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Wednesday, January 20, 2021

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 34 | कृषक, रामकथा में कृषि और भूमिजा सीता | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज प्रस्तुत है मेरा आलेख -  "कृषक, रामकथा में कृषि और भूमिजा सीता" 
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 20.01.2021

मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं-

बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

कृषक, रामकथा में कृषि और भूमिजा सीता
     
                   -डॉ. वर्षा सिंह

     बचपन में एक कथा पढ़ी थी… एक राजा के चार बेटे थे। चारों बहुत शरारती थे। जितना पढ़ते-लिखते, उससे ज़्यादातर खेलते। ...और खेलने में इतने मगन रहते कि खाने-पीने की सुध भूल जाते। रानी, दास-दासियां यत्नपूर्वक खाना खिलाते। खाना खाते समय राजकुमार जितना खाते, उससे कहीं ज़्यादा एक दूसरे पर खाद्य पदार्थ फेंक कर खेल करते। उन राजकुमारों के बाल्यकाल में इसे बालसुलभ चेष्टा समझ कर टाला जाता रहा, किन्तु जैसे जैसे राजकुमार बड़े हुए उनकी इस खाना फेंक कर खेलने वाली आदत में कोई सुधार नहीं हुआ। समझाने के सभी प्रयास असफल होता देख कर राजा को एक तरक़ीब सूझी। उसने राज्य की चारों दिशाओं से एक-एक भूस्वामी कृषकों को बुलाया और एक-एक राजकुमार  प्रत्येक के हवाले कर उन्हें निर्देश दिया कि वे राजकुमारों से पूरे एक वर्ष तक कृषि कार्य कराएं,.ताकि राजकुमार खेती-कसानी के काम में पूरे पारंगत हो जाएं। 
    राजकुमारों ने सुना तो ख़ुश हो गए। सोचा कि चलो, ये अच्छा हुआ, खेत में खेलने में और मज़ा आएगा। फिर क्या था… राजकुमारों को कृषकों के साथ अलग-अलग दिशाओं में कृषि कार्य सीखने के लिए भेज दिया गया। वहां पहुंचने पर राजकुमारों को अहसास हुआ कि एक तो वहां खेत की भूमि खेलने योग्य नहीं है, दूसरे उनके साथ खेलने वाला कोई नहीं है। सारा दिन आपसी तालमेल से खेत की पुरानी फसल की सफाई, निंदाई, गुड़ाई, सिंचाई… बीजरोपण, अंकुरण, फिर कीट-पतंगों, पशु-पक्षियों से पौधों की सुरक्षा के लिए रात-दिन चौकस पहरेदारी। ऊपर से मौसम के बदलते तेवर… कड़क धूप, भारी बारिश, हाड़ कंपाती सर्दी। जब-तब सड़ी फ़सल पर बेमौसम आसमान से गिरते पत्थर की तरह ओला वृष्टि की मार। राजकुमार समझ गए कि खेती- किसानी का काम आसान नहीं है और न ही वह फ़सल पैदा करना आसान है जिससे गेंहू, चावल, जौ, बाजरा, मूंगफली, चना, मूंग, मटर आदि तरह-तरह की खाद्य सामग्री प्राप्त होता है। इसी खाद्य सामग्री से वह व्यंजन बनाए जाते हैं जिन्हें वे खेल-खेल में फेंक कर व्यर्थ नष्ट कर देते थे। वे समझ गए कि वे खेल-खेल में जितना अन्न फेंक कर व्यर्थ नष्ट करते थे, उसे पैदा करने में कितना श्रम लगता है, और कितने ही मनुष्यों का उससे पेट भरता है।
    राजकुमारों की आंखें खुल गईं, आपस में मिल-जुल कर रहते हुए वे कृषकों और अन्न दोनों का सम्मान करना सीख गए। 
     यह कथा अन्न और अन्नदाता कृषकों के प्रति सम्मान के प्रति जागरूकता का संदेश देने वाली नीति कथा है।
    भारत एक कृषि प्रधान देश है। भारत की जनसंख्या का एक बड़ा भाग कृषि करके अपने जीवन यापन करता है। भारत में अन्न को देवता का दर्ज़ा दिया जाता है और कृषकों को अन्नदाता का सम्मान। वर्तमान समय में यह अत्यंत विचारणीय है कि पिछले 56 दिनों से भारत सरकार के नए कृषि कानूनों के विरोध में हज़ारों कृषक देश की राजधानी दिल्ली के बार्डर पर आंदोलन कर रहे हैं। हर दिन समाचार पत्रों में नए - नए समाचार पढ़ने को मिल रहे हैं। वहीं न्यूज चैनलों पर इससे जुड़े अनेक घटना क्रम देखने-सुनने को मिल रहे हैं। इन परिस्थितियों में की तह तक जाना, इन परिस्थितियों को समझ पाना सामान्य जन के वश में नहीं है। किसान और सरकार दोनों अपनी बात पर अडिग हैं। सभी भारतीय नागरिक चाहते हैं कि इस समस्या को शीघ्र हल किया जाए। " का बरषा सब कृषी सुखानें" … इस कहावत का भी आशय यही है कि किसी भी समस्या को हल करने में किया गया विलम्ब क्लेश और कष्ट का कारण बनता है। यह कहावत वस्तुतः तुलसीदासकृत रामचरितमानस के बालकाण्ड में सीता- स्वयंवर के अंतर्गत धनुषभंग के समय वर्णित चौपाई का अंश है।
     पूरा दृश्य निम्नानुसार वर्णित है - 

राम बिलोके लोग सब चित्र लिखे से देखि।
चितई सीय कृपायतन जानी बिकल बिसेषि॥
अर्थात् राम ने सब लोगों की ओर देखा और उन्हें चित्र में लिखे हुए से देखकर फिर कृपाधाम राम ने सीता की ओर देखा और उन्हें विशेष व्याकुल जाना।

देखी बिपुल बिकल बैदेही। 
निमिष बिहात कलप सम तेही।
तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा। 
मुएँ करइ का सुधा तड़ागा॥
अर्थात् उन्होंने जानकी को बहुत ही विकल देखा। उनका एक-एक क्षण कल्प के समान बीत रहा था। यदि प्यासा आदमी पानी के बिना शरीर छोड़ दे, तो उसके मर जाने पर अमृत का तालाब भी क्या करेगा?

का बरषा सब कृषी सुखानें। 
समय चुकें पुनि का पछितानें॥
अस जियँ जानि जानकी देखी। 
प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी।।
अर्थात् सारी खेती के सूख जाने पर वर्षा किस काम की? समय बीत जाने पर फिर पछताने से क्या लाभ? जी में ऐसा समझकर राम ने जानकी की ओर देखा और उनका विशेष प्रेम लखकर वे पुलकित हो गए।

 गुरहि प्रनामु मनहिं मन कीन्हा। 
अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा॥
दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ। 
पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ॥
अर्थात् मन ही मन उन्होंने गुरु को प्रणाम किया और अति शीघ्रता से धनुष को उठा लिया। जब उसे हाथ में लिया, तब वह धनुष बिजली की तरह चमका और फिर आकाश में मंडल जैसा मंडलाकार हो गया।

लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें। 
काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें॥
तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। 
भरे भुवन धुनि घोर कठोरा॥
अर्थात् लेते, चढ़ाते और ज़ोर से खींचते हुए किसी ने नहीं लखा अर्थात ये तीनों काम इतनी शीघ्रता से हुए कि धनुष को कब उठाया, कब चढ़ाया और कब खींचा, इसका किसी को पता नहीं लगा, सबने राम को धनुष खींचे खड़े देखा। उसी क्षण राम ने धनुष को बीच से तोड़ डाला। भयंकर कठोर ध्वनि से समस्त लोक भर गए।

तुलसीदास ने रामचरितमानस में कृषि संबंधी वस्तुओं का वर्णन करते हुए दोहे और चौपाईयों का सृजन किया है। उन्हें फसल को नुकसान पहुंचाने वाले प्रमुख संकटों का पूरा ज्ञान था। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, चूहों, टिड्डियों, पक्षियों और राजा के आक्रमण से कृषि और कृषकों को पहुंचने वाली हानि से वे भलीभांति परिचित थे। रामचरितमानस का प्रारम्भ करते हुए उन्होंने खलवंदना की है। वे कहते हैं - 

बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। 
जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। 
उजरें हरष बिषाद बसेरें॥
अर्थात् अब मैं सच्चे भाव से दुष्टों को प्रणाम करता हूँ, जो बिना ही प्रयोजन, अपना हित करने वाले के भी प्रतिकूल आचरण करते हैं। दूसरों के हित की हानि ही जिनकी दृष्टि में लाभ है, जिनको दूसरों के उजड़ने में हर्ष और बसने में विषाद होता है।

इसी के आगे चौथी चौपाई में उन्होंने खलों की विशिष्टता बताते हुए ओले से फ़सल को होने वाले नुकसान की चर्चा की है -

पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। 
जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं।
बंदउँ खल जस सेष सरोषा। 
सहस बदन बरनइ पर दोषा॥
अर्थात् जिस प्रकार ओले खेती का नाश करके स्वयं ही नष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार वह अकारण ही दूसरों का काम बिगाड़ने के लिए स्वयं के शरीर को नष्ट कर लेते हैं। मैं दुष्टों को हजार मुख वाले शेषनाग के समान समझकर प्रणाम करता हूँ, जो पराए दोषों का हज़ार मुखों से बड़े रोष के साथ वर्णन करते हैं।

इसी प्रकार तुलसीदास ने रामचरितमानस के किष्किंधा काण्ड में अन्न से सुशोभित धरती सहित कृषकों द्वारा श्रमपूर्वक कृषि कार्य करने के उदाहरण देते हुए वर्षा ऋतु का सुंदर चित्रण किया है - 

ससि संपन्न सोह महि कैसी। 
उपकारी कै संपति जैसी॥
निसि तम घन खद्योत बिराजा। 
जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा॥
अर्थात् अन्न से युक्त लहराती हुई खेती से हरी-भरी पृथ्वी कैसी शोभित हो रही है, जैसी उपकारी पुरुष की संपत्ति। रात के घने अंधकार में जुगनू शोभा पा रहे हैं, मानो दम्भियों का समाज आ जुटा हो।

महाबृष्टि चलि फूटि किआरीं। 
जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारीं॥
कृषी निरावहिं चतुर किसाना। 
जिमि बुध तजहिं मोह मद माना॥
अर्थात् भारी वर्षा से खेतों की क्यारियाँ फूट चली हैं, जैसे स्वतंत्र होने से स्त्रियाँ बिगड़ जाती हैं। चतुर किसान खेतों को निरा रहे हैं अर्थात् खेत में से घास आदि को निकालकर उसी प्रकार फेंक रहे हैं जैसे विद्वान् लोग मोह, मद और मान का त्याग कर देते हैं।

    अपनी एक अन्य सुप्रसिद्ध काव्य कृति विनयपत्रिका में तुलसीदास ने भरत स्तुति प्रस्तुत करते हुए सीता को भूमिजा बताते हुए राम को भूमिजारमण कहा है। वे कहते हैं -

जयति भूमिजारमण पदकंजमकरंद
रसरसिकमधुकर भरत भूरिभागी ।
भुवनभूषण, भानुवंशभूषण, 
भूमिपालमणि रामचंद्रानुरागी ॥
     अर्थात् उन भाग्यवान भरत की जय हो, जो भूमिजारमण राम के चरण - कमलों के मकरन्द का पान करने के लिये रसिक भ्रमर हैं । जो संसार के भूषणस्वरुप, सूर्यवंश के विभूषण और नृप - शिरोमणि रामचन्द्र के पूर्ण अनुरागी हैं ।
      त्रेतायुग में जब श्रीहरि विष्णु ने पृथ्वी पर मनुष्य बन कर अयोध्यानरेश दशरथ की पत्नी कौशल्या की कोख से राम के रूप में जन्म लिया तो देवी लक्ष्मी सीता के रूप में कृषिभूमि से उत्पन्न हुईं। रामकथा की महानायिका सीता रामायण और रामचरितमानस की मुख्य पात्र हैं। हिंदू धर्म में इनकी पूजा देवी के रूप में की जाती है। सीता मिथिला के राजा जनक की ज्येष्ठ पुत्री थीं।

     वाल्मीकि रामायण में जनक की पुत्री सीता की उत्पत्ति की कथा इस प्रकार वर्णित है-

अथ मे कृषत: क्षेत्रं लांगलादुत्थिता तत:।
क्षेत्रं शोधयता लब्धा नाम्ना सीतेति विश्रुता॥
भूतकादुत्त्थिता सा तु व्यवर्द्धत ममात्मजा।
दीर्यशुक्लेति मे कन्या स्थापितेयमयोनिजा॥
      मिथिला राज्य में एक बार भयंकर सूखा पड़ गया। वर्षा ऋतु सूखी बीत गई, एक बूंद पानी नहीं बरसा तब एक ऋषि के सुझाव पर मिथिलानरेश राजा जनक ने यज्ञ करवाया और उसके बाद राजा जनक कृषक का रूप लेकर स्वयं खेत जोतने लगे, तब वर्षों से पड़ा अकाल समाप्त हो गया और बहुत अच्छी बारिश हुई। इसी खेत को जोतने के दौरान उन्हें धरती में सोने का संदूक मिला। उस संदूक को खोलने पर एक सुंदर कन्या मिली। राजा जनक की कोई संतान नहीं थी, इसलिए उस कन्या को हाथों में लेकर उन्हें पिता प्रेम की अनुभूति हुई। संस्कृत भाषा में हल की फाल को सीता कहते हैं। अतः राजा जनक ने उस कन्या को सीता नाम दिया और उसे अपनी पुत्री के रूप में अपना लिया।
       सीता का विवाह अयोध्या के राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र राम से स्वयंवर में शिवधनुष को भंग करने के उपरांत हुआ था। 

      तुलसीदास ने रामचरितमानस के बालकांड के प्रारंभिक श्लोक में सीता को ब्रह्म की तीन क्रियाओं उद्भव, स्थिति, संहार की संचालिका तथा आद्याशक्ति कहकर उनकी वंदना की है-

उद्भव स्थिति संहारकारिणीं हारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामबल्लभाम्॥
अर्थात् संसार की उत्पत्ति, पालन तथा संहार करने वाली, समस्त क्लेशों को हरने वाली, सब प्रकार से कल्याण करने वाली, राम की वल्लभा सीता को मैं नमस्कार करता हूं।

हमारे प्राचीनतम वैदिक ग्रंथ ऋग्वेद में भी कृषि कार्य को सम्मानित कार्य बताते हुए कृषक बनने हेतु प्रेरित किया गया है - 

अक्षैर्मा दीव्य: कृषिमित् कृषस्व वित्ते रमस्व बहुमन्यमान:। (ऋग्वेद- 34-13)
अर्थात् जुआ मत खेलो, कृषि करो और सम्मान के साथ धन पाओ।

     "का बरषा सब कृषी सुखानें" कहावत को स्मरण में रख कर हमें कृषकों के समस्यामुक्त होने और उनके सम्मानित जीवनयापन करने की कामना करनी चाहिए।

और अंत में प्रस्तुत हैं मेरे कुछ दोहे -

पूज्यनीय वह भूमि है, जहां उपजता अन्न।
कृषक रहे ख़ुशहाल तो, होता देश प्रसन्न।।

रहे समस्यामुक्त हो, अब प्रत्येक किसान।
कभी कहीं कम हो नहीं, तनिक मान -सम्मान।।

रामकथा में है भरा, विपुल ज्ञान भण्डार।
पढ़-सुन कर होता इसे, जीवन का उद्धार।।

शुभकर्मों का तो सदा, पड़ता यही प्रभाव।
लाख विषमताएं रहे, बना रहे सद्भाव ।।

"वर्षा" कहती है वही, करके सोच-विचार।
जगहित जिसमें हो निहित, हो आपस में प्यार।। 
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4 comments:

  1. बहुत ज्ञानवर्धक रहा विचार वर्षा का बुधवासरीय अंक।

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    1. हार्दिक आभार आदरणीय शास्त्री जी 🙏

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  2. Replies
    1. बहुत अच्छा लेख कुर्तुलऐन हैदर पर... बधाई 🙏

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