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दिनांक 02.09.2020
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बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा
मन का तिलस्म
-डॉ. वर्षा सिंह
अभी पिछले दिनों की ही बात है, मेरी एक सहेली ने मुझे मेरे जन्मदिन पर शुभकामनाएं देने के लिए व्हाट्सएप पर वीडियो कॉल किया। शुभकामनाएं देने के बाद घर-परिवार की अन्य चर्चाएं होने लगीं। बच्चों की बात चली तो वह बताने लगी कि इस कोरोनाकाल में जबसे ऑनलाईन पढ़ाई हो रही है, बच्चों का पढ़ाई में मन ही नहीं लग रहा है। बाहर जाने की छूट नहीं मिलने के कारण घर के भीतर खेले जा सकने वाले इनडोर गेम्स में भी मन नहीं लग रहा है। फिर और चर्चाएं आगे बढ़ीं तो वह बोली कि कहीं घूमने नहीं जा पाने के कारण ख़ुद उसका और उसके पतिदेव का मन भी कहीं किसी काम में नहीं लगता है।… यानी मन न लगने की समस्या से मेरी उस सहेली का पूरा परिवार ग्रसित हो गया है।
यह मन नहीं लगने की समस्या इन दिनों आम है। जिससे भी बात करें वह गाहे बगाहे यह ज़रूर कह उठता है कि क्या बताऊं, फलां काम में मन ही नहीं लगता। मन… आख़िर यह मन है क्या ? मेरी विचार-श्रृंखला अनजाने ही मन के तिलस्म की गुत्थी को सुलझाने की दिशा में मुड़ गई।
कितने ही हिन्दी फ़िल्मों के गीत अचानक याद ही मुझे याद आने लगे। फ़िल्म "काजल" का मशहूर गीत " तोरा मन दर्पण कहलाए / भले, बुरे, सारे कर्मों को देखे और दिखाए" फिल्म "चित्रलेखा" का गीत "मन रे, तू काहे न धीर धरे" फिल्म "धूपछांह" का गीत "मन की आँखें खोल, बाबा, मन की आँखें खोल" ।
फ़िल्मों में मन पर केंद्रित गीतों की भरमार है। हिन्दी काव्य साहित्य में कवियों द्वारा मन के लगने, न लगने सहित मन की गति पर अनेक पद्य-पंक्तियां रची गई हैं।
रामचरित मानस, विनयपत्रिका, कवितावली, दोहावली आदि के रचयिता तुलसीदास ने अपनी रचनाओं में मन की अनेक दशाओं का वर्णन किया है -
कहं लौ कहौ कुचाल कृपानिधि, जानत हों गति मन की।
तुलसिदास प्रभु हरहु दुसह दुख, करहु लाज निज पन की।
तुलसीदास का एक और चर्चित पद है-
मन पछितैहै अवसर बीते ।
दुरलभ देह पाइ हरिपद भजु, करम, बचन अरु हीते ॥
सहसबाहु, दसबदन आदि नप बचे न काल बलीते।हम हम करि धन-धाम सँवारे, अंत चले उठि रीते॥
इसी प्रकार मीराबाई ने अपना मन बरसाने में लगने की बात अपने इस पद में की है -
मेरो मन लाग्यो बरसाने में जहां विराजे राधा रानी।मन हट्यो दुनियादारी से जहां मिले खारा पानी।।
संत कबीर ने भी मन लगने की बात कुछ इस तरह से की है -
मन लागो मेरो यार फकीरी में ।
जो सुख पावो राम भजन में, सो सुख नाहीं अमीरी में ॥
कहत कबीर सुनो भाई साधो,
साहिब मिले सबुरी में ॥
कबीर ने मन को सर्वोपरि बताते हुए कहा है -
मन के हारे हार है मन के जीते जीत ।
कहे कबीर हरि पाइए मन ही की परतीत ।
अर्थात् जीवन में जय पराजय केवल मन की भावनाएं हैं।यदि मनुष्य मन में हार गया – निराश हो गया तो पराजय है और यदि उसने मन को जीत लिया तो वह विजेता है। ईश्वर को भी मन के विश्वास से ही पा सकते हैं – यदि प्राप्ति का भरोसा ही नहीं तो कैसे पाएंगे?
भक्त कवि सूरदास सिर्फ़ एक मन से संतुष्ट नहीं हैं, वे और अधिक मन, यथा- दस-बीस मन चाहते हैं। उद्धव और गोपियों के संवाद का सुंदर चित्रण करते हुए वे कहते हैं -
ऊधो, मन न भए दस बीस।
एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अवराधै ईस॥
तुम तौ सखा स्यामसुन्दर के, सकल जोग के ईस।सूरदास, रसिकन की बतियां पुरवौ मन जगदीस॥
अर्थात् इस संवाद में गोपियां उद्धव से कहती हैं कि उनके पास तो एक ही मन है, जो कृष्ण के विचारों में डूबा है, कृष्ण को समर्पित है। अतः दूसरी ओर ध्यान भी नहीं जा सकता, पुनः निर्गुण ब्रह्म की उपासना कैसे हो ! यदि दस-बीस मन रहता, तो अन्य विषयों का भी ध्यान आता।
मन का अपना समूचा विज्ञान है यानी मनोविज्ञान। मनोविज्ञान को अंग्रेजी भाषा में सायकॉलजी कहते है। इस शब्द की उत्पत्ति यूनानी भाषा के साइकी तथा लोगस शब्दों से हुई है । साइकी का अर्थ है आत्मा यानी सोल और लोगस का अर्थ है अध्ययन या विचार –विमर्श । इस प्रकार 16 वीं शताब्दी में ग्रीस नामक देश में दार्शनिकों ने इसके शाब्दिक अर्थ के अनुसार इसे ‘आत्मा का अध्ययन करने वाला विज्ञान' माना । और इसी शाब्दिक अर्थ के कारण मनोविज्ञान को ‘आत्मा का ज्ञान’ के रूप में परिभाषित किया जाने लगा। जी हां, मन शब्द का प्रयोग कई अर्थों में किया जाता है, जैसे- आत्मा, चित्त, मनोभाव, मानस, मत इत्यादि और यदि मनोविज्ञान के नज़रिए से देखा जाए तो मन का तात्पर्य आत्मन्, स्व या व्यक्तित्व से है। यह एक अमूर्त सम्प्रत्यय है, जिसे केवल महसूस किया जा सकता है। हवा की तरह इसे न तो हम देख सकते हैं और न ही हम इसका स्पर्श कर सकते हैं । दूसरे शब्दों में मस्तिष्क के विभिन्न अंगों की प्रक्रिया का नाम मन है।
प्रसिद्ध मनोविश्लेषणवादी मनोवैज्ञानिक सिगमण्ड फ्रायड के अनुसार ‘मन से तात्पर्य व्यक्तित्व के उन कारकों से होता है जिसे हम अन्तरात्मा कहते हैं तथा जो हमारे व्यक्तित्व में संगठन पैदा करके हमारे व्यवहारों को वातावरण के साथ समायोजन करने में मदद करता है।'
एक अन्य मनोवैज्ञानिक रेबर के अनुसार- ‘‘मन का तात्पर्य परिकल्पिक मानसिक प्रक्रियाओं एवं क्रियाओं की सम्पूर्णता से है, जो मनोवैज्ञानिक प्रदत्त व्याख्यात्मक साधनों के रूप में काम कर सकती है।
अत: मन की मात्र कल्पना कर सकते हैं। इसको न तो देखा जा सकता है और न ही इसका स्पर्श किया जा सकता है। मन, किसी चीज का वह व्यक्तिगत, आत्मपरक अनुभव है जो प्रतिपल परिवर्तित होता रहता है। मन की संकल्पना जटिल है और यह विभिन्न भाषाओँ में अलग-अलग है। बौद्ध मत में मन के लिए संस्कृत के चित्त शब्द का उपयोग होता है और इसका अर्थ अत्यंत व्यापक है। इसमें संज्ञान, धारणा, अनुभव, मूर्त एवं अमूर्त विचार, भावनाएं, सुख-दुःख की अनुभूति, ध्यान, एकाग्रता और बुद्धि इत्यादि अर्थ समाविष्ट है। जब बौद्ध मत मन का उल्लेख करता है तो इसमें सभी प्रकार की मानसिक गतिविधियां निर्दिष्ट हैं।
बचपन में मैंने एक कहानी पढ़ी थी - एक बार की बात है। बहुत से मेंढक जंगल से जा रहे थे। उन सभी का मन आपसी बातचीत में रमा हुआ था। तभी रास्ते में एक बड़ा सा गड्ढा मिला, जिसे नहीं देख पाने के कारण उनमें से दो मेंढक उस गड्ढे में गिर पड़े। गड्ढा बहुत गहरा था।
साथी मेंढकों ने गड्ढे में गिरे उन दो मेंढकों को आवाज लगाकर कहा कि इतने गहरे गड्ढे से बाहर निकल पाना असंभव है। इसलिए अब तुम स्वयं को मरा हुआ मान लो। लेकिन गड्ढे में गिरे हुए वे दोनों मेंढक अपने उन साथियों की बात को अनसुना करके बाहर निकलने के लिए और ज़ोर से उछल-कूद करने लगे। थोड़ी देर तक उछल-कूद करने के बाद भी जब गड्ढे से बाहर नहीं निकल पाए तो एक मेंढक ने बाहर निकलने की आशा छोड़ दी और वह गड्ढे में और नीचे की तरफ लुढ़क गया। नीचे लुढ़कते ही वह मर गया।
लेकिन दूसरे मेंढक ने कोशिश जारी रखी और अंततः पूरा जोर लगाकर एक छलांग लगाने के बाद वह गड्ढे से बाहर आ गया। जैसे ही दूसरा मेंढक गड्ढे से बाहर आया तो बाकी मेंढक साथियों ने उससे पूछा - जब हम तुम लोगों से कह रहे थे कि गड्ढे से बाहर आना संभव नहीं है तो भी तुम छलांग क्यों मारते रहे ? तब उस मेंढक ने जवाब दिया- दरअसल मैं सुनता सबकी हूं, लेकिन करता अपने मन की हूं और इसीलिए जब मैं छलांग लगा रहा था तो आप लोगों की आवाज़ों को मैंने अपने मन में इस तरह से महसूस किया मानों आप सभी मेरा हौसला बढ़ा रहे हैं और बाहर आ जाओ कह रहे हैं। इसलिए मैंने कोशिश जारी रखी और इसीलिए मैं बाहर आ सका। मेरा सिद्धांत है कि सुनो सबकी, करो मन की।
मन की आवाज़ तभी हम सुन पाते हैं जब मन को कहीं केन्द्रित करते हैं यानी किसी कार्य विशेष में मन लगाते हैं।
ऐसी ही एक और कहानी मुझे याद आ रही है - एक जंगल में एक कौवा रहता था। वह अक्सर अन्य पक्षियों के रंगबिरंगे पंखों को देखकर अपने काले रंग के प्रति बहुत उदास हो जाता था।
एक दिन कुछ यूं हुआ कि जिस पेड़ पर कौवा बैठा था उसी पेड़ पर बगुला भी आ बैठा। कौए को चुपचाप देख बगुले ने कौए से उसकी उदासी का कारण पूछ लिया तब कौवे ने कहा- मैं जितना काला हूं, तुम उतने ही गोरे हो। मेरे इस काले रंग के कारण मुझे कोई पसन्द नहीं करता। मेरा जीवन व्यर्थ है।
बगुले यह सुन कर कहा- अरे, मैं तो ख़ुद अपने गोरेपन से असंतुष्ट हूं। मुझसे ज़्यादा सुंदर तो तोता है उसके पंख हरे-हरे हैं, उसके चोंच लाल है। काश, मैं भी तोते की तरह रंगबिरंगा होता।
कौए ने ही मन में सोचा कि बगुला कह तो सही रहा है। इससे तो ज़्यादा सुंदर तोता होता है। एक दिन कौए को रास्ते में तोता मिल गया। तब कौए ने तोते से कहा कि मैं एकदम काला हूं लेकिन तुम रंगबिरंगे बहुत सुंदर हो । कौए की बात सुन कर तोता ने कौवे से कहा- इस दुनिया में सबसे सुंदर पक्षी तो मोर है। उसके पंख कितने रंग बिरंगे और चटकीले होते हैं । उसे देख कर मैं सोचता हूं कि काश, मैं भी मोर होता। तोते की बात सुन कर कौए ने मोर से मिलने की ठानी। वह जंगल में मोर को ढूंढने लगा लेकिन पूरे जंगल में उसे कहीं भी मोर दिखाई नहीं दिया। तब किसी ने कौए को बताया कि तुम्हें यदि मोर से मिलना है तो शहर जाओ। वहां चिड़ियाघर के अंदर तुम्हें मोर मिल जाएगा। मनुष्यों ने आजकल मोर को चिड़ियाघर में रखा है।
यह बात सुन कर कौवा मोर से मिलने जंगल से उड़कर शहर के चिड़ियाघर में जा पहुंचा। वहां उसने देखा कि मोर एक पिंजरे में बंद है। कौए ने मोर से कहा कि - मोर भाई तुम कितनी सुंदर हो, तुम्हारे हरे-नीले पंख कितने चटकीले हैं। मैं मन ही मन बहुत दुखी रहता हूं। सोचता हूं कि काश, मैं भी मोर होता तो कितना अच्छा होता।
कौए की बात सुनकर मोर की आंखों से आंसू आ गए। वह बोला- हां, मैं सुंदर हूं लेकिन तुम्हारी तरह आज़ाद नहीं। मैं आसमान में उड़ नहीं सकता। पिंजड़े में बंद रहता हूं । तुम आज़ाद हो। अपने मन को समझाओ और अपने रंग से संतुष्ट रहो।
तो मित्रों, मन नहीं लगता कहने से काम नहीं चलने वाला है। यदि ख़ुश और संतुष्ट रहना चाहते हैं तो मन लगाईए। क्योंकि कहते हैं न…. मन के हारे हार है मन के जीते जीत। सारा योरोप यूनान की फौजों से संत्रस्त था। अजेय समझी जाने वाली यूनानियों की धाक उन दिनों सब देशों पर छाई हुई थी और जिस पर भी आक्रमण होता वह हिम्मत हारकर बैठ जाता और अपनी पराजय स्वीकार कर लेता।
रोम के सेनापति सीजर ने देखा कि इस व्यापक पराजय का कारण लोगों में मानसिक दुर्बलता, आत्महीनता ही है, जिसके कारण उन सभी ने स्वयं को दुर्बल और यूनानियों को बलवान स्वीकार कर लिया है। इस मनःस्थिति को बदला जाना चाहिए। अतः सीजर ने यह संदेश प्रसारित करवाया कि यूनानी फौजें तभी तक अजेय हैं, जब तक हम उनके सामने घुटने टेके बैठे हैं। यदि अपने मन में सोच लो कि हम अजेय हैं तो कोई हमें हरा नहीं सकता। सीजर के संदेश का रोम की जनता पर जादू जैसा असर हुआ और अजेय समझा जाने वाले यूनान को रोम ने परास्त कर दिया।
मन का तिलस्म मन पर नियंत्रण रख कर ही बूझा जा सकता है। मन को लगाईए, मन को समझाईए, ताकि आप साबित कर सकें कि आप का मन आपकी कमज़ोरी नहीं, आपकी ताक़त है।
और अंत में प्रस्तुत हैं मेरी काव्यपंक्तियां ….
मन तिलस्म है, जब तक उसको बूझा ना जाए।
सब सम्भव है यदि मन मुश्किल से ना घबराए।
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सागर, मध्यप्रदेश
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