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Wednesday, December 16, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 29 | परपीड़ा आनंद और सती प्रसंग | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज पढ़िए " परपीड़ा आनंद और सती प्रसंग" ...अपने विचारों से अवगत कराएं ...और शेयर करें 🙏
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दिनांक 16.12.2020

मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं-

बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

       परपीड़ा आनंद और सती प्रसंग
     
                    डॉ. वर्षा सिंह

पिछले दिनों एक अजीब सा वाकिया घटित हुआ। दरअसल हुआ यह कि मेरी एक परिचित रजनी (परिवर्तित नाम) का फोन आया। फोन करते हुए उसकी आवाज में खुशी छलक रही थी । वह हंस कर बोली - " वर्षा, एक मज़ेदार बात बताऊं।"
 मैंने कहा - "हां बताइए, क्या हुआ ?"
"अरे, तुम सुनोगी तो तुम्हें भी बहुत मज़ा आएगा।" वह चहक कर बोली।
मैंने पूछा - "क्या हुआ कुछ तो बताएं तो..."
वह बोली - "अरे जानती हो, वह जो मेरी ननद की देवरानी की रीवा वाली बहन है न, वह इन दिनों अपनी बेटी गुड्डी की शादी के लिए बड़ी फड़फड़ा रही है। उसकी बेटी को वहीं रीवा के पास सिरमौर वाले ठाकुर साहब के यहां पसंद भी कर लिया गया, सगाई भी हो गई और पता नहीं फिर क्या चक्कर चला कि वह सगाई टूट गई।"
मैं रजनी की बात सुनकर अफसोस प्रकट करने लगी - "अरे, यह तो बड़ा बुरा हुआ, लड़कियों की सगाई इस तरह टूट जाना अच्छा नहीं माना जाता है हमारे समाज में।"
लेकिन रजनी हंस कर बोली-"अरे जाने भी दो टूटने दो सगाई, अपने को क्या फर्क पड़ता है। मैंने तो दरअसल इसलिए तुमको फोन लगाया है कि … जानती हो क्या हुआ? हमें तो मालूम हो गया था कि गुड्डी की सगाई टूट गई है, लेकिन जब अभी तुम्हारे जीजा जी टूर पर रीवा गए तो मैंने उनसे कहा था कि सुनो जी, ज़रा अनजान बन कर पूरा हाल पूछना कि गुड्डी की सगाई क्यों टूटी, क्या हुआ… मज़ा आएगा। पहले तो तुम्हारे जीजा जी ने ना-नुकुर की, फिर मेरे बार-बार कहने पर राज़ी हो गए और उनके घर गए। वहां जा कर जैसे ही उन्होंने पूछा कि गुड्डी की शादी का किस तारीख का मुहूर्त निकला है? तो वह लोग सकते में आ गए, उनका इतना सा मुंह रह गया। कहने लगे, अरे कहां, गुड्डी की तो सगाई ही टूट गई है। तब तुम्हारे जीजा जी ने कहा अरे, यह तो बहुत बुरा हुआ। अब तो गुड्डी की शादी में बहुत दिक्कत आएगी। तुम्हारे जीजा जी रीवा से लौट के आए, मुझे सारी बात बताई तो मैंने फौरन गुड्डी की मम्मी को फोन लगाया, बोली क्या हुआ, अभी रीवा से लौट कर ये कह रहे हैं, गुड्डी की सगाई टूट गई। क्या हुआ ? मेरी बात सुन कर वो तो धरी रह गईं। कोई जवाब नहीं सूझा। बेटी सगाई टूट गई है, अब किस मुंह से बात करेंगी। मैं अनजान सी सवाल पर सवाल पूछती रही, साथ ही मैंने उन्हें डराया भी ख़ूब कि अब देखना, गुड्डी की शादी कहीं भी नहीं हो पाएगी। सगाई टूटी तो समझो क़िस्मत फूटी। वो सही में डर गई। बहुत मज़ा आया।"

रजनी की बात सुनकर मैं सोच में पड़ गई मुझे लगा कि कुछ लोग दूसरों की पीड़ा अथवा विषम परिस्थितियों का मज़ाक बनाने को स्वयं की बुद्धिमानी मान कर आनंदित होते हैं। उन्हें स्वयं के इस आनंद की इतनी अधिक चाहत होती है कि मज़ाक बनाते समय वे यह भी नहीं सोचते कि उनका आनंद किसी दुखी- पीड़ित व्यक्ति के मन को और अधिक दुख पहुंचा सकता है। जिसका परिणाम असहनीय और दुखद हो सकता है। 
अक्सर ऐसा भी होता है कि कई दफ़ा लोग संदेहवश अपनी होशियारी के चलते विषम परिस्थितियों में किसी की सहनशीलता की परीक्षा लेने के उद्देश्य से उसका दिल दुखा बैठते हैं। अपनी चतुराई पर अहंकार नहीं करना चाहिए। साथ ही अकारण किसी के धैर्य की परीक्षा नहीं लेनी चाहिए। इसका परिणाम बहुत बुरा भी हो सकता है। रजनी तो मनुष्य ही है, दुखी जन की परीक्षा लेने का कार्य देवी देवता भी हैं तो उसका दुष्परिणाम उन्हें भोगना पड़ता है।

ऐसा ही एक प्रसंग रामचरित मानस में भी है। तुलसीदास रचित रामचरितमानस एक ऐसी कृति है जिसमें पावन रामकथा के माध्यम से ऐसे अनेक शिक्षाप्रद प्रसंगों को बड़ी सुंदरता से पिरोया गया है, जो मनुष्य के जीवन एवं सम्पूर्ण समाज को दिशा प्रदान करने में सक्षम हैं।
ऐसा एक प्रसंग है - शिव - सती संवाद का। रामचरित मानस के बालकाण्ड में तुलसीदास ने इस प्रसंग का विस्तार से वर्णन किया है -

प्रसंग इस प्रकार है कि एक समय की बात है कि शिव अपनी पत्नी सती के साथ विचरण कर रहे थे। तभी उन्होंने देखा कि रावण द्वारा सीता का अपहरण किये जाने के बाद राम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ सीता के वियोग में वन-वन भटक रहे है -
करि छलु मूढ़ हरी बैदेही। प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही॥
मृग बधि बंधु सहित हरि आए। आश्रमु देखि नयन जल छाए॥
अर्थात् मूर्ख रावण ने छल करके सीताजी को हर लिया। उसे राम के वास्तविक प्रभाव का कुछ भी पता न था। मृग को मारकर भाई लक्ष्मण सहित श्री हरि आश्रम में आए और उसे खाली देखकर अर्थात् वहाँ सीता को न पाकर उनके नेत्रों में आँसू भर आए।
बिरह बिकल नर इव रघुराई। खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई॥
कबहूँ जोग बियोग न जाकें। देखा प्रगट बिरह दुखु ताकें।।
अर्थात् रघुनाथ मनुष्यों की भाँति विरह से व्याकुल हैं और दोनों भाई वन में सीता को खोजते हुए फिर रहे हैं। जिनके कभी कोई संयोग-वियोग नहीं है, उनमें प्रत्यक्ष विरह का दुःख देखा गया।
 अति बिचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान।
जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन॥
अर्थात् रघुनाथ का चरित्र बड़ा ही विचित्र है, उसको पहुँचे हुए ज्ञानीजन ही जानते हैं। जो मंदबुद्धि हैं, वे तो विशेष रूप से मोह के वश होकर हृदय में कुछ दूसरी ही बात समझ बैठते हैं। वे सीता की खोज कर रहे हैं। दंडकारण्य में राम को इस प्रकार विचरण करते देख शिव ने उनको प्रणाम किया। सती को यह देख बहुत आश्चर्य हुआ। सती ने कहा कि यह क्या। आप तो कहते हैं कि ब्रह्मा और विष्णु को आपने उत्पन्न किया है और आप इनको प्रणाम कर रहे हैं। यह कौन हैं और वन-वन क्यों विचरण कर रहे हैं। शिव ने सती को पूरा वृत्तांत सुना दिया कि ये दोनों राजा दशरथ के पुत्र हैं। राम साक्षात विष्णु जी के अवतार हैं। तुमको विश्वास करो। वह राम हैं और विष्णु के अवतार। असुरों की समाप्ति और भक्तों की रक्षा करने के ले ही इन्होंने राम के रूप में अवतार लिया है। किन्तु दक्षकन्या सती के मन में संदेह उपजा कि -
ब्रह्म जो ब्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद॥
अर्थात् जो ब्रह्म सर्वव्यापक, मायारहित, अजन्मा, अगोचर, इच्छारहित और भेदरहित है और जिसे वेद भी नहीं जानते, क्या वह देह धारण करके मनुष्य हो सकता है?

बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥
खोजइ सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी॥
अर्थात् देवताओं के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करने वाले जो विष्णु भगवान् हैं, वे भी शिवजी की ही भाँति सर्वज्ञ हैं। वे ज्ञान के भंडार, लक्ष्मीपति और असुरों के शत्रु भगवान् विष्णु क्या अज्ञानी की तरह स्त्री को खोजेंगे?
शिव समझाया किन्तु सती नहीं समझ पाईं, तब शिव ने कहा - 

लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवँ बार बहु।
बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ॥
अर्थात् यद्यपि शिव ने बहुत बार समझाया, फिर भी सती के हृदय में उनका उपदेश नहीं बैठा। तब महेश मन में हरि की माया का बल जानकर मुस्कुराते हुए बोले-

जौं तुम्हरें मन अति संदेहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू॥
तब लगि बैठ अहउँ बटछाहीं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं।
अर्थात् जो तुम्हारे मन में बहुत संदेह है तो तुम जाकर परीक्षा क्यों नहीं लेती? जब तक तुम मेरे पास लौट आओगी तब तक मैं इसी वट की छाया में बैठा हूँ।

सती को विश्वास नहीं हुआ। वह परीक्षा लेने चली गईं। सती ने सीता का रूप धरा और पहुंच गई राम के सामने। शिव जानते थे कि संदेह अनर्थ का कारण बनता है- 

होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा।।
अर्थात् जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। इस पर तर्क-कुतर्क खरने से कोई लाभ नहीं। मन में ऐसा कहकर शिव हरि का नाम जपने लगे और सती वहाँ गईं, जहाँ सुख के धाम प्रभु राम थे।

 पुनि पुनि हृदयँ बिचारु करि धरि सीता कर रूप।
आगें होइ चलि पंथ तेहिं जेहिं आवत नरभूप।।
अर्थात् सती बार-बार मन में विचार कर सीता का रूप धारण करके उस मार्ग की ओर आगे होकर चलीं, जिससे मनुष्यों के  श्रीराम आ रहे थे।
सती को सीता के वेश में देख कर लक्ष्मण तो भ्रम में फंस गए। उन्हें लगा कि सीता आ रही हैं, लेकिन राम ने तत्काल पहचान लिया और सती को प्रणाम किया तथा पूछा कि - "भगवती आपको प्रणाम। आप यहां कैसे? शंकर जी कैसे हैं?  इतना सुनना था कि सती को अपने किए पर बहुत पछतावा हुआ। तब उनको लगा कि अकारण किसी की परीक्षा नहीं लेनी चाहिए।
तुलसीदास कहते हैं -
लछिमन दीख उमाकृत बेषा। चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा॥
कहि न सकत कछु अति गंभीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥
अर्थात् सती के बनावटी वेष को देखकर लक्ष्मण चकित हो गए और उनके हृदय में बड़ा भ्रम हो गया। वे बहुत गंभीर हो गए, कुछ कह नहीं सके। धीर बुद्धि लक्ष्मण राम के प्रभाव को जानते थे।
सती कपटु जानेउ सुरस्वामी। सबदरसी सब अंतरजामी॥
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥
अर्थात् सब कुछ देखने वाले और सबके हृदय की जानने वाले देवताओं के स्वामी राम सती के कपट को जान गए, जिनके स्मरण मात्र से अज्ञान का नाश हो जाता है, वही सर्वज्ञ राम हैं।

सती कीन्ह चह तहँहुँ दुराऊ। देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ॥
निज माया बलु हृदयँ बखानी। बोले बिहसि रामु मृदु बानी॥
अर्थात् स्त्री स्वभाव का प्रभाव तो देखो कि वहाँ उन सर्वज्ञ भगवान् के सामने भी सती छिपाव करना चाहती हैं। अपनी माया के बल को हृदय में बखानकर, राम हँसकर कोमल वाणी से बोले- 
जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू॥
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू।।
अर्थात् पहले प्रभु ने हाथ जोड़कर सती को प्रणाम किया और पिता सहित अपना नाम बताया। फिर कहा कि वृषकेतु शिवजी कहाँ हैं? आप यहाँ वन में अकेली किसलिए फिर रही हैं?

राम बचन मृदु गूढ़ सुनि उपजा अति संकोचु।
सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु।।
अर्थात राम के कोमल और रहस्य भरे वचन सुनकर सतीजी को बड़ा संकोच हुआ। वे डरती हुई चुपचाप शिवजी के पास चलीं, उनके हृदय में बड़ी चिन्ता हो गई। 

इस प्रकार सती ने सीता का रूप धारण कर राम की परीक्षा लेनी चाही थी जो कि सर्वथा अनुचित था। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि कालांतर में सती को भी शिव से अलग होना पड़ा और अगले जन्म में हिमालयपुत्री बन कर पार्वती के रूप में शिव को पुनः पति के रूप में पाने के लिए अनेक वर्षों तक कठोर तपस्या करनी पड़ी।
….. और राम तो सर्वज्ञ थे, वे जान गए कि सीता के वेश में शिव की अर्धांगिनी सती हैं। किन्तु यदि कोई साधारण मनुष्य होता तो पहले तो वह अपनी प्राणप्रिय पत्नी को सामने पा कर अतिप्रसन्न हो जाता, किन्तु सच्चाई सामने आने पर उसकी मानसिक पीड़ा और अधिक बढ़ जाती।
     अकारण किसी को दुख पहुंचाने, उसका दिल दुखाने से बड़ा और कोई अपराध नहीं है। इस प्रकार के कृत्यों से बचना चाहिए। 

और अंत में प्रस्तुत हैं मेरे कुछ दोहे -

बिन कारण मत कीजिए, कोई ऐसी बात ।
किसी दुखी जन के हृदय को पहुंचे आघात।।

औरों का दुख देख कर ख़ुश होना धिक्कार।
ख़ुशी वही जो दे सभी को ख़ुशियां उपहार ।।

व्यर्थ न करिए तंज के तीरों की बौछार ।
"वर्षा" अक्सर आ लगें उल्टे सारे वार ।।

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6 comments:

  1. सार्थक संस्मरण।
    अच्छी जानकारी।

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    1. आदरणीय शास्त्री जी,
      आपने इसे सार्थक कहा तो वास्तव में मेरा यह लेख सार्थक हो गया।
      आपके प्रति हार्दिक आभार 🙏
      सादर,
      डॉ. वर्षा सिंह

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  2. This comment has been removed by the author.

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  3. बहुत सुन्दर सीख लिए ज्ञानवर्धक संस्मरण । अंत में आपके द्वारा सृजित दोहों ने सृजन को और भी रोचक बना दिया ।

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    1. बहुत- बहुत धन्यवाद प्रिय मीना जी 🙏🌹🙏

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