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Wednesday, September 30, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 18 | ग्लैमराइज्ड कैकेयी | डॉ. वर्षा सिंह

 


प्रिय मित्रों, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज पढ़िए "ग्लैमराइज्ड कैकेयी" और अपने विचारों से अवगत कराएं ...और शेयर करें 🙏

हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 30.09.2020

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बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

           ग्लैमराइज्ड कैकेयी          
                      - डॉ. वर्षा सिंह
      
         भक्त ध्रुव की कथा में ध्रुव के पिता राजा उत्तानपाद, माता सुनीति और सौतेली माता का नाम सुरुचि का ज़िक्र आता है। कथा का महत्वपूर्ण भाग यह है कि राजा उत्तानपाद एक दिन राज सिंहासन पर बैठे थे। उनकी गोदी में ध्रुव का सौतेला भाई अर्थात् सौतेली माता सुरुचि का पुत्र बैठा था। ध्रुव ने भी राजा की गोदी में बैठने की ज़िद की। रानी सुरुचि ने ध्रुव को रोक दिया और कहा, ‘‘मेरा पुत्र ही राजा की गोद में बैठने का अधिकारी है, क्योंकि वह तुमसे अधिक योग्य है।’’ बालक ध्रुव बड़ा ही स्वाभिमानी था। सौतेली मां की दुत्कार से आहत हो कर बालक ध्रुव ने प्रतिज्ञा की, कि ‘मैं दूसरों के द्वारा दिए गए स्थान को ग्रहण नहीं करूंगा। मैं परिश्रम और तपस्या से अपना स्थान स्वयं बनाऊंगा तथा ऐसा स्थान प्राप्त करूंगा जो किसी और ने आज तक प्राप्त नहीं किया होगा।' ध्रुव की प्रतिज्ञा सुन कर माता सुनीति ने उसे ‘ओम नमो भगवते वासुदेवाय’ का मंत्र दिया। बालक ध्रुव ने इस मंत्र का जाप करते हुए घोर तपस्या की। ध्रुव की तपस्या से प्रसन्न हो कर भगवान विष्णु ने उसे दर्शन दिए और वरदान मांगने को कहा। ध्रुव ने कहा- हे प्रभु! मुझे ऐसा पद दीजिए जो सभी पदों से ऊंचा हो। जो अपना अलग महत्व रखता हो तथा जिस पद पर आज तक कोई विराजमान न हुआ हो। विष्णु ने उसे आकाश में उत्तर दिशा में समस्त तारागणों, नक्षत्रों के बीच सर्वोच्च स्थान दिया। वह ‘ध्रुव तारा’ बन कर अमर हुआ। ध्रुव तारे को सब तारों में सबसे ऊंचा स्थान प्राप्त है। ध्रुव का नाम आज भी जितने सम्मानपूर्वक लिया जाता है जबकि उसकी विमाता सुरुचि का नाम लेते हुए घृणा के भाव मन में उत्पन्न हो जाते हैं।     

      यह तो थी सतयुग के भक्त ध्रुव की कथा, जिसमें सौतेली मां द्वारा अपनी सगी संतान के मोह में सौतेली संतान को अपमानित किया गया था। इसी प्रकार की एक कथा है त्रेतायुग के राजा राम की। रामकथा में राम को चौदह वर्ष का वनवास इसलिए झेलना पड़ा क्योंकि उनकी सौतेली माता कैकेयी ने अपने सगे पुत्र भरत को अयोध्या का राजा बनवाने के उद्देश्य से राम के पिता और कैकेयी के वचनबद्ध राजा दशरथ से वचनपूर्ति में राम का वनवास और भरत का राजतिलक मांग लिया था।
         राजा दशरथ की तीन रानियां थीं- कौशल नरेश सुकौशल की पुत्री कौशल्या, कैकय नरेश अश्वपति की पुत्री कैकयी और काशी नरेश की पुत्री सुमित्रा। राजा दशरथ की इन तीन रानियों में से कैकेयी विवाह से पहले महर्षि दुर्वासा की सेवा किया करती थी। कैकेयी की सेवा से प्रसन्न होकर महर्षि दुर्वासा ने कैकेयी का एक हाथ वज्र का बना दिया। कालांतर में  कैकेयी का विवाह राजा दशरथ से हो गया। उधर स्वर्ग में देवासुर संग्राम आरंभ हो गया। देवराज इंद्र ने राजा दशरथ को सहायता के लिए बुलाया। युद्ध कौशल में निपुण रानी कैकेयी भी दशरथ की रक्षा के लिए सारथी बनकर देवासुर संग्राम में पहुंच गईं। युद्ध के दौरान अचानक दशरथ के रथ के पहिए से कील निकल गई और रथ लड़खड़ाने लगा। कैकेयी ने कील के स्थान पर अपनी उंगली लगा दी, जिससे राजा दशरथ के प्राण बच गए। राजा दशरथ कैकेयी की वीरता और साहस से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने कैकेयी से उसकी कोई दो मनोकामना पूर्ति करने को कहा। लेकिन कैकेयी ने वे दोनों मनोकामनाएं बाद में कभी किसी समय पूर्ति का वचन ले कर  उस समय वह प्रकरण टाल दिया। बाद में कौशल्यापुत्र राम के राज्याभिषेक के समय कैकेयी की अंतरंग दासी मंथरा ने जब उन दो वचनों की पूर्ति का स्मरण दिलाते हुए भरत की भावी सुरक्षा के विषय में समझाया तो अपने हित-अहित का विचार किए बिना एक मां के हृदय ने मंथरा का सुझाव मान कर दोनों मनोकामनाएं पूर्ति हेतु दशरथ से कह दिया। कैकेयी ने दशरथ को इस वचन की बात याद दिलाकर कौशल्यापुत्र राम को चौदह वर्ष का वनवास और अपने पुत्र भरत का राज्याभिषेक मांग लिया। 
       दशरथ वचनबद्ध थे। किन्तु राम के प्रति यह घोर अन्याय वे सहन नहीं कर पाए और यह वचनपूर्ति उनके प्राणों के उत्सर्ग का करण बन गई। दशरथ ने वचन तो पूरे कर दिए लेकिन उसके बाद शोकग्रस्त हो कर वे जीवित नहीं रह पाए। आज्ञाकारी, संस्कारी, मर्यादा पुरुषोत्तम राम पिता की आज्ञा का पालन और माता कैकेयी की इच्छा का सम्मान करते हुए वन गमन कर गए। कैकेयीपुत्र भरत अपने बड़े भाई राम के प्रति अटूट स्नेह और गहरा आदरभाव रखते थे। उन्हें जब यह सब ज्ञात हुआ तो माता कैकेयी के इस कृत्य पर रोष प्रकट करते हुए उन्होंने राज्याभिषेक से मना कर दिया और राम के वनगमन के पश्चात राम की चरणपादुका अयोध्या ला कर उसे सिंहासनारूढ़ करके स्वयं एक सेवक की भांति चौदह वर्ष व्यतीत कर दिए।
     इस पूरे घटनाक्रम ने कैकेयी के जीवन को लांछित कर दिया। दासी मंथरा के सुझाव पर अमल करके पुत्रप्रेम के स्वार्थवश कैकेयी ऐसी दो मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए कोपभवन में जा बैठी थी, जिसने उसके जीवन को ही कलंकित कर दिया। दशरथ जैसे स्नेहवान पति को सदैव के लिए खो कर विधवा नारी के रूप में मिला कैकेयी का जीवन, सगे पुत्र भरत से भी तिरस्कृत हुआ। रामायण के नारी पात्रों में कैकेयी का स्मरण घृणा और तिरस्कार के साथ किया जाता है। कोई भी व्यक्ति अपनी पुत्री का नाम कैकेयी रखना उचित नहीं समझता।

   आदिकवि वाल्मीकि ने संस्कृत में लिखे गए 'रामायण' महाकाव्य में कैकेयी को एक ऐसी स्त्री के रूप में उल्लेखित किया है जो अपनी अनुचित मांग की पूर्ति कराने हेतु क्रोधाग्नि से तिलमिलाती हुई कोप- भवन में प्रविष्ट हो कर सम्पूर्ण अयोध्या को शोक- संतप्त बना देती है। वाल्मीकि रामायण की परम्परा में लिखे गये काव्यों और नाटकों में कैकेयी को राम-वनवास के लिए दोषी ठहराया गया है। असहिष्णु, कलंकिनी आदि अनेक सम्बोधनों का प्रयोग कर कैकेयी की निन्दा की गयी है।
'रामचरित मानस' में तुलसीदास ने अयोध्याकांड के अंतर्गत कैकेयी के पात्र को अन्त तक एकान्त- नीरव, भयावह एवं ग्लानियुक्त बनाए रखा है। कैकेयी की दैहिक सुंदरता उसके कुकृत्यों के समक्ष गौण हो गई। तुलसीदास ने अयोध्यावासियों के मुँह से उनके लिए 'पापिन' 'कलंकिनी' आदि अनेक सम्बोधनों का प्रयोग कर कैकेयी के कृत्य की भर्त्सना की है, साथ ही भरत की माता कैकेयी के प्रति रुष्टता को इस चौपाई के माध्यम से व्यक्त किया है -
कैकेई भव तनु अनुरागे। पावँर प्रान अघाइ अभागे॥
जौं प्रिय बिरहँ प्रान प्रिय लागे। देखब सुनब बहुत अब आगे।।

अर्थात् भरत कहते हैं कि कैकेयी से उत्पन्न देह में प्रेम करने वाले ये पामर प्राण पूरी तरह से अभागे हैं। जब प्रिय के वियोग में भी मुझे प्राण प्रिय लग रहे हैं, तब अभी आगे मैं और भी बहुत कुछ देखूँ-सुनूँगा।
भरत यह भी कहते हैं कि -
मातु कुमत बढ़ई अघ मूला। तेहिं हमार हित कीन्ह बँसूला॥
कलि कुकाठ कर कीन्ह कुजंत्रू। गाड़ि अवधि पढ़ि कठिन कुमंत्रू॥

अर्थात् मेरी माता की कुमति ही पापों का मूल है। उसने हमारे हित का बसूला बनाया। उससे कलहरूपी कुकाठ का कुयंत्र बनाया और चौदह वर्ष की अवधिरूपी कठिन कुमंत्र पढ़कर उस यंत्र को गाड़ दिया। 
हालांकि उदात्त चरित्र के स्वामी राम ने कभी माता कैकेयी को गलत नहीं कहा। साथ ही जब भरत ने अपनी माता को कटु वचन कहे तो राम ने उन्हें रोका भी।
           हमारे रामकथा सहित अनेक ग्रंथों में उन स्त्रियों को निंदनीय माना गया है और बुरी स्त्रियों के रूप में उल्लेखित किया गया है जो अपनी सगी संतानों से मोह में अपनी सौतेली संतानों के प्रति अन्याय एवं षडयंत्र करती हैं। यह इसलिए कि स्त्रियां इन कथाओं से शिक्षा ग्रहण करें, स्वयं को निंदा का कारण न बनाएं और अपने सौतेली संतानों के प्रति भी दया और ममता का भाव रखें। 
किन्तु वर्तमान समय में हमारे टीवी सीरियल्स में सौतेली माताओं के चरित्र को ग्लैमराइज करके षडयंत्रों से लैस, कुटिल चालों की एक्सपर्ट के रूप में महिमामंडित किया जाता है। जिसका स्त्रियों पर ग़लत असर पड़ता है। स्वार्थपरता, निष्ठुरता, मोहांधता के दुर्गुणों से लैस खलनायिका के रूप में प्रस्तुत विमाताओं के चरित्र से प्रभावित हो कर अनेक स्त्रियां "कैकेयी" बनती जा रही हैं।
यदि टीवी सीरियल्स में ऐसी स्त्रियों को ग्लैमराइज नहीं किया जाए और सिर्फ़ एपीसोड की संख्या बढ़ाने के उद्देश्य से उनकी घूर्तताओं को बढ़ा-चढ़ा कर न दिखाया जाए तो वह बेहतर होगा। सीढ़ी पर तेल डालकर परिवारजन को गिराने, गीज़र से बिजली के नंगे तार जोड़ कर घातक दुर्घटना को अंजाम देने सरीखे आसान नुस्खे किसी की भी ज़िन्दगी पर भारी पड़ सकते हैं। इसलिए वास्तविक ज़िन्दगी से कैकेयी के रोल को छोटा करके कौशल्या के रोल को बढ़ाना होगा।

और अंत में  प्रस्तुत हैं मेरी ये काव्य पंक्तियां....

उचित और अनुचित में जिसको भेद न करना आया।

मिले न उसको राम जगत में, मिली न उसको माया।

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2 comments:

  1. बहुत अच्छा लेख है आपका यह वर्षा जी विशेषकर विगत कुछ दशकों से छोटे परदे पर प्रसारित हो रहे तथाकथित रूप से पारिवारिक धारावाहिकों के संदर्भ में ।

    उचित और अनुचित में जिसको भेद न करना आया।
    मिले न उसको राम जगत में, मिली न उसको माया।

    आपकी ये पंक्तियां अनमोल हैं, मैं इन्हें सदैव याद रखूंग ।

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  2. "आपकी ये पंक्तियां अनमोल हैं, मैं इन्हें सदैव याद रखूंगा ।"
    जितेंद्र माथुर जी, आपका यह कथन पढ़ कर स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रही हूं मै।

    बहुत बहुत धन्यवाद 🙏💐🙏

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