरह से व्याकुल हैं और दोनों भाई वन में सीता को खोजते हुए फिर रहे हैं। जिनके कभी कोई संयोग-वियोग नहीं है, उनमें प्रत्यक्ष विरह का दुःख देखा गया।
 अति बिचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान।
जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन॥
अर्थात् रघुनाथ का चरित्र बड़ा ही विचित्र है, उसको पहुँचे हुए ज्ञानीजन ही जानते हैं। जो मंदबुद्धि हैं, वे तो विशेष रूप से मोह के वश होकर हृदय में कुछ दूसरी ही बात समझ बैठते हैं। वे सीता की खोज कर रहे हैं। दंडकारण्य में राम को इस प्रकार विचरण करते देख शिव ने उनको प्रणाम किया। सती को यह देख बहुत आश्चर्य हुआ। सती ने कहा कि यह क्या। आप तो कहते हैं कि ब्रह्मा और विष्णु को आपने उत्पन्न किया है और आप इनको प्रणाम कर रहे हैं। यह कौन हैं और वन-वन क्यों विचरण कर रहे हैं। शिव ने सती को पूरा वृत्तांत सुना दिया कि ये दोनों राजा दशरथ के पुत्र हैं। राम साक्षात विष्णु जी के अवतार हैं। तुमको विश्वास करो। वह राम हैं और विष्णु के अवतार। असुरों की समाप्ति और भक्तों की रक्षा करने के ले ही इन्होंने राम के रूप में अवतार लिया है। किन्तु दक्षकन्या सती के मन में संदेह उपजा कि -
ब्रह्म जो ब्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद॥
अर्थात् जो ब्रह्म सर्वव्यापक, मायारहित, अजन्मा, अगोचर, इच्छारहित और भेदरहित है और जिसे वेद भी नहीं जानते, क्या वह देह धारण करके मनुष्य हो सकता है?

बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥
खोजइ सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी॥
अर्थात् देवताओं के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करने वाले जो विष्णु भगवान् हैं, वे भी शिवजी की ही भाँति सर्वज्ञ हैं। वे ज्ञान के भंडार, लक्ष्मीपति और असुरों के शत्रु भगवान् विष्णु क्या अज्ञानी की तरह स्त्री को खोजेंगे?
शिव समझाया किन्तु सती नहीं समझ पाईं, तब शिव ने कहा - 

लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवँ बार बहु।
बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ॥
अर्थात् यद्यपि शिव ने बहुत बार समझाया, फिर भी सती के हृदय में उनका उपदेश नहीं बैठा। तब महेश मन में हरि की माया का बल जानकर मुस्कुराते हुए बोले-

जौं तुम्हरें मन अति संदेहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू॥
तब लगि बैठ अहउँ बटछाहीं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं।
अर्थात् जो तुम्हारे मन में बहुत संदेह है तो तुम जाकर परीक्षा क्यों नहीं लेती? जब तक तुम मेरे पास लौट आओगी तब तक मैं इसी वट की छाया में बैठा हूँ।

सती को विश्वास नहीं हुआ। वह परीक्षा लेने चली गईं। सती ने सीता का रूप धरा और पहुंच गई राम के सामने। शिव जानते थे कि संदेह अनर्थ का कारण बनता है- 

होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा।।
अर्थात् जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। इस पर तर्क-कुतर्क खरने से कोई लाभ नहीं। मन में ऐसा कहकर शिव हरि का नाम जपने लगे और सती वहाँ गईं, जहाँ सुख के धाम प्रभु राम थे।

 पुनि पुनि हृदयँ बिचारु करि धरि सीता कर रूप।
आगें होइ चलि पंथ तेहिं जेहिं आवत नरभूप।।
अर्थात् सती बार-बार मन में विचार कर सीता का रूप धारण करके उस मार्ग की ओर आगे होकर चलीं, जिससे मनुष्यों के  श्रीराम आ रहे थे।
सती को सीता के वेश में देख कर लक्ष्मण तो भ्रम में फंस गए। उन्हें लगा कि सीता आ रही हैं, लेकिन राम ने तत्काल पहचान लिया और सती को प्रणाम किया तथा पूछा कि - "भगवती आपको प्रणाम। आप यहां कैसे? शंकर जी कैसे हैं?  इतना सुनना था कि सती को अपने किए पर बहुत पछतावा हुआ। तब उनको लगा कि अकारण किसी की परीक्षा नहीं लेनी चाहिए।
तुलसीदास कहते हैं -
लछिमन दीख उमाकृत बेषा। चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा॥
कहि न सकत कछु अति गंभीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥
अर्थात् सती के बनावटी वेष को देखकर लक्ष्मण चकित हो गए और उनके हृदय में बड़ा भ्रम हो गया। वे बहुत गंभीर हो गए, कुछ कह नहीं सके। धीर बुद्धि लक्ष्मण राम के प्रभाव को जानते थे।
सती कपटु जानेउ सुरस्वामी। सबदरसी सब अंतरजामी॥
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥
अर्थात् सब कुछ देखने वाले और सबके हृदय की जानने वाले देवताओं के स्वामी राम सती के कपट को जान गए, जिनके स्मरण मात्र से अज्ञान का नाश हो जाता है, वही सर्वज्ञ राम हैं।

सती कीन्ह चह तहँहुँ दुराऊ। देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ॥
निज माया बलु हृदयँ बखानी। बोले बिहसि रामु मृदु बानी॥
अर्थात् स्त्री स्वभाव का प्रभाव तो देखो कि वहाँ उन सर्वज्ञ भगवान् के सामने भी सती छिपाव करना चाहती हैं। अपनी माया के बल को हृदय में बखानकर, राम हँसकर कोमल वाणी से बोले- 
जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू॥
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू।।
अर्थात् पहले प्रभु ने हाथ जोड़कर सती को प्रणाम किया और पिता सहित अपना नाम बताया। फिर कहा कि वृषकेतु शिवजी कहाँ हैं? आप यहाँ वन में अकेली किसलिए फिर रही हैं?

राम बचन मृदु गूढ़ सुनि उपजा अति संकोचु।
सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु।।
अर्थात राम के कोमल और रहस्य भरे वचन सुनकर सतीजी को बड़ा संकोच हुआ। वे डरती हुई चुपचाप शिवजी के पास चलीं, उनके हृदय में बड़ी चिन्ता हो गई। 

इस प्रकार सती ने सीता का रूप धारण कर राम की परीक्षा लेनी चाही थी जो कि सर्वथा अनुचित था। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि कालांतर में सती को भी शिव से अलग होना पड़ा और अगले जन्म में हिमालयपुत्री बन कर पार्वती के रूप में शिव को पुनः पति के रूप में पाने के लिए अनेक वर्षों तक कठोर तपस्या करनी पड़ी।
….. और राम तो सर्वज्ञ थे, वे जान गए कि सीता के वेश में शिव की अर्धांगिनी सती हैं। किन्तु यदि कोई साधारण मनुष्य होता तो पहले तो वह अपनी प्राणप्रिय पत्नी को सामने पा कर अतिप्रसन्न हो जाता, किन्तु सच्चाई सामने आने पर उसकी मानसिक पीड़ा और अधिक बढ़ जाती।
     अकारण किसी को दुख पहुंचाने, उसका दिल दुखाने से बड़ा और कोई अपराध नहीं है। इस प्रकार के कृत्यों से बचना चाहिए। 

और अंत में प्रस्तुत हैं मेरे कुछ दोहे -

बिन कारण मत कीजिए, कोई ऐसी बात ।
किसी दुखी जन के हृदय को पहुंचे आघात।।

औरों का दुख देख कर ख़ुश होना धिक्कार।
ख़ुशी वही जो दे सभी को ख़ुशियां उपहार ।।

व्यर्थ न करिए तंज के तीरों की बौछार ।
"वर्षा" अक्सर आ लगें उल्टे सारे वार ।।

                     ---------------------

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Wednesday, December 9, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 28 | विश्वास, रामसेतु और नलनील | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज पढ़िए " विश्वास, रामसेतु और नल-नील" ...अपने विचारों से अवगत कराएं ...और शेयर करें 🙏
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 09.12.2020

मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं-

बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

विश्वास, रामसेतु और नल-नील

            -डॉ. वर्षा सिंह

    पिछले वर्ष का एक वाकया याद आ रहा है। लगभग इन्हीं दिनों यानी दिसम्बर की घटना है। घर के बरामदे वाली बाहरी बैठक की दीवारें बारिश में उखड़ी-पुखड़ी सी हो चली थीं। मैंने एक ठेकेदार से बात कर दीवारों पर पुट्टी लगा कर पुताई करने का काम चालू करवा दिया। मुश्किल से दो दिन काम करने के बाद जब तीसरे-चौथे दिन कोई वर्कर नहीं आया तो मैंने फोन पर ठेकेदार से बात की। उसने कहीं और किसी के भवन निर्माण का बड़ा काम हाथ में लेने का ज़िक्र करते हुए मुझे एकाध सप्ताह रुकने का कह दिया। बड़ी झुंझलाहट सी हुई। इस तरह अधूरा काम बीच में छोड़ना था तो ठेका लिया ही क्यों? और बरामदे की पुताई पुट्टी का काम कोई इतना छोटा काम भी नहीं है कि उसे छोटा काम कह कर टाल दिया जाए। आख़िर यह काम भी कोई मुफ्त में तो कराया नहीं जा रहा था इसके भी पूरे पैसे किश्तों में नक़द रक़म देने के लिए तय हुए थे। क्या करूं कुछ समझ में नहीं आ रहा था। घर के बरामदे में, वह भी सामने वाली बैठक में जिस तरह आधा-अधूरा काम पड़े रहने से दीवारें और भी अधिक बदरंग दिखाई देने लगी थीं, मन में यही धुकपुक लगी रहती कि कहीं कोई मेहमान न आ जाए। वरना इस कदर बुरी हालत वाली घर के सामने की बाहरी बैठक को देखकर वे अपने मन में क्या सोचेंगे! माना कि घर का ड्राइंग रूम सुसज्जित था, फिर भी बरामदे की बाहरी बैठक का भी काफी चुस्त-दुरुस्त होना बेहद जरूरी था। घर की बाहरी बैठक का इम्प्रेशन भी मायने रखता है।
     मैं इसी उधेड़बुन में थी कि क्या करूं! अभी ठेकेदार ने एक सप्ताह तक रुकने की बात कही है, किंतु अब मुझे उसकी बात पर विश्वास नहीं रहा था। क्या पता यह एक सप्ताह एक माह दो माह या 6 माह में बदल जाए, आखिर इस तरह रंगरोगन, पुट्टी आदि कब तक यहां बरामदे में बिखरी पड़ी रहेगी और बदरंग दीवारें कब तक मुझे मुंह चढ़ाती रहेंगी। तभी अचानक मेरी एक महिला मित्र का फोन आया उसने पूछा -'वर्षा क्या हो रहा है, कैसी हो?' उसके द्वारा इतना पूछते ही मैं अपना दुखड़ा ले बैठी।पूरी बात 'ए टू जेड' मैंने उसे सुनाई। मेरी बात सुनकर मेरी मित्र ने कहा कि-'यह कोई नई बात नहीं है। अक्सर कुछ ठेकेदार इसी तरह की मनोवृति के होते हैं और अक्सर इस तरह चीटिंग करते हैं। पहले बहुत दिलचस्पी दिखा कर काम स्वीकार करते हैं और फिर बाद में कहीं ज़्यादा बड़े काम का ठेका मिल जाने पर, पहले स्वीकारे गए काम को छोटा काम बता कर इसी तरह टालमटोल करते हुए हफ्तों महीनों में पूरा करते हैं।' मैंने अपनी सहेली से पूछा कि- 'अब बताओ मैं क्या करूं ? मेरी तो समझ में ही नहीं आ रहा है। पता नहीं किस ख़राब मुहूर्त में मैंने इस काम की शुरुआत की। पता नहीं कहां से मेरे दिमाग में यह बात आई कि मैं उस चीटर ठेकेदार से बात करूं और उसे पुट्टी-पुताई का ठेका दूं।'
     मेरी सहेली ने मुझे ढाढस बंधाते हुए कहा कि -'वर्षा, चिंता मत करो।मैं एक व्यक्ति को जानती हूं वह और उसका एक साथी दोनों मिलकर तीन-चार दिन में पुट्टी और रंग रोगन का काम पूरा कर देंगे।'
 मैंने पूछा -'कौन है?'  तब उसने बताया कि वैसे तो उन लोगों का काम मालीगिरी का है। वे उसके घर पर लॉन और गमलों में लगे पौधों की देखरेख करने महीने में एकाध बार आते हैं, लेकिन उन्हें पुट्टी और रंगरोगन करने का भी अच्छा ज्ञान है।
    मरता क्या न करता … ज्यादा सोच विचार नहीं करते हुए मैंने अपनी उस मित्र से हां कह दी और उसने दूसरे ही दिन उन व्यक्तियों को मेरे घर भिजवा दिया।
    आते ही वे दोनों व्यक्ति काम में लग गए। फटाफट पुट्टी का काम उन्होंने शुरू कर दिया। रंग रोगन का भी काम साथ-साथ चालू कर दिया। मुश्किल से 4 दिन में पूरा का पूरा काम कंप्लीट हो गया। उन्होंने पारिश्रमिक के रूप में वैसे भी बहुत नॉमिनल राशि ही ली। कहां तो ठेकेदार हजारों की बात कर रहा था और कहां इन दोनों ने मात्र ₹1200 में पूरा काम निपटा दिया। मैं उनके प्रति बहुत शुक्रगुज़ार थी। उन्होंने संकट में आकर जिस तरह से बड़े अच्छे ढंग से पूरा काम निपटाया था वह क़ाबिले तारीफ़ था। उनका काम ठेकेदार के आदमियों से किसी भी मायने में उन्नीस नहीं बल्कि बीस ही था। बाद में जिसने भी देखा तो उसने बहुत अच्छी चिकनी पुट्टी और उस पर की गई पुताई की तारीफ़ ही की। 
   अब सोचती हूं तो लगता है कि बात विश्वास की होती है, भरोसे की होती है। यदि हम किसी पर भरोसा करते हैं और वह उस भरोसे पर खरा नहीं उतरता तो बहुत दुख पहुंचता है। भरोसा तोड़ने वाले व्यक्ति हमेशा के लिए हमारी नज़रों से गिर जाते हैं। और विश्वास निभाने वाले, भरोसा सलामत रखने वाले व्यक्ति हमेशा अपनी अच्छाई के कारण याद आते हैं। व्यक्ति कोई छोटा-बड़ा नहीं होता। बड़ा ठेकेदार धोखा दे जाता है, जबकि छोटे काम करने वाले व्यक्ति छोटे काम को बड़ा काम मानते हुए बड़ी लगन के साथ करते हैं । मुझे स्मरण आ रहा है रामचरितमानस की इन पंक्तियों का -
बाँधा सेतु नील नल नागर। राम कृपाँ जसु भयउ उजागर॥
बूड़हिं आनहि बोरहिं जेई। भए उपल बोहित सम तेई॥
अर्थात् चतुर नल और नील ने सेतु बाँधा। राम की कृपा से उनका यह उज्ज्वल यश सर्वत्र फैल गया। जो पत्थर आप डूबते हैं और दूसरों को डुबा देते हैं, वे ही जहाज के समान स्वयं तैरने वाले और दूसरों को पार ले जाने वाले हो गए।

   रामकथा का एक प्रमुख प्रसंग है लंका तक पहुंचने के लिए राम की वानर सेना द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण करना। इस कार्य को दो वानर योद्धाओं नल और नील की मार्ग निर्देशन में पूरा किया गया था।
    दरअसल सीता को लंकापति रावण द्वारा अपहृत कर लिए जाने और सीता को रावण के चंगुल से मुक्त कराने हेतु राम ने समुद्र पार कर लंका जाने का निश्चय किया। राम ने सागर पार जाने का साधन न होने पर चिंता व्यक्त करते हुए अपने सभी साथियों को सभा में एकत्रित किया। जिसमें उन्होंने लंकापति रावण के भाई विभिषण जो अब तक उनकी शरण में आ चुके थे, को उनकी वानर सेना को मायावी शक्तियां सिखाने का अनुग्रह किया। ताकि वानर सेना उन शक्तियों की मदद से आकाश मार्ग द्वारा लंका पहुंच सके। किन्तु इस पर राम को उत्तर देते हुए विभिषण ने कहा कि, “हे प्रभु आसुरी माया राक्षसों के लिए तो सुलभ है, परंतु वानर तथा मानव इन्हें सरलता से प्राप्त नहीं कर सकते।” विभिषण की यह बात सुनकर राम ने उसे कोई अन्य उपाय सुझाने को कहा, ताकि वे यथाशीघ्र  लंका पहुंच सकें और सीता को रावण के चंगुल से छुड़ा सकें।
      विभिषण ने राम को सुझाव दिया कि राम स्वयं समुद्र देवता वरुण देव से रास्ता मांगें तो कार्य सुगम हो जाएगा। साथ ही उन्हें यह भी बताया कि इस समुद्र अर्थात् सागर का निर्माण राम के ही पूर्वज एवं इक्ष्वाकु वंश के राजा सगर ने ही किया था। चूंकि लक्ष्मण स्वभाव से थोड़ा उग्र थे, इसलिए विभिषण द्वारा दी गई यह सलाह उन्हें पसंद नहीं आई और उन्होंने इसका विरोध करते हुए राम को अपने बाण से संपूर्ण सागर को सूखा देने के लिए कहा।
     मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने यह सुझाव नहीं मानते हुए अपने भ्राता लक्ष्मण को समझाया और कुशा के आसन पर बैठकर अन्न जल त्यागकर समुद्र देवता वरुण की आराधना प्रारंभ कर दी। तीन दिन व्यतीत हो गए किन्तु तक जब समुद्र देवता वरुण उनके समक्ष जब प्रकट नहीं हुए तो राम के धैर्य का बांध टूट गया और उन्होंने लक्ष्मण द्वारा दिए गए सुझाव को स्वीकार करते हुए धनुष पर ब्रह्मास्त्र साध लिया। राम का यह क्रोधित रूप देखकर समुद्र देवता अत्यंत भयभीत हो गए और राम के समक्ष प्रकट हो कर उनसे क्षमा याचना करने लगे। शरणागत वत्सल राम ने उसी क्षण समुद्र देवता को क्षमा कर दिया और सागर पार करने में समुद्र देवता वरुण की सहायता मांगी।
    तब वरुण ने ऐसा कर पाने में अपनी असमर्थता बताई। और बताया कि वानर सेना में ही नल और नील नामक दो वानर इस सागर को पार करवाने में सबसे बड़े सहायक बन सकते हैं। समुद्र देवता वरुण ने राम को बताया कि नल और नील विश्वकर्मा के पुत्र हैं, जिनके द्वारा फेंके हुए पत्थरों से सेतु का निर्माण किया जा सकता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार नल और नील को ये श्राप है कि उनके द्वारा फेंके गई कोई भी वस्तु जल में डूबेगी नहीं। नल और नील जब छोटे थे तो बालपन की शरारतों के चलते ऋषि-मुनियों को बहुत परेशान किया करते थे और अक्सर उनकी चीजों को उठा कर समुद्र में फेंक देते थे। इन दोनों बच्चों से परेशान ऋषि-मुनियों ने तंग आकर इन्हें श्राप दिया था कि जो भी चीज यह पानी में फेकेंगे वह डूबेगी नहीं। साथ ही यह भी श्राप दिया कि वे अपने इस श्राप के बारे में स्वयं किसी से कुछ भी कह नहीं पाएंगे।
यह सुन कर राम ने सेतु निर्माण के लिए रामेश्वरम में मिट्टी का शिवलिंग स्थापित कर उनकी पूजा-अर्चना की और नल तथा नील वानरों से सेतु निर्माण हेतु अनुरोध किया। 

तुलसीदास रचित रामचरित मानस के सुंदरकांड में सेतु निर्माण का वर्णन है जिसमें नल और नील दोनों का उल्लेख है -
नाथ नील नल कपि द्वौ भाई। लरिकाईं रिषि आसिष पाई॥
तिन्ह कें परस किएँ गिरि भारे। तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे॥

अर्थात् समुद्र ने राम से कहा कि हे नाथ! नील और नल दो वानर भाई हैं। उन्होंने लड़कपन में ऋषि से आशीर्वाद पाया था। उनके स्पर्श कर लेने से ही भारी-भारी पहाड़ भी आपके प्रताप से समुद्र पर तैर जाएँगे।

सिंधु बचन सुनि राम सचिव बोलि प्रभु अस कहेउ।।
अब बिलंबु केहि काम करहु सेतु उतरै कटकु॥
अर्थात् समुद्र के वचन सुनकर प्रभु श्री रामजी ने मंत्रियों को बुलाकर ऐसा कहा- अब विलंब किसलिए हो रहा है? सेतु तैयार करो, जिसमें सेना उतरे।

जामवंत बोले दोउ भाई। नल नीलहि सब कथा सुनाई॥
राम प्रताप सुमिरि मन माहीं। करहु सेतु प्रयास कछु नाहीं।।
अर्थात् जाम्बवंत ने नल-नील दोनों भाइयों को बुलाकर उन्हें सारी कथा कह सुनाई और कहा- मन में राम के प्रताप को स्मरण करके सेतु तैयार करो, रामप्रताप से कुछ भी परिश्रम नहीं होगा।

धावहु मर्कट बिकट बरूथा। आनहु बिटप गिरिन्ह के जूथा॥
सुनि कपि भालु चले करि हूहा। जय रघुबीर प्रताप समूहा॥
अर्थात् विकट वानरों के समूह दौड़ जाइए और वृक्षों तथा पर्वतों के समूहों को उखाड़ लाइए। यह सुनकर वानर और भालू हूह की हुँकार करके और रघुवीर के प्रताप समूह की जय पुकारते हुए चले।

अति उतंग गिरि पादप लीलहिं लेहिं उठाइ।
आनि देहिं नल नीलहि रचहिं ते सेतु बनाइ।।
   अर्थात् बहुत ऊँचे-ऊँचे पर्वतों और वृक्षों को खेल की तरह ही उखाड़कर उठा लेते हैं और ला-लाकर नल-नील को देते हैं। वे अच्छी तरह गढ़कर सुंदर सेतु बनाते हैं।

सैल बिसाल आनि कपि देहीं। कंदुक इव नल नील ते लेहीं॥
देखि सेतु अति सुंदर रचना। बिहसि कृपानिधि बोले बचना॥
अर्थात् वानर बड़े-बड़े पहाड़ ला-लाकर देते  और नल-नील उन्हें गेंद की तरह ले लेते। सेतु की अत्यंत सुंदर रचना देखकर कृपासिन्धु राम हँसकर वचन बोले-।

परम रम्य उत्तम यह धरनी। महिमा अमित जाइ नहिं बरनी॥
करिहउँ इहाँ संभु थापना। मोरे हृदयँ परम कलपना॥
अर्थात् यह भूमि परम रमणीय और उत्तम है। इसकी असीम महिमा वर्णन नहीं की जा सकती। मैं यहाँ शिव शंभु की स्थापना करूँगा। मेरे हृदय में यह महान्‌ संकल्प है।

वाल्मीक रामायण में यह उल्लेख मिलता है कि सेतु लगभग पांच दिनों में बन गया जिसकी लम्बाई सौ योजन और चौड़ाई दस योजन थी। रामायण में इस पुल को ‘नल सेतु’ की संज्ञा दी गई है। नल के निरीक्षण में वानरों ने बहुत प्रयत्न पूर्वक इस सेतु का निर्माण किया था।

राम को समुद्र देवता वरुण देव पर विश्वास था कि वे उन्हें समुद्र पार कर लंका जाने में सहायता करेंगे। किन्तु समुद्र देवता वरुण द्वारा असमर्थता प्रकट करने पर राम के सहायक बने नल और नील वानर, जिन्होंने रामेश्वरम से लंका तक रामसेतु निर्माण कर सीता को रावण के चंगुल से मुक्त कराने में अपनी अहम भूमिका निभाई। रामसेतु छोटे वानरों द्वारा किए गए एक बहुत बड़े काम का प्रत्यक्ष प्रमाण है। कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता और न ही उसे करने वाले छोटे या बड़े होते हैं। सबसे बड़ा होता है विश्वास या भरोसा। विश्वास है तो कोई कार्य दुष्कर नहीं। 

और अंत में प्रस्तुत हैं मेरी काव्यपंक्तियां -

मिल कर लिखें चलो हम, विश्वास की ग़ज़ल 
कोई कहीं न गाए, संत्रास की ग़ज़ल 

है आज वेदना की सत्ता तो क्या हुआ !
होगी धरा के लब पर उल्लास की ग़ज़ल

'वर्षा' की ये दुआ है छल-छद्म ना रहे
गूंजे हरेक दिल में मधुमास की ग़ज़ल

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Wednesday, December 2, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 27 | मिथक, महिलाएं और त्रिजटा | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज पढ़िए " मिथक, महिलाएं और त्रिजटा" ...अपने विचारों से अवगत कराएं ...और शेयर करें 🙏
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 02.12.2020

मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं-

बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

      मिथक, महिलाएं और त्रिजटा

              -     डॉ. वर्षा सिंह

     पिछले दिनों देखी एक शार्ट फिल्म का सार यही था कि फिल्म की नायिका की अंतरंग सखी ही उसे धोखा दे देती है। इसी प्रकार एक टीवी सीरियल में यह दिखाया गया था कि सीरियल की नायिका उसके आसपास की महिलाओं द्वारा रचे गए षड्यंत्र के कारण अपमानित हो कर घर छोड़ने को विवश हो जाती है। एक और टीवी सीरियल में घर के पुरुषों की दृष्टि में महिलाओं को नीचा दिखाने के लिए महिलाओं के द्वारा ही आपस में तरह-तरह के षड्यंत्र किया जाना दिखाया गया था। अक्सर यह कहा-सुना जाता है कि "स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है।" विशेष रूप से सास-बहू, ननद-भाभी, जेठानी-देवरानी, सखी-सहेलियों के आपसी व्यवहार के उदाहरण देकर भिन्न-भिन्न वाकिए सुनाए जाते हैं। मुझे लगता है कि दरअसल बचपन से ही हमारे दिलों दिमाग में इस प्रकार की बातें भर दी जाती हैं, ऐसी कथा कहानियां सुनाई जाती हैं कि हम स्त्रियों के आपसी व्यवहार को हमेशा शक की नजरों से ही देखते हैं। यदि कभी महिलाओं में आपसी प्रेमभाव नजर आता है तो उसे हम आश्चर्य के तौर पर लेते हुए स्थान- स्थान पर उसका उदाहरण पेश करते हैं, जबकि अनेक प्रकरणों में भाई -भाई, चाचा -भतीजा साले- जीजा इत्यादि के आपसी संबंध बुरे होने पर भी "पुरुष ही पुरुष का दुश्मन होता है" जैसी किसी प्रकार की कोई कहावत नहीं बनाई गई है। पुरुषों के आपसी संबंध कैसे भी क्यों न हों किसी मिथक धारणाओं का आधार नहीं बनते हैं। सम्भवतः यह पुरुष सत्तात्मक सोच का ही दुश्परिणाम है। हमारे टीवी सीरियल्स, चैनलों और ओटीटी प्लेटफार्म के ज़रिए परोसे जाने वाले शोज़ आदि भी महिला को महिला का मददगार दिखाने में कोताही बरतते हैं। महिला को महिला का दुश्मन बताने वाले मिथक को बल देने वाली अनेक कथाएं गढ़ी जाती हैं। ऐसी बहुत कम कथाएं रची जाती हैं जिनमें एक महिला किसी दूसरी महिला के प्रति निःस्वार्थ भावना से सहायक सिद्ध हो। 
  यह सर्वविदित है कि महिलाओं में ममता, करुणा का भाव पुरुषों की अपेक्षा कहीं ज़्यादा ही रहता है। तो प्रश्न यह उठता है कि क्या महिलाएं, महिलाओं के प्रति बैर भावना रखती हैं और क्या वे अपना ममत्व, अपनी करुणा सिर्फ़ पुरुषों पर ही लुटाती है ? हरगिज़ नहीं। यदि किसी मिथकीय धारणा से ग्रसित हुए बिना इस बात की पड़ताल करें तो हमें महिलाओं द्वारा महिलाओं की निःस्वार्थ भावना से की गई सहायता के भी अनेक उदाहरण मिल जाएंगे।
   अभी पिछले दिनों ही यह समाचार अनेक समाचार माध्यमों में प्रमुखता से प्रस्तुत किया गया था कि मुंबई की महिला वकील मृणालिनी देशमुख ने यौन उत्पीड़न और हिंसा पीड़ितों को नि:शुल्क कानूनी सहायता मुहैया कराने का बीड़ा उठाया है। वहीं भारत में चल रहे 'मीटू' अभियान के अंतर्गत स्वरा भास्कर और मलाइका अरोड़ा जैसी बॉलीवुड हस्तियां अपने अनुभवों को साझा करने वाली महिलाओं के समर्थन में आगे आई हैं। 
    3 वर्ष पूर्व की एक घटना मुझे याद आ रही है, जिसमें एक पाकिस्तानी महिला नागरिक हिजाब आसिफ ने भारत में इलाज कराने के लिए एक पाकिस्तानी सिटीजन के एप्लिकेशन पर महिलाओं के हितरक्षण में अग्रणी तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री सुषमा स्वराज को ट्वीट कर मदद मांगी थी। पाकिस्तानी शख्स भारत आना चाहता है, लेकिन उसे मेडिकल वीजा नहीं मिल पा रहा है। सुषमा ने हिजाब को निराश नहीं किया और उन्होंने इस्लामाबाद में इंडियन हाई कमीशन को पाकिस्तानी सिटीजन को भारत का वीजा देने का निर्देश दिया है। सुषमा स्वराज के इस बर्ताव की तारीफ में हिजाब ने एक अन्य ट्वीट भी किया। जिसमें उसने लिखा था, "आपको मैं क्या कहूं? सुपरवुमन? या भगवान? आपकी उदारता का बखान करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। लव यू मैम, मेरी आंखों में आंसू हैं, आपकी तारीफ से खुद को रोक नहीं सकती।"
     हरियाणा के फतेहाबाद ज़िले के ग्राम समैन के युवक टीनू जांगड़ा ने 2016 फेसबुक पर प्यार के बाद कजाकिस्तान की युवती झाना के साथ शादी की थी। बाद में झाना अपने ससुराल भी आ गई। लेकिन उसके बाद वीजा अवधि न बढ़ने के कारण वह वापस चली गई। इस दौरान टीनू ने तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को ट्वीट किया कि विदेशी बहू अपने देश में आना चाहती है। लेकिन वीजा अवधि न होने के कारण परेशानी आ रही है। जिसके बाद सुषमा स्वराज ने संज्ञान लिया और विदेशी बहू को उसके ससुराल वापस लेकर आई। 
    पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी सहित आई.पी.एस. किरण बेदी, अधिवक्ता मीनाक्षी लेखी, अभिनेत्री शबाना आज़मी, सांसद प्रिया दत्त जैसे शीर्ष नामों के अलावा ऐसी बहुत सी महिलाओं के नाम मिल जाएंगे जिन्होंने स्वयं महिला होते हुए महिलाओं के हितों की सुरक्षा के लिए उल्लेखनीय कार्य किए हैं। ज़रूरत है ऐसे कार्यों, ऐसे चरित्रों, ऐसी घटनाओं को मीडिया माध्यमों के ज़रिए उजागर करने, बार-बार सामने लाने की जिनसे आमजन भी "महिला ही महिला की दुश्मन होती है" वाले मिथकजाल से बाहर आ कर यह वाक्य कण्ठस्थ कर ले कि "महिला किसी महिला की दुश्मन कभी नहीं होती।"
    मेरे घर की ही बात लीजिए, मेरी छोटी बहन डॉ. (सुश्री) शरद सिंह महिलाओं की निःस्वार्थ भावना से सेवा करने में सदैव अग्रणी रहती हैं। मध्यप्रदेश के सागर ज़िले की बेड़िया जाति की पीड़ित-शोषित महिलाओं, महिला बीड़ी श्रमिकों के हितरक्षण हेतु मैंने शरद को सदैव संघर्षरत देखा है। शरद की इस संघर्षशीलता का दिग्दर्शन शरद की क़िताबों - "पिछले पन्ने की औरतें" और "पत्तों में क़ैद औरतें" में आसानी से मिलता है। स्वयं की स्थायी शासकीय सेवा को तिलांजलि दे कर परिवार, समाज सहित ग़ैर स्त्रियों के हितों के प्रति चिन्तनशील रहना शरद की ख़ूबी है और इस बात का प्रमाण भी कि महिलाएं महिलाओं की दुश्मन नहीं बल्कि अच्छी मित्र होती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं से शरद लगातार संपर्क करती रहती हैं। पहले स्वयं ग्रामीण क्षेत्रों की यात्राओं द्वारा, और अब कोरोना काल में घर से फोन के माध्यम से शरद ग्रामीण महिलाओं के समस्याओं के निदान हेतु कौंसलिंग करती हैं। शरद का एकमात्र उद्देश्य उन महिलाओं की मदद करना रहता है जो अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं हैं और जो जागरूक तो हैं लेकिन अपने हितार्थ क़दम उठाने में हिचकती हैं। शरद यह बख़ूबी समझती हैं कि एक स्त्री किसी दूसरी स्त्री की हृदय की बात को, उसकी भावनाओं को, उसकी पीड़ा को जितनी गहराई से समझ सकती है उतना कोई पुरुष नहीं समझ सकता। स्त्री की स्त्री के प्रति मित्रता को किसी शक के दायरे में नहीं लाना चाहिए और इस मिथक से बाहर आ जाना चाहिए कि स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है।
     हमारे पौराणिक ग्रंथों में भी स्त्रियों के स्त्रियों के प्रति उदारता, सहिष्णुता के अनेक उदाहरण मिल जाएंगे। राम कथा को ही लीजिए, त्रिजटा के नाम से भला कौन परिचित नहीं होगा! रामचरितमानस के सुंदरकांड में त्रिजटा का वर्णन करते हुए तुलसीदास लिखते हैं -
त्रिजटा नाम राच्छसी एका। 
राम चरन रति निपुन बिबेका॥ 
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना। 
सीतहि सेइ करहु हित अपना॥
  अर्थात् उनमें एक त्रिजटा नाम की राक्षसी थी। उसकी राम के चरणों में प्रीति थी और वह विवेक अर्थात् ज्ञान में निपुण थी। उसने सबों को बुलाकर अपना स्वप्न सुनाया और कहा- सीताजी की सेवा करके अपना कल्याण कर लो।

सपनें बानर लंका जारी। 
जातुधान सेना सब मारी॥ 
खर आरूढ़ नगन दससीसा। 
मुंडित सिर खंडित भुज बीसा॥
 अर्थात् स्वप्न में मैंने देखा है कि एक बंदर ने लंका जला दी। राक्षसों की सारी सेना मार डाली गई। रावण नग्नावस्था में है और एक गदहे पर सवार है। उसके सिर मुंडे हुए हैं, बीसों भुजाएँ कटी हुई हैं।

जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच।
मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच॥
अर्थात् इसके बाद वे सब जहाँ-तहाँ चली गईं। सीताजी मन में सोच करने लगीं कि एक महीना बीत जाने पर नीच राक्षस रावण मुझे मारेगा॥

त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी।
मातु बिपति संगिनि तैं मोरी॥
अर्थात् सीताजी हाथ जोड़कर त्रिजटा से बोलीं- हे माता! आप मेरी विपत्ति की संगिनी हो। इस प्रकार दुखी सीता को त्रिजटा ने ढाढस बंधाया था और मातृवत् व्यवहार किया था। इसीलिये सीता त्रिजटा को माता का संबोधन देने लगीं थीं।
सीता ने त्रिजटा को माता का संबोधन दे कर प्रार्थना की थी कि - 
तजौं देह करु बेगि उपाई। 
दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई॥
     अर्थात् जल्दी कोई ऐसा उपाय करिए कि जिससे मैं शरीर छोड़ सकूँ। विरह असह्म हो चला है, अब यह सहा नहीं जाता।।
आनि काठ रचु चिता बनाई। मातु अनल पुनि देहि लगाई॥
सत्य करहि मम प्रीति सयानी। सुनै को श्रवन सूल सम बानी॥
अर्थात् काठ लाकर चिता बनाकर सजा दें। हे माता! फिर उसमें आग लगा दें। हे सयानी! आप मेरी प्रीति को सत्य कर दें। रावण की शूल के समान दुःख देने वाली वाणी कानों से कौन सुने?

सुनत बचन पद गहि समुझाएसि। 
प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि॥
निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी। 
अस कहि सो निज भवन सिधारी।।
अर्थात् सीताजी के वचन सुनकर त्रिजटा ने चरण पकड़कर उन्हें समझाया और प्रभु का प्रताप, बल और सुयश सुनाया। त्रिजटा ने कहा- हे सुकुमारी! सुनो, रात्रि के समय आग नहीं मिलेगी। ऐसा कहकर वह अपने घर चली गई। …. और इस प्रकार त्रिजटा ने उस समय सीता के मन में आए अग्नि में जल कर स्वयं को नष्ट कर लेने वाले आत्महत्या के विचार को खण्डित कर दिया।

      रामकथा भारतीय संस्कृति के आदर्श का एक लिखित महाकाव्य है। त्रेतायुग की इस महागाथा में जहां पावन नगरी अयोध्या में रामराज्य में सभी नागरिक सुख और शांति से निवास करते थे। वहीं लंका में राक्षसराज रावण के राज में नागरिक उद्दंड और तामसिक मनोवृति के थे। किन्तु उसी लंका में विभीषण, मंदोदरी, त्रिजटा आदि विवेकशील, सह्दय, परोपकारी जन भी निवासरत थे।
   राक्षसराज रावण के आधिपत्य वाली लंका में राक्षसी त्रिजटा थी। यूं तो त्रिजटा भी राक्षस कुल की महिला थी, किन्तु उसकी प्रवृत्ति परहित संरक्षण के गुण से भरपूर थी। अयोध्या की कुलवधू सीता को जब राक्षसराज रावण ने अपहृत कर लंका में स्थित अशोकवाटिका में बंदिनी के रूप में रखा था, तब रावण ने अनेक राक्षस महिलाओं को सीता की सतत् निगरानी के लिए आदेशित किया था। इन्हीं  राक्षस महिलाओं की प्रमुख त्रिजटा थी। रावण ने सभी राक्षस महिलाओं को यह आदेश दिया था कि वे किसी भी तरह डरा-धमका कर सीता को रावण से विवाह करने लिए मना लें। रावण के इस आदेश के पालनार्थ सभी राक्षस महिलाएं सीता को मनाने हेतु तरह-तरह के कुटिल यत्न कर रही थीं। परोपकरी हृदय त्रिजटा से यह नहीं देखा गया। दुखी, पीड़ित, असहाय सीता की सहायता करने के उद्देश्य से उसने उपस्थित राक्षस महिलाओं को अपने एक सपने के बारे में बताया। उसने कहा कि मैने स्वप्न में देखा है कि राम अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ सीता को रावण के पुष्पक विमान में बिठाकर उत्तर की ओर ले जा रहे हैं। रावण नग्न है और गधे पर सवार होकर दक्षिण दिशा कि ओर जा रहा है। उसकी बीसों भुजाएं कटी हुई हैं। विभीषण को लंका का राज मिल गया है और उसके दूसरे भाई जमीन पर पड़े हुए हैं। लंका नगर पानी में डूब रहा है और एक वानर ने लंका में आग लगा दी है। राक्षसों की सेना का नाश कर दिया है। 
   
      जिन व्यक्तियों ने काशी भ्रमण किया होगा, विश्वनाथ मंदिर में दर्शन हेतु गए होंगे वे त्रिजटा माता मंदिर से परिचित होंगे। अनुश्रुतियों के अनुसार लंका युद्ध की विजय के उपरान्त त्रिजटा ने सीता से प्रार्थना की थी कि वे उसे भी अपने साथ अयोध्या ले चलें किन्तु सीता ने त्रिजटा को समझाया कि त्रिजटा काशी अर्थात् वाराणसी जाए जहां त्रिजटा को मोक्ष की प्राप्ति होगी। उस समय सीता ने त्रिजटा को यह वरदान भी दिया था कि वह काशी में हमेशा पूज्यनीय रहेगी। इसलिए आज भी काशी विश्वनाथ मंदिर के पास त्रिजटा का भी मंदिर है और भक्तगण आज भी माता त्रिजटा को फूल और हरी सब्जियां, विशेष रूप से मूली और बैंगन समर्पित करते हैं। जहां शिव जैसे अनादि देव विराजमान हैं वहीं काशी विश्वनाथ गली में ही राक्षस महिला त्रिजटा माता का मंदिर भी स्थित है। यह मंदिर साक्षी विनायक मंदिर में है। यह मान्यता है कि कार्तिक पूर्णिमा को मनाई जाने वाली देव दीपावली के अगले दिन त्रिजटा माता की पूजा से विशेष फल की प्राप्ति होती है। यह कहा जाता है कि वर्ष में एक दिन मार्गशीर्ष के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को जो त्रिजटा की पूजा करेगा उसे विशेष फल की प्राप्ति होगी। इसीलिए त्रिजटा  का एक मात्र प्राचीन मंदिर काशी विश्वनाथ मंदिर के पास साक्षी विनायक मंदिर मे स्थित है। राक्षसकुल की होने के बावजूद त्रिजटा माता मंदिर में महिला श्रद्धालुओं की अटूट आस्था है। उनका मानना है कि जिस तरह त्रिजटा ने अशोक वाटिका में सीता की रक्षा की थी, उसी प्रकार उनकी और उनके सुहाग की भी रक्षा करेंगी। यह भी मान्यता है कि वर्ष में एक दिन माता त्रिजटा के दर्शन-पूजन मात्र से सभी दुःख-बाधाओं का नाश होता है और समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति होती है।
 
     वाल्‍मीकी रामायण में भी त्रिजटा का चरित्र जन्‍म से राक्षसी होकर भी कर्म से मानवीय बताया गया है। वाल्मीकि रामायण के सुन्‍दरकांड के अनुसार अशोक वाटिका में सीता की रक्षा और सहायता करने तथा दिलासा देने का कार्य त्रिजटा ने किया था। त्रिजटा ने अन्य राक्षसियों को अपना स्वप्न सुनाते हुए रावण के कृत्य को निंदनीय बता कर रावण को भविष्य में मिलने वाले दण्ड कि वर्णन किया था। जिसे सुन कर भयभीत राक्षसियों ने सीता से बुरा व्यवहार करना त्याग दिया था - 
कृष्‍यमाणः स्‍त्रिया मुण्‍डो दुष्‍टः कृष्‍णाम्‍बर पुनः ।
रथेन स्‍वरयुक्तेन रक्तमाल्‍यानुलेपनः ॥
पिबंस्‍तैल हसन्‍नृत्‍यन्‌ भ्रान्‍ताचित्ता कुलेन्‍द्रियः ।
गर्दभेन ययों शीघ्रं दक्षिणां दिशमास्‍थितः॥

 अर्थात् एक स्‍त्री उस मुण्‍डित मस्‍तक रावण को कहीं खींचे लिये जा रही थी। उस समय मैंने पुनः देखा रावण ने काले कपड़े पहन रखे हैं । वह गधे जुते हुए रथ से यात्रा कर रहा था । लाल फूलों की माला और लाल चन्‍दन से विभूषित था। तेल पीता, हंसता और नाचता था वह गधे पर सवार होकर दक्षिण दिशा की ओर जा रहा था ।
         इतना ही नहीं त्रिजटा ने अन्‍य राक्षसियों को बताया कि उसने स्‍वप्‍न में मल के कीचड़ अर्थात् पंक में पड़ा देखा है। एक काले रंग की स्‍त्री जो कीचड़ में लिपटी हुई थी वह लाल वस्‍त्र पहने हुए रावण का गला बाँधकर दक्षिण दिशा में ले गई । उसने उसका भाई कुम्‍भकरण भी उसी अवस्‍था में देखा गया उसके पुत्र भी मुड़-मुड़ाये तेल में नहाये दिखाई दिये । राक्षसकुल के एक मात्र सम्मानित राजवंशी विभीषण श्‍वेत छत्र लगाये, श्‍वेत वस्‍त्र में श्‍वेत माला, श्‍वेत चन्‍दन और अंगराज धारण किए दिखाई दे रहे थे। विभीषण के पास शंख ध्‍वनि एवं नगाड़े बजाये जा रहे थे। वे चार दांत वाले दिव्‍य गज पर आरूढ़ आकाश में दिखाई दिए । त्रिजटा ने अन्य राक्षस महिलाओं को बताया कि - "मैंने स्‍वप्‍न में देखा है कि रावण की सुरक्षित लंका में राम के दूत बनकर आये हुए एक महावीर वानर ने लंका जलाकर भस्‍म कर दी है। अतः मेरी राक्षसकुलवंशी बहनों! जनकनंन्‍दिनी सीता को प्रणाम करो, वे अभिवादन करने मात्र से प्रसन्‍न हो जायेंगी तथा तुम्‍हारे जीवन की रक्षा करेंगी । तुम इन्‍हें भयभीत मत करो ।"
      त्रिजटा का चरित्र सीख लेने योग्य है। राक्षस कुल में जन्म लेने के बावजूद एक महिला होने के नाते त्रिजटा मानवीय गुणों से परिपूर्ण थी। राम की प्रतीक्षा में व्याकुल सीता के मन में शीतलता और सकारात्‍मकता का संचार करने वाली वह ममतामयी त्रिजटा इसीलिए वन्‍दनीय तथा अनुकरणीय है। हमारे टीवी सीरियल निर्माताओं को कुटिल चरित्र वाली महिलाओं के पात्र गढ़ने के बजाए त्रिजटा जैसी सद्चरित्र महिलाओं के जीवन पर पटकथाएं लिखवा कर समाज के हितार्थ श्रेष्ठ और स्वस्थ परम्परा की नींव रखने वाले धारावाहिकों का निर्माण करना चाहिए। उन्हें इस कलियुग में त्रेतायुग की राक्षस महिला त्रिजटा के सहिष्णुतापूर्ण मानवीय आचरण का स्मरण कर महिलाओं के व्यवहार के प्रति क़ायम मिथक को तोड़ने में अपनी भूमिका निभानी चाहिए।

और अंत में प्रस्तुत हैं मेरे कुछ दोहे -

महिला की होती सदा, महिला अच्छी मित्र ।
दुश्मन जो दिखला रहे, मिथ्या हैं वे चित्र ।।

महिला ही है जानती, महिला-मन की थाह ।
हर विपदा से मुक्ति की, दिखलाती है राह ।।

करुणा, ममता, प्रेम की यह मूरत साकार ।
महिला है इस सृष्टि का अतुलनीय उपहार ।।

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