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Wednesday, December 30, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 31| आत्ममुग्धता, सती अनुसूया और नववर्ष के संकल्प | डॉ. वर्षा सिंह


प्रिय मित्रों, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज प्रस्तुत है मेरा आलेख -  "आत्ममुग्धता, सती अनुसूया और नववर्ष के संकल्प" 
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 30.12.2020

मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं-

बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

आत्ममुग्धता, सती अनुसूया और नववर्ष के संकल्प   
    -डॉ. वर्षा सिंह

नववर्ष 2021 के आगमन में मात्र एक दिन शेष है …. और अनेक खट्टी मीठी यादें छोड़ कर जाते हुए वर्ष 2020 के इन अंतिम दिनों की सुबह, अख़बार में स्थानीय समाचारों वाले पृष्ठ पर प्रकाशित एक समाचार ने मन विचलित कर दिया। समाचार एक बाइक दुर्घटना में जान से हाथ धो बैठे युवक से संबंधित था। उस युवक को मैं जानती थी। वह कुछ महीनों के लिए आउटसोर्सिंग के ज़रिए विद्युत विभाग में लाइन परिचारक के रूप में काम कर चुका था। वहां किसी मसले पर प्रभारी कनिष्ठ अभियंता यानी अपने बॉस से खटपट हो जाने के कारण उसने वह जॉब छोड़ दिया था और स्वतंत्र रूप से इलेक्ट्रीशियन का काम करने लगा था। तब यही सुना था कि वह अपने आपको दुनिया से ऊपर समझता था, सही है तो वह स्वयं, बाकी सभी लोग ग़लत हैं। या यह कह सकते हैं वह एक तरह की आत्ममुग्धता यानी नॉर्सिसिज़म का शिकार था। समाचार में दुर्घटना की वज़ह उस युवक द्वारा एक ट्रक को ओव्हरटेक करने में हुई चूक को बताया गया था। ओव्हरटेक करते समय ऐसी चूक हो जाना ही घातक दुर्घटना का कारण बनती है। प्रायः बाईक चालक आत्ममुग्धताजनित ओव्हरकांफिडेंस की वज़ह से ही सामने जा रही गाड़ी की रफ़्तार का सही अंदाज़ा नहीं लग पाता और रफ़्तार का सही- सही आकलन नहीं कर पाने के कारण उस गाड़ी के रांग साइड वाले बाजू से निकल कर आगे बढ़ने की चाहत ही ऐसी घातक सड़क दुर्घटना का कारण बन जाती है।
     आत्मगौरव यानी सेल्फकांफिडेंस जितना लाभप्रद सिद्ध होता है उतनी ही आत्ममुग्धता यानी नॉर्सिसिज़म घातक सिद्ध होती है। यह आत्ममुग्धता प्रायः घमण्ड का भी कारण बन जाती है। इसके अनेक रूप हैं, अनेक उदाहरण हैं। आजकल तो यह फैशन बन गया है। नम्रता विलुप्त होती जा रही है और स्वयं को मानो सर्वशक्तिमान भगवान समझ कर दूसरों को स्वयं से कमतर, उपेक्षित समझने- आंकने का चलन बढ़ता जा रहा है।
   प्रसंगवश मैं स्मरण दिलाना चाहूंगी कि  परी कथाओं में "स्नो व्हाइट और सात बौने" की कहानी में यही हुआ था। यूरोप की एक बहुप्रचलित लोककथा के अनुसार किसी राज्य में एक राजा की रानी ने एक सुन्दर सी बेटी को जन्म दिया, जिसका नाम उन्होंने स्नो व्हाइट रखा। पूरे राज्य में खुशियां ही खुशियां थी, लेकिन यह खुशी ज्यादा दिनों तक नहीं रह सकी। कुछ दिनों बाद जब राजा और रानी जंगल में घूमने गए, तो एक जादूगरनी ने मौका पाकर रानी को चिड़िया बना दिया और अपने पास पिंजरे में कैद कर लिया। रानी के अचानक गायब होने से राजा को लगा कि रानी की मौत हो गई। राजा बहुत दुखी हुए और उन्होंने स्नो व्हाइट की देखभाल और मां के प्यार के लिए दोबारा शादी की। लेकिन, जिससे उन्होंने शादी की, वो वही जादूगरनी थी जिसने रानी को चिड़िया बनाकर कैद कर लिया था। उस जादूगरनी ने रूप बदलकर राजा के साथ शादी की थी। उसकी चिड़िया को देख स्नो व्हाइट बहुत खुश हुई और उसने वो चिड़िया उससे मांग ली। इस बात से अनजान की वो चिड़िया उसकी मां है, स्नो व्हाइट उसे बहुत प्यार से अपने पास रखती। उस जादूगरनी को इस बात का घमण्ड था कि वह पूरी दुनिया में सबसे खूबसूरत है। उस जादूगरनी के पास एक जादुई आईना था, जिससे वह घमण्ड की हद तक जा पहुंचे आत्ममुग्धता या नॉर्सिसिज़म में भर कर हर रोज पूछती कि "ऐ मेरे आईने, बता कि दुनिया में सबसे सुंदर कौन है?" हर बार आईने का जवाब होता - "मेरी मलिका, आप ही हैं दुनिया की सबसे सुंदर औरत। "
   लेकिन जब स्नो व्हाइट जब बड़ी हुई तो उस 
आईने ने का जवाब बदल गया। जादूगरनी को पूछने पर वह कहने लगा - "मेरी मलिका, आप हैं दुनिया की सबसे सुंदर औरत। लेकिन आपसे भी ज़्यादा सुंदर है स्नो व्हाइट ।"
    यह सुनकर जादूगरनी को बहुत गुस्सा आता। एक दिन उसने फैसला कर लिया कि वो स्नो व्हाइट को मार डालेगी। फिर उसने स्नो व्हाइट की जान लेने के तरह-तरह के प्रयास किए, लेकिन स्नो व्हाइट जंगल में भाग गई। जादूगरनी ने समझा कि स्नो व्हाइट मर चुकी है और वह ख़ुश हो गई।
       स्नो व्हाइट जब वह जंगल में भटक रही थी कि उसकी नजर एक छोटी-सी झोपड़ी पर गई। वहां, उसने देखा कि बहुत छोटी-छोटी सात प्लेट लगी हैं और उसमें कई तरह के भोजन हैं। स्नो व्हाइट को भूख भी लगी थी, तो उसने हर प्लेट में से थोड़ा-थोड़ा भोजन कर लिया और फिर वहां लगे सात बिस्तर में से एक  पर लेट गई। लेटे-लेटे उसे नींद आ गई और वो सो गई। तभी वहां सात बौने आए। जैसे ही उनकी नजर स्नो व्हाइट पर पड़ी, उसकी खूबसूरती देख बौने उसे देखते ही रह गए। तभी स्नो व्हाइट की नींद खुली और उसने डरते हुए बौनों को सारी बात बताई। बौने उसकी बात सुनकर चौंक गए और उन्होंने स्नो व्हाइट को हमेशा अच्छा खाना बनाने और उनके घर की देखरेख करने की शर्त पर अपने साथ रख लिया।
   एक दिन उस जादूगरनी रानी ने फिर से अपने जादुई आईने से पूछा कि "ऐ मेरे आईने, बता कि दुनिया में सबसे सुंदर कौन है?" आईने ने फिर कहा, "मेरी मलिका, आप हैं दुनिया की सबसे सुंदर औरत। लेकिन आपसे भी ज़्यादा सुंदर है स्नो व्हाइट ।"’
     रानी यह सुनकर हैरान रह गई । वह समझ रही थी कि स्नो व्हाइट मर चुकी है। जादुई आईने ने उसे बताया कि स्नो व्हाइट बौनों की झोपड़ी में रहती है। यह सुनने के बाद जादूगरनी रानी ने जादू से जहरीला सेब बनाया और उसे स्नो व्हाइट को खिला कर स्नो व्हाइट को मारने के लिए अपना रूप बदलकर स्नो व्हाइट के पास पहुंची। उसने स्नो व्हाइट को सेब चखने के लिए वो जहरीला सेब दिया। स्नो व्हाइट उसे बूढ़ी औरत समझकर मना नहीं कर सकी और उसने वह जहरीला सेब चख लिया। सेब चखते ही स्नो व्हाइट को नींद आने लगी। तभी वह जादूगरनी अपने असली रूप में आ गई और स्नो व्हाइट के सामने हंसने लगी। स्नो व्हाइट अपनी सौतेली मां को देख हैरान रह गई और गहरी नींद में चली गई। उसके कुछ देर बाद ही वहां बौने आए और स्नो व्हाइट को वहां पड़ा देख वो दुखी हो गए। उन्होंने स्नो व्हाइट को मृत समझ कर उसे एक शीशे के ताबूत में रख दिया। तभी वहां घूमता-फिरता एक राजकुमार आया जो स्नो व्हाइट से पहले मिल चुका था। स्नो व्हाइट को वहां इस तरह ताबूत में देख कर वह बहुत दुखी हुआ। उसने बौनों से स्नो व्हाइट को अंतिम विदा देने के उद्देश्य से उसका स्पर्श करने की इच्छा प्रकट की। दुखी बौनों ने इसे स्वीकार कर ताबूत का ढक्कन खोल दिया। राजकुमार ने द्रवित हो कर स्नो व्हाइट के माथे का स्पर्श किया फिर अचानक भावुकतावश स्नो व्हाइट को चूम लिया। राजकुमार और बौने चकित रह गए। यह क्या ? राजकुमार ने के चूमते ही जादूगरनी का जादू समाप्त हो गया और स्नो व्हाइट को होश आ गया। स्नो व्हाइट ने अपने पिता, अपनी मां और जादूगरनी के बारे में सारी बात बताने पर बौनों और राजकुमार को बतायी। तब वे सभी राजा के पास पहुंचे। स्नो व्हाइट को देख राजा खुश हो गया। उन्होंने राजा को सारी बात बता दी और फिर बौनों ने अपनी शक्ति से जादूगरनी के जादू को खत्म कर दिया। जादू खत्म होते ही चिड़िया बनी असली रानी यानी स्नो व्हाइट की मां अपने रूप में आ गई। राजा और स्नो व्हाइट रानी को देख बहुत खुश हुए और जादूगरनी को बंदी बनाने का आदेश दे दिया। जादूगरनी का जादू समाप्त हो जाने के कारण उसका वह जादुई आईना भी टूट कर नष्ट हो गया। राजा-रानी ने स्नो व्हाइट का विवाह उस  राजकुमार से कर दिया और  बौनों को उचित उपहार दे कर विदा कर दिया। 
   स्नो व्हाइट की इस कहानी में जादूगरनी रानी द्वारा पूरी दुनिया में स्वयं को सबसे ज़्यादा सुंदर समझने का आत्ममुग्धता यानी नॉर्सिसिज़म, मासूम स्नो व्हाइट की मुसीबतों का कारण बन गया था। लेकिन तमाम चालें चलने के बावज़ूद निर्दोष स्नो व्हाइट को वह हानि नहीं पहुंचा पाई, उल्टे वह जादूगरनी इस कहानी में खलनायिका के रूप में जानी गई।    

    हमारे प्राचीन ग्रंथों में ऐसी कथाएं वर्णित हैं जिनके पठन-मनन से हम यह समझ सकते हैं कि आत्ममुग्धता में स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझने का घमण्ड और दूसरों को स्वयं से कमतर समझना उचित नहीं होता। ऐसी समझ के वशीभूत किए गए कार्यों में अनेक दफ़ा पासे उल्टे पड़ जाते हैं। इस तरह का आत्ममुग्धता अथवा स्वयं को सबसे ज़्यादा मानने का भ्रम सिर्फ़ मानव ही नहीं देवी- देवताओं में भी जब उत्पन्न हो जाता है तो उन्हें भी विपरीत परिस्थितियों का सामना करने हेतु विवश होना पड़ता है। 
     हमारे पौराणिक ग्रंथों में एक कथा है सती अनुसूया की, जिसमें त्रिदेवियों ब्रह्माणी, लक्ष्मी और महागौरी ने पतिव्रत-धर्मपालन के मामले में आत्ममुग्धता के चलते स्वयं को सबसे ज़्यादा और अनुसूया को स्वयं से कमतर समझने की भूल कर दी थी। 
     त्रेतायुग में प्रजापति कर्दम और देवहूति की नौ कन्याओं में से एक थी अनसूया, जिसका विवाह महर्षि अत्रि से हुआ था। अनुसूया पतिव्रता स्त्री थी और उसके पतिव्रत धर्म का तेज इतना अधिक था कि उसके कारण आकाशमार्ग से जाते देवों को उसकी तेजस्विता का अनुभव होता था। इसी कारण लोग उन्हें 'सती अनसूया' भी कहते थे। प्रचलित कथा के अनुसार एक बार महर्षि नारद त्रिदेव - ब्रह्मा, विष्णु और महेश के दर्शन की अभिलाषा से स्वर्ग लोक पहुंचे। वहां त्रिदेवियों सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती से चर्चा के दौरान वे कह बैठे कि तीनों लोकों अर्थात् स्वर्ग लोक, मृत्यु लोक और पातल लोक में अनसूया से बढ़कर कोई पतिव्रता स्त्री नहीं है। नारद मुनि की बात सुनकर त्रिदेवियों को बहुत बुरा लगा। उन्होंने महर्षि नारद से कहा कि - " असम्भव, यह कैसे सम्भव हो सकता है कि मृत्यु लोक की कोई मानवी हम देवियों से अधिक पतिव्रता हो। हम नहीं मान सकतीं, नारद जी ! आप मिथ्या भाष कर रहे हैं।" 
"आप लोगों को विश्वास नहीं है तो आप स्वयं इस बात का पता लगा लें।" - कह कर नारद तो वहां से चले गए लेकिन त्रिदेवियों की आत्ममुग्धता यानी नॉर्सिसिज़म पर कुठाराघात कर गए थे।

जब इस आत्ममुग्धता पर कुठाराघात की पीड़ा असहनीय हो गई तो त्रिदेवियों ने अपने पतियों अर्थात् त्रिदेव - ब्रह्मा, विष्णु और महेश को अनसूया के सतीत्व की परीक्षा लेने के लिए मृत्युलोक भेजा। उचित-अनुचित के विषय में विचार किए बिना पत्नियों के अनुरोध पर तीनों देवता महर्षि अत्रि के आश्रम में साधु वेष में जा पहुंचे। महर्षि अत्रि वहां नहीं थे। त्रिदेवों ने उनकी पतिव्रता धर्मपत्नी अनसूया से नग्नावस्था में भोजन करवाने का अनुरोध किया। अनुसूया असमंजस में पड़ गई। यह कैसा अनुरोध है? साधु हो कर ऐसी अनुचित भिक्षा की मांग ? किन्तु साधुओं को बिना भोजन कराये वापस भी नहीं भेज सकती थी। तब अनुसूया ने युक्तिपूर्वक निर्णय ले कर आश्रम में रखे अपने पति अत्रि के कमंडल से तीनों देवों पर जल छिड़ककर उन्हें शिशु रूप में परिवर्तित कर दिया और नग्नावस्था में स्तनपान करा दिया। अनेक वर्षों तक जब तीनों देव अपने स्थानों पर नहीं पहुंचे तो चिंतित होकर तीनों देवियां अनुसूया के आश्रम पहुंची, और अनुसूया से कहने लगीं कि अनेक वर्षों पहले हमारे पति आपके आश्रम में आए थे, वे कहां हैं? कृपया हमारे पतियों को हमें सौंप दीजिए।” अनुसूया ने विनम्रतापूर्वक त्रिदेवियों को प्रणाम किया और कहा कि - “देवियों! उन पालनों में सोने वाले शिशु यदि आप के पति हैं तो इनको आप ले जा सकती हैं।” तीनों देवियों ने चकित रह गईं, वहां तीन पालने रखे थे जिनमें एक समान लगने वाले तीनों शिशु गहरी निद्रा में सो रहे थे। इस पर लक्ष्मी, सरस्वती और पार्वती संकोच करने लगीं। तभी वहां महर्षि नारद आ गए। उन्होंने त्रिदेवियों से पूछा, -”अरे, क्या आप अपने पति को पहचान नहीं पा रही हैं ?” नारद  के ऐसा कहने पर देवियों ने लज्जित हो गईं। उन्होंने आत्ममुग्धता में पड़ कर अनुसूया से उसके पतिव्रता होने की परीक्षा लेने के लिए क्षमा मांगी और शीघ्रता से एक-एक शिशु को उठा लिया। तत्काल ही वे शिशु एक साथ त्रिमूर्तियों के रूप में प्रकट हो गए। नारद जी हंस कर बोले - "अरे, यह क्या?" सबने देखा कि सरस्वती ने शिव को, लक्ष्मी ने ब्रह्मा को और पार्वती ने विष्णु को उठा लिया है। वे तीनों देवियां अत्यंत लज्जित होकर दूर जा खड़ी हो गई। देवगण समझ गए कि देवियों को सबक मिल चुका है कि आत्ममुग्धता सदैव अच्छी नहीं होती। इसके परिणाम गम्भीर भी हो सकते हैं। तब मुस्कुराते हुए ब्रह्मा, विष्णु और महेश इस तरह सटकर खड़े हो गए, मानो तीनों एक ही मूर्ति के रूप में मिल गए हो। उन्होंने त्रिदेवियों से कहा - "देवियों, मृत्यु लोक में भी पतिव्रता स्त्रियों की कमी नहीं है। आत्ममुग्धता घमण्ड का कारण बन जाता है और घमण्ड बुद्धि के विनाश का कारण।" 
      उसी समय महर्षि अत्रि अपने आश्रम लौट आए। वहां त्रिमूर्तियों को पाकर उनकी अर्चना करने लगे। चूंकि अनुसूया ने अपने कर्तव्य, अपने संस्कार, अपनी मर्यादा की रक्षा हेतु अपनी सूझबूझ से देवगण को शिशुरूप प्रदान कर दिया था और माता अनुसूया के लालनपालन में देवगण पुत्र रूप में अपने दिन बिता चुके थे अतः त्रिमूर्तियों ने प्रसन्न होकर अत्रि एवं अनुसूया को वरदान दिया कि वे सभी स्वयं उनके पुत्र के रूप में अवतार लेंगे। बाद में त्रिमूर्तियों की समन्वित शक्ति का अवतरण विष्णु अवतारी दत्तात्रेय के रूप में, ब्रह्मा के स्वररूप से चन्दमा अर्थात् सोमदेव और शिव के स्वरूप से महर्षि दुर्वासा उत्पन्न हुए। इसीलिए पुराणों में अनुसूया को सती शिरोमणि का स्थान दिया गया है।
      वर्तमान समय में चित्रकूट धाम में मंदाकिनी नदी के तट पर सती अनुसूया अथवा अनुसुइया आश्रम एक पवित्र एवं धार्मिक सिद्ध स्थल माना जाता है। इस आश्रम का सौन्दर्य एवं भव्यता दर्शनीय है। यहां निर्मित मुख्य मन्दिर का सौन्दर्य अद्वितीय है। यहां दीवारों पर भव्य चित्रकारी की गई है। महर्षि अत्रि के साथ अनुसूया के विवाह का दृश्य, अनुसूया का पति की आज्ञा से पानी लेने जाने का दृश्य, त्रिदेव ब्रम्हा, विष्णु, महेश भिक्षुवेश में माता से भोजन मांगने का दृश्य, त्रिदेवों को बालक रूप में पालने पर झुलाने का दृश्य, त्रिदेवियों द्वारा अपनी भूल से पति वियोग में परेशान एवं अनुसूया से क्षमा मांगने आदि दृश्य चित्रित किए गए हैं। 
     इसी प्रकार उत्तराखंड स्थित चमोली ज़िले में भी गोपेश्वर नामक स्थान में भी अनसूया मंदिर स्थापित है। एक अन्य अनुश्रुति के अनुसार अनसूया मंदिर के निकट अनसूया आश्रम में त्रिदेवों - ब्रह्मा, विष्णु व महेश ने अनुसूया के सतीत्व की परीक्षा ली थी। तब से इस स्थान पर सती मां अनसूया को पुत्रदायिनी के रूप में पूजा जाता है। मार्गशीष पूर्णिमा को प्रत्येक वर्ष दत्तात्रेय जयंती पर गोपेश्वर में दो दिन विशाल मेला भी लगता है। 

रामकथा में भी सती अनुसूया का उल्लेख बहुत आदरपूर्वक मिलता है। रामचरितमानस के अरण्यकाण्ड में तुलसीदास ने अनुसूया आश्रम में राम, सीता, लक्षमण के आगमन का वर्णन करते हुए लिखा है -

अनुसुइया के पद गहि सीता। मिली बहोरि सुसील बिनीता॥
रिषिपतिनी मन सुख अधिकाई। आसिष देइ निकट बैठाई॥
अर्थात् फिर परम शीलवती और विनम्र सीता अनुसूया अथवा अनुसुइया के चरण पकड़कर उनसे मिलीं। ऋषि पत्नी के मन में बड़ा सुख हुआ। उन्होंने आशीष देकर सीता को पास बैठा लिया।

दिब्य बसन भूषन पहिराए। जे नित नूतन अमल सुहाए॥
कह रिषिबधू सरस मृदु बानी। नारिधर्म कछु ब्याज बखानी॥
अर्थात्  और उन्हें ऐसे दिव्य वस्त्र और आभूषण पहनाए, जो नित्य-नए निर्मल और सुहावने बने रहते हैं। फिर ऋषि पत्नी अपनी मधुर और कोमल वाणी से स्त्रियों के कुछ धर्म बखान कर कहने लगीं।

मातु पिता भ्राता हितकारी। मितप्रद सब सुनु राजकुमारी॥
अमित दानि भर्ता बयदेही। अधम सो नारि जो सेव न तेही॥
अर्थात्  हे राजकुमारी! सुनिए- माता, पिता, भाई सभी हित करने वाले हैं, परन्तु ये सब एक सीमा तक ही सुख देने वाले हैं, परन्तु हे वैदेही! पति तो मोक्ष रूपी असीम सुख देने वाला है। वह स्त्री अधम है, जो ऐसे पति की सेवा नहीं करती।

इस प्रकार स्नो व्हाइट की कथा उसकी जादूगरनी सौतेली रानीमां की आत्ममुग्धता और अनुसूया की कथा त्रिदेवियों की आत्ममुग्धता के दुष्परिणाम को व्याख्यायित करने वाली भी कथा है। आत्ममुग्धता यानी नॉर्सिसिज़म मनोविज्ञान में मनोरोग की श्रेणी में रखा गया है। जिससे ग्रसित व्यक्ति स्वयं के समक्ष समस्त जगत को हीन और तुच्छ समझने का भ्रम पाल लेता है। वर्तमान समय में संस्कारों में गिरावट के चलते सबसे आगे बढ़ने की अंधी दौड़ में शामिल हमारे देश की युवापीढ़ी किसी महामारी के समान ही घातक आत्ममुग्धता की मानसिक बीमारी से लगातार ग्रसित होती जा रही है, जिसके दुष्परिणाम भी गाहेबगाहे दिखाई देते रहते हैं। 
     हम सभी नववर्ष में आगामी समय में अपनी, अपने समाज अपने देश- दुनिया की बेहतरी के लिए कुछ न कुछ संकल्प ज़रूर लेते हैं। तो आईए, वर्ष 2020 में तेज़ी से फैली वैश्विक कोरोना महामारी से समूचे विश्व के मुक्त होने की कल्याणकारी भावना के साथ ही इस नववर्ष  2021 में अन्य संकल्पों के साथ ही हमें यह भी संकल्प लेना होगा कि हम आत्ममुग्धता की महामारी से भी स्वयं को बचाए रखें और दूसरे व्यक्तियों के आत्मसम्मान की उपेक्षा न करते हुए अपने भीतर सभी को समान रूप से देखने वाली एक साफसुथरी दृष्टि को विकसित कर भारतीय जीवन मूल्यों का संरक्षण करें।
    और अंत में प्रस्तुत है मेरा यह मुक्तक - 

यूं  स्वयम्  के  लिए  सोचते  हैं सभी
कुछ तो  सोचें  कभी  दूसरों के लिए
मुग्ध हो कर स्वयं पर जिए भी तो क्या
शिव वही  जो  गरल  मुस्कुरा के पिए

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2 comments:

  1. सार्थक प्रस्तुति।
    आने वाले नूतन वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ।

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  2. आदरणीय डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'जी,
    सादर नमन 🙏💐🙏

    आपकी अमूल्य टिप्पणी ने मेरा उत्साहवर्धन किया है। हृदय से सादर घन्यवाद 🙏🏻💐🙏🏻
    भवदीय,
    डॉ. वर्षा सिंह

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