प्रिय ब्लॉग पाठकों, "विचार वर्षा"... मेरे इस कॉलम में आज प्रस्तुत है मेरा आलेख - "बुज़ुर्गों का महत्व वाया जामवन्त कथा"
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 31.03.2021
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बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा
बुज़ुर्गों का महत्व वाया जामवन्त कथा
- डॉ. वर्षा सिंह
अभी परसों होली के दिन मेरी एक रिश्तेदार से फोन पर बातचीत हो रही थी। उन्होंने बताया कि कोरोना गाइडलाइंस के कारण उन्होंने अपने घर में ही होली खेली, लेकिन घर-परिवार में ही होली खेलते समय उनके चेहरे पर काफी रंग लग गया था, जो साबुन लगाने से भी सही तरीके से नहीं छूट रहा था । वह समझ में नहीं पा रही थीं कि क्या करें, क्योंकि उनके मेकअप के सामानों में क्लींजिंग मिल्क खत्म हो चुका था और बाहर दुकानें भी होली त्यौहार के कारण बंद थीं इसलिए वे क्लींजिंग मिल्क भी नहीं मंगवा पा रही थीं। अपना रंगा-पुता चेहरा देखकर वे स्वयं को बहुत असहज महसूस कर रही थीं । तभी उनके साथ निवासरत उनकी दादी सास ने उन्हें सुझाव दिया कि वे चावल के आटे में दही मिलाकर पेस्ट बनाएं और इसे चेहरे एवं गर्दन पर अच्छी तरह मलें। इसके बाद चेहरा धो लें। उन्होंने दादी सास के इस सुझाव पर अमल किया और नतीजा उनके सामने था। आईने में उन्होंने जब स्वयं को देखा तो उन्हें उनका चेहरा एकदम साफ नजर आया। वे कहने लगीं कि वाकई दादी मां के नुस्खे ने बहुत अच्छा काम किया।
सचमुच दादी मां के नुस्खे बहुत कारगर सिद्ध होते हैं। सिर्फ दादी मां ही नहीं, समय-समय पर हमारे बड़े-बुज़ुर्ग अपने जीवन के अनुभवों से हमें सही सुझाव देते हैं। यदि उनके सुझावों पर हम अमल करें तो हमें जीवन की अनेक समस्याओं को दूर करने में सफलता प्राप्त होगी। प्रायः लोग सोचते हैं कि उम्र बढ़ने के साथ-साथ बुज़ुर्गों के अनुभव एवं सोच भी बूढ़े हो गए हैं और घर के बुज़ुर्ग सदस्यों को अक्सर एक अवांछित बोझ की तरह समझा जाता है। जबकि बुज़ुर्गों के पास अधिक अनुभव और कौशल होता है। उनके पास कठिन से कठिन परिस्थितियों से निपटने की अचूक क्षमता होती है।
एक समय की बात है किसी गांव में एक ठाकुर साहब रहते थे। जब उनके लड़के की शादी दूसरे गांव में तय हुई तो लड़की के पिता ठाकुर ने यह शर्त रखी कि वह जब बारात लेकर आएं तो उसमें उनके साथ कोई भी बुज़ुर्ग या बूढ़ा व्यक्ति न हो। पहले तो ठाकुर साहब को इस बात को सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ लेकिन फिर संस्कारवान, सहृदय होने के कारण उन्होंने सोचा कि ठीक है यदि लड़की के पिता ठाकुर यह चाहते हैं तो चलो ऐसा ही सही। मना करने पर व्यर्थ में विवाद होगा। ठकुराईसी में आपस में मार-काट मचेगी। तो यह सब सोच कर सामान्य भाव से उन्होंने घर के सभी बुज़ुर्गों को यह बात बताई और उन्हें ताकीद किया कि क्योंकि लड़की के पिता ठाकुर यह नहीं चाहते कि बरात में कोई बुज़ुर्ग व्यक्ति आए तो वह सिर्फ जवान व्यक्तियों को ही बारात में अपने साथ ले जाएंगे। घर के बुज़ुर्गों ने यह बात मान ली लेकिन ख़ुद ठाकुर साहब के पिता को यह बात नागवार गुज़री। उन्होंने ठाकुर साहब के लड़के यानी दूल्हे से कहा कि वे चाहते हैं कि अपने पोते की शादी में शामिल हों, इसलिए वह उन्हें अपने साथ एक बैलगाड़ी में सामानों में छुपा कर ले चले। ठाकुर साहब के लड़के ने ऐसा ही किया। वह अपने दादा को एक बैलगाड़ी में छुपा कर अपने साथ बारात में ले गया।
दूसरे गांव पहुंचने पर शादी के समय भांवर पड़़ने के पहले लड़की के पिता ठाकुर ने लड़के के पिता से कुछ सवाल पूछे जिनके जवाब न तो लड़के के पिता ठाकुर साहब से बने और न ही उनके साथ बराती के रूप में गए अन्य नौजवान व्यक्तियों से। तब लड़के को एक तरक़ीब सूझी। लड़के ने कहा कि -'मैं अपनी अंगूठी बैलगाड़ी में रखे सामानों में ही छोड़ आया हूं। इसलिए बस मैं अभी गया और अभी आया।' इतना कह कर वह उस बैलगाड़ी के पास गया जहां उसके दादा छुप कर बैठे थे। दादा को उसने वे सवाल बताए। दादा ने अपने अनुभव के आधार पर चटपट उन सवालों के उत्तर लड़के को बता दिए। लड़का लौटकर मंडप में आया और उसने कहा कि -'हां, अब बताएं मैं आपके प्रश्नों का उत्तर दूंगा। लेकिन मैं प्रश्न अच्छी तरह से सुन नहीं पाया था तो कृपया आप अपने प्रश्नों को पुनः दोहरा दें।' लड़की के पिता ठाकुर ने अपने प्रश्न दोहरा दिए। प्रश्नों को सुनते ही लड़के ने तत्काल उनके उत्तर दे दिए। अपने प्रश्नों के उत्तर सुनकर लड़की के पिता ठाकुर चकित रह गए। उन्होंने कहा कि - 'बेटा! सच-सच बताना, तुम्हारी बारात में कोई बुज़ुर्ग भी शामिल है क्या?' लड़के के पिता ठाकुर साहब ने कहा कि - 'नहीं, हरगिज़ नहीं। आपने किसी बुज़ुर्ग को साथ लाने से मना किया था इसलिए हम अपने साथ सिर्फ नौजवानों को लेकर आए हैं। हमारे साथ कोई भी बुज़ुर्ग नहीं आया है।'
यह सुनकर लड़की के पिता ठाकुर सोच में पड़ गए। उन्होंने कहा कि - 'इन सवालों के जवाब बहुत कठिन थे। यदि आपके बेटे ने इन सवालों के जवाब दे दिए हैं तो वास्तव में वह बहुत बुद्धिमान है और मुझे बहुत प्रसन्नता है कि मैं अपनी बेटी का विवाह उससे कर रहा हूं।' किंतु लड़के से नहीं रहा गया उसने स्पष्ट रूप से कह दिया कि - 'यहां किसी को नहीं मालूम किंतु मैं अपने साथ अपने दादा को लेकर आया हूं और इन प्रश्नों के जवाब मेरे पूज्य दादा जी ने ही अपने अनुभवों के आधार पर दिए हैं।'
यह सुनकर लड़की के पिता ने कहा कि अब मुझे और भी अधिक प्रसन्नता हो रही है कि - 'मेरी लड़की का विवाह एक ऐसे लड़के से हो रहा है जो बुज़ुर्गों का सम्मान तो करता ही है, साथ ही सत्यवादी भी है। बुज़ुर्ग अपने अनुभवों से हमें समस्याओं का समाधान करने में सहायता देते हैं इसलिए बुज़ुर्गों का परिवार में सम्मान बरकरार रहना चाहिए। बुज़ुर्गों को बारात में साथ नहीं लाने के लिए कहने के पीछे मेरा यह जानने का उद्देश्य था कि जिस घर में मेरी पुत्री का विवाह हो रहा है वहां बड़े बुज़ुर्गों का सम्मान होता है अथवा नहीं अब मुझे यह जानकर बहुत संतोष हो रहा है कि मैं बहुत सही घर में अपनी बेटी का विवाह कर रहा हूं।'
फिर लड़की के पिता सहित सभी परिवार जन द्वारा हंसी-ख़ुशी लड़के के दादा को बैलगाड़ी से निकाल कर सम्मानपूर्वक विवाह स्थल पर लाया गया और उनसे आशीर्वाद ले कर विवाह की सभी रस्में पूर्ण की गईं।
इसका अर्थ यह है कि जिस परिवार में बुज़ुर्गों का सम्मान होता है वह सदा सुखी रहते हैं और बड़ी से बड़ी कठिनाइयों को भी हंसते हुए झेल जाते हैं।
रामकथा में भी एक ऐसे ही बड़े-बुज़ुर्ग का वर्णन मिलता है वे बड़े-बुज़ुर्ग थे जामवन्त। जामवन्त अथवा जाम्बवान रामायण और रामचरित मानस के महत्त्वपूर्ण पात्र हैं। वे वानरराज सुग्रीव के मित्र थे। उन्होंने राम-रावण युद्ध में राम का पूरा साथ दिया था।
पौराणिक ग्रंथों के अनुसार देवासुर संग्राम में देवताओं की सहायता के लिए जामवन्त का जन्म अग्नि के पुत्र के रूप में हुआ था। उनकी माता एक गंधर्व कन्या थीं। सृष्टि के आदि में प्रथम कल्प के सतयुग में जामवन्त उत्पन्न हुए थे। जामवन्त ने श्रीहरि विष्णु के वामन अवतार को देखा था। वे राजा बलि के काल में भी थे। राजा बलि से तीन पग धरती मांग कर वामन ने बलि को चिरंजीवी होने का वरदान देकर पाताल लोक का राजा बना दिया था। वामन अवतार के समय जामवन्त अपनी युववस्था में थे। पौराणिक ग्रंथों में जामवन्त को अश्वत्थामा, राजा बलि, हनुमान, आदि के समान सशरीर आज भी जीवित रहने वाले चिरंजीवियों की सूची में शामिल किया गया है। यह माना जाता है जामवन्त कलियुग के अंत तक रहेंगे।
वाल्मीकि रामायण के युद्धकांड में जामवन्त का नाम विशेष उल्लेखनीय है। उन्होंने लंकापति रावण की कैद से सीता को छुड़ा कर लाने में राम की सहायता की थी। कहते हैं कि जामवन्त समुद्र को लांघने में सक्षम थे लेकिन त्रेतायुग में वह बूढ़े हो चले थे। इसीलिए उन्होंने हनुमान से इसके लिए विनती थी कि आप ही समुद्र लांघिये। बचपन में पवनपुत्र हनुमान बहुत नटखट और शरारती थे। हनुमान को कई देवताओं ने विभिन्न प्रकार के वरदान और अस्त्र-शस्त्र दिए थे। इन वरदानों और अस्त्र-शस्त्र संचालन के कारण बचपन में हनुमान उधम मचाने लगे थे। विशेष रूप से वे ऋषियों के बाग-बगीचों में घुसकर फल, फूल खाते थे और बगीचा उजाड़ देते थे। वे तपस्यारत मुनियों को तंग करते थे। उनकी शरारतें बढ़ती गई तो मुनियों ने उनकी शिकायत उनके पिता पवनदेव केसरी से की। माता-पिता में बहुत समझाया कि बेटा, ऐसा नहीं करते, ऋषि-मुनियों को तंग करना ठीक नहीं है। परंतु नटखट हनुमान शरारत करने से नहीं रुके बल्कि तपस्यारत मुनियों को भी अपनी बालसुलभ शरारतों से तंग करने लगे। उनके पिता पवनदेव और माता केसरी द्वारा समझाने के बाद भी जब हनुमान नहीं रूके तो उनकी शरारतों से कुपित होकर ऋषि अंगिरा और भृगुवंश के मुनियों ने श्राप दिया कि वे अपने बल को भूल जाएं और उनको उनके बल का आभास तब ही हो जब कोई उन्हें स्मरण दिलाए। जब हनुमान अपनी शक्ति को भूल गए थे तो जामवन्त ने ही उनको उनकी शक्ति का स्मरण दिलाया था और कहा था कि तुम्हारा जन्म राम का कार्य करने के लिए ही इस धरती पर हुआ है।
तुलसीदास कृत रामचरितमानस के किष्किंधाकाण्ड में जामवन्त का हनुमान को उनके बल का स्मरण कराने का उल्लेख है।
जरठ भयउँ अब कहइ रिछेसा।
नहिं तन रहा प्रथम बल लेसा॥
जबहिं त्रिबिक्रम भए खरारी।
तब मैं तरुन रहेउँ बल भारी॥
अर्थात् ऋक्षराज जामवन्त कहने लगे कि मैं बूढ़ा हो गया। शरीर में पहले वाले बल का लेश भी नहीं रहा। जब खरारि अर्थात् खर के शत्रु राम वामन बने थे, तब मैं तरुण था और मुझ में बहुत बल था।
बलि बाँधत प्रभु बाढ़ेउ सो तनु बरनि न जाइ।
उभय घरी महँ दीन्हीं सात प्रदच्छिन धाइ॥
अर्थात् बलि के बाँधते समय प्रभु इतने बढ़े कि उस शरीर का वर्णन नहीं हो सकता, किंतु मैंने दो ही घड़ी में दौड़कर उस शरीर की सात प्रदक्षिणाएँ कर लीं।
अंगद कहइ जाउँ मैं पारा।
जियँ संसय कछु फिरती बारा॥
जामवंत कह तुम्ह सब लायक।
पठइअ किमि सबही कर नायक।।
अर्थात् अंगद ने कहा कि मैं पार तो चला जाऊँगा, परंतु लौटते समय के लिए हृदय में कुछ संदेह है। तब जामवन्त ने कहा कि तुम सब प्रकार से योग्य हो, परंतु तुम हम सबके नेता हो, इसलिए तुम्हे कैसे भेजा जाए?
कहइ रीछपति सुनु हनुमाना।
का चुप साधि रहेहु बलवाना॥
पवन तनय बल पवन समाना।
बुधि बिबेक बिग्यान निधाना॥
अर्थात् ऋक्षराज जामवन्त ने हनुमान से कहा- हे हनुमान्! हे बलवान्! सुनो, तुमने यह क्या चुप साध रखी है? तुम पवन के पुत्र हो और बल में पवन के समान हो। तुम बुद्धि-विवेक और विज्ञान की खान हो।
कवन सो काज कठिन जग माहीं।
जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं॥
राम काज लगि तव अवतारा।
सुनतहिं भयउ पर्बताकारा॥
अर्थात् जगत् में कौन सा ऐसा कठिन काम है जो हे तात! तुमसे न हो सके। राम के कार्य के लिए ही तो तुम्हारा अवतार हुआ है। यह सुनते ही हनुमान्जी पर्वत के आकार के अत्यंत विशालकाय हो गए॥
कनक बरन तन तेज बिराजा।
मानहुँ अपर गिरिन्ह कर राजा॥
सिंहनाद करि बारहिं बारा।
लीलहिं नाघउँ जलनिधि खारा॥
अर्थात् उनका सोने का सा रंग है, शरीर पर तेज सुशोभित है, मानो दूसरा पर्वतों का राजा सुमेरु हो। हनुमान ने बार-बार सिंहनाद करके कहा- मैं इस खारे समुद्र को खेल में ही लाँघ सकता हूँ।
रामचरितमानस के सुंदरकाण्ड में वर्णित है -
जामवंत के बचन सुहाए।
सुनि हनुमंत हृदय अति भाए॥
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई।
सहि दुख कंद मूल फल खाई॥
अर्थात् जामवन्त के सुंदर वचन सुनकर हनुमान के हृदय को बहुत ही भाए। वे बोले- हे भाई! तुम लोग दुःख सहकर, कन्द-मूल-फल खाकर तब तक मेरी राह देखना।
जब लगि आवौं सीतहि देखी।
होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी॥
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा।
चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा॥
अर्थात् जब तक मैं सीता को देखकर लौट न आऊँ। काम अवश्य होगा, क्योंकि मुझे बहुत ही हर्ष हो रहा है। यह कहकर और सबको मस्तक नवाकर तथा हृदय में रघुनाथ को धारण करके हनुमान हर्षित होकर चले।
इस प्रकार जामवन्त द्वारा स्मरण दिलाए जाने पर हनुमान को अपने बल का स्मरण आ गया और वे अपने बल, बुद्धि और तेज के प्रताप से समुद्र लांघ कर लंका जा पहुंचे। वहां लंका दहन कर रावण द्वारा बंदिनी और दुखी सीता का समाचार ले कर वापस लौट आए।
हनुमान के लौट कर आने पर जामवन्त ने हनुमान की सफलता की गाथा राम को प्रसन्नतापूर्वक सुनाई। रामचरित मानस के सुंदरकाण्ड में ही लेख है कि-
नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी।
सहसहुं मुख न जाइ सो बरनी।।
पवनतनयके चरित्र सुहाए।
जामवंत रघुपतिहि सुनाए।।
अर्थात् हे नाथ! पवनपुत्र हनुमान ने जो करनी की, उसका हजार मुखों से भी वर्णन नहीं किया जा सकता। जामवंत ने हनुमानजी के सुंदर चरित्र रघुपति राम को सुनाया।
सुनतकृपानिधि मन अति भाए।
पुनि हनुमान हरषि हियं लाए।।
यह सुन कर कृपानिधि राम के मन को बहुत अच्छा लगा। उन्होंने हर्षित होकर हनुमान को फिर हृदय से लगा लिया।
जामवन्त को परम ज्ञानी और अनुभवी माना जाता था। वाल्मीकि रामायण के युद्धकाण्ड के अनुसार राम-रावण युद्ध के समय जब लक्ष्मण पर प्राणांतक आघात हुआ और वे मूर्छित हो गए, उस समय लक्ष्मण की प्राणरक्षा हेतु जामवन्त ने अपने अनुभवों से हनुमान को हिमालय में प्राप्त होने वाली चार दुर्लभ औषधियों का पता बताया था।
मृत संजीवनी चैव विशल्यकरणीमपि।
सुवर्णकरणीं चैव सन्धानी च महौषधीम्।।
अर्थात् मृतसंजीवनी (पुनर्जीवन देने वाली), विशल्यकरणी (शरीर में घुसे अस्त्र निकालने वाली), सुवर्णकरणी (त्वचा का रंग ठीक रखने वाली) और सन्धानी (घाव भरने वाली) महा औषधियां हैं।
पौराणिक कथाओं के अनुसार जामवन्त सतयुग और त्रेतायुग में तो थे ही, द्वापर में भी उनके होने का वर्णन मिलता है। द्वापर युग में कृष्ण को स्यमंतक मणि के लिए जामवन्त के साथ युद्ध करना पड़ा था। कृष्ण के हाथों अपनी हार सुनिश्चित जान कर जामवन्त ने प्रभु राम को पुकारा था तब कृष्ण को पूर्व के रामस्वरूप में आ कर जामवन्त को अपने कृष्णावतार से परिचित करना पड़ा था।
जामवन्त की कथा से हमें बताती है कि परिवार और समाज में बड़े- बुज़ुर्ग किसी छायादार वृक्ष के समान होते हैं। उनके अनुभवों से लाभ उठा कर युवा पीढ़ी को अपने जीवन में उनका अनुसरण करना चाहिए। बुज़ुर्गों का मान-सम्मान सदैव उत्तम फलदायक होता है। इनसे हमें हर पल कुछ न कुछ सीखने को मिलता है।
वर्तमान समय में संयुक्त परिवारों की संख्या लगातार कम होतु जा रही है एवं एकल परिवार बढ़ रहे हैं। संयुक्त परिवारों में दादा-दादी, नाना-नानी के साथ रहकर बच्चे उनके अनुभवों से जीवन जीने की कला सीखते थे। अब बच्चे हर बात जानने के लिए गूगल सर्च करते हैं, जिससे ज्ञान तो प्राप्त हो जाता है किन्तु उस ज्ञान का सही समय में सही उपयोग करने की कला सीखने के लिए गूगल से ज्यादा बड़े-बुज़ुर्गों का अनुभव उपयोगी होता है। इसलिए परिवार में बड़े-बुज़ुर्गों की और उनके अनुभवों की बहुत आवश्यकता होती है।
और अंत में प्रस्तुत हैं मेरे कुछ दोहे -
मिले बुज़ुर्गों से सदा, नित्य लाभप्रद सीख।
साथ न इनका छोड़िए, बदल जाएं तारीख।।
जामवन्त के बोल से, महाबली हनुमान।
जा कर लंका कर सके, सीता का संधान।।
जिस घर में होता सदा, वृद्धों का सम्मान।
रहता है सुख भी वहां, रहता है धन-मान।।
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बहुत सुन्दर और श्रम साध्य बुधवासरीय अंक।
ReplyDeleteअन्तर्राष्ट्रीय मूर्ख दिवस की बधाई हो।
आदरणीय शास्त्री जी,
Deleteआपकी टिप्पणी मेरे लिए नवीन ऊर्जा के स्रोत का कार्य करती है। हार्दिक आभार 🙏 आज मूर्ख दिवस है.. जी हां! बधाई स्वीकार है आदरणीय 🙏
इस सूचना से मुझे लेख की सार्थकता का अहसास हुआ है।
ReplyDeleteहार्दिक आभार प्रिय मीना जी 🙏
बहुत ही अच्छी कथाएँ पढ़वाने हेतु दिल से आभार आदरणीया दी।
ReplyDeleteसादर
हार्दिक धन्यवाद प्रिय अनीता जी 🙏
Deleteरंगपंचमी की हार्दिक शुभकामनाओं सहित
सस्नेह,
डॉ. वर्षा सिंह
जाम्बवंत के विषय में जो कुछ बचपन में चन्दामामा पढ़कर, रामलीलाएं देखकर एवं मानस के दोहों के पारायण से जाना था, आज उसकी स्मृति पर छाई धूल उड़ गई । आपके इस विस्तृत आलेख, इसके संदेश एवं अंत में आपके द्वारा रचित दोहों के लिए क्या कहूँ वर्षा जी ? चाहे जितनी भी प्रशंसा करूं, कम ही रहेगी ।
ReplyDeleteआदरणीय माथुर जी,
Deleteरंगपंचमी की हार्दिक शुभकामनाएं 🙏
मुझे प्रसन्नता हुई यह जान कर कि आपको मेरा लेख पसंद आया।
मेरे विचार से पौराणिक पात्रों की प्रासंगिकता शाश्वत है। उनका चरित्र सीख लेने योग्य है।
मेरा लेख पढ़ने और उस पर ऊर्जावान टिप्पणी देने के लिए हार्दिक धन्यवाद आपको 🙏
बहुत ज़रूरी सा लेख...🌹🙏🌹
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद प्रिय बहन डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
Deleteरंगपंचमी की हार्दिक शुभकामनाएं 🙏
Deleteहार्दिक आभार आपका 🙏
ReplyDeleteबुजुर्गों व्यक्तियों के पास उनके जीवनपर्यंत अनुभवों का खजाना होता है ...
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर संदेशप्रद लाजवाब सृजन।
हार्दिक धन्यवाद आपकी इस बहुमूल्य टिप्पणी के लिए सुधा जी 🙏
Deleteबहुत सुंदर और सार्थक लेख आदरणीया।
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद प्रिय अनुराधा जी 🙏
Delete