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Wednesday, September 30, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 18 | ग्लैमराइज्ड कैकेयी | डॉ. वर्षा सिंह

 


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दिनांक 30.09.2020

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बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

           ग्लैमराइज्ड कैकेयी          
                      - डॉ. वर्षा सिंह
      
         भक्त ध्रुव की कथा में ध्रुव के पिता राजा उत्तानपाद, माता सुनीति और सौतेली माता का नाम सुरुचि का ज़िक्र आता है। कथा का महत्वपूर्ण भाग यह है कि राजा उत्तानपाद एक दिन राज सिंहासन पर बैठे थे। उनकी गोदी में ध्रुव का सौतेला भाई अर्थात् सौतेली माता सुरुचि का पुत्र बैठा था। ध्रुव ने भी राजा की गोदी में बैठने की ज़िद की। रानी सुरुचि ने ध्रुव को रोक दिया और कहा, ‘‘मेरा पुत्र ही राजा की गोद में बैठने का अधिकारी है, क्योंकि वह तुमसे अधिक योग्य है।’’ बालक ध्रुव बड़ा ही स्वाभिमानी था। सौतेली मां की दुत्कार से आहत हो कर बालक ध्रुव ने प्रतिज्ञा की, कि ‘मैं दूसरों के द्वारा दिए गए स्थान को ग्रहण नहीं करूंगा। मैं परिश्रम और तपस्या से अपना स्थान स्वयं बनाऊंगा तथा ऐसा स्थान प्राप्त करूंगा जो किसी और ने आज तक प्राप्त नहीं किया होगा।' ध्रुव की प्रतिज्ञा सुन कर माता सुनीति ने उसे ‘ओम नमो भगवते वासुदेवाय’ का मंत्र दिया। बालक ध्रुव ने इस मंत्र का जाप करते हुए घोर तपस्या की। ध्रुव की तपस्या से प्रसन्न हो कर भगवान विष्णु ने उसे दर्शन दिए और वरदान मांगने को कहा। ध्रुव ने कहा- हे प्रभु! मुझे ऐसा पद दीजिए जो सभी पदों से ऊंचा हो। जो अपना अलग महत्व रखता हो तथा जिस पद पर आज तक कोई विराजमान न हुआ हो। विष्णु ने उसे आकाश में उत्तर दिशा में समस्त तारागणों, नक्षत्रों के बीच सर्वोच्च स्थान दिया। वह ‘ध्रुव तारा’ बन कर अमर हुआ। ध्रुव तारे को सब तारों में सबसे ऊंचा स्थान प्राप्त है। ध्रुव का नाम आज भी जितने सम्मानपूर्वक लिया जाता है जबकि उसकी विमाता सुरुचि का नाम लेते हुए घृणा के भाव मन में उत्पन्न हो जाते हैं।     

      यह तो थी सतयुग के भक्त ध्रुव की कथा, जिसमें सौतेली मां द्वारा अपनी सगी संतान के मोह में सौतेली संतान को अपमानित किया गया था। इसी प्रकार की एक कथा है त्रेतायुग के राजा राम की। रामकथा में राम को चौदह वर्ष का वनवास इसलिए झेलना पड़ा क्योंकि उनकी सौतेली माता कैकेयी ने अपने सगे पुत्र भरत को अयोध्या का राजा बनवाने के उद्देश्य से राम के पिता और कैकेयी के वचनबद्ध राजा दशरथ से वचनपूर्ति में राम का वनवास और भरत का राजतिलक मांग लिया था।
         राजा दशरथ की तीन रानियां थीं- कौशल नरेश सुकौशल की पुत्री कौशल्या, कैकय नरेश अश्वपति की पुत्री कैकयी और काशी नरेश की पुत्री सुमित्रा। राजा दशरथ की इन तीन रानियों में से कैकेयी विवाह से पहले महर्षि दुर्वासा की सेवा किया करती थी। कैकेयी की सेवा से प्रसन्न होकर महर्षि दुर्वासा ने कैकेयी का एक हाथ वज्र का बना दिया। कालांतर में  कैकेयी का विवाह राजा दशरथ से हो गया। उधर स्वर्ग में देवासुर संग्राम आरंभ हो गया। देवराज इंद्र ने राजा दशरथ को सहायता के लिए बुलाया। युद्ध कौशल में निपुण रानी कैकेयी भी दशरथ की रक्षा के लिए सारथी बनकर देवासुर संग्राम में पहुंच गईं। युद्ध के दौरान अचानक दशरथ के रथ के पहिए से कील निकल गई और रथ लड़खड़ाने लगा। कैकेयी ने कील के स्थान पर अपनी उंगली लगा दी, जिससे राजा दशरथ के प्राण बच गए। राजा दशरथ कैकेयी की वीरता और साहस से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने कैकेयी से उसकी कोई दो मनोकामना पूर्ति करने को कहा। लेकिन कैकेयी ने वे दोनों मनोकामनाएं बाद में कभी किसी समय पूर्ति का वचन ले कर  उस समय वह प्रकरण टाल दिया। बाद में कौशल्यापुत्र राम के राज्याभिषेक के समय कैकेयी की अंतरंग दासी मंथरा ने जब उन दो वचनों की पूर्ति का स्मरण दिलाते हुए भरत की भावी सुरक्षा के विषय में समझाया तो अपने हित-अहित का विचार किए बिना एक मां के हृदय ने मंथरा का सुझाव मान कर दोनों मनोकामनाएं पूर्ति हेतु दशरथ से कह दिया। कैकेयी ने दशरथ को इस वचन की बात याद दिलाकर कौशल्यापुत्र राम को चौदह वर्ष का वनवास और अपने पुत्र भरत का राज्याभिषेक मांग लिया। 
       दशरथ वचनबद्ध थे। किन्तु राम के प्रति यह घोर अन्याय वे सहन नहीं कर पाए और यह वचनपूर्ति उनके प्राणों के उत्सर्ग का करण बन गई। दशरथ ने वचन तो पूरे कर दिए लेकिन उसके बाद शोकग्रस्त हो कर वे जीवित नहीं रह पाए। आज्ञाकारी, संस्कारी, मर्यादा पुरुषोत्तम राम पिता की आज्ञा का पालन और माता कैकेयी की इच्छा का सम्मान करते हुए वन गमन कर गए। कैकेयीपुत्र भरत अपने बड़े भाई राम के प्रति अटूट स्नेह और गहरा आदरभाव रखते थे। उन्हें जब यह सब ज्ञात हुआ तो माता कैकेयी के इस कृत्य पर रोष प्रकट करते हुए उन्होंने राज्याभिषेक से मना कर दिया और राम के वनगमन के पश्चात राम की चरणपादुका अयोध्या ला कर उसे सिंहासनारूढ़ करके स्वयं एक सेवक की भांति चौदह वर्ष व्यतीत कर दिए।
     इस पूरे घटनाक्रम ने कैकेयी के जीवन को लांछित कर दिया। दासी मंथरा के सुझाव पर अमल करके पुत्रप्रेम के स्वार्थवश कैकेयी ऐसी दो मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए कोपभवन में जा बैठी थी, जिसने उसके जीवन को ही कलंकित कर दिया। दशरथ जैसे स्नेहवान पति को सदैव के लिए खो कर विधवा नारी के रूप में मिला कैकेयी का जीवन, सगे पुत्र भरत से भी तिरस्कृत हुआ। रामायण के नारी पात्रों में कैकेयी का स्मरण घृणा और तिरस्कार के साथ किया जाता है। कोई भी व्यक्ति अपनी पुत्री का नाम कैकेयी रखना उचित नहीं समझता।

   आदिकवि वाल्मीकि ने संस्कृत में लिखे गए 'रामायण' महाकाव्य में कैकेयी को एक ऐसी स्त्री के रूप में उल्लेखित किया है जो अपनी अनुचित मांग की पूर्ति कराने हेतु क्रोधाग्नि से तिलमिलाती हुई कोप- भवन में प्रविष्ट हो कर सम्पूर्ण अयोध्या को शोक- संतप्त बना देती है। वाल्मीकि रामायण की परम्परा में लिखे गये काव्यों और नाटकों में कैकेयी को राम-वनवास के लिए दोषी ठहराया गया है। असहिष्णु, कलंकिनी आदि अनेक सम्बोधनों का प्रयोग कर कैकेयी की निन्दा की गयी है।
'रामचरित मानस' में तुलसीदास ने अयोध्याकांड के अंतर्गत कैकेयी के पात्र को अन्त तक एकान्त- नीरव, भयावह एवं ग्लानियुक्त बनाए रखा है। कैकेयी की दैहिक सुंदरता उसके कुकृत्यों के समक्ष गौण हो गई। तुलसीदास ने अयोध्यावासियों के मुँह से उनके लिए 'पापिन' 'कलंकिनी' आदि अनेक सम्बोधनों का प्रयोग कर कैकेयी के कृत्य की भर्त्सना की है, साथ ही भरत की माता कैकेयी के प्रति रुष्टता को इस चौपाई के माध्यम से व्यक्त किया है -
कैकेई भव तनु अनुरागे। पावँर प्रान अघाइ अभागे॥
जौं प्रिय बिरहँ प्रान प्रिय लागे। देखब सुनब बहुत अब आगे।।

अर्थात् भरत कहते हैं कि कैकेयी से उत्पन्न देह में प्रेम करने वाले ये पामर प्राण पूरी तरह से अभागे हैं। जब प्रिय के वियोग में भी मुझे प्राण प्रिय लग रहे हैं, तब अभी आगे मैं और भी बहुत कुछ देखूँ-सुनूँगा।
भरत यह भी कहते हैं कि -
मातु कुमत बढ़ई अघ मूला। तेहिं हमार हित कीन्ह बँसूला॥
कलि कुकाठ कर कीन्ह कुजंत्रू। गाड़ि अवधि पढ़ि कठिन कुमंत्रू॥

अर्थात् मेरी माता की कुमति ही पापों का मूल है। उसने हमारे हित का बसूला बनाया। उससे कलहरूपी कुकाठ का कुयंत्र बनाया और चौदह वर्ष की अवधिरूपी कठिन कुमंत्र पढ़कर उस यंत्र को गाड़ दिया। 
हालांकि उदात्त चरित्र के स्वामी राम ने कभी माता कैकेयी को गलत नहीं कहा। साथ ही जब भरत ने अपनी माता को कटु वचन कहे तो राम ने उन्हें रोका भी।
           हमारे रामकथा सहित अनेक ग्रंथों में उन स्त्रियों को निंदनीय माना गया है और बुरी स्त्रियों के रूप में उल्लेखित किया गया है जो अपनी सगी संतानों से मोह में अपनी सौतेली संतानों के प्रति अन्याय एवं षडयंत्र करती हैं। यह इसलिए कि स्त्रियां इन कथाओं से शिक्षा ग्रहण करें, स्वयं को निंदा का कारण न बनाएं और अपने सौतेली संतानों के प्रति भी दया और ममता का भाव रखें। 
किन्तु वर्तमान समय में हमारे टीवी सीरियल्स में सौतेली माताओं के चरित्र को ग्लैमराइज करके षडयंत्रों से लैस, कुटिल चालों की एक्सपर्ट के रूप में महिमामंडित किया जाता है। जिसका स्त्रियों पर ग़लत असर पड़ता है। स्वार्थपरता, निष्ठुरता, मोहांधता के दुर्गुणों से लैस खलनायिका के रूप में प्रस्तुत विमाताओं के चरित्र से प्रभावित हो कर अनेक स्त्रियां "कैकेयी" बनती जा रही हैं।
यदि टीवी सीरियल्स में ऐसी स्त्रियों को ग्लैमराइज नहीं किया जाए और सिर्फ़ एपीसोड की संख्या बढ़ाने के उद्देश्य से उनकी घूर्तताओं को बढ़ा-चढ़ा कर न दिखाया जाए तो वह बेहतर होगा। सीढ़ी पर तेल डालकर परिवारजन को गिराने, गीज़र से बिजली के नंगे तार जोड़ कर घातक दुर्घटना को अंजाम देने सरीखे आसान नुस्खे किसी की भी ज़िन्दगी पर भारी पड़ सकते हैं। इसलिए वास्तविक ज़िन्दगी से कैकेयी के रोल को छोटा करके कौशल्या के रोल को बढ़ाना होगा।

और अंत में  प्रस्तुत हैं मेरी ये काव्य पंक्तियां....

उचित और अनुचित में जिसको भेद न करना आया।

मिले न उसको राम जगत में, मिली न उसको माया।

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Wednesday, September 23, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 17 | अक्षरों की ब्रम्ह सत्ता | डॉ. वर्षा सिंह

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दिनांक 23.09.2020

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 बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

          अक्षरों की ब्रम्ह सत्ता             
                      - डॉ. वर्षा सिंह

    शासकीय छत्रसाल स्नातकोत्तर महाविद्यालय, पन्ना में अपनी बी.एससी. की पढ़ाई के दौरान, "रोज़" शीर्षक कहानी मैंने अपनी सामान्य हिन्दी विषय की पाठ्यपुस्तक में पढ़ी थी। घरेलू स्त्री के जीवन और उसकी मनोदशा पर प्रख्यात हिन्दी साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वत्यस्यायन 'अज्ञेय' द्वारा लिखी इस कहानी का सार कुछ इस प्रकार है - 
          "रोज़" कहानी की मुख्य पात्र मालती है जो रिश्ते में लेखक की बहन एवं बाल सखा है। वे दोनों बचपन में साथ साथ पले और बढ़े हैं। विद्यार्थी जीवन में मालती अत्यंत चंचल और उच्श्रृंखल प्रवृति के लड़की थी, उसे पढ़ने से अधिक खेलने में रूचि थी। उसकी शादी महेश्वर नामक डॉक्टर से होती है जो एक सहृदय और अपने काम में रुचि लेने वाले व्यक्ति है। शहर से दूर किसी पहाड़ी क्षेत्र में उसकी पोस्टिंग होने के कारण वह पत्नी मालती और पुत्र टिटी के साथ सरकारी मकान में रहता है। लेखक एक बार मालती से मिलने वहां आता है। वह देखता है कि विवाह के बाद मालती का स्वभाव बदल गया है। उसका जीवन मशीन तुल्य हो गया है। वह सुबह उठकर अपने पति के लिए नाश्ता बनती है, फिर दोपहर का भोजन, फिर शाम का भोजन। वह गृह कार्यों  में इस प्रकार लगी रहती है मानो वह मानवी नहीं बल्कि कोई यंत्र हो। उसका जीवन यांत्रिक हो गया है। लेखक ने यह महसूस किया कि उसके आने पर मालती उत्साहित नहीं हुई। वरन् मात्र औपचरिकतावश उससे बातें करती रही।       
मालती का छोटा बच्चा टिटी सदैव रोता रहता है, किन्तु मालती बच्चे के रोने को रोज़ की बात मान कर ध्यान नहीं देती। घड़ी का घंटा बजने पर मालती उक्ताहट भरे स्वर में हर दफ़ा घंटे की ध्वनि के अनुरूप कहती उठती है - चार बज गए, पांच बज गए, ग्यारह बज गए आदि। लेखक ने महसूस किया कि मालती के घर का वातावरण बोझिल और उकताहट भरा हुआ है। कोई उत्साह और उमंग नहीं है। पहाड़ पर स्थित इस सरकारी मकान में न तो ठीक से पानी आता है और न तो हरी सब्जी उपलब्ध होती है। कोई समाचार पत्र नहीं आता और न ही यहां पढ़ने लिखने का कोई साधन है।  लेखक अपने साथ मालती और उसके परिवार के लिए उपहारस्वरूप कुछ आम लाया था। वे आम काग़ज़ में लिपटे थे। वह काग़ज़ किसी पुराने अख़बार का टुकड़ा था। मालती ने आम अपने आंचल में डाल लिए और अख़बार के उस पन्ने को उठा कर पढ़ने लगी। शाम की मद्धिम रोशनी में नल के पास खड़ी मालती ने उस अख़बार के टुकड़े को जब दोनों ओर से पूरा पढ़ लिया तब उसे एक ओर फेंक नल से आम धोने लगी। लेखक को याद आया कि यह वही मालती है जो अपने स्कूली दिनों में पढ़ने से इतनी अधिक अरुचि रखती थी कि पाठ्यपुस्तकों को फाड़ कर फेंक देती थी और इस कृत्य पर पिता द्वारा पीटे जाने पर ढिठाई से कहती थी कि मैंने क़िताब फाड़ कर फेंक दी है, मैं नहीं पढ़ूंगी।
       प्रतिदिन एक जैसी ऊबाऊ और यांत्रिक दिनचर्या के बीच चंद अक्षरों के लिए तरसती स्त्री की कथा "रोज़" के इसी अंश ने मुझे बेहद प्रभावित किया। आज भी मैं जब सामान पर लपेटे गए किसी पुराने अख़बार के टुकड़े को देखती हूं तो "रोज़" कहानी का यह घटना क्रम मुझे बरबस याद आ जाता है। जिन अक्षरों से मालती कभी दूर भागती थी, उन अक्षरों के प्रति एक अप्रत्यक्ष, अनजानी ललक उसे उन अक्षरों को देखने- पढ़ने के लिए प्रेरित करने लगी थी। अक्षरों की माया है ही ऐसी। यदि कोई व्यक्ति एक बार साक्षर हो जाए, किसी भी लिपि के अक्षरों को पहचानने, अक्षरों के युग्म अर्थात् शब्दों को जानने लगे तो ताज़िन्दगी वह अक्षरों के अनजाने, अदृश्य इंद्रजाल से दूर नहीं जा पाता। जहां कहीं भी कुछ लिखा हुआ मिलता है, दृष्टि पड़ते ही वह उसे पढ़ डालता है। फिर चाहे वह लिखा हुआ उससे संबंधित हो अथवा नहीं। चाहे वह उस लिखे का अर्थ समझ पा रहा हो अथवा नहीं। 
     अक्षरों में ऐसा कौन सा आकर्षण रहता है कि वे हमारे मनोमस्तिष्क को बांध लेते हैं। दरअसल हर अक्षर एक सिम्बल यानी प्रतीक है एक निश्चित ध्वन्याकृति का। हर एक अक्षर दूसरे अक्षर से भिन्न होता है, उसकी सम्पूर्ण सत्ता भिन्न होती है... आकृति, ध्वनि, स्वरूप, युक्ति, संयुक्ति, उच्चारण आदि।
    अक्षर क्या है ? सीधे-सादे शब्दों में कहें तो जो क्षर न हो, अर्थात् जिसका नाश न हो, उसे अक्षर कहते हैं । भाषाविज्ञान में 'अक्षर' या शब्दांश ध्वनियों की एक संगठित इकाई को कहते हैं। अक्षरों के परस्पर योग से शब्द बनते हैं। किसी भी शब्द को अंशों में तोड़कर बोला जा सकता है और शब्दांश शब्द के वह अंश होते हैं जिन्हें और ज़्यादा छोटा नहीं बनाया जा सकता वरना शब्द की ध्वनियां बदल जाती हैं। इसी प्रकार लिपि या लेखन प्रणाली का अर्थ होता है किसी भी भाषा की लिखावट या लिखने का ढंग। ध्वनियों को लिखने के लिए जिन चिह्नों का प्रयोग किया जाता है, वही लिपि कहलाती है, जो अक्षरों  लिपि और भाषा दो अलग अलग चीज़ें होती हैं। भाषा वह है जो बोली जाती है, उसे किसी भी लिपि में लिख सकते हैं, किसी भी लिपि के अक्षरों से प्रकट कर सकते हैं। जैसे हिन्दी सर्वमान्य देवनागरी लिपि में लिखी जाती है, किन्तु सुविधा हेतु उसे रोमन,  खरोष्ठी आदि में लिखा जा सकता है। ये शब्द चिन्ह ही तो अक्षर हैं। प्राचीन इज़िप्ट के लेख चित्रलिपि में पाए गए हैं। 
     अक्षर शब्द का अर्थ है - 'जो न घट सके, न नष्ट हो सके'। इसका प्रयोग पहले 'वाणी' या 'वाक्‌' के लिए एवं शब्दांश के लिए होता था। 'वर्ण' के लिए भी अक्षर का प्रयोग किया जाता रहा। यही कारण है कि लिपि संकेतों द्वारा व्यक्त वर्णों के लिए भी आज 'अक्षर' शब्द का प्रयोग सामान्य जन करते हैं। भाषा के वैज्ञानिक अध्ययन ने अक्षर को अंग्रेजी 'सिलेबल' (syllable) का अर्थ प्रदान कर दिया है, जिसमें स्वर, स्वर तथा व्यंजन, अनुस्वार सहित स्वर या व्यंजन ध्वनियाँ सम्मिलित मानी जाती हैं।
     एक अन्य परिभाषा के अनुसार एक ही आघात या बल में बोली जाने वाली ध्वनि या ध्वनि समुदाय की इकाई को अक्षर कहा जाता है। वस्तुतः भाषा के दो रूप हैं पहला लिखित और दूसरा मौखिक। मौखिक रूप का ध्वनि से संबंध होता है, अक्षर का संबंध ध्वनि के उच्चारण पक्ष से है। 'अक्षर' शब्द संस्कृत के 'क्षर' धातु के 'अ' उपसर्ग लगाकर बना है। जिसका शाब्दिक अर्थ है -'अनश्वर' या 'अटल' ।

     हिंदी भाषा में अक्षर शब्द का प्रयोग चार अर्थों में किया जाता है -  पहले अर्थ में अक्षर का प्रयोग अरबी भाषा के 'हर्फ़' अंग्रेजी भाषा के 'लेटर' और संस्कृत भाषा के 'वर्ण चिन्ह' के रूप में किया जाता है।  दूसरे अर्थ में इस का प्रयोग अनश्वर या अटल ईश्वर के रूप में किया जाता है। तीसरे अर्थ में इस का प्रयोग स्वर के लिए किया जाता है। इसी आधार पर स्वरों को मूल स्वर व संयुक्त स्वरों में विभाजित किया गया है। चौथे अर्थ में इस का प्रयोग 'अक्ष' या 'शीर्ष' बलाघात अर्थ में किया जाता है।

    यहां मैं अक्षर के दूसरे अर्थ में अनश्वर या अटल ईश्वर के रूप में किए जाने वाले प्रयोग पर चर्चा करना चाहूंगी।

ऋग्वेद में कहा गया है - 
एतावानस्य महिमातो ज्यायांश्च पुरूषः।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।। 3।।
(मण्डल 10 सुक्त 90 मंत्र 3)
इसका मूल भावार्थ यह है कि अक्षर पुरुष परब्रह्म सर्वशक्तिमान है तथा सर्व ब्रह्मण्ड उसी के अंश मात्र पर ठहरे हैं।

     अक्षर मानों परमाणु है और शब्द अणु। अक्षर का प्रयोग अनश्वर या अटल ईश्वर के रूप में भी किया जाता है। अक्षर ऊर्जा का प्रतिरूप है। 'ऊं' का उच्चारण करने कर ऊ और म् की ध्वनि आध्यात्मिक अनुभूति से साक्षात्कार कराती है। इसी तरह 'राम' का उच्चारण करने पर र, आ, और म की त्रिवेणी से निर्मित ऊर्जा भगवान राम के सम्पूर्ण अस्तित्व के क्षणांश में हमारे भीतर समाहित हो जाती है।

भगवत् गीता में एक श्लोक है -
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।
भूतभावोद्भवकरो विसर्ग: कर्मसञ्ज्ञित: ।। गीता 8/3।।
    अर्थात् जिसका कभी नाश नहीं होता, जो हमेशा क्षररहित है, अक्षर है, वही ब्रह्म है, ब्रह्म सदैव अपरिवर्तन है। परमात्मा ही ब्रह्म है। परब्रह्म का जो प्रत्येक शरीर में अंतर आत्मा का भाव है उसका नाम स्वभाव है, वह स्वभाव ही अध्यात्म कहलाता है। भूत वस्तु को उत्पन्न करने वाला जो त्याग है, वह त्याग रूप यज्ञ कर्म नाम से कहा जाता है। इस बीज रूप यज्ञ से ही वृष्टि आदि के सभी भूतप्राणी पैदा होते हैं।
     आशय यह कि मेरे विचार से अक्षर ऊर्जा का प्रतिरूप है। अतः अक्षरों का यदि दुरुपयोग किया जाए तो वह घातक होता है, और यदि अक्षरों का सदुपयोग किया जाए तो वह विश्व कल्याण का कारक सिद्ध होता है। अक्षर रूपी परमाणु से निर्मित शब्द किसी आणविक ऊर्जा से कम नहीं होते। "राम" में निहित ऊर्जा मोक्षदायिनी है, जबकि उसके उलट "मार" हिंसा का प्रतिरूप अशांति का स्त्रोत है। तो आइए, अब हम - आप स्वयं तय करें कि अक्षरों का प्रयोग हम किस तरह करें, राम के रूप में अथवा मार के रूप में।

और अंत में प्रस्तुत हैं मेरी यह काव्यपंक्ति-

अक्षरों के ब्रह्म को जो जानता है
शब्द की वो ही महत्ता मानता है

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Wednesday, September 16, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 16 | पितृपक्ष, रेणू और उऋण का चिंतन | डॉ. वर्षा सिंह

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दिनांक 16.09.2020

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बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

        पितृपक्ष, रेणू और उऋण का चिंतन

                -डॉ. वर्षा सिंह     

       हमारी भारतीय परंपरा में पूर्वजों के प्रति श्रद्धा और स्मरण का पर्व पितृ पक्ष या श्राद्ध पक्ष के नाम से जाना जाता है। इसे विभिन्न क्षेत्रों में 'सोलह श्राद्ध', 'महालय पक्ष', 'अपर पक्ष' आदि कहते हैं। प्रत्येक वर्ष पितृपक्ष का आरम्भ भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि से होता है। जो कि क्वांर अर्थात् आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को सर्वपितृ अमावस्या के साथ समाप्त हो जाता है। इस वर्ष पितृपक्ष 2 सितंबर से आरम्भ हो चुका है एवं कल 17 सितंबर, गुरुवार तक रहेगा। हिंदू धर्म में पितृपक्ष के इन 15-16 दिनों को बहुत पवित्र और शुभ माना जाता है।

        इस पक्ष में हम अपने पूर्वजों का स्मरण करते हैं और उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हैं। श्राद्ध कर्म का अर्थ है पूर्वजों यानी पितरों की प्रसन्नता हेतु श्रद्धा से किया जानेवाला कार्य। हमारी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, यह माना जाता है कि श्राद्ध पक्ष में चन्द्रलोक से उतर कर हमारे पूर्वज धरती अर्थात्  मृत्यु लोक पर आते हैं। इसलिए "अतिथि देवो भव" का निर्वहन करते हुए हम उनका आदर, सत्कार करते हैं, जिसके अंतर्गत श्राद्ध कर्म किए जाते हैं ताकि पूर्वजों अर्थात् पितरों की आत्मा को मोक्ष की प्राप्ति हो सके और उनके द्वारा हमें सुखी जीवन का आशीर्वाद प्राप्त हो सके। हमारे धार्मिक शास्त्रों में देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण बताए गए हैं। पूर्वजों का ऋण उतारने के लिए पितृ पक्ष में श्राद्ध हेतु विधि- विधान से पूजन कर पूर्वजों को जल अर्पण किया जाता है। 

     पूर्वज का शाब्दिक अर्थ है - जो पहले उत्पन्न हुआ हो, अर्थात् जन्मा हो। अब प्रश्न उठता है कि पूर्वज की परिभाषा क्या है ? प्रचलित अर्थों में पिता, माता से पूर्व जन्में दादा, परदादा, दादी, परदादी सहित उनसे भी पूर्व जन्म लेने वाले कुटुम्बी आदि स्त्री- पुरुष पूर्वज कहलाते हैं। धर्मग्रंथों के अनुसार वे दिव्य पितृगण पूर्वज कहलाते हैं, जिनका निवास चन्द्रलोक है। यदि गहराई से विचार किया जाए तो वसुधैव कुटुम्बकम् सनातन धर्म का मूल संस्कार तथा विचारधारा है, जो महा उपनिषद सहित कई ग्रन्थों में लिपिबद्ध है। यह पूरा श्लोक इस प्रकार है -
अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् । 
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।। 
       अर्थात्  यह मेरा है, वह उसका है, ऐसी सोच संकुचित चित्त वाले व्यक्तियों की होती है। इसके विपरीत उदारचरित वाले लोगों के लिए तो यह सम्पूर्ण धरती ही एक परिवार जैसी होती है। तब इस दृष्टि से पूर्वजों में भी भला अपने - पराए कैसे ! 'हमारे पूर्वज' का वृहत अर्थ वे सभी व्यक्ति हैं जिन्होंने इस धरती पर हमसे पहले जन्म लिया है। तो इस विचार से साहित्य से, लेखक अथवा पाठक, किसी भी रूप से जुड़े प्रत्येक उस व्यक्ति का हम पर ऋण है जो हमसे पूर्व जन्मा है और साहित्य सृजन करता रहा है। हां, और हम साहित्यप्रेमी, सृजनधर्मी इसीलिए पूर्वज कवियों, लेखकों, साहित्यकारों और उनके रचना संसार के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के उद्देश्य से उनका जन्मदिन, पुण्यतिथि, जन्मशताब्दी आदि मनाते हैं।
       साहित्यकारों को धन्यवाद ज्ञापित करने, उनका स्मरण करने अथवा उनके रचना संसार में प्रविष्ट होने के लिए किसी पक्ष विशेष, अनुष्ठान विशेष या श्राद्ध-तर्पण इत्यादि की आवश्यकता नहीं होती। जब हम किसी साहित्यकार की कृति का वाचन करते हैं, उस पर मनन चिंतन करते हैं तो हमारा वह कृत्य ही हमारे द्वारा उस साहित्यकार के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना होता है। कोई भी साहित्यकार अपने विचारों के माध्यम से पुस्तकरूपी चन्द्र लोक में निवास करता है। वह पुस्तक ही उसका चंद्रलोक होती है जिससे उतरते हुए वे हमारे मन मस्तिष्क में छा जाते हैं। साहित्यकार का व्यक्तिगत जीवन कैसा भी क्यों न रहा हो लेकिन यदि उसका साहित्य समाज के प्रति अपनी तनिक भी उपादेयता रखता है तो उसका साहित्य अविस्मरणीय बन जाता है। हम साहित्यकारों, कवियों, लेखकों को उनकी कृतियों के माध्यम से सदैव स्मरण कर सकते हैं। हम उस साहित्य का भी स्मरण करते हैं जिनके रचनाकार का नाम हमें ज्ञात नहीं होता या वह साहित्य जो अज्ञात द्वारा रचा गया होता है। ऐसे पूर्वज साहित्यकारों का स्मरण किसी पितृपक्ष तक सीमित नहीं रहता है। जन्मदिन, जन्मशताब्दी, पुण्यतिथि, रचना वर्ष, रचना काल इत्यादि मना कर हम किसी साहित्यकार विशेष के प्रति उनका पुण्य स्मरण करते हुए अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते रहते हैं। 
         इस वर्ष हम हिंदी साहित्य प्रेमी फणीश्वरनाथ रेणु की जन्म शताब्दी बना रहे हैं। जी हां, वही फणीश्वरनाथ रेणु, जिनकी प्रसिद्ध कहानी "मारे गए ग़ुलफ़ाम" पर आधारित 1966 में बनी फ़िल्म तीसरी कसम की शूटिंग सागर, मध्यप्रदेश की बीना तहसील सहित खिमलासा आदि ग्रामीण इलाकों में हुई थी। इस फ़िल्म का निर्देशन बासु भट्टाचार्य ने और निर्माण प्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र ने किया था। निपट देहात की पगडंडियों पर बैलगाड़ी चलाते हुए गायक मुकेश के प्लेबैक से अभिनेता राज कपूर ने नायक हीरामन का 'सजन रे झूठ मत बोलो’, 'सजनवा बैरी हो गए हमार’ और 'दुनिया बनाने वाले क्‍या तेरे मन में समाई’ गीतों पर हृदयग्राही अभिनय किया। यूं तो 'लाली-लाली डोलिया में लाली रे दुल्हनिया’ उत्तर बिहार का लोकगीत है किन्तु इसका फिल्मांकन कच्चे मकानों वाले सागर के ग्रामीण परिवेश का आईना है। वहीदा रहमान ने नायिका हीराबाई की भूमिका निभाई थी। सागर के पूर्व कवि राजनेता स्व. विट्ठलभाई पटेल ने भी इस फ़िल्म के निर्माण में अपना योगदान दिया था। 

          तीसरी क़सम का नायक हीरामन एक गांव का गाड़ीवान है। एक दिन उसकी बैलगाड़ी में नौटंकी कंपनी में काम करने वाली हीराबाई बैठती है। हीरामन बातूनी है जो हीराबाई से बातें करता हुआ उसे नौटंकी के आयोजन स्थल तक उसे पहुँचा देता है। इस बीच हीरामन को अपने पुराने दिन याद आते हैं कि हीरामन एक बार चोरबाज़ारी का सामान अपनी बैलगाड़ी में ले जाने के कारण संकट में पड़ जाता है। इसके बाद वह पहली कसम खाता है कि अब वह "चोरबजारी" का सामान अपनी गाड़ी में कभी नहीं लादेगा। उसके बाद एक बार बोरे की लदनी से परेशान होकर उसने दूसरी क़सम खाई कि चाहे कुछ भी हो जाए वो बोरे की लदनी अपनी गाड़ी पर नहीं लादेगा। बाद में नौटंकी की नर्तकी हीराबाई से प्रेम हो जाने और इस प्रेम में अनेक उतार-चढ़ावों वाली विषम परिस्थितियों के बाद अन्त में हीराबाई के गांव से चले जाने से उदास हो कर हीरामन ने तीसरी क़सम खाई कि वह अब अपनी बैलगाड़ी में कभी किसी नाचने वाली को नहीं बैठालेगा। हीराबाई और हीरामन की इस प्रेम कथा में ये पात्र देवदास की तरह प्रेम में मृत्यु को अंगीकार नहीं करते बल्कि अलग-अलग  रहते हुए प्रेम को हृदय में जीवित रखते हैं। तीसरी क़सम फ़िल्म ने रेणू की साहित्यिक कृति को ग़ैर साहित्यिक व्यक्तियों के बीच भी लोकप्रिय बना दिया। 
           फणीश्वरनाथ रेणु का जन्म 04 मार्च 1921 को बिहार के अररिया जिले में फॉरबिसगंज के पास औराही हिंगना गाँव में हुआ था। उन्होंने अपने लेखन सामाजिक यथार्थवादी से प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाया। उनकी साहित्यिक कृतियों में मैला आंचल, परती परिकथा, पलटू बाबू रोड उपन्यास हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं। लाल पान की बेग़म, संवदिया, मारे गए ग़ुलफ़ाम उर्फ़ तीसरी क़सम, ठेस, रसप्रिया बार- बार पढ़ी जाने वाली कहानियां हैं। फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ का आंचलिकता और सामाजिक परिवेश से गहरा तथा अंतरंग रिश्ता था। उन्होंने अपनी रचनाओं में बिहार की लोक कथाओं और लोकगीतों का भरपूर उपयोग किया है। एक सदी बीत जाने के बाद भी हम उन्हें उसी तरह याद करते हैं, जैसे अपने किसी आत्मीय कुटुम्बी को। हां, साहित्य जगत अद्भुत है, इसके बृहत्तर कुटुम्ब में पूरी पृथ्वी है, बल्कि पृथ्वी से परे सूर्य लोक, चन्द्र लोक, नक्षत्रादि भी, जहां फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ मात्र बिहार के नहीं रह जाते हैं, और तीसरी क़सम बुंदेलखंड में भी चरितार्थ होती दिखती है। यही तो पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का अर्ध्य है। भौगोलिक सीमाओं को मिटाते हुए जहां हम अपने से पूर्व हुए व्यक्ति के प्रति अपना ऋण अनुभव करते हैं और प्रति वर्ष उसे चुकाने का प्रयास करते हैं। यही निरंतरता ही हमारी सांस्कृतिक जीवंतता है।

और अंत में प्रस्तुत हैं मेरे दोहे -

क्या जीवन, क्या मृत्यु है, क्या शीतल, क्या दाह ।
पूजनीय  वे   पूर्वज,   दिखा  गए  जो   राह ।।

ऋण चुकता करना नहीं, संभव पड़ता जान।
'वर्षा' हम करते सदा,    पितरों को सम्मान।। 
                
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Friday, September 11, 2020

विचार की धुरी पर कविता | डॉ. वर्षा सिंह


कोई भी सर्जक तब तक सृजन नहीं कर सकता है जब तक कि उसमें भावनाओं का विपुल उद्वेग न हो। ये भावनाएं ही हैं जो परिस्थितियों, दृश्यों एवं संवेगों से प्रभावित होती हैं और सृजन के लिए प्रेरित करती हैं। मूर्तिकार मूर्तियां गढ़ता है, काष्ठकार काष्ठ की अनुपम वस्तुएं तराशता है और साहित्य सर्जक साहित्य की विभिन्न विधाओं में साहित्य रचता है। जीवन में अनेक तत्व हैं जो व्यक्ति को प्रभावित करते हैं- प्रेम, क्रोध, प्रतिकार, प्रतीक्षा, स्मृति, जन्म, मृत्यु, सहचार, आदि। ये तत्व मनुष्य के भीतर मनुष्यत्व को गढ़ते हैं। मनुष्यत्व मनुष्य के भीतर सभी संवेगों को जागृत रखता है। जिसके फलस्वरूप वह दूसरे के दुख में व्यथित होता है और दूसरे की प्रसन्नता में प्रफुल्लित हो उठता है। जीवन को एक उत्सव की तरह जीना भी मनुष्यत्व ही सिखाता है। साहित्य की श्रेष्ठता एवं गुणवत्ता इसी मनुष्यत्व पर टिकी होती है। वस्तुतः जीवन की समस्त चेष्टाएं दो भागों में बंटी होती हैं- स्वहित और परहित। इन दोनों के बीच मनुष्यत्व की एक बारीक सी रेखा होती है। जब यह रेखा मिट जाती है तो स्वहित और परहित एकाकार हो जाता है और यहीं मिलता है साहित्य का प्रस्थान बिन्दु। 
      दूसरे शब्दों में कहा जाए तो समष्टि और व्यष्टि का भेद मिट जाता है और व्यक्ति की भावनाएं सकल संसार के हित में विचरण करने लगती हैं तो एक श्रेष्ठ साहित्य का सृजन स्वयं होने लगता है। जब हम सकल संसार की बात करते हैं तो उसमें धर्म, जाति, वर्ग, लिंग, रंग के भेद मिट जाते हैं। धरती पर जन्म लेने वाला प्रत्येक मनुष्य समस्त सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं लैंगिक भिन्नताओं के बावजूद सिर्फ मनुष्य ही रहता है। इस यथार्थ को वही व्यक्ति महसूस कर सकता है जो माटी से जुड़ा हुआ हो, अपने अंतर्मन को तथा दूसरे के मन को भली-भांति समझ सकता हो। यूं तो यह गुण प्रत्येक मनुष्य के भीतर होता है किन्तु सुप्तावस्था में। साहित्य इस गुण को न केवल जागृत करता है वरन् परिष्किृत भी करता है। इसीलिए यह गुण पहले साहित्यकार को सृजन के लिए प्रेरित करता है, तदोपरांत पाठक को विचार और चिन्तन की अवस्था में पहुंचाता है।
काव्यकर्म साहित्य का सबसे कोमल कर्म है। इसमें भावानाओं का आवेग और संवेग हिलोरें लेता रहता है। इसीलिए साहित्य के क्षेत्र में प्रवृत्त होने वाले अधिकांश युवा साहित्यकार काव्य को अपनी अभिव्यक्ति एवं सृजन के पहले माध्यम के रूप में चुनते हैं। काव्य रस, छंद, लय और शाब्दिक प्रवाह के साथ आकार लेता है। इन सब में तारतम्य स्थापित करना ही काव्यकला है। जहां कला है वहां साधना तो होगी ही। इसीलिए काव्य के लिए भी साधना को आवश्यक माना गया है। काव्य मनोभावों की रसात्मक शाब्दिक अभिव्यक्ति है। जिस प्रकार एक चित्रकार दृष्य के अनुरूप रंगों को चुनता है और चित्र बनाता है, उसी प्रकार कवि मनोभावों के अनुरूप शब्दों को चुनता है और कविताएं रचता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘‘कविता क्या है?’’ शीर्षक निबन्ध में कविता को ‘जीवन की अनुभूति’ कहा है। वहीं जयशंकर प्रसाद ने सत्य की अनुभूति को कविता माना। जबकि पं. अम्बिकादत्त व्यास ने कहा कि ‘‘लोकोत्तरानंददाता प्रबंधः काव्यानाम् यातु’’ अर्थात् लोकोत्तर आनंद देने वाली रचना ही काव्य है। वस्तुतः काव्य का सीधा संबंध हृदय से होता है। काव्य में कही गईं बातें एक हृदय से उत्पन्न होती हैं और दूसरे हृदय को प्रभावित करती हैं। काव्य के दो पक्ष होते हैं - भाव पक्ष और कला पक्ष। अपनी हृदयगत भावनाओं को व्यक्त करने के लिए कवि उसमें शब्द, शब्द-शक्ति, शब्द-गुण, छंद, अलंकार और गेयता जैसे कला तत्वों का सहारा लेता है जो कला पक्ष के रूप में काव्य को पूर्णता प्रदान करते हैं।

जब कोई व्यक्ति प्रेम में निमग्न होता है तब वह यही चाहता है कि उसका प्रिय उसके बारे में सोचे और उससे बातें करे। यदि बात न करना चाहे तो कम से कम संकेतों से ही अपने मनोभाव व्यक्त कर दे। ऐसे समय में कविता उसका सहारा बनती है।  श्रृंगार की लगभग सभी कविताओं में इसकी बानगी देखने को मिलती है।

Wednesday, September 9, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 15 | हमारी हिन्दी यात्रा | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आगामी हिन्दी दिवस 14 सितम्बर संदर्भित विषय पर आज पढ़िए "हमारी हिन्दी यात्रा" और अपने विचारों से अवगत कराएं ...और शेयर करें 🙏
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 09.09.2020

मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं-

बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा
           हमारी हिन्दी यात्रा   
                        -डॉ. वर्षा सिंह
   
       मेरे बचपन में स्मृतियों में यह स्मृति अभी भी ताज़ा है। मध्यप्रदेश के पन्ना नगर में स्थित हमारे निवास हिरणबाग़ में हमारे पड़ोस में रहने वाले मेरे बाल मित्र अनंत शेवड़े और अजय शेवड़े खेलने जाने से पहले अपनी मां से कहा करते - 'आई, मी खेळायला जाऊ शकतो का?' 'आई, मी जातो' या 'आई, मी गो' तब मेरी समझ में नहीं आता कि ये हमारी तरह क्यों नहीं बोलते ! जो हम बोलते हैं,  ये उससे अलग क्यों बोलते हैं? तब मेरे नाना ठाकुर श्यामचरण सिंह जी, जो स्वयं भाषाविद एवं साहित्यकार थे, मुझे समझाते कि 'वे लोग महाराष्ट्रियन हैं, उनकी भाषा मराठी है इसलिए वे मराठी बोलते हैं, और हम मध्यप्रदेश के हैं हमारी भाषा हिन्दी है इसलिए हम हिन्दी बोलते हैं।' तब मैं पूछती कि उनकी और हमारी पाठ्यपुस्तकें तो एक जैसी हैं। उनमें तो हिन्दी ही है। तब नाना जी कहते कि 'चूंकि हमारे मध्यप्रदेश की राजभाषा हिन्दी है, इसलिए यहां सभी को हिन्दी में पढ़ाया जाता है।' उन दिनों भाषा संबंधी ये सारी बातें मेरी समझ में कम ही आती थीं। लेकिन धीरे-धीरे स्कूली शिक्षा ग्रहण करते हुए मैं मातृभाषा, राजभाषा और राष्ट्रभाषा में फ़र्क समझने लगी। 
      बाद के दिनों में अपने अध्ययन काल के दौरान बी.एससी. तक हिन्दी मीडियम और फिर एम.एससी. अंग्रेजी मीडियम से करने के साथ-साथ नाना जी, मामा कमल सिंह और हिन्दी की प्रतिष्ठित साहित्यकार अपनी माताजी डॉ. विद्यावती 'मालविका' के द्वारा दिए गए संस्कारों के कारण मैं भी हिन्दी में साहित्य सृजन करने लगी थी। साथ ही उर्दू, अंग्रेजी पढ़ने और बुंदेलखंड की निवासी होने के कारण आम बोलचाल में बुंदेली बोली बोलने के बावजूद हिन्दी भाषा से मुझे बेहद लगाव पहले की तरह आज भी है। मेरे लिए हर दिन हिन्दी का दिन है। जी हां, यूं तो हिन्दी 365 दिन मेरी ही नहीं वरन् हर हिन्दीभाषी, हिन्दीप्रेमी की अपनी भाषा है किन्तु प्रत्येक वर्ष सितम्बर मास में हम इसकी समग्रता का आकलन करते हुए हिन्दी मास मनाते हैं, साथ ही हिन्दी पखवाड़ा और हिन्दी दिवस भी।
       तो आइए पहले चर्चा करें कि आखिर भाषा किसे कहते हैं। भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम होती है अर्थात् भाषा वह साधन है, जिसके द्वारा मनुष्य बोलकर, सुनकर, लिखकर अथवा पढ़कर अपने मनोभावों अथवा विचारों का आदान-प्रदान करता है। दूसरे शब्दों में यदि कहा जाए तो जिस साधन के द्वारा हम अपने भावों को लिखित अथवा कथित रूप से दूसरों को समझा सके और दूसरों के भावों को समझ सकें, उसे भाषा कहते है।
      अब बात आती है मातृभाषा, राजभाषा  और राष्ट्रभाषा में अंतर की, तो जन्म से हम जिस भाषा का प्रयोग करते हैं वही हमारी मातृभाषा है। मातृभाषा के जरिए ही हमें हमारे संस्कार एवं व्यवहार का ज्ञान होता है। और जहां तक राजभाषा की बात है तो राजभाषा का शाब्दिक अर्थ है—समस्त राजकीय कार्यों में प्रयुक्त भाषा अर्थात् जन-जन की भाषा । वैसे देखा जाए तो राजभाषा एक संवैधानिक शब्द है, जिसकी परिभाषा इस प्रकार से दी जा सकती है कि - सामान्य शासन-प्रशासन, न्याय-प्रक्रिया, संसद-विधान मंडल एवं सरकारी कार्यालयों में प्रयोग हेतु संविधान द्वारा स्वीकृत भाषा एवं देवनागरी लिपि तथा भारतीय अंकों, जो कि अंतरराष्ट्रीय अंकों के रूप में मान्य हैं, का रूप ही राजभाषा है।
      जबकि राष्ट्रभाषा वह भाषा है जो एक पूरे राष्ट्र अथवा देश द्वारा समझी, बोली जाती है; तथा उस राष्ट्र की संस्कृति से संबंधित होती है। यह पूरे देश की होती है। राष्ट्रभाषा राष्ट्रीय एकता एवं अंतर्राष्ट्रीय संवाद सम्पर्क के लिए आवश्यक होती है। एक राष्ट्र में समस्त राष्ट्रीय तत्वों को व्यक्त करने वाली भाषा जो राष्ट्र में भावनात्मक एकता कायम रखने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हो राष्ट्रभाषा है। भारत एक ऐसा बहुभाषा-भाषी राष्ट्र है, जहां समृद्ध संस्कृति की विशाल परंपरा है, जो यहां की विभिन्न भाषाओं के माध्यम से अभिव्यक्त होती है। वस्तुतः स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राष्ट्रभाषा की आवश्यकता महसूस हुई। और इस आवश्यकता की पूर्ति हिंदी ने की। यही कारण है कि हिंदी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान परोक्ष रूप से राष्ट्रभाषा बनी। आज हिन्दी भाषा विश्व की तीसरी और भारत में यह सबसे अधिक बोले जाने वाली भाषा है। इसके मातृ भाषा के रूप में बोलने वालों की संख्या 50 करोड़ से भी अधिक है। यह भारत में 22 आधिकारिक भाषाओं में से एक है।
        राष्ट्रपिता महात्मा गांधी देश की एकता के लिए यह आवश्यक मानते थे कि अंग्रेजी का प्रभुत्व शीघ्र समाप्त हो और हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा मिल सके। हिन्दी शब्द का सम्बंध संस्कृत शब्द सिंधु से माना जाता है। 'सिंधु' सिंध नदी को कहते थे और उसी आधार पर उसके आस-पास की भूमि को सिन्धु कहने लगे। यह सिंधु शब्द से ‘हिंदू’, हिंदी और फिर ‘हिंद’ हो गया। बाद में हिन्दी से धीरे-धीरे भारत के अधिकाधिक भागों के लोग परिचित होते गए और हिन्दी भारत की पहचान बन गई। हिन्दी विश्व की एक प्रमुख भाषा है एवं भारत की राजभाषा है। यह हिंदुस्तानी भाषा की एक मानकीकृत रूप है जिसमें संस्कृत के तत्सम तथा तद्भव शब्दों का प्रयोग अधिक है और अरबी-फ़ारसी शब्द कम हैं। हिंदी संवैधानिक रूप से भारत की राजभाषा और भारत की सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है।
    भाषा विद्वान यह मानते हैं कि संसार का सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद है। ऋग्वेद से पहले भी संभव है कोई भाषा विद्यमान रही हो परन्तु आज तक उसका कोई लिखित रूप नहीं प्राप्त हो पाया। संस्कृत सबसे प्राचीनतम भारतीय भाषा है और क्रमानुसार संस्कृत से पाली, पाली से प्राकृत, प्राकृत से अपभ्रंश, अपभ्रंश से अवहट्ठ और अवहट्ट से प्राचीन/प्रारम्भिक हिन्दी का विकास हुआ है।
    संस्कृतकालीन आधारभूत बोलचाल की भाषा समय के साथ धीरे-धीरे परिवर्तित हो कर लगभग 500 ई.पू. के बाद तक बहुत बदल गई, जिसे ‘पाली’ कहा गया। महात्मा गौतम बुद्ध के समय में पाली लोक भाषा थी और उन्होंने पाली के माध्यम से ही अपने उपदेश दिए जो 'त्रिपिटक' में संग्रहीत हैं। संभवतः यह पाली भाषा ईसा की प्रथम ईसवी तक रही। पहली ईसवी तक आते-आते पाली भाषा और परिवर्तित हुई, तब इसे प्राकृत की संज्ञा दी गई। इसका काल पहली ई. से 500 ई. तक है। आगे चलकर, प्राकृत भाषाओं के क्षेत्रीय रूपों में अपभ्रंश भाषाएं प्रतिष्ठित हुईं। इनका समय 500 ई. से 1000 ई. तक माना जाता है। अपभ्रंश भाषा साहित्य के मुख्यतः दो रूप मिलते है- पश्चिमी और पूर्वी। अनुमानतः 1000 ई. के आसपास अपभ्रंश के विभिन्न क्षेत्रीय रूपों से आधुनिक आर्य भाषाओं का जन्म हुआ। हिन्दी में साहित्य रचना का कार्य 1150 या इसके बाद आंरभ हुआ। कालांतर में 9 सितंबर 1850 को बनारस में जन्में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाते हैं।
      किसी भी राष्ट्र की उपलब्धियों को संग्रहित करने में राष्ट्रभाषा की महती भूमिका रहती है। राष्ट्रभाषा सामाजिक, सांस्कृतिक स्तर पर देश को जोड़ने का काम करती है अर्थात् राष्ट्रभाषा की प्राथमिक शर्त देश में विभिन्न समुदायों के बीच भावनात्मक एकता स्थापित करना है। राष्ट्रभाषा का प्रयोग क्षेत्र विस्तृत और देशव्यापी होता है। राष्ट्रभाषा सारे देश की सम्पर्क–भाषा होती है। इसका व्यापक जनाधार होता है। राष्ट्रभाषा हमेशा स्वभाषा ही हो सकती है क्योंकि उसी के साथ जनता का भावनात्मक लगाव होता है। राष्ट्रभाषा का स्वरूप लचीला होता है और इसे जनता के अनुरूप किसी रूप में ढाला जा सकता है।
      समाजोत्थान के लिए समर्पित ब्रह्म समाज के संस्थापक राजा राममोहन राय ने लगभग दो शताब्दी पूर्व 1828 ई में कहा था कि इस समग्र देश की एकता के लिए हिंदी अनिवार्य है। इसी तरह 1875 ई. में आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती गुजराती भाषी थे एवं गुजराती तथा संस्कृत के अच्छे जानकार थे। हिंदी का उन्हें सिर्फ़ कामचलाऊ ज्ञान था, पर अपनी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने के लिए तथा देश की एकता को मज़बूत करने के लिए उन्होंने अपना सारा धार्मिक साहित्य हिंदी में ही लिखा। उनका कहना था कि हिंदी के द्वारा सारे भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है। वे इस 'आर्यभाषा' को सर्वात्मना देशोन्नति का मुख्य आधार मानते थे। उन्होंने हिंदी के प्रयोग को राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया। वे कहते थे कि उनकी आँखें उस दिन को देखना चाहती हैं, जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा समझने और बोलने लग जाएंगे।
     अरविन्द दर्शन के प्रणेता अरविन्द घोष का विचार था कि - 'लोग अपनी–अपनी मातृभाषा की रक्षा करते हुए सामान्य भाषा के रूप में हिंदी को ग्रहण करें, तो हिन्दी सम्पर्क भाषा का दर्जा पा लेगी।'
        थियोसोफ़िकल सोसाइटी की संचालिका एनी बेसेंट ने भी हिन्दी के महत्व को व्याख्यायित किया था कि - 'भारतवर्ष के भिन्न–भिन्न भागों में जो अनेक देशी भाषाएँ बोली जाती हैं, उनमें एक भाषा ऐसी है जिसमें शेष सब भाषाओं की अपेक्षा एक भारी विशेषता है, वह यह कि उसका प्रचार सबसे अधिक है। वह भाषा हिंदी है। हिंदी जानने वाला आदमी सम्पूर्ण भारतवर्ष में यात्रा कर सकता है और उसे हर जगह हिंदी बोलने वाले मिल सकते हैं। भारत के सभी स्कूलों में हिंदी की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।'
       1917 ई. में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने कहा, 'यद्यपि मैं उन लोगों में से हूँ, जो चाहते हैं और जिनका विचार है कि हिंदी ही भारत की राजभाषा हो सकती है।' तिलक ने भारतवासियों से आग्रह किया कि वे हिंदी सीखें।
     हिन्दी को राजभाषा बनाए जाने के पक्षधर लोकसभा के प्रथम उपाध्‍यक्ष एम अनंतशयनम अय्यंगर दक्षिण भारतीय एवं अहिन्दी भाषी होते हुए भी मानते थे कि - 'अहिंदी भाषा-भाषी प्रांतों के लोग भी सरलता से टूटी-फूटी हिंदी बोलकर अपना काम चला लेते हैं।' 
        मेरे नाना ठाकुर श्यामचरण सिंह जी कहा करते थे कि, 'हिन्दी एक वैज्ञानिक भाषा है। इसे जैसा बोला जाता है, वैसा ही लिखा भी जाता है। अंग्रेजी की तरह इसमें कोई अक्षर साइलेंट नहीं होता। हर अक्षर की अपनी अहमियत होती है।'
     महात्मा गाँधी राष्ट्र के लिए राष्ट्रभाषा को नितांत आवश्यक मानते थे। उनका कहना था, "राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है।" गाँधीजी हिंदी के प्रश्न को स्वराज का प्रश्न मानते थे— "हिंदी का प्रश्न स्वराज्य का प्रश्न है।" उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में सामने रखकर भाषा–समस्या पर गम्भीरता से विचार किया। 
     इसी तरह अनेक हिन्दी समर्थकों के सार्थक प्रयासों से 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा में हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया था। हिंदी के महत्व को बताने और इसके प्रचार प्रसार के लिए राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के अनुरोध पर 1953 से प्रतिवर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस के तौर पर मनाया जाता है। पं. गोविंदबल्लभ पंत का मानना था कि - 'हिंदी ने राजभाषा के पद पर सिंहानसारूढ़ होने पर अपने ऊपर एक गौरवमय एवं गुरुतर उत्तरदायित्व लिया है।'
   आज हिन्दी समर्थकों की चर्चा करते हुए मुझे याद आ रहा है कि विद्युत विभाग की अपनी नौकरी में लेखा प्रशिक्षण के दौरान जबलपुर स्थित ट्रेनिंग सेंटर के मुख्य कक्ष में लिखे सेठ गोविन्ददास के इस सूत्रवाक्य को मैं रोज़ पढ़ा करती थी कि - 'देश को एक सूत्र में बाँधे रखने के लिए एक भाषा की आवश्यकता है, और वह भाषा हिन्दी के अलावा अन्य कोई और नहीं हो सकती।'  और इसे पढ़ कर हिन्दी के प्रति मेरा स्नेह द्विगुणित हो उठता। सन् 1896 में जबलपुर, म.प्र. में जन्में सेठ गोविन्ददास भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, सांसद तथा हिन्दी के साहित्यकार थे। उन्हें साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में सन 1961 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। भारत की राजभाषा के रूप में हिन्दी के वे प्रबल समर्थक थे। वे सन् 1947 से 1974 तक वे जबलपुर से सांसद रहे। हिंदी के अद्वितीय सेवक सेठ गोविंद दास जब तक जीवित रहे, हिंदी के उत्थान में लगे रहे। भारत में हिंदी के उत्थान के लिए जिन लोगों ने अपना पूरा जीवन लगा दिया, उनमें सेठ गोविंद दास का नाम अनन्य है। उन्होंने स्वतंत्रता के पहले और बाद में भी हिंदी के उत्थान के लिए काफी काम किया। अपने भाषणों में उन्होंने इस बात को पूरे दमखम के साथ रेखांकित किया कि हिंदी में नए शब्दों के निर्माण की स्वाभाविक क्षमता है।
        हिन्दी भारत की पहचान है। किन्तु इस तथ्य पर भी गौर करना आवश्यक है कि भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची भारत की भाषाओं से संबंधित है। मूल संविधान में इस अनुसूची में चौदह भाषाएं दर्ज थीं। बाद में हुए संशोधनों के आधार पर अब इस अनुसूची में बाईस भाषाएं शामिल हैं और इन 22 भारतीय भाषाओं में हिन्दी भी एक है। हिन्दी को राजभाषा का दर्जा तो मिल गया है किन्तु देश की आज़ादी के बाद से 73 वर्ष की लम्बी यात्रा के बावजूद हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिल पाया है।
     आइए हम दुआ करें कि हम सबकी लाड़ली इस हिन्दी भाषा को यदि राष्ट्रभाषा का भी स्थान मिले तो यह हम भारतवासियों के लिए गर्व की बात होगी। सचमुच हिन्दी अनेकता में एकता का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। इसने जिस ख़ूबसूरती से संस्कृत, उर्दू, फारसी, अंग्रेजी आदि के शब्दों को आत्मसात किया है, वह हमारे देश के मूलचरित्र को भलीभांति प्रतिबिम्बित करता है यानी अनेकता में एकता।

और अंत में प्रस्तुत हैं मेरी ये काव्य पंक्तियां -

मिलजुल कर रहने का हरदम, 
पाठ पढ़ाती है हिन्दी।
कोई भी हो भाषा-भाषी, 
सबको भाती है हिन्दी।
                        -------------
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Wednesday, September 2, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 14 | मन का तिलस्म | डॉ. वर्षा सिंह


प्रिय मित्रों, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज पढ़िए "मन का तिलस्म" और अपने विचारों से अवगत कराएं ...और शेयर करें 🙏

हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏

दिनांक 02.09.2020

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बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

               मन का तिलस्म

                        -डॉ. वर्षा सिंह   

     अभी पिछले दिनों की ही बात है, मेरी एक सहेली ने मुझे मेरे जन्मदिन पर शुभकामनाएं देने के लिए व्हाट्सएप पर वीडियो कॉल किया। शुभकामनाएं देने के बाद घर-परिवार की अन्य चर्चाएं होने लगीं। बच्चों की बात चली तो वह बताने लगी कि इस कोरोनाकाल में जबसे ऑनलाईन पढ़ाई हो रही है, बच्चों का पढ़ाई में मन ही नहीं लग रहा है। बाहर जाने की छूट नहीं मिलने के कारण घर के भीतर खेले जा सकने वाले इनडोर गेम्स में भी मन नहीं लग रहा है। फिर और चर्चाएं आगे बढ़ीं तो वह बोली कि कहीं घूमने नहीं जा पाने के कारण ख़ुद उसका और उसके पतिदेव का मन भी कहीं किसी काम में नहीं लगता है।… यानी मन न लगने की समस्या से मेरी उस सहेली का पूरा परिवार ग्रसित हो गया है।

      यह मन नहीं लगने की समस्या इन दिनों आम है। जिससे भी बात करें वह गाहे बगाहे यह ज़रूर कह उठता है कि क्या बताऊं, फलां काम में मन ही नहीं लगता। मन… आख़िर यह मन है क्या ? मेरी विचार-श्रृंखला अनजाने ही मन के तिलस्म की गुत्थी को सुलझाने की दिशा में मुड़ गई। 

      कितने ही हिन्दी फ़िल्मों के गीत अचानक याद ही मुझे याद आने लगे। फ़िल्म "काजल" का मशहूर गीत " तोरा मन दर्पण कहलाए / भले, बुरे, सारे कर्मों को देखे और दिखाए" फिल्म "चित्रलेखा" का गीत "मन रे, तू काहे न धीर धरे"  फिल्म "धूपछांह" का गीत "मन की आँखें खोल, बाबा, मन की आँखें खोल" ।

        फ़िल्मों में मन पर केंद्रित गीतों की भरमार है। हिन्दी काव्य साहित्य में कवियों द्वारा मन के लगने, न लगने सहित मन की गति पर अनेक पद्य-पंक्तियां रची गई हैं। 

रामचरित मानस, विनयपत्रिका, कवितावली, दोहावली आदि के रचयिता तुलसीदास ने अपनी रचनाओं में मन की अनेक दशाओं का वर्णन किया है -

कहं लौ कहौ कुचाल कृपानिधि, जानत हों गति मन की।

तुलसिदास प्रभु हरहु दुसह दुख, करहु लाज निज पन की।

तुलसीदास का एक और चर्चित पद है- 

मन पछितैहै अवसर बीते ।

दुरलभ देह पाइ हरिपद भजु, करम, बचन अरु हीते ॥

सहसबाहु, दसबदन आदि नप बचे न काल बलीते।हम हम करि धन-धाम सँवारे, अंत चले उठि रीते॥

इसी प्रकार मीराबाई ने अपना मन बरसाने में लगने की बात अपने इस पद में की है -

मेरो मन लाग्यो बरसाने में जहां विराजे राधा रानी।मन हट्यो दुनियादारी से जहां मिले खारा पानी।।

संत कबीर ने भी मन लगने की बात कुछ इस तरह से की है -

मन लागो मेरो यार फकीरी में ।

जो सुख पावो राम भजन में, सो सुख नाहीं अमीरी में ॥

कहत कबीर सुनो भाई साधो,

साहिब मिले सबुरी में ॥

कबीर ने मन को सर्वोपरि बताते हुए कहा है -

मन के हारे हार है मन के जीते जीत ।

कहे कबीर हरि पाइए मन ही की परतीत ।

अर्थात् जीवन में जय पराजय केवल मन की भावनाएं हैं।यदि मनुष्य मन में हार गया – निराश हो गया तो  पराजय है और यदि उसने मन को जीत लिया तो वह विजेता है। ईश्वर को भी मन के विश्वास से ही पा सकते हैं – यदि प्राप्ति का भरोसा ही नहीं तो कैसे पाएंगे?

भक्त कवि सूरदास सिर्फ़ एक मन से संतुष्ट नहीं हैं, वे और अधिक मन, यथा- दस-बीस मन चाहते हैं। उद्धव और गोपियों के संवाद का सुंदर चित्रण करते हुए वे कहते हैं -

ऊधो, मन न भए दस बीस।

एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अवराधै ईस॥

तुम तौ सखा स्यामसुन्दर के, सकल जोग के ईस।सूरदास, रसिकन की बतियां पुरवौ मन जगदीस॥

अर्थात् इस संवाद में गोपियां उद्धव से कहती हैं कि उनके पास तो एक ही मन है, जो कृष्ण के विचारों में डूबा है, कृष्ण को समर्पित है। अतः दूसरी ओर ध्यान भी नहीं जा सकता, पुनः निर्गुण ब्रह्म की उपासना कैसे हो ! यदि दस-बीस मन रहता, तो अन्य विषयों का भी ध्यान आता।

   मन का अपना समूचा विज्ञान है यानी मनोविज्ञान। मनोविज्ञान को अंग्रेजी भाषा में  सायकॉलजी कहते है। इस शब्द की उत्पत्ति यूनानी भाषा के साइकी तथा लोगस शब्दों से हुई है । साइकी का अर्थ है आत्मा यानी सोल और  लोगस का अर्थ है अध्ययन या विचार –विमर्श । इस प्रकार 16 वीं शताब्दी में ग्रीस नामक देश में दार्शनिकों ने इसके शाब्दिक अर्थ के अनुसार इसे ‘आत्मा का अध्ययन करने वाला विज्ञान' माना । और इसी शाब्दिक अर्थ के कारण मनोविज्ञान को ‘आत्मा का ज्ञान’ के रूप में परिभाषित किया जाने लगा। जी हां, मन शब्द का प्रयोग कई अर्थों में किया जाता है, जैसे- आत्मा, चित्त, मनोभाव, मानस, मत इत्यादि और यदि मनोविज्ञान के नज़रिए से देखा जाए तो मन का तात्पर्य आत्मन्, स्व या व्यक्तित्व से है। यह एक अमूर्त सम्प्रत्यय है, जिसे केवल महसूस किया जा सकता है। हवा की तरह इसे न तो हम देख सकते हैं और न ही हम इसका स्पर्श कर सकते हैं । दूसरे शब्दों में मस्तिष्क के विभिन्न अंगों की प्रक्रिया का नाम मन है। 

   प्रसिद्ध मनोविश्लेषणवादी मनोवैज्ञानिक सिगमण्ड फ्रायड के अनुसार ‘मन से तात्पर्य व्यक्तित्व के उन कारकों से होता है जिसे हम अन्तरात्मा कहते हैं तथा जो हमारे व्यक्तित्व में संगठन पैदा करके हमारे व्यवहारों को वातावरण के साथ समायोजन करने में मदद करता है।' 

       एक अन्य मनोवैज्ञानिक रेबर के अनुसार- ‘‘मन का तात्पर्य परिकल्पिक मानसिक प्रक्रियाओं एवं क्रियाओं की सम्पूर्णता से है, जो मनोवैज्ञानिक प्रदत्त व्याख्यात्मक साधनों के रूप में काम कर सकती है। 

      अत: मन की मात्र कल्पना कर सकते हैं। इसको न तो देखा जा सकता है और न ही इसका स्पर्श किया जा सकता है। मन, किसी चीज का वह व्यक्तिगत, आत्मपरक अनुभव है जो प्रतिपल परिवर्तित होता रहता है। मन की संकल्पना जटिल है और यह विभिन्न भाषाओँ में अलग-अलग है। बौद्ध मत में मन के लिए संस्कृत के चित्त शब्द का उपयोग होता है और इसका अर्थ अत्यंत व्यापक है। इसमें संज्ञान, धारणा, अनुभव, मूर्त एवं अमूर्त विचार, भावनाएं, सुख-दुःख की अनुभूति, ध्यान, एकाग्रता और बुद्धि इत्यादि अर्थ समाविष्ट है। जब बौद्ध मत मन का उल्लेख करता है तो इसमें सभी प्रकार की मानसिक गतिविधियां निर्दिष्ट हैं।

      बचपन में मैंने एक कहानी पढ़ी थी - एक बार की बात है। बहुत से मेंढक जंगल से जा रहे थे। उन सभी का मन आपसी बातचीत में रमा हुआ था। तभी रास्ते में एक बड़ा सा गड्ढा मिला, जिसे नहीं देख पाने के कारण उनमें से दो मेंढक उस गड्ढे में गिर पड़े। गड्ढा बहुत गहरा था।

   साथी मेंढकों ने गड्ढे में गिरे उन दो मेंढकों को आवाज लगाकर कहा कि इतने गहरे गड्ढे से बाहर निकल पाना असंभव है। इसलिए अब तुम स्वयं को मरा हुआ मान लो। लेकिन गड्ढे में गिरे हुए वे दोनों मेंढक अपने उन साथियों की बात को अनसुना करके बाहर निकलने के लिए और ज़ोर से उछल-कूद करने लगे। थोड़ी देर तक उछल-कूद करने के बाद भी जब गड्ढे से बाहर नहीं निकल पाए तो एक मेंढक ने बाहर निकलने की आशा छोड़ दी और वह गड्ढे में और नीचे की तरफ लुढ़क गया। नीचे लुढ़कते ही वह मर गया।

लेकिन दूसरे मेंढक ने कोशिश जारी रखी और अंततः पूरा जोर लगाकर एक छलांग लगाने के बाद वह गड्ढे से बाहर आ गया। जैसे ही दूसरा मेंढक गड्ढे से बाहर आया तो बाकी मेंढक साथियों ने उससे पूछा - जब हम तुम लोगों से कह रहे थे कि गड्ढे से बाहर आना संभव नहीं है तो भी तुम छलांग क्यों मारते रहे ? तब उस मेंढक ने जवाब दिया- दरअसल मैं सुनता सबकी हूं, लेकिन करता अपने मन की हूं और इसीलिए जब मैं छलांग लगा रहा था तो आप लोगों की आवाज़ों को मैंने अपने मन में इस तरह से महसूस किया मानों आप सभी मेरा हौसला बढ़ा रहे हैं और बाहर आ जाओ कह रहे हैं। इसलिए मैंने कोशिश जारी रखी और इसीलिए मैं बाहर आ सका। मेरा सिद्धांत है कि सुनो सबकी, करो मन की।

      मन की आवाज़ तभी हम सुन पाते हैं जब मन को कहीं केन्द्रित करते हैं यानी किसी कार्य विशेष में मन लगाते हैं।

        ऐसी ही एक और कहानी मुझे याद आ रही है - एक जंगल में एक कौवा रहता था। वह अक्सर अन्य पक्षियों के रंगबिरंगे पंखों को देखकर अपने काले रंग के प्रति बहुत उदास हो जाता था।

      एक दिन कुछ यूं हुआ कि जिस पेड़ पर कौवा बैठा था उसी पेड़ पर बगुला भी आ बैठा। कौए को चुपचाप देख बगुले ने कौए से उसकी उदासी का कारण पूछ लिया तब कौवे ने कहा- मैं जितना काला हूं, तुम उतने ही गोरे हो। मेरे इस काले रंग के कारण मुझे कोई पसन्द नहीं करता। मेरा जीवन व्यर्थ है।

 बगुले यह सुन कर कहा- अरे, मैं तो ख़ुद अपने गोरेपन से असंतुष्ट हूं। मुझसे ज़्यादा सुंदर तो तोता है उसके पंख हरे-हरे हैं, उसके चोंच लाल है। काश, मैं भी तोते की तरह रंगबिरंगा होता। 

कौए ने ही मन में सोचा कि बगुला कह तो सही रहा है। इससे तो ज़्यादा सुंदर तोता होता है। एक दिन कौए को रास्ते में तोता मिल गया। तब कौए ने तोते से कहा कि मैं एकदम काला हूं लेकिन तुम रंगबिरंगे बहुत सुंदर हो । कौए की बात सुन कर तोता ने कौवे से कहा- इस दुनिया में  सबसे सुंदर पक्षी तो मोर है। उसके पंख कितने रंग बिरंगे और चटकीले होते हैं । उसे देख कर मैं सोचता हूं कि काश, मैं भी मोर होता। तोते की बात सुन कर कौए ने मोर से मिलने की ठानी। वह जंगल में मोर को ढूंढने लगा लेकिन पूरे जंगल में उसे कहीं भी मोर दिखाई नहीं दिया। तब किसी ने कौए को बताया कि तुम्हें यदि मोर से मिलना है तो शहर जाओ। वहां चिड़ियाघर के अंदर तुम्हें मोर मिल जाएगा। मनुष्यों ने आजकल मोर को चिड़ियाघर में रखा है।

         यह बात सुन कर  कौवा मोर से मिलने जंगल से उड़कर शहर के चिड़ियाघर में जा पहुंचा। वहां उसने देखा कि मोर एक पिंजरे में बंद है। कौए ने मोर से कहा कि - मोर भाई तुम कितनी सुंदर हो, तुम्हारे हरे-नीले पंख कितने चटकीले हैं। मैं मन ही मन बहुत दुखी रहता हूं। सोचता हूं कि काश, मैं भी मोर होता तो कितना अच्छा होता।

    कौए की बात सुनकर मोर की आंखों से आंसू आ गए। वह बोला- हां, मैं सुंदर हूं लेकिन तुम्हारी तरह आज़ाद नहीं। मैं आसमान में उड़ नहीं सकता। पिंजड़े में बंद रहता हूं । तुम आज़ाद हो। अपने मन को समझाओ और अपने रंग से संतुष्ट रहो।

       तो मित्रों, मन नहीं लगता कहने से काम नहीं चलने वाला है। यदि ख़ुश और संतुष्ट रहना चाहते हैं तो मन लगाईए। क्योंकि कहते हैं न…. मन के हारे हार है मन के जीते जीत। सारा योरोप यूनान की फौजों से संत्रस्त था। अजेय समझी जाने वाली यूनानियों की धाक उन दिनों सब देशों पर छाई हुई थी और जिस पर भी आक्रमण होता वह हिम्मत हारकर बैठ जाता और अपनी पराजय स्वीकार कर लेता। 

      रोम के सेनापति सीजर ने देखा कि इस व्यापक पराजय का कारण लोगों में मानसिक दुर्बलता, आत्महीनता ही है, जिसके कारण उन सभी ने स्वयं को दुर्बल और यूनानियों को बलवान स्वीकार कर लिया है। इस मनःस्थिति को बदला जाना चाहिए। अतः सीजर ने यह संदेश प्रसारित करवाया कि यूनानी फौजें तभी तक अजेय हैं, जब तक हम उनके सामने घुटने टेके बैठे हैं। यदि अपने मन में सोच लो कि हम अजेय हैं तो कोई हमें हरा नहीं सकता। सीजर के संदेश का रोम की जनता पर जादू जैसा असर हुआ और अजेय समझा जाने वाले यूनान को रोम ने परास्त कर दिया।

    मन का तिलस्म मन पर नियंत्रण रख कर ही बूझा जा सकता है। मन को लगाईए, मन को समझाईए, ताकि आप साबित कर सकें कि आप का मन आपकी कमज़ोरी नहीं, आपकी ताक़त है।

और अंत में प्रस्तुत हैं मेरी काव्यपंक्तियां ….

मन तिलस्म है, जब तक उसको बूझा ना जाए।

सब सम्भव है यदि मन मुश्किल से ना घबराए।

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सागर, मध्यप्रदेश

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