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Wednesday, March 31, 2021

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 44 | बुज़ुर्गों का महत्व वाया जामवन्त कथा | डॉ. वर्षा सिंह


प्रिय ब्लॉग पाठकों, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज प्रस्तुत है मेरा आलेख -   "बुज़ुर्गों का महत्व वाया जामवन्त कथा"
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 31.03.2021

मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं-
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बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

    बुज़ुर्गों का महत्व वाया जामवन्त कथा
           - डॉ. वर्षा सिंह

    अभी परसों होली के दिन मेरी एक रिश्तेदार से फोन पर बातचीत हो रही थी। उन्होंने बताया कि कोरोना गाइडलाइंस के कारण उन्होंने अपने घर में ही होली खेली, लेकिन घर-परिवार में ही होली खेलते समय उनके चेहरे पर काफी रंग लग गया था, जो साबुन लगाने से भी सही तरीके से नहीं छूट रहा था । वह समझ में नहीं पा रही थीं कि क्या करें, क्योंकि उनके मेकअप के सामानों में क्लींजिंग मिल्क खत्म हो चुका था और बाहर दुकानें भी होली त्यौहार के कारण बंद थीं इसलिए वे क्लींजिंग मिल्क भी नहीं मंगवा पा रही थीं। अपना रंगा-पुता चेहरा देखकर वे स्वयं को बहुत असहज महसूस कर रही थीं । तभी उनके साथ निवासरत उनकी दादी सास ने उन्हें सुझाव दिया कि वे चावल के आटे में दही मिलाकर पेस्ट बनाएं और इसे चेहरे एवं गर्दन पर अच्छी तरह मलें। इसके बाद चेहरा धो लें। उन्होंने दादी सास के इस सुझाव पर अमल किया और नतीजा उनके सामने था। आईने में उन्होंने जब स्वयं को देखा तो उन्हें उनका चेहरा एकदम साफ नजर आया। वे कहने लगीं कि वाकई दादी मां के नुस्खे ने बहुत अच्छा काम किया।
   सचमुच दादी मां के नुस्खे बहुत कारगर सिद्ध होते हैं। सिर्फ दादी मां ही नहीं, समय-समय पर हमारे बड़े-बुज़ुर्ग अपने जीवन के अनुभवों से हमें सही सुझाव देते हैं। यदि उनके सुझावों पर हम अमल करें तो हमें जीवन की अनेक समस्याओं को दूर करने में सफलता प्राप्त होगी। प्रायः लोग सोचते हैं कि उम्र बढ़ने के साथ-साथ बुज़ुर्गों के अनुभव एवं सोच भी बूढ़े हो गए हैं और घर के बुज़ुर्ग सदस्यों को अक्सर एक अवांछित बोझ की तरह समझा जाता है। जबकि बुज़ुर्गों के पास अधिक अनुभव और कौशल होता है। उनके पास कठिन से कठिन परिस्थितियों से निपटने की अचूक क्षमता होती है।
  
   एक समय की बात है किसी गांव में एक ठाकुर साहब रहते थे। जब उनके लड़के की शादी दूसरे गांव में तय हुई तो लड़की के पिता ठाकुर ने यह शर्त रखी कि वह जब बारात लेकर आएं तो उसमें उनके साथ कोई भी बुज़ुर्ग या बूढ़ा व्यक्ति न हो। पहले तो ठाकुर साहब को इस बात को सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ लेकिन फिर संस्कारवान, सहृदय होने के कारण उन्होंने सोचा कि ठीक है यदि लड़की के पिता ठाकुर यह चाहते हैं तो चलो ऐसा ही सही। मना करने पर व्यर्थ में विवाद होगा। ठकुराईसी में आपस में मार-काट मचेगी। तो यह सब सोच कर सामान्य भाव से उन्होंने घर के सभी बुज़ुर्गों को यह बात बताई और उन्हें ताकीद किया कि क्योंकि लड़की के पिता ठाकुर यह नहीं चाहते कि बरात में कोई  बुज़ुर्ग व्यक्ति आए तो वह सिर्फ जवान व्यक्तियों को ही बारात में अपने साथ ले जाएंगे। घर के बुज़ुर्गों ने यह बात मान ली लेकिन ख़ुद ठाकुर साहब के पिता को यह बात नागवार गुज़री। उन्होंने ठाकुर साहब के लड़के यानी दूल्हे से कहा कि वे चाहते हैं कि अपने पोते की शादी में शामिल हों, इसलिए वह उन्हें अपने साथ एक बैलगाड़ी में सामानों में छुपा कर ले चले। ठाकुर साहब के लड़के ने ऐसा ही किया। वह अपने दादा को एक बैलगाड़ी में छुपा कर अपने साथ बारात में ले गया।
      दूसरे गांव पहुंचने पर शादी के समय भांवर पड़़ने के पहले लड़की के पिता ठाकुर ने लड़के के पिता से कुछ सवाल पूछे जिनके जवाब न तो लड़के के पिता ठाकुर साहब से बने और न ही उनके साथ बराती के रूप में गए अन्य नौजवान व्यक्तियों से। तब लड़के को एक तरक़ीब सूझी। लड़के ने कहा कि -'मैं अपनी अंगूठी बैलगाड़ी में रखे सामानों में ही छोड़ आया हूं। इसलिए बस मैं अभी गया और अभी आया।' इतना कह कर वह उस बैलगाड़ी के पास गया जहां उसके दादा छुप कर बैठे थे। दादा को उसने वे सवाल बताए। दादा ने अपने अनुभव के आधार पर चटपट उन सवालों के उत्तर लड़के को बता दिए। लड़का लौटकर मंडप में आया और उसने कहा कि -'हां, अब बताएं मैं आपके प्रश्नों का उत्तर दूंगा। लेकिन मैं प्रश्न अच्छी तरह से सुन नहीं पाया था तो कृपया आप अपने प्रश्नों को पुनः दोहरा दें।' लड़की के पिता ठाकुर ने अपने प्रश्न दोहरा दिए। प्रश्नों को सुनते ही लड़के ने तत्काल उनके उत्तर दे दिए। अपने प्रश्नों के उत्तर सुनकर लड़की के पिता ठाकुर चकित रह गए। उन्होंने कहा कि - 'बेटा! सच-सच बताना, तुम्हारी बारात में कोई बुज़ुर्ग भी शामिल है क्या?' लड़के के पिता ठाकुर साहब ने कहा कि - 'नहीं, हरगिज़ नहीं। आपने किसी बुज़ुर्ग को साथ लाने से मना किया था इसलिए हम अपने साथ सिर्फ नौजवानों को लेकर आए हैं। हमारे साथ कोई भी बुज़ुर्ग नहीं आया है।'
         यह सुनकर लड़की के पिता ठाकुर सोच में पड़ गए। उन्होंने कहा कि - 'इन सवालों के जवाब बहुत कठिन थे। यदि आपके बेटे ने इन सवालों के जवाब दे दिए हैं तो वास्तव में वह बहुत बुद्धिमान है और मुझे बहुत प्रसन्नता है कि मैं अपनी बेटी का विवाह उससे कर रहा हूं।' किंतु लड़के से नहीं रहा गया उसने स्पष्ट रूप से कह दिया कि - 'यहां किसी को नहीं मालूम किंतु मैं अपने साथ अपने दादा को लेकर आया हूं और इन प्रश्नों के जवाब मेरे पूज्य दादा जी ने ही अपने अनुभवों के आधार पर दिए हैं।'
     यह सुनकर लड़की के पिता ने कहा कि अब मुझे और भी अधिक प्रसन्नता हो रही है कि - 'मेरी लड़की का विवाह एक ऐसे लड़के से हो रहा है जो बुज़ुर्गों का सम्मान तो करता ही है, साथ ही सत्यवादी भी है। बुज़ुर्ग अपने अनुभवों से हमें समस्याओं का समाधान करने में सहायता देते हैं इसलिए बुज़ुर्गों का परिवार में सम्मान बरकरार रहना चाहिए। बुज़ुर्गों को बारात में साथ नहीं लाने के लिए कहने के पीछे मेरा यह जानने का उद्देश्य था कि जिस घर में मेरी पुत्री का विवाह हो रहा है वहां बड़े बुज़ुर्गों का सम्मान होता है अथवा नहीं अब मुझे यह जानकर बहुत संतोष हो रहा है कि मैं बहुत सही घर में अपनी बेटी का विवाह कर रहा हूं।'
फिर लड़की के पिता सहित सभी परिवार जन द्वारा हंसी-ख़ुशी लड़के के दादा को बैलगाड़ी से निकाल कर सम्मानपूर्वक विवाह स्थल पर लाया गया और उनसे आशीर्वाद ले कर विवाह की सभी रस्में पूर्ण की गईं।
      इसका अर्थ यह है कि जिस परिवार में बुज़ुर्गों का सम्मान होता है वह सदा सुखी रहते हैं और बड़ी से बड़ी कठिनाइयों को भी हंसते हुए झेल जाते हैं।

     रामकथा में भी एक ऐसे ही बड़े-बुज़ुर्ग का वर्णन मिलता है वे बड़े-बुज़ुर्ग थे जामवन्त। जामवन्त अथवा जाम्बवान रामायण और रामचरित मानस के महत्त्वपूर्ण पात्र हैं। वे वानरराज सुग्रीव के मित्र थे। उन्होंने राम-रावण युद्ध में राम का पूरा साथ दिया था।

     पौराणिक ग्रंथों के अनुसार देवासुर संग्राम में देवताओं की सहायता के लिए जामवन्त का जन्म ‍अग्नि के पुत्र के रूप में हुआ था। उनकी माता एक गंधर्व कन्या थीं। सृष्टि के आदि में प्रथम कल्प के सतयुग में जामवन्त उत्पन्न हुए थे। जामवन्त ने श्रीहरि विष्णु के वामन अवतार को देखा था। वे राजा बलि के काल में भी थे। राजा बलि से तीन पग धरती मांग कर वामन ने बलि को चिरंजीवी होने का वरदान देकर पाताल लोक का राजा बना दिया था। वामन अवतार के समय जामवन्त अपनी युववस्था में थे। पौराणिक ग्रंथों में जामवन्त को अश्वत्थामा, राजा बलि, हनुमान, आदि के समान सशरीर आज भी जीवित रहने वाले चिरं‍जीवियों की सूची में शामिल किया गया है। यह माना जाता है जामवन्त कलियुग के अंत तक रहेंगे।

      वाल्मीकि रामायण के युद्धकांड में जामवन्त का नाम विशेष उल्लेखनीय है। उन्होंने लंकापति रावण की कैद से सीता को छुड़ा कर लाने में राम की सहायता की थी। कहते हैं कि जामवन्त समुद्र को लांघने में सक्षम थे लेकिन त्रेतायुग में वह बूढ़े हो चले थे। इसीलिए उन्होंने हनुमान से इसके लिए विनती थी कि आप ही समुद्र लांघिये। बचपन में पवनपुत्र हनुमान बहुत नटखट और शरारती थे। हनुमान को कई देवताओं ने विभिन्न प्रकार के वरदान और अस्त्र-शस्त्र दिए थे। इन वरदानों और अस्त्र-शस्त्र संचालन के कारण बचपन में हनुमान उधम मचाने लगे थे। विशेष रूप से वे ऋषियों के बाग-बगीचों में घुसकर फल, फूल खाते थे और ब‍गीचा उजाड़ देते थे। वे तपस्यारत मुनियों को तंग करते थे। उनकी शरारतें बढ़ती गई तो मुनियों ने उनकी शिकायत उनके पिता पवनदेव केसरी से की। माता-पिता में बहुत समझाया कि बेटा, ऐसा नहीं करते, ऋषि-मुनियों को तंग करना ठीक नहीं है। परंतु नटखट हनुमान शरारत करने से नहीं रुके बल्कि तपस्यारत मुनियों को भी अपनी बालसुलभ शरारतों से तंग करने लगे। उनके पिता पवनदेव और माता केसरी द्वारा समझाने के बाद भी जब हनुमान नहीं रूके तो उनकी शरारतों से कुपित होकर ऋषि अंगिरा और भृगुवंश के मुनियों ने श्राप दिया कि वे अपने बल को भूल जाएं और उनको उनके बल का आभास तब ही हो जब कोई उन्हें स्मरण दिलाए। जब हनुमान अपनी शक्ति को भूल गए थे तो जामवन्त ने ही उनको उनकी शक्ति का स्मरण दिलाया था और कहा था कि तुम्हारा जन्म राम का कार्य करने के लिए ही इस धरती पर हुआ है।
     
       तुलसीदास कृत रामचरितमानस के किष्किंधाकाण्ड में  जामवन्त का हनुमान को उनके बल का स्मरण कराने का उल्लेख है।

जरठ भयउँ अब कहइ रिछेसा।
नहिं तन रहा प्रथम बल लेसा॥
जबहिं त्रिबिक्रम भए खरारी।
तब मैं तरुन रहेउँ बल भारी॥

अर्थात्  ऋक्षराज जामवन्त कहने लगे कि मैं बूढ़ा हो गया। शरीर में पहले वाले बल का लेश भी नहीं रहा। जब खरारि अर्थात् खर के शत्रु राम वामन बने थे, तब मैं तरुण था और मुझ में बहुत बल था।

बलि बाँधत प्रभु बाढ़ेउ सो तनु बरनि न जाइ।
उभय घरी महँ दीन्हीं सात प्रदच्छिन धाइ॥

अर्थात् बलि के बाँधते समय प्रभु इतने बढ़े कि उस शरीर का वर्णन नहीं हो सकता, किंतु मैंने दो ही घड़ी में दौड़कर उस शरीर की सात प्रदक्षिणाएँ कर लीं।

अंगद कहइ जाउँ मैं पारा।
जियँ संसय कछु फिरती बारा॥
जामवंत कह तुम्ह सब लायक।
पठइअ किमि सबही कर नायक।।

अर्थात् अंगद ने कहा कि मैं पार तो चला जाऊँगा, परंतु लौटते समय के लिए हृदय में कुछ संदेह है। तब जामवन्त ने कहा कि तुम सब प्रकार से योग्य हो, परंतु तुम हम सबके नेता हो, इसलिए तुम्हे कैसे भेजा जाए?

कहइ रीछपति सुनु हनुमाना।
का चुप साधि रहेहु बलवाना॥
पवन तनय बल पवन समाना।
बुधि बिबेक बिग्यान निधाना॥

अर्थात् ऋक्षराज जामवन्त ने हनुमान से कहा- हे हनुमान्! हे बलवान्! सुनो, तुमने यह क्या चुप साध रखी है? तुम पवन के पुत्र हो और बल में पवन के समान हो। तुम बुद्धि-विवेक और विज्ञान की खान हो।

कवन सो काज कठिन जग माहीं।
जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं॥
राम काज लगि तव अवतारा।
सुनतहिं भयउ पर्बताकारा॥

अर्थात् जगत् में कौन सा ऐसा कठिन काम है जो हे तात! तुमसे न हो सके। राम के कार्य के लिए ही तो तुम्हारा अवतार हुआ है। यह सुनते ही हनुमान्जी पर्वत के आकार के अत्यंत विशालकाय हो गए॥

कनक बरन तन तेज बिराजा।
मानहुँ अपर गिरिन्ह कर राजा॥
सिंहनाद करि बारहिं बारा।
लीलहिं नाघउँ जलनिधि खारा॥

अर्थात् उनका सोने का सा रंग है, शरीर पर तेज सुशोभित है, मानो दूसरा पर्वतों का राजा सुमेरु हो। हनुमान ने बार-बार सिंहनाद करके कहा- मैं इस खारे समुद्र को खेल में ही लाँघ सकता हूँ।
   रामचरितमानस के सुंदरकाण्ड में वर्णित है -

जामवंत के बचन सुहाए।
सुनि हनुमंत हृदय अति भाए॥
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई।
सहि दुख कंद मूल फल खाई॥

अर्थात् जामवन्त के सुंदर वचन सुनकर हनुमान के हृदय को बहुत ही भाए। वे बोले- हे भाई! तुम लोग दुःख सहकर, कन्द-मूल-फल खाकर तब तक मेरी राह देखना।

जब लगि आवौं सीतहि देखी।
होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी॥
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा।
चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा॥

अर्थात् जब तक मैं सीता को देखकर लौट न आऊँ। काम अवश्य होगा, क्योंकि मुझे बहुत ही हर्ष हो रहा है। यह कहकर और सबको मस्तक नवाकर तथा हृदय में रघुनाथ को धारण करके हनुमान हर्षित होकर चले।

   इस प्रकार जामवन्त द्वारा स्मरण दिलाए जाने पर हनुमान को अपने बल का स्मरण आ गया और वे अपने बल, बुद्धि और तेज के प्रताप से समुद्र लांघ कर लंका जा पहुंचे। वहां लंका दहन कर रावण द्वारा बंदिनी और दुखी सीता का समाचार ले कर वापस लौट आए।

    हनुमान के लौट कर आने पर जामवन्त ने हनुमान की सफलता की गाथा राम को प्रसन्नतापूर्वक सुनाई। रामचरित मानस के सुंदरकाण्ड में ही लेख है कि-

नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी।
सहसहुं मुख न जाइ सो बरनी।।
पवनतनयके चरित्र सुहाए।
जामवंत रघुपतिहि सुनाए।।

अर्थात्  हे नाथ! पवनपुत्र हनुमान ने जो करनी की, उसका हजार मुखों से भी वर्णन नहीं किया जा सकता। जामवंत ने हनुमानजी के सुंदर चरित्र रघुपति राम को सुनाया।

सुनतकृपानिधि मन अति भाए।
पुनि हनुमान हरषि हियं लाए।।

यह सुन कर कृपानिधि राम के मन को बहुत अच्छा लगा। उन्होंने हर्षित होकर हनुमान को फिर हृदय से लगा लिया।

    जामवन्त को परम ज्ञानी और अनुभवी माना जाता था। वाल्मीकि रामायण के युद्धकाण्ड के अनुसार राम-रावण युद्ध के समय जब लक्ष्मण पर प्राणांतक आघात हुआ और वे मूर्छित हो गए, उस समय लक्ष्मण की प्राणरक्षा हेतु जामवन्त ने अपने अनुभवों से हनुमान को हिमालय में प्राप्त होने वाली चार दुर्लभ औषधियों का पता बताया था।

मृत संजीवनी चैव विशल्यकरणीमपि।
सुवर्णकरणीं चैव सन्धानी च महौषधीम्।।

अर्थात् मृतसंजीवनी (पुनर्जीवन देने वाली), विशल्यकरणी (शरीर में घुसे अस्त्र निकालने वाली), सुवर्णकरणी (त्वचा का रंग ठीक रखने वाली) और सन्धानी (घाव भरने वाली) महा औषधियां हैं।
 
      पौराणिक कथाओं के अनुसार जामवन्त सतयुग और त्रेतायुग में तो थे ही, द्वापर में भी उनके होने का वर्णन मिलता है। द्वापर युग में कृष्ण को स्यमंतक मणि के लिए जामवन्त के साथ युद्ध करना पड़ा था। कृष्ण के हाथों अपनी हार सुनिश्चित जान कर जामवन्त ने प्रभु राम को पुकारा था तब कृष्ण को पूर्व के रामस्वरूप में आ कर जामवन्त को अपने कृष्णावतार से परिचित करना पड़ा था।

     जामवन्त की कथा से हमें बताती है कि परिवार और समाज में बड़े- बुज़ुर्ग किसी छायादार वृक्ष के समान होते हैं। उनके अनुभवों से लाभ उठा कर युवा पीढ़ी को अपने जीवन में उनका अनुसरण करना चाहिए। बुज़ुर्गों का मान-सम्मान सदैव उत्तम फलदायक होता है। इनसे हमें हर पल कुछ न कुछ सीखने को मिलता है।
      वर्तमान समय में संयुक्त परिवारों की संख्या लगातार कम होतु जा रही है एवं एकल परिवार बढ़ रहे हैं। संयुक्त परिवारों में दादा-दादी, नाना-नानी के साथ रहकर बच्चे उनके अनुभवों से जीवन जीने की कला सीखते थे। अब बच्चे हर बात जानने के लिए गूगल सर्च करते हैं, जिससे ज्ञान तो प्राप्त हो जाता है किन्तु उस ज्ञान का सही समय में सही उपयोग करने की कला सीखने के लिए गूगल से ज्यादा बड़े-बुज़ुर्गों का अनुभव उपयोगी होता है। इसलिए परिवार में बड़े-बुज़ुर्गों की और उनके अनुभवों की बहुत आवश्यकता होती है।

     और अंत में प्रस्तुत हैं मेरे कुछ दोहे -

मिले बुज़ुर्गों से सदा, नित्य लाभप्रद सीख।
साथ न इनका छोड़िए, बदल जाएं तारीख।।

जामवन्त के बोल से, महाबली हनुमान।
जा कर लंका कर सके, सीता का संधान।।

जिस घर में होता सदा, वृद्धों का सम्मान।
रहता है सुख भी वहां, रहता है धन-मान।।

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Wednesday, March 24, 2021

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 43 | होली, होलिका और प्रहलाद का विश्वास | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय ब्लॉग पाठकों, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज प्रस्तुत है मेरा आलेख -   "होली, होलिका और प्रहलाद का विश्वास"
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दिनांक 24.03.2021

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बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

होली, होलिका और प्रहलाद का विश्वास

     - डॉ. वर्षा सिंह

    एक घना जंगल था जिसमें बरगद का एक वृक्ष था। उस वृक्ष में अनेक शाखाएं थीं, जिनमें तरह-तरह के पक्षी अपना घोंसला बनाकर रहते थे। उन घोंसलों में एक घोंसला किसी नन्हीं चिड़िया का भी था। एक बार उस नन्ही चिड़िया ने अपने घोंसले में कुछ अंडे दिए। समय आने पर उन अंडों में से चिड़िया के नन्हे-नन्हे चूजे पैदा हो गए। अपने उन चूजों की भूख मिटाने के लिए खाना लाने जब चिड़िया घोंसले से उड़ कर बाहर जाने लगी तो बरगद ने उससे कहा कि अरे नन्हीं चिड़िया ! तुम अभी अपने घोंसले से कहीं दूर मत जाओ क्योंकि मैंने देखा है मेरी जड़ों में एक सर्प ने अपना बिल बना लिया है। तुम्हें दूर जाता देख कर वह सर्प यहां तुम्हारे घोंसले में चढ़ आएगा और वह तुम्हारे नन्हें-नन्हें चूजों को खा जाएगा। बरगद की बात सुनकर चिड़िया कुछ समय के लिए असमंजस में पड़ गई। उसने सोचा कि यदि वह खाना लाने घोंसले से दूर नहीं जाएगी तो उसके चूजे भूख से मर जाएंगे। और यदि वह खाना लाने घोंसले से दूर गई तो वह सर्प अपने बिल से बाहर आकर, घोंसले में पहुंचकर उसके चूजों को खा डालेगा।
  कुछ देर असमंजस की स्थिति में रहकर सोच विचार करने के बाद उस चिड़िया ने घोंसले से दूर चूजों के लिए खाना लाने का फैसला किया बरगद ने उससे पूछा कि तुम ने मेरी बात नहीं सुनी क्या? जो तुम घोंसले से दूर जा रही हो। तब चिड़िया ने बरगद को उत्तर दिया - "हे वृक्षराज ! मैं अपने घोंसले और घोंसले में स्थित चूजों की रक्षा करने हेतु ईश्वर को दायित्व सौंपकर चूजों के लिए खाना लाने यहां से दूर जा रही हूं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि ईश्वर मेरे घोंसले और मेरे नन्हे चूजों की रक्षा करेंगे।"
   " तो क्या तुम ईश्वर के भरोसे अपने बच्चों को छोड़कर उनसे दूर जा रही हो ?"- बरगद ने फिर से चिड़िया से पूछा। तब चिड़िया ने जवाब दिया - "हां, मुझे ईश्वर पर पूर्ण विश्वास है। मैं ईश्वर के भरोसे चूजों को छोड़कर जा रही हूं। … और फिर वह अपने पंख फैलाकर घोंसले से उड़ गई।
   बरगद की जड़ों में अपना बिल बनाकर रहने वाला सर्प ऐसे ही समय की ताक में बैठा हुआ था। जैसे ही वह चिड़िया घोंसले से दूर उड़ कर गई, सर्प धीरे-धीरे पेड़ पर ऊपर की ओर चढ़ने लगा चढ़ता-चढ़ता वह घोंसले के करीब जाने लगा तब बरगद ने सोचा कि चिड़िया अपने बच्चों को ईश्वर के सहारे छोड़ कर चली गई है लेकिन ईश्वर सर्प से चिड़िया के बच्चों की रक्षा भला कैसे करेंगे? बरगद यही सोच रहा था कि सर्प घोंसले के एकदम करीब पहुंच गया । सर्प  को घोंसले के समीप आया जानकर चिड़िया के बच्चे जोर-जोर से चहचहाने लगे, मानो वे मदद के लिए किसी को पुकार रहे हों। तब तक सर्प बच्चों के और करीब आ गया और जैसे ही उसने एक चूजे को अपने मुंह में उठाने का प्रयास किया, अचानक एक चमत्कार हो गया। दूर कहीं से एक चील आसमान पर से उड़ती हुई आई और उसने बरगद की डालियों पर घोंसले तक पहुंच चुके सर्प को एक झटके से उठा लिया और वह दूर उड़ गई। चील का आहार सर्प होता है वह अपने आहार को लेकर दूर अपने घोंसले की ओर चली गई। 
    बरगद भौंचक्का रह गया। उसने तो यह समझ लिया था कि नन्हीं चिड़िया के चूजों का बचना संभव नहीं है। सर्प उन्हें हर हाल में मारकर खा जाएगा, किंतु इस चमत्कार के बाद वास्तव में अब उसे विश्वास हो गया कि चील के रूप में ईश्वर ने नन्हीं चिड़िया के उन बच्चों की रक्षा की है। नन्हीं चिड़िया का विश्वास टूटने नहीं पाया है।
     थोड़ी देर बाद खाना लेकर जब नन्हीं चिड़िया अपने घोंसले पर आई तो बरगद ने उसे पूरी बात बताई और ईश्वर के प्रति उसके दृढ़ विश्वास की सराहना की।
    तो यह कहानी थी नन्हीं चिड़िया और ईश्वर के प्रति उसके विश्वास की।
   एक ऐसी ही कथा है भक्त प्रहलाद की।
पौराणिक ग्रंथों के अनुसार, सतयुग में ऋषि कश्यप और दिति की असुर संतान हिरण्यकश्यप नामक असुरों के राजा का पुत्र प्रहलाद ईश्वरीय शक्ति के प्रतीक श्रीहरि विष्णु का अनन्य भक्त था। उसकी इस भक्ति से उसका असुर पिता हिरण्यकश्यप अप्रसन्न रहता था। हिरण्यकश्यप ने अपने पुत्र का मन ईश्वर की भक्ति से हटाने के लिए अनेक प्रयास किए, किन्तु भक्त प्रहलाद ने ईश्वर की भक्ति का त्याग नहीं किया। अंतोगत्वा हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका से इस संबंध में सुझाव लिया। होलिका ने उसे समझाया कि जबतक प्रहलाद जीवित रहेगा, उसकी अंतिम सांस भी ईश्वर की भक्ति में लीन रहेगी। होलिका को यह वरदान प्राप्त था कि वह आग में नहीं जलेगी। इस वरदान का लाभ उठाते हुए होलिका ने प्रहलाद को अपनी गोद में उठा कर अग्नि में प्रवेश किया। ईश्वर कृपा से प्रहलाद बच गया और होलिका जल गई। दरअसल होलिका को यह वरदान था कि जब वह अकेली आग में प्रवेश करेगी तो वह नहीं जलेगी और यदि किसी और को साथ में लेकर आग में प्रविष्ट हुई तो वरदान निष्फल हो जाएगा। चूंकि, उस दिन वह प्रहलाद के साथ अग्नि में जा बैठी थी इसलिए वह जल गई और आग में बैठने वाले भक्त प्रहलाद को श्रीहरि विष्णु ने बचा लिया। ईश्वर की कृपा से उसका बाल बीका नहीं हुआ। ईश्वर की कृपा से होलिका जलकर भस्म हो गई और भक्त प्रहलाद आग से सुरक्षित बाहर निकल आया…. और तभी से होली पर्व को मनाने की प्रथा आरम्भ हुई। फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी से लेकर पूर्णिमा ​तिथि तक होलाष्टक माना जाता है। इस दौरान भगवान नरसिंह और बजरंगबली देव हनुमान की पूजा का भी महत्व है। होलाष्टक होली दहन से पहले के 8 दिनों को कहा जाता है। इस बार 22 मार्च 2021 से आरम्भ हो चुका होलाष्टक 28 मार्च 2021 तक रहेगा। होलिका दहन 28 मार्च को किया जाएगा और इसके बाद अगले दिन 29 मार्च को घुरेड़ी होगी यानी रंगों वाली होली खेली जाएगी।

     होलिका के जल जाने के बाद हिरण्यकश्यप ने प्रहलाद को मारने के लिए उसे एक खंभे से बांध दिया। हिरण्यकश्यप को वरदान था कि वह न तो दिन में मरेगा या रात में, न अस्त्र से मरेगा न शस्त्र से, न मनुष्य से मरेगा, न पशु से, न घर के भीतर मरेगा और न बाहर। ऐसी विचित्र और कठिन शर्तों के साथ मिला वरदान उसके लिए अभिशाप बन गया, क्योंकि वरदान के साथ उसने भगवान से विवेक नहीं मांगा। इसलिए श्रीहरि विष्णु ने युक्तिपूर्वक हिरण्यकश्यप का वध कर प्रहलाद की रक्षा करने हेतु मानव और सिंह का मिलाजुला रूप धारण कर नरसिंह अवतार में दिन और रात के बीच के समय संध्याकाल में खंभे से प्रकट हो कर हिरण्यकश्यप को अपनी गोद में उठा कर अपने नखों से उसका शरीर फाड़ कर वध कर दिया।
    
कोई भी प्रलोभन एवं बाधा प्रहलाद को भक्ति-मार्ग से विचलित नहीं कर पाई। मुश्किल से मुश्किल घड़ी में भी भक्त घबराता नहीं, धैर्य नहीं छोड़ता, क्योंकि भक्त चिंता नहीं बल्कि चिन्तन करता है। जो ईश्वर का चिन्तन करता है वह स्वतः ही चिंता से मुक्त हो जाता है। अनन्य भाव अर्थात ईश्वर से विशुद्ध प्रेम के संदर्भ में तुलसीदास ने रामचरित मानस के उत्तरकाण्ड में कहा है -

जानें बिनु न होइ परतीती। 
बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती॥
प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई। 
जिमि खगपति जल कै चिकनाई॥

अर्थात् हे पक्षीराज! प्रभुता जाने बिना उन पर विश्वास नहीं जमता, विश्वास के बिना प्रीति नहीं होती और प्रीति बिना भक्ति वैसे ही दृढ़ नहीं होती जैसे जल की चिकनाई ठहरती नहीं। अर्थात प्रेम की सबसे पहली शर्त है, उस ईश्वर को जानना, अंतर्घट में उस परब्रह्म परमेश्वर का प्रत्यक्ष होना है। हमें भी प्रहलाद के समान ईश्वर पर विश्वास रखकर उनकी आराधना करनी चाहिए। भक्ति में बड़ी शक्ति होती है।
 
    रामचरित मानस के बालकाण्ड में असुरराज हिरण्यकश्यप और उसके ईश्वर भक्त पुत्र प्रहलाद की कथा का वर्णन इस प्रकार है -

जनम एक दुइ कहउँ बखानी। 
सावधान सुनु सुमति भवानी॥
द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ। 
जय अरु बिजय जान सब कोऊ॥
अर्थात् आदिदेव शिव देवी पार्वती से कहते हैं कि हे सुंदर बुद्धि वाली भवानी! मैं उनके दो-एक जन्मों का विस्तार से वर्णन करता हूं, तुम सावधान होकर सुनो। श्रीहरि के जय और विजय दो प्रिय द्वारपाल हैं, जिनको सब कोई जानते हैं।

बिप्र श्राप तें दूनउ भाई। 
तामस असुर देह तिन्ह पाई॥
कनककसिपु अरु हाटकलोचन। 
जगत बिदित सुरपति मद मोचन।।
अर्थात् उन दोनों भाइयों ने ब्राह्मण सनकादि के शाप से असुरों का तामसी शरीर पाया। एक का नाम था हिरण्यकश्यप और दूसरे का हिरण्याक्ष। ये देवराज इन्द्र के गर्व को छुड़ाने वाले सारे जगत में प्रसिद्ध हुए।

बिजई समर बीर बिख्याता। 
धरि बराह बपु एक निपाता॥
होइ नरहरि दूसर पुनि मारा। 
जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा॥
अर्थात् वे युद्ध में विजय पाने वाले विख्यात वीर थे। इनमें से एक भाई हिरण्याक्ष को भगवान ने वराह अर्थात् सूअर का शरीर धारण करके मारा, फिर दूसरे भाई हिरण्यकश्यप का नरसिंह रूप धारण करके वध किया और अपने भक्त प्रहलाद की रक्षा कर उसका सुंदर यश फैलाया।

भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान।
कुंभकरन रावन सुभट सुर बिजई जग जान॥
अर्थात् बाद में अगले जन्म में वे ही दोनों भाई देवताओं को जीतने वाले रावण और कुम्भकर्ण नामक बड़े बलवान और महावीर राक्षस हुए, जिन्हें सारा जगत जानता है।

मुकुत न भए हते भगवाना। 
तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना॥
एक बार तिन्ह के हित लागी। 
धरेउ सरीर भगत अनुरागी॥
अर्थात् भगवान के द्वारा मारे जाने पर भी वे दोनों भाई हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप इसीलिए मुक्त नहीं हुए कि ब्राह्मण के वचनों का शाप तीन जन्मों के लिए था। अतः एक बार फिर उनके कल्याण के लिए भक्तप्रेमी भगवान श्रीहरि विष्णु ने फिर राम के रूप में अवतार लिया।

कस्यप अदिति तहाँ पितु माता। 
दसरथ कौसल्या बिख्याता॥
एक कलप एहि बिधि अवतारा। 
चरित पवित्र किए संसारा॥
अर्थात् वहां श्रीहरि विष्णु के उस अवतार में कश्यप और अदिति उनके माता-पिता हुए, जो दशरथ और कौशल्या के नाम से प्रसिद्ध थे। त्रेतायुग के एक कल्प में इस प्रकार अवतार लेकर उन्होंने संसार में पवित्र लीलाएँ कीं।

एक अन्य कथा के अनुसार, हिमालय पुत्री पार्वती चाहती थीं कि उनका विवाह भगवान शिव से हो जाये किन्तु आदिदेव शिव अपनी तपस्या में लीन थे। देवताओं के निवेदन पर कामदेव देवी पार्वती की सहायता के लिए आये। उन्होंने प्रेम बाण चलाया और आदिदेव शिव की तपस्या भंग हो गयी।  शिव को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने अपनी तीसरी आंख खोल दी।  उनके क्रोध की ज्वाला में कामदेव का शरीर भस्म हो गया। फिर शिव ने देवी पार्वती को देखा। पार्वती की आराधना सफल हुई और शिव ने उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया। इस प्रकार होली की आग में वासनात्मक आकर्षण को प्रतीकत्मक रूप से जला कर सच्चे प्रेम की विजय का उत्सव मनाया जाता है।
  होली के रंगों में प्रेम, भक्ति और विश्वास समाहित रहता है। इसलिए इस पर्व को मन के सारे द्वेष, सारे मतभेद और सारी कलुषता को मिटा कर सद्भावना और भाईचारे के साथ उल्लास और उत्साह से मनाना चाहिए। साथ ही यह नहीं भूलना चाहिए कि जलरंगों के स्थान पर सूखी गुलाल वाली होली खेलना जलसंरक्षण हेतु आवश्यक है।
  इस वर्ष कोरोना संक्रमण को ध्यान में रखते हुए शासन द्वारा होली सार्वजनिक रूप से न मानने के लिए लोगों से अपील की गई है। 

और अंत में मेरे कुछ दोहे -

सूखी होली खेलना, पानी है अनमोल ।
व्यर्थ गंवाना ना इसे, समझो जल का मोल।।

दादी- नानी की कथा, अब सुनता है कौन !
क्यों जलती है होलिका ? बच्चे हैं सब मौन ।। 

माथे पर टीका लगे, गालों लाल गुलाल।
होंठों पर मुस्कान हो,मन का मिटे मलाल।। 

‘‘वर्षा’’ हो सद्भाव की, बहे ख़ुशी की धार।
तभी सार्थक हो सके, होली का त्यौहार।। 

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Wednesday, March 17, 2021

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 42 | सुखी परिवार यानी 'कवन सो काज कठिन जग माहीं' का स्वावलंबन सूत्र | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय ब्लॉग पाठकों, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज प्रस्तुत है मेरा आलेख -   "सुखी परिवार यानी 'कवन सो काज कठिन जग माहीं' का स्वावलंबन सूत्र"
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 17.03.2021

मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं-

बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा


सुखी परिवार यानी 'कवन सो काज कठिन जग माहीं' का स्वावलंबन सूत्र


- डॉ. वर्षा सिंह


मेरी एक महिला मित्र की पुत्री का विवाह आगामी मई के प्रथम सप्ताह में होने जा रहा है। मेरी वह महिला मित्र इन दिनों अत्यधिक चिंतित रहती है। एक चिंता तो यह है कि योरोपीय देशों में कोरोना  का तीसरा स्ट्रेन शुरू हो चुका है तो कहीं शादी के समय दूल्हे को भारत आने में कठिनाई न हो, कहीं शादी की तिथि आगे न बढ़ानी पड़े। इससे भी अधिक चिंता उन्हें इस बात की है कि उनकी बेटी विदेश में कैसे मैनेज करेगी। दरअसल बात यह है कि उसने अपनी पुत्री को अत्यधिक लाड़-प्यार में पाला है। घर का कोई भी काम उससे कभी नहीं कराया है। यहां तक कि उसे स्वयं गिलास उठाकर पानी भी नहीं पीने दिया है। अब वह इस बात को सोच-सोच कर चिंतित होने लगी है कि धनाढ्य परिवारों में  ब्याही जाने के कारण ससुराल जाने पर उसकी वह लाड़ली वहां तो नौकर-चाकर होने के कारण मज़े से रह लेगी लेकिन विदेश में बसे पति के साथ विदेश जाने पर वहां नौकर या कामवाली बाई के अभाव में किस प्रकार निर्वाह कर पाएगी। विदेशों में कामवाली बाई रखने की प्रथा नहीं है। सभी को अपने कार्य स्वयं ही करने पड़ते हैं। मेरी उस महिला मित्र ने अपनी पुत्री को उच्च शिक्षा तो दिलवाई, लेकिन गृह कार्यों से उसे सर्वथा दूर रखा... और अब उसकी यह चिंता वाज़िब है कि उसकी पुत्री गृह कार्य जानने के अभाव में विदेश में अपने पति के साथ अकेली रह कर किस प्रकार अपने कार्यों को पूरा कर पाएगी। 

     बहरहाल, मेरे विचार से हमें अपने बच्चों को डिग्री-डिप्लोमा की पढ़ाई वाली शिक्षा के साथ ही इस प्रकार की भी शिक्षा देनी चाहिए कि वह अपने कार्य स्वयं करें। पठन-पाठन के अलावा उनमें अपने कार्यों को स्वयं करने की क्षमता का विकास करने के भी संस्कार देने चाहिए। अभी कोरोनावायरस के दौरान यह बात प्रमाणित हो गई कि जिन घरों में पति और पत्नी दोनों ने मिलकर घर के कामों को किया उन घरों में शांति और सौहार्द का वातावरण बना रहा। वहीं, जिन घरों में पत्नी अकेले काम करती रही और पति घर में रहते हुए सिर्फ आदेश देते रहे वहां पारिवारिक तनाव बढ़ता चला गया। इसीलिए परिवार में पति और पत्नी और यहां तक के बच्चों को भी घर के कामों में समान रूप से सहयोग देना चाहिए। इससे किसी एक सदस्य पर भार नहीं पड़ता है तो वह झुंझलाता भी नहीं है, लड़ाई-झगड़े भी नहीं होते हैं और सभी मिलजुल कर बड़ी से बड़ी आपदा को हंसते-हंसते झेल जाते हैं।

      प्राचीन भारतीय ग्रंथों-शास्त्रों में भी स्वयं अपनी सहायता एवं रक्षा करने संबंधी अनेक प्रसंग दिए गए हैं। अनेक श्लोक योग और कर्म के आपसी सामंजस्य की व्याख्या करते हैं। एक श्लोक का अंश है- "योगक्षेमं वहाम्यहम्"  … श्रीमद्भगवद्गीता के नौवें अध्याय के इस बाईसवें श्लोक का एक अर्थ यह भी है कि सफलता के लिए आवश्यक है कि हम अपने चित्त को एकाग्र कर, अपना लक्ष्य निश्चित कर उसकी पूर्ति के लिए उत्साह, संयम, सतत स्फूर्ति एवं सामर्थ्य से निरंतर कर्म करते रहेंगे तो सफलता स्वयं चल कर हमारे पास आयेगी। अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति का तात्पर्य योग है और प्राप्त वस्तु की रक्षा का तात्पर्य क्षेम है। योगक्षेम का अर्थ है अभाव की पूर्ति करना तथा प्राप्त वस्तु की रक्षा करना। ईश्वर ने हमें मानव जीवन दिया है, उसकी रक्षा करना हमारा उत्तरदायित्व है। बात-बात में ईश्वर को मदद के लिए पुकारना ठीक वैसा ही है जैसे हर कार्य में मदद के लिए माता-पिता का मुंह ताकना। स्वयं के पुरुषार्थ से किए गए कार्य में यदि असफलता भी मिले तो पीछे नहीं हटना चाहिए और न ही शोक मनाना चाहिए। बल्कि यह सोच कर इस बात का संतोष रखना चाहिए के बिना किसी की मदद लिए स्वयं इस कार्य को करने का प्रयास किया स्वयं प्रयास करना भी एक प्रकार का योग है। जो व्यक्ति स्वयं अपनी रक्षा करने का प्रयास करते हैं ईश्वर भी उनकी रक्षा करता है।

"हिम्मत ए मर्दा, मदद ए खुदा" उर्दू की इस कहावत का भी अर्थ यही है कि यदि इंसान खुद हिम्मत रखता है, खुदा उसकी मदद करता है यानी जो किसी काम को करने के लिए प्रयत्न करता है भगवान भी उसकी सहायता करते हैं।


बचपन में एक कथा, मेरे नाना जी अक्सर हमें सुनाया करते थे। वह कथा लगभग इस प्रकार थी। एक समय कभी किसी गांव के मुखिया का सबसे छोटा पुत्र जिसका नाम सुंदर था, वह अत्यंत आलसी और कामचोर किस्म का था। हर बात में वह मदद के लिए किसी न किसी को पुकारने लगता था। यहां तक कि यदि उसे बहुत प्यास लगी हो तब भी वह स्वयं पानी न पीकर, पानी पिलाने के लिए किसी को पुकारने लगता था कि 'मुझे प्यास लगी है कोई मुझे पानी पिला दो।' अपने कपड़े पहनने और उतारने के लिए भी वह अपनी मां, भाई-बहन या घर में काम कर रहे अनुचर की ओर ताकता था। तात्पर्य यह कि वह अपने आलस्यवश कोई भी काम स्वयं नहीं करता था। एक दिन की बात है वह और उसके भाई एक दूसरे गांव निमंत्रण पर गए। वहां किसी बात की थी छोटी सी बात पर विवाद हो जाने के कारण सुंदर गुस्से में अपने गांव की ओर वापस लौट पड़ा। बड़े भाइयों ने उसे समझाने का प्रयास किया। उसे साथ चलने के लिए रोकने का प्रयास किया। लेकिन गुस्से में वह बड़े भाइयों की बात सुने बगैर अकेला ही अपने गांव की ओर निकल पड़ा। हालांकि दोनों गांव के बीच की दूरी बहुत कम थी लेकिन  दोनों के बीच में जंगल पड़ता था। चलते-चलते अंधेरा घिर आया। रास्ते में जंगली जानवरों की आवाज सुनकर सुंदर घबरा गया। डर के कारण वह आगे न बढ़कर वहीं रास्ते में एक पेड़ के नीचे खड़ा हो गया। तभी अचानक उसे शेर के दहाड़ने की आवाज़ सुनाई थी। शेर की आवाज़ सुनकर सुंदर ज़ोर-ज़ोर से मदद के लिए पिता, मां, बहन, भाइयों, अनुचरों आदि को पुकारने लगा। वह कुछ और ज़्यादा डरा तो ईश्वर से मदद के लिए गुहार लगाने लगा। किंतु रक्षा के लिए किसी को नहीं आता देख कर वह थरथर कांपने लगा। तभी उसे यह समझ में आया कि शेर की वह दहाड़ उसके निकट आती जा रही है। शेर को अपने क़रीब आता जान कर सुंदर की समझ में नहीं आया कि वह क्या करें। वहां मदद के लिए न कोई आया और न किसी के आने की संभावना ही थी। तब सुंदर ने स्वविवेक से यह विचार किया कि उसे अपनी रक्षा के लिए स्वयं ही कोई उपाय करना पड़ेगा वरना यदि शेर और अधिक निकट आया तो निश्चय ही वह उसे मारकर खा जाएगा। तब उसने सोचा कि यदि जिस पेड़ के नीचे वह खड़ा हुआ है उस पर वह चढ़ जाए तो फिर शेर उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा।

   सुंदर को पेड़ पर चढ़ना नहीं आता था किंतु शेर द्वारा खाए जाने के डर से और अपनी जान बचाने की चिंता से आनन-फानन वह पेड़ में चढ़ने का प्रयास करने लगा। नीचे की कुछ डालियों को पकड़ता हुआ वह येन केन प्रकारेण, पेड़ पर चढ़ने लगा। चढ़ते-चढ़ते वह काफी ऊंचाई पर पहुंच गया और वहां पहुंच कर एक मजबूत सी शाखा को पकड़कर  निश्चिंत भाव से बैठ गया।

   तब तक शेर पेड़ के निकट आ चुका था। शेर को मनुष्य की गंध लग चुकी थी। वह दहाड़ते हुए पेड़ के ऊपर की ओर सुंदर की ओर देखने लगा। सुंदर ने पेड़ की शाखा को मजबूती से पकड़ रखा था। शेर काफी देर तक वहां घूमता रहा फिर किसी अन्य जानवर की आहट पाकर शिकार के लिए वह वहां पर से दूर चला गया। शेर के जाने के बाद भी सुंदर पेड़ पर ही बैठा रहा।

    सुंदर के भाई वहीं उस दूसरे गांव में रात्रि विश्राम के लिए रुक गए थे। दूसरे दिन सुबह होने पर वे अपने गांव की ओर वापस लौटे। उन्होंने यही सोचा था कि सुंदर शाम को ही अपने घर पहुंच चुका होगा। उधर रात को पेड़ पर चढ़कर बैठे हुए सुंदर की आंख लग गई थी। वह पेड़ पर ही डालियों के बीच पैर डाल कर सो गया था। सुबह होते ही जब उसकी नींद खुली और उसे रात की समूची घटना याद आई तो वह घबरा कर रोने लगा। तभी अपने गांव की ओर लौटते हुए, उस पेड़ के पास से गुजरते हुए सुंदर के भाइयों ने जब सुंदर के रोने की आवाज़ सुनी तो वे आवाज़ की दिशा में ऊपर देखने लगे। वहां पेड़ पर बैठे सुंदर को देखकर वे आश्चर्यचकित रह गए। वे तो यही समझ रहे थे कि सुंदर तो अपने घर पहुंच गया होगा लेकिन वह तो यहां पेड़ के ऊपर बैठा हुआ रो रहा है।

   सुंदर के भाइयों ने सुंदर को आवाज़ लगाई और उसे नीचे उतर आने के लिए कहा। लेकिन सुंदर पेड़ से नीचे उतरने का प्रयास कर ही नहीं पा रहा था। वह अपने भाइयों से कहने लगा कि मुझे नीचे उतारो। मुझसे पेड़ से नीचे उतरते नहीं बन रहा है। यह सुन कर सुंदर के सबसे बड़े भाई ने सुंदर से पूछा कि तुमसे तो पेड़ पर चढ़ते भी नहीं बनता था,  तब भला तुम पेड़ के ऊपर कैसे चढ़ गए? बड़े भाई की बात सुनकर सुंदर ने उन्हें पूरी घटना सुनाई कि किस तरह शेर के आने पर जब मदद के लिए पुकारने पर कोई नहीं आया तो वह स्वयं ही प्रयास कर पेड़ पर चढ़ गया। सुंदर की यह बात सुनकर बड़े भाई ने उससे कहा कि जिस तरह तुम अपनी स्वयं की हिम्मत से पेड़ के ऊपर चढ़ गए और तुमने अपने जीवन की रक्षा की, उसी प्रकार अब तुम प्रयास करो और पेड़ पर से नीचे यहां जमीन पर उतर आओ। तब सुंदर ने कहा कि लेकिन अब तो आप मेरी मदद के लिए हैं। मैं स्वयं प्रयास क्यों करूं। यह सुनकर बड़े भाई को हंसी आ गई। वह हंसकर कहने लगे कि तो ठीक है, लो हम लोग जा रहे हैं। अब तुम स्वयं प्रयास कर नीचे आ जाना। 

    बड़े भाई की बात सुनकर सुंदर समझ गया कि उसे स्वयं ही नीचे उतरने का प्रयास करना पड़ेगा। थोड़ी देर प्रयास करने पर वह धीरे-धीरे डालियों को पकड़ता हुआ नीचे जमीन पर आ गया। उसके बड़े भाई ने उससे कहा कि क्यों ! तुमने देखा न ! तुमने हिम्मत की तो तुम पहले पेड़ पर स्वयं ही चढ़ गए और फिर तुमने हिम्मत की तो तुम स्वयं ही पेड़ से नीचे उतर आए। इस प्रकार तुमने अपनी सहायता स्वयं की है। मेरे प्रिय छोटे भाई सुंदर ! यह जान लो कि जो व्यक्ति स्वयं अपनी सहायता करते हैं ईश्वर उनकी मदद करता है। तो अब तुम ईश्वर को धन्यवाद दो कि उसने तुम्हें हिम्मत दी और इस प्रकार तुम्हारी सहायता की। बड़े भाई की बातें सुनकर सुंदर की आंखें खुल गईं और उसने निश्चय कर लिया कि अब वह अपने छोटे-बड़े किसी भी काम के लिए किसी अन्य को सहायता के लिए नहीं पुकारेगा बल्कि अपने सभी काम वह स्वयं करेगा। साथ ही वह संकट में फंसे हुए दूसरे व्यक्तियों की मदद करने का भी प्रयास करेगा।

    अनेक ऐसे दृष्टान्त हैं कि संकट आने पर सुंदर की भांति अन्य व्यक्ति भी किसी न किसी तरह अपना काम स्वयं कर अपने जीवन की रक्षा करने का प्रयास करते हैं। किंतु यदि पहले से ही वे इस प्रकार के संस्कारों से संस्कारित हों कि संकट की स्थिति के बजाय सामान्य परिस्थितियों में भी अपना काम स्वयं करें, अपनी रक्षा के उपाय स्वयं करें तो निश्चित रूप से जीवन में उन्हें कभी असफलता का सामना नहीं करना पड़ेगा और न ही छोटी-छोटी बातों के लिए ईश्वर से गुहार लगा कर अपने कार्यों के लिए दूसरों का मुंह ताकना पड़ेगा।

    प्रसंगवश मैं यहां चर्चा करना चाहूंगी स्‍वयंसहायता समूहों की। वर्तमान में स्‍वयंसहायता समूहों के माध्यम से निम्न, निम्न मध्यम एवं मध्यम वर्गीय महिलाएं गरीबी निवारण और महिला सशक्तिकरण के  लक्ष्‍यों को पूरा करने में अपनी बहुत महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इस प्रकार वे सकारात्मक ऊर्जा और दृढ़ इच्छाशक्ति से न केवल अपने घरों या परिवारों की स्थिति सुधार रही हैं, बल्कि राष्ट्र की प्रगति और विकास में भी योगदान दे रही हैं। देश की प्रगति और विकास के लिए महिलाओं और पुरुषों का साथ मिलकर काम करना महत्वपूर्ण है और ऐसे समूह अपने क्षेत्र के नागरिकों, विशेष रूप से महिलाओं के जीवन में सुधार लाने और उन्हें आर्थिक रूप से आत्‍मनिर्भर बनाने के लिए समर्पित रूप से काम कर रहे हैं। शासन से मिलने वाले ऋण से शुरू किए गए समेकित कार्योँ से इन समूहों में महिलाएं अपने कमाए धन से घर चलाती हैं, और भविष्य के लिए बचत भी करती हैं जो अपने आप में एक उल्लेखनीय उपलब्धि है।

    रामकथा में भी इस प्रकार के अनेक प्रसंग मिलते हैं। रामचरितमानस में तुलसीदास ने सुंदरकांड की इस चौपाई में राम-लक्ष्मण संवाद में लक्ष्मण द्वारा कहलवाया है कि - 


कादर मन कहुँ एक अधारा। 

दैव दैव आलसी पुकारा।।

अर्थात् देवता-देवता आलसी और शक्तिहीन पुकारते हैं। जो स्वयं अपने भरोसे पर काम करते हैं ईश्वर स्वयं उसकी सहायता करता है।


वहीं किष्किंधा काण्ड में अगद, जामवंत और हनुमान का सम्वाद देखें -


अंगद कहइ जाउँ मैं पारा। 

जियँ संसय कछु फिरती बारा॥

जामवंत कह तुम्ह सब लायक। 

पठइअ किमि सबही कर नायक॥

अर्थात् अंगद ने कहा- मैं पार तो चला जाऊंगा, परंतु लौटते समय के लिए हृदय में कुछ संदेह है। जाम्बवान् ने कहा- तुम सब प्रकार से योग्य हो, परंतु तुम सबके नेता हो, तुम्हे कैसे भेजा जाए?


कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। 

का चुप साधि रहेहु बलवाना॥

पवन तनय बल पवन समाना। 

बुधि बिबेक बिग्यान निधाना॥

अर्थात् ऋक्षराज (रीछों के राजा) जाम्बवान् ने हनुमान से कहा- हे हनुमान्! हे बलवान्! सुनो, तुमने यह क्या चुप साध रखी है? तुम पवन के पुत्र हो और बल में पवन के समान हो। तुम बुद्धि-विवेक और विज्ञान की खान हो।


कवन सो काज कठिन जग माहीं। 

जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं॥

राम काज लगि तव अवतारा। 

सुनतहिं भयउ पर्बताकारा॥

अर्थात् जगत् में कौन सा ऐसा कठिन काम है जो हे तात! तुमसे न हो सके। राम के कार्य के लिए ही तो तुम्हारा अवतार हुआ है। यह सुनते ही हनुमान पर्वत के आकार के अत्यंत विशालकाय हो गए।


कनक बरन तन तेज बिराजा। 

मानहुँ अपर गिरिन्ह कर राजा॥

सिंहनाद करि बारहिं बारा। 

लीलहिं नाघउँ जलनिधि खारा॥

अर्थात् उनका सोने का सा रंग है, शरीर पर तेज सुशोभित है, मानो दूसरा पर्वतों का राजा सुमेरु हो। हनुमान ने बार-बार सिंहनाद करके कहा- मैं इस खारे समुद्र को खेल में ही लाँघ सकता हूँ।

  …. और इस तरह अपनी क्षमताओं का स्मरण करने पर महाबली हनुमान ने समुद्र को पार कर लंका पहुंच कर सीता का समाचार प्राप्त किया फिर वापस लौट कर वह समाचार राम को ला कर दिया। इस प्रकार हनुमान ने सम्पूर्ण जगत के उद्धारक, समस्त प्रणियों के सहायक राम की सहायता की।

      प्रत्येक व्यक्ति में कुछ न कुछ क्षमता होती ही है, लेकिन उसका उसे भान नहीं होता। बालकथा का सुंदर पेड़ पर चढ़ने की क्षमता तो रखता था किन्तु कभी उसे इस कार्य को करने की प्रेरणा नहीं मिली थी। आरामदायक जीवनशैली ने उसे आलसी बना दिया था। संकट की घड़ी आने पर उसकी उस क्षमता ने  अनजाने में ही उसके जीवन की रक्षा की। इसी प्रकार मेरी महिला मित्र की उच्च शिक्षा प्राप्त पुत्री में भी गृह कार्य करने की क्षमता तो थी किंतु उससे कभी वह कार्य नहीं कराए जाने के कारण आज मेरी महिला मित्र इस उधेड़बुन में लगी हुई चिंताग्रस्त रहती है कि विवाह के बाद  विदेश में बसने जाने वाली उनकी पुत्री अपने घर की देखभाल कैसे संपादित कर पाएगी।

    इसीलिए ज़रूरी है कि व्यक्ति को उसकी क्षमताओं का भान रहे। वह अपने कार्यों को भलीभांति सम्पादित कर अपनी रक्षा के बारे में. सचेत रह कर सुगमतापूर्वक अपना जीवन यापन करे।

और अंत में प्रस्तुत हैं मेरे कुछ दोहे -


खुद में ही विकसित करें, निज क्षमता की धूप।

स्वावलंब को  साध  कर, जीवन  को  दें  रूप।।


कर्म   बढ़ाता    मान  है,  कर्म  बढ़ाता   ज्ञान।

कर्मवान पाता  सदा, हर  पग  में    सम्मान।।


घर  के  कामों  में  सभी,  रोज   बंटाएं  हाथ।

'वर्षा'   संकट  हो   भले,  बना   रहेगा  साथ।।


                 --------------------



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Wednesday, March 10, 2021

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 41 | सुखद दाम्पत्य जीवन और रामकथा में महाशिवरात्रि | डॉ. वर्षा सिंह



प्रिय मित्रों, "विचार वर्षा"... मेरे इस कॉलम में आज प्रस्तुत है मेरा आलेख - "सुखद दाम्पत्य जीवन और रामकथा में महाशिवरात्रि" हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏 दिनांक 10.03.2021 मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं- https://yuvapravartak.com/?p=49629#more-49629


बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा


सुखद दाम्पत्य जीवन और रामकथा में महाशिवरात्रि


                   - डॉ. वर्षा सिंह


    भारतीय पंचांग के अनुसार प्रत्येक चंद्र मास के कृष्ण पक्ष का चौदहवां दिन अर्थात् अमावस्या से पूर्व चतुर्दशी का दिन शिवरात्रि के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार एक वर्ष में 12 शिवरात्रि पर्व एवं व्रत होते हैं किन्तु फाल्‍गुन कृष्‍ण पक्ष की चतुर्दशी को पड़ने वाली शिवरात्रि का विशेष महत्‍व है। यह शिवरात्रि महाशिवरात्रि के नाम से जानी जाती है। मान्‍यता है कि इसी दिन आदि शक्ति देवी पार्वती और आदि देव शिव का विवाह हुआ था। इसीलिये इस दिन का विशेष महत्‍व है। इस वर्ष 2021 में यह महाशिवरात्रि पर्व 11 मार्च, बृहस्पतिवार को अर्थात् कल मनाया जाएगा।

     भौगोलिक एवं यौगिक दृष्टि से देखें तो प्रत्येक वर्ष फरवरी-मार्च माह में पृथ्वी का उत्तरी गोलार्द्ध इस प्रकार अवस्थित होता है। जिसक परिणामस्वरूप प्राकृतिक रूप से मनुष्य के भीतर ऊर्जा का संचार ऊपर की ओर होता है। इस प्रकार प्रकृति परोक्ष रूप से मनुष्य को उसके आध्यात्मिक शिखर तक ले जाने में अपना योगदान देती है। इसीलिए इस  महाशिवरात्रि को एक उत्सव मनाया जाता है। ब्रह्माण्ड और तारामंडल सभी जिस ऊर्जा से संचालित होते हैं वस्तुतः वही जीवन है। महाशिवरात्रि आध्यात्मिक पथ पर चलने वाले साधकों के लिए बहुत महत्व रखती है। यह उनके लिए भी बहुत महत्वपूर्ण है जो पारिवारिक परिस्थितियों में हैं और संसार की महत्वाकांक्षाओं में मग्न हैं। पारिवारिक परिस्थितियों में मग्न लोग महाशिवरात्रि को शिव के विवाह के उत्सव की तरह मनाते हैं। सांसारिक महत्वाकांक्षाओं में मग्न लोग महाशिवरात्रि को, शिव के द्वारा अपने शत्रुओं पर विजय पाने के दिवस के रूप में मनाते हैं। परंतु, साधकों के लिए, यह वह दिन है, जिस दिन वे कैलाश पर्वत के साथ एकात्म हो गए थे। वे एक पर्वत की भांति स्थिर व निश्चल हो गए थे। यौगिक परंपरा में, शिव को किसी देवता की तरह नहीं पूजा जाता। उन्हें आदि गुरु माना जाता है, पहले गुरु, जिनसे ज्ञान उपजा। ध्यान की अनेक सहस्राब्दियों के पश्चात्, एक दिन वे पूर्ण रूप से स्थिर हो गए। वही दिन महाशिवरात्रि का था। उनके भीतर की सारी गतिविधियां शांत हुईं और वे पूरी तरह से स्थिर हुए, इसलिए साधक महाशिवरात्रि को स्थिरता की रात्रि के रूप में मनाते हैं, और इसीलिए इस पर्व का आज भी महत्व है। चतुर्दशी अर्थात् शिवरात्रि चंद्रमास का सबसे अंधकारपूर्ण दिन होता है। यह अंधकार पर ऊर्जा के प्रकाश की विजय का दिन है।  शिव का शाब्दिक अर्थ है, ‘जो नहीं है’। ‘जो है’, वह अस्तित्व और सृजन है। ‘जो नहीं है’, वह शिव है। ‘जो नहीं है’, उसका अर्थ है, सूक्ष्म दृष्टि से देखी गई संरचना। जैसे ब्रह्मांड की असीम शून्यता में भी अनेक ग्रह, नक्षत्र विद्यमान हैं किन्तु सामान्य आंखों से वे दिखाई नहीं देते मात्र शून्यता या असीम रहता ही दिखाई देती है यही असीम रिक्त था शिव है शून्य से उपज कर शून्य में विलीन होना जीवन का मूल सत्य है और यही सत्य शिव है हमारे शास्त्रों में कहा गया है सत्यम शिवम सुंदरम। शिव निराकार, निर्गुण और अमूर्त सत्य है। महाशून्य है। 


    पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बार देवी पार्वती ने आदि देव शिव से पूछा कि - ‘ऐसा कौन-सा श्रेष्ठ तथा सरल व्रत-पूजन है, जिससे मृत्युलोक के प्राणी आपकी कृपा सहज ही प्राप्त कर लेते हैं?’ उत्तर में शिव ने देवी पार्वती को ‘शिवरात्रि’ के व्रत का विधान बताया और यह कथा सुनाई - किसी समय में चित्रभानु नामक एक शिकारी था। वह पशुओं का शिकार करके अपने कुटुम्ब को पालता था। परिस्थितिवश वह एक साहूकार का ऋणी हो गया और समय पर ऋण नहीं चुका पाया। जिस कारण साहूकार ने चित्रभानु को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी। शिवमठ में शिव पूजन हो रहा था । चित्रभानु ने चतुर्दशी को शिवरात्रि व्रत की कथा सुनी। शाम होते ही साहूकार ने चित्रभानु को अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के लिए फिर कहा। शिकारी ने सोच- विचार कर अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का वचन दे दिया। साहूकार ने यह सुन कर उसे बंधन से मुक्त कर दिया। । घर आ कर चित्रभानु जंगल में शिकार के लिए निकला।  दिन भर बंदी गृह में रहने के कारण वह भूख-प्यास से व्याकुल था। शिकार करने के लिए उसने एक तालाब के किनारे बेल-वृक्ष पर मचान बनाया। बेल वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो विल्वपत्रों से ढका हुआ था। इसलिए चित्रभानु को उसका पता नहीं चला।

मचान बनाते समय उसने जो टहनियां तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरीं। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे चित्रभानु का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गए। एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी हिरणी तालाब पर पानी पीने पहुंची। चित्रभानु ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, हिरणी बोली, ‘मैं गर्भिणी हूं। शीघ्र ही प्रसव करूंगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत हो जाऊंगी' ।  चित्रभानु ने उसे जाने दिया। थोड़ी देर बाद रात्रि के तीसरे पहर में एक दूसरी हिरणी वहां आई। उसके समीप आने पर चित्रभानु ने धनुष पर बाण चढ़ाया। तो वह हिरणी दुखी स्वर में प्रार्थना करने लगी कि - ‘हे पारधी! मैं थोड़ी देर पहले ऋतु से निवृत्त हुई हूं। कामातुर विरहिणी हूं। अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूं। मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊंगी।’ चित्रभानु ने उसे भी जाने दिया। दो बार शिकार से वंचित रह कर चित्रभानु चिंता में पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। तभी एक अन्य हिरणी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली। शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर नहीं लगाई। वह तीर छोड़ने ही वाला था कि हिरणी बोली, ‘हे पारधी! मैं इन बच्चों को इनके पिता के संरक्षण में दे कर शीघ्र लौट आऊंगी। इस समय मुझे छोड़ दो। यह सुन कर चित्रभानु हंसा और बोला-  'सामने आए शिकार को छोड़ दूं, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूं। मेरे बच्चे भूख-प्यास से तड़प रहे होंगे। उत्तर में हिरणी ने फिर कहा- 'जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी। इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर मैं थोड़ी देर के लिए जीवनदान मांग रही हूं। हे पारधी! मेरा विश्वास कर, मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूं।'

    हिरणी का दीन स्वर सुनकर चित्रभानु को उस पर दया आ गई। उसने उस हिरणी को भी जाने दिया। शिकार के अभाव में बेल-वृक्ष पर बैठा चित्रभानु बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। सुबह होने को आई तो एक हृष्ट-पुष्ट हिरण उसी रास्ते पर आया। चित्रभानु ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्य करेगा। चित्रभानु की तनी प्रत्यंचा देखकर हिरण विनीत स्वर में बोला - 'हे पारधी भाई! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन हिरणियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि मुझे उनके वियोग में एक क्षण भी दुःख न सहना पड़े। मैं उन हिरणियों का पति हूं। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण का जीवन देने की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे सामने उपस्थित होऊंगा।'

हिरण की बात सुनते ही चित्रभानु के सामने पूरी रात का घटनाचक्र घूम गया, उसने सारी कथा हिरण को सुना दी। तब हिरण ने कहा कि- ‘मेरी तीनों पत्नियां जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएंगी। अतः जैसे तुमने उन पर विश्वास कर उन्हें जाने दिया है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूं।’ 

     उपवास, रात्रि-जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ने से चित्रभानु का हिंसक हृदय निर्मल हो गया था। उसमें भगवद् शक्ति का वास हो गया था। धनुष-बाण उसके हाथ से सहज ही छूट गए। शिव की कृपा से उसका हिंसक हृदय करुणा भाव से भर गया। वह अपने अतीत के कर्मों को याद करके पश्चाताप करने लगा। अपने वचन के अनुसार थोड़ी ही देर बाद वह हिरण सपरिवार चित्रभानु के समक्ष उपस्थित हो गया ताकि वह उनका शिकार कर सके, लेकिन जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता और सामूहिक प्रेम भावना देखकर चित्रभानु को बड़ी ग्लानि हुई। उसकी आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी। उस हिरण के परिवार को न मारकर चित्रभानु ने अपने कठोर हृदय को जीव हिंसा से हटाकर सदा के लिए कोमल एवं दयालु बना लिया। देवलोक से सभी देवी-देवता भी इस घटना को देख रहे थे। सभी ने पुष्प-वर्षा की। तब शिकारी चित्रभानु और हिरण परिवार को मोक्ष की प्राप्ति हुई।


     शिव औघरदानी कहलाते हैं। भोलेनाथ कहलाते हैं। नीलकंठ कहलाते हैं । सहस्त्र नाम हैं शिव के। अनेक आख्यान हैं गाथाएं हैं देवी पार्वती और महदेव शिव की। शिवपुराण और देवीभागवत सरीखे ग्रंथ भारतीय संस्कृति की अनमोल धरोहर हैं। ऐसे शिव और पार्वती के विवाह का प्रसंग आध्यात्मिक रहस्यों को अपने में समाहित किए हुए है। इसलिए रामकथा में  शिव विवाह का प्रसंग भी शामिल है। शिव विवाह में देवाधिदेव महादेव के विश्वास रूप और महादेवी पार्वती के श्रद्धा रूप को दर्शाता है। आज भी मानव जीवन में विवाह इन्हीं बातों पर टिका हुआ है।

विश्वास और श्रद्धा पर वैवाहिक जीवन टिका रहता है। इसलिए कि देवी पार्वती को विवाह से पूर्व बताया और समझाया गया कि भस्म रमाने वाले, भांग धतूरा खाने वाले, बैल की सवारी करने वाले कैसे उसे सुखी रख पाएंगे। देवी पार्वती के मन की श्रद्धा और भक्ति इन बातों से नहीं बदली। उन्होंने यह तय कर लिया कि वह विवाह करेंगी तो मात्र शिव से। शिव-पार्वती एक दूसरे के सखा, स्वामी और दास हैं। साथ ही राम पूर्ण ब्रह्म परमात्मा है। शिव राम के भक्त हैं और राम शिव के भक्त।  रामचरित मानस में शिव-पार्वती विवाह का वर्णन है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार सती को ही पार्वती, दुर्गा, काली, गौरी, उमा, जगदंबा, गिरिजा, अंबे सहित कई नामों से पुकारा जाता है। भागवत पुराण में आदि शक्ति देवी के 18 रूपों का वर्णन किया गया है। 

   सती के आत्मोत्सर्ग के बाद शिव तपस्यालीन हो कर समाधिस्थ हो गए। असुरों के उत्पात से सृष्टि व्याकुल हो उठी। शिव-शक्ति के मिलन से उत्पन्न योद्धा पुत्र ही तारकासुर सरीखे उन असुरों का संहार कर सकता था। तब देवी सती ने हिमालय की पुत्री पार्वती के रूप में जन्म लिया। शिव की पतिरूप में प्राप्ति के लिए देवी पार्वती भी कठोर तप करने लगीं। किन्तु शिव विवाह नहीं करने हेतु अडिग थे। तब श्रीहरि विष्णु के त्रेता अवतार राम ने शिव से प्रार्थना की, कि वे शक्तिस्वरूपा देवी पार्वती से विवाह कर लें। 

  

 रामचरितमानस के बालकाण्ड में महाकवि तुलसीदास ने इस प्रसंग का बहुत सुंदर वर्णन किया है - 


अब बिनती मम सुनहु सिव जौं मो पर निज नेहु।

जाइ बिबाहहु सैलजहि यह मोहि मागें देहु॥

अर्थात् राम ने शिव से कहा-  हे शिव! यदि मुझ पर आपका स्नेह है, तो अब आप मेरी विनती सुनिए। मेरी मांग पर ध्यान दे कर आप जाकर पार्वती के साथ विवाह कर लें।


 कह सिव जदपि उचित अस नाहीं। 

नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं॥

सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। 

परम धरमु यह नाथ हमारा।।

अर्थात् शिव ने कहा- यद्यपि ऐसा उचित नहीं है, परन्तु स्वामी की बात भी मिटाई नहीं जा सकती। हे नाथ! मेरा यही परम धर्म है कि मैं आपकी आज्ञा को सिर पर रखकर उसका पालन करूँ।


मातु पिता गुर प्रभु कै बानी। 

बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी॥

तुम्ह सब भाँति परम हितकारी। 

अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी॥ 

अर्थात् माता, पिता, गुरु और स्वामी की बात को बिना ही विचारे शुभ समझकर करना मानना चाहिए। फिर आप तो सब प्रकार से मेरे परम हितकारी हैं। हे नाथ! आपकी आज्ञा मेरे सिर पर है।


प्रभु तोषेउ सुनि संकर बचना। 

भक्ति बिबेक धर्म जुत रचना॥

कह प्रभु हर तुम्हार पन रहेऊ। 

अब उर राखेहु जो हम कहेऊ॥

अर्थात् शिवजी की भक्ति, ज्ञान और धर्म से युक्त वचन सुनकर राम संतुष्ट हो गए और  कहा- हे हर! आपकी प्रतिज्ञा पूरी हो गई। अब आप अपने हृदय में वह बात रखिए मैंने जो कहा है।


अंतरधान भए अस भाषी। संकर सोइ मूरति उर राखी॥

तबहिं सप्तरिषि सिव पहिं आए। बोले प्रभु अति बचन सुहाए॥

अर्थात् इस प्रकार कहकर राम अन्तर्धान हो गए। शिव ने उनकी वह मूर्ति अपने हृदय में रख ली। उसी समय सप्तर्षि शिव के पास आए। महादेव ने उनसे अत्यन्त सुहावने वचन कहे।


पारबती पहिं जाइ तुम्ह प्रेम परिच्छा लेहु।

गिरिहि प्रेरि पठएहु भवन दूरि करेहु संदेहु॥

अर्थात् आप लोग पार्वती के पास जाकर उनके प्रेम की परीक्षा लीजिए और हिमाचल को कहकर उन्हें पार्वती को लिवा लाने के लिए भेजिए तथा पार्वती को घर भिजवाइए और उनके संदेह को दूर कीजिए।

  

सप्तर्षि द्वारा परीक्षा लेने, महर्षि नारद द्वारा तरह-तरह से शिव के प्रति आसक्ति त्यागने का प्रयास करने के बाद भी देवी पार्वती विचलित नहीं हुईं। तुलसीदास आगे कहते हैं कि -


जाइ मुनिन्ह हिमवंतु पठाए।

करि बिनती गिरजहिं गृह ल्याए॥

बहुरि सप्तरिषि सिव पहिं जाई। 

कथा उमा कै सकल सुनाई॥

अर्थात् मुनियों ने जाकर हिमवान् को पार्वती के पास भेजा और वे विनती करके उनको घर ले आए, फिर सप्तर्षियों ने शिव के पास जाकर उनको पार्वती की सारी कथा सुनाई।


भए मगन सिव सुनत सनेहा। 

हरषि सप्तरिषि गवने गेहा॥

मनु थिर करि तब संभु सुजाना। 

लगे करन रघुनायक ध्याना।।

अर्थात् पार्वती का प्रेम सुनते ही शिव आनन्दमग्न हो गए। सप्तर्षि प्रसन्न होकर अपने घर ब्रह्मलोक को चले गए। तब सुजान शिव मन को स्थिर करके रघुनायक राम का ध्यान करने लगे।


राम के आग्रह, ऋषियों और देवताओं के अथक प्रयासों तथा कामदेव-रति प्रसंग के पश्चात् अंततः …. शिव- पार्वती विवाह सम्पन्न हुआ। तुलसीदास कहते हैं -


पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। 

हियँ हरषे तब सकल सुरेसा॥

बेदमन्त्र मुनिबर उच्चरहीं। 

जय जय जय संकर सुर करहीं॥

अर्थात् जब महेश्वर शिव ने पार्वती का पाणिग्रहण किया, तब इन्द्रादि सब देवता हृदय में बड़े ही हर्षित हुए। श्रेष्ठ मुनिगण वेदमंत्रों का उच्चारण करने लगे और देवगण शिव का जय-जयकार करने लगे।


बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। 

सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना॥

हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। 

सकल भुवन भरि रहा उछाहू॥

अर्थात् अनेक प्रकार के बाजे बजने लगे। आकाश से नाना प्रकार के फूलों की वर्षा हुई। शिव-पार्वती का विवाह हो गया। सारे ब्राह्माण्ड में आनंद भर गया।


    पति–पत्नी का संबंध जन्म जन्मांतर का होता है। विवाह के समय पति एवं पत्नी सात जन्मों का वचन ले कर सात फेरे पूर्ण कर साथ रहने का वादा करते हैं। यह संबंध प्रेम और विश्वास पर ही टिका रहता है। वर्तमान समय में महाशिवरात्रि पर्व इसी बात की याद दिलाता है कि आदि शक्ति देवी पार्वती और आदि देव शिव की भांति अपने हृदय को प्रेम और विश्वास के अटूट बंधन में बांध कर ही सफल दाम्पत्य जीवन व्यतीत किया जा सकता है। 


और अंत में प्रस्तुत हैं मेरे कुछ दोहे -


जगहित विष का पान कर, जगत मिटाई पीर।

शिव पूजन कीजे सदा, मन में रख कर धीर ।।


जिसके कर्मों में निहित, स्वार्थरहित परमार्थ।

कष्ट हरे, पीड़ा हरे, वह सच्चा पुरुषार्थ।।


पूजन कर शिव-शक्ति का, पाएं हर्ष अनंत।

सुखमय जीवन में रहे, हर दिन नया वसंत ।।


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