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बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 24 | दीपावली, स्वच्छता और हम | डॉ. वर्षा सिंह
प्रिय ब्लॉग पाठकों, "विचार वर्षा"... मेरे इस कॉलम में आज पढ़िए "दीपावली, स्वच्छता और हम" ...अपने विचारों से अवगत कराएं ...और शेयर करें 🙏
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏दिनांक 11.11.2020
बुधवारीय स्तम्भ : विचारवर्षा
दीपावली, स्वच्छता और हम
-डॉ. वर्षा सिंह
इन दिनों लगभग हर जगह… गली- मुहल्ले, घर-द्वार में साफ-सफाई, रंगाई-पुताई का काम चल रहा है। दीपावली त्यौहार ही ऐसा है कि देवी लक्ष्मी के स्वागतार्थ प्रत्येक व्यक्ति सफाईपसंद हो उठता है। यदि धन की देवी लक्ष्मी के स्वागत हेतु घर की आर्थिक स्थिति अधिक धन खर्च करने की अनुमति नहीं देती हो, पूरे घर की पुताई कराना दुःसाध्य कार्य हो तब भी पूजा का कमरा, रसोई घर, आंगन-द्वार की साफ-सफाई तो भली-भांति कर ही ली जाती है। दरअसल चौमासे यानी बरसात के चार महीने - आषाढ़, सावन, भादों और क्वांर झेल चुकने के बाद कार्तिक आते-आते अच्छे-ख़ासे घर भी रंग-रोगन, साफ-सफाई मांगने लगते हैं। ख़ास तौर पर निम्न और मध्यमवर्गीय घरों में मकड़ियां घर के कोनों पर अड्डा जमा कर जाले पूरने में ज़रा भी कोताही नहीं बरततीं। ज़मीन से सीलन निकलने की कोशिश करती है तो छत पर पानी के नन्हें-मुन्ने धब्बे एक अलग तरह का लैंडस्केप तैयार कर देते हैं। इन घरों की मज़बूरी हो जाती कि साल भर के सबसे बड़े त्यौहार पर घरों की दशा सुधरवाएं। उच्चवर्गीय मकानों, बंगलों, कोठियों में तो दीपावली पर धन-सम्पदा का प्रदर्शन भरपूर होता ही है। कुछ भी कहिए कि इसमें दो राय नहीं कि दीपावली के बहाने अप्रत्यक्ष यानी परोक्ष रूप से स्वच्छता मिशन अभियान को सफल बनाने की एक अनकही मुहिम छिड़ जाती है। यूं तो प्राचीन समय से ही भारत स्वच्छता पसंद देश रहा है, किन्तु जनसंख्या और शहरीकरण में लगातार बढ़ोत्तरी के कारण भारत में लाख प्रचार-प्रसार के बावजूद स्वच्छता अभियान के प्रति जागरूकता सुस्त दिखाई देती है।
स्वतंत्र भारत में स्वच्छता का संचार करने हेतु महात्मा गांधी ने कहा था कि राजनीतिक स्वतंत्रता से ज्यादा जरूरी स्वच्छता है। यदि कोई व्यक्ति स्वच्छ नहीं है तो वह स्वस्थ नहीं रह सकता है। बेहतर साफ-सफाई से ही भारत के गांवों को आदर्श बनाया जा सकता है। हमें अपने शौचालय को अपने ड्रॉइंगरूम की तरह साफ रखना ज़रूरी है। नदियों को साफ रखकर हम अपनी सभ्यता को जिंदा रख सकते हैं। स्वच्छता को अपने आचरण में इस तरह अपनाया जाना चाहिए कि स्वच्छता हमारी आदत बन जाए।
दुख की बात यह है कि महात्मा गांधी के ये विचार क़िताबों में सिमट कर रह गए। स्वतंत्र भारत में चहुंओर स्वच्छता की भावना से लोगों का सरोकार घटता चला गया। यत्र-तत्र कचरा फैलाना, पान-तम्बाकू का सेवन कर कहीं भी थूकना, मल-मूत्र त्याग के लिए निश्चित स्थान का उपयोग नहीं करना, नदियों-तालाबों का गंदगी प्रवाहित करने वाले नालों के रूप में इस्तेमाल करना तो आम बात हो गई साथ ही फैक्ट्रियों से निकलने वाले ज़हरीले धुएं, पराली जलाने से उत्पन्न वायुप्रदूषण आदि के कारण "स्वच्छताप्रिय भारत" पॉल्यूटेड इंडिया" में तब्दील हो गया।
स्वच्छता के मामले में विदेशों की तुलना में भारत का पिछड़ता ही चला गया। तब यहां स्वच्छता अभियान की आवश्यकता महसूस की गई। उसी के तहत स्वच्छ भारत अभियान के अंतर्गत भारतीय जनमानस में सुप्त स्वच्छता प्रेम को जगाने की कोशिश की गई। वैश्विक परिदृश्य में स्वच्छता के मामले में भारत की निरंतर बिगड़ती छवि में सुधार के उद्देश्य से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महात्मा गांधी की 145 जयंती पर 2 अक्टूबर, 2014 को स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत की। इसके लिए प्रधानमंत्री ने पांच वर्षों का लक्ष्य रखा ताकि 2 अक्टूबर 2019 को महात्मा गांधी की 150वीं जयंती तक महात्मा गांधी की ‘स्वच्छ भारत’ की परिकल्पना साकार हो सके। यह एक बहुत बड़ी सच्चाई है कि स्वच्छ भारत निर्माण के लिए हवा, पानी, ज़मीन सबकी स्वच्छता ज़रूरी है। यह स्वच्छता जीवन के लिए भी ज़रूरी है।
हवा यानी वायु में जीवनदायिनी शक्ति है। इसलिए, इसकी स्वच्छता जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है। स्वच्छता का सीधा संबंध स्वास्थ्य से है और स्वास्थ्य जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं में से एक है। वेदों में वायु का शुद्धता पर बल देते हुए कहा गया है कि जीवन के लिए शुद्ध एवं प्रदूषण रहित वायु अति आवश्यक है -
वात आ वातु भेषतं शंभु मयोभु नो हृदे
इसी प्रकार जल जीवन का प्रमुख तत्त्व है। इसकी स्वच्छता के बिना सभी निर्रथक है। ऋग्वेद में जल की विशेषता बताते हुए कहा गया है कि -
अप्सु अन्तः अमृतं, अप्सु भेषजं
अर्थात्, जल में अमृत है, जल में औषधि-गुण विद्यमान रहते हैं।
अथर्ववेद में पानी की शुद्धता को स्वस्थ जीवन के लिए नितान्त आवश्यक माना गया है -
शुद्धा न आपस्तन्वे क्षरन्तु
अर्थात् शुद्ध जल के अभाव में जीवन नष्ट हो जाता है।
रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास ने राम के निर्मल उदात्त चरित्र की उपमा हेतु निर्मल जल को चुना। बालकाण्ड की ये चौपाईयां देखें -
लीला सगुन जो कहहिं बखानी। सोइ स्वच्छता करइ मल हानी॥
प्रेम भगति जो बरनि न जाई। सोइ मधुरता सुसीतलताई॥
अर्थात् सगुण लीला का जो विस्तार से वर्णन करते हैं, वही राम सुयश रूपी जल की निर्मलता है, जो मल का नाश करती है और जिस प्रेमाभक्ति का वर्णन नहीं किया जा सकता, वही इस जल की मधुरता और सुंदर शीतलता है।
सो जल सुकृत सालि हित होई। राम भगत जन जीवन सोई॥
मेधा महि गत सो जल पावन। सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन॥
भरेउ सुमानस सुथल थिराना। सुखद सीत रुचि चारु चिराना॥
अर्थात् राम सुयशरूपी जल हैं जो सत्कर्मरूपी धान के लिए हितकर हैं और राम के भक्तों का तो जीवन ही है। वह पवित्र जल बुद्धिरूपी पृथ्वी पर गिरा और सिमटकर सुहावने कानरूपी मार्ग से चला और मानस अर्थात् हृदयरूपी श्रेष्ठ स्थान में भरकर वहीं स्थिर हो गया। वही पुराना होकर सुंदर, रुचिकर, शीतल और सुखदाई हो गया।
हमारे देश में गंगा का जल सबसे पवित्र माना जाता है। रामचरित मानस की इस चौपाई का यही मर्म है -
गंग सकल मुद मंगल मूला।
सब सुख करनि हरनि सब सूला॥
अर्थात् गंगा समस्त आनंद-मंगलों की मूल है। वह सब सुख देने और सब दुख हरने वाली है।
इसीलिए राम स्वयं गंगा को प्रणाम करते हैं -
उतरे राम देवसरि देखी। कीन्ह दंडवत हरषु विसैषी।।
किन्तु वर्तमान में गंगा का जल भी शुद्ध नहीं रहा है। "नमामि गंगे" परियोजना के माध्यम से गंगा का पानी साफ़ करने मुहिम ज़ारी है। वर्ष 2014 में केंद्र सरकार द्वारा इस परियोजना की शुरुआत गंगा नदी के प्रदूषण को कम करने तथा गंगा नदी को पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से की गई थी। परिणाम अभी भी प्रतीक्षित हैं।
पानी, हवा, वातावरण की स्वच्छता के साथ ही अंतःकरण की स्वच्छता यानी आंतरिक शुद्घि भी आवश्यक है, जो विवेक से उत्पन्न होती है और विवेक धर्म, आध्यात्म और चिन्तन के माध्यम से आता है। बाह्य स्वच्छता के समान ही अंतःकरण की शुद्घता भी महत्वपूर्ण है। सभी के प्रति प्रेम, सम्मान और परोपकार का भाव रख कर स्वयं का अंतःकरण स्वच्छ किया जा सकता है। परपीड़ा, परनिंदा, हिंसा के भाव स्वयं के अंतःकरण को दूषित बना देते हैं। रामचरितमानस की यह चौपाई परनिंदा करने वाले मनुष्यों के प्रति प्रहार करती है -
सब कै निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं॥
अर्थात् जो मूर्ख मनुष्य सब की निंदा करते हैं, वे चमगादड़ होकर जन्म लेते हैं।
दीपावली पर्व की तैयारी में अपना घर-द्वार चमकाते समय अक्सर लोग भूल जाते हैं कि अपना अंतःकरण भी स्वच्छ रखें तभी देवी लक्ष्मी प्रसन्न हो कर आतिथ्य स्वीकार करेंगी। बचपन में मैंने संस्कृत पाठ में उज्जैयिनी के यशस्वी राजा विक्रमादित्य की एक कहानी पढ़ी थी। वह कुछ इस प्रकार थी - विक्रमादित्य ने अपनी प्रजा के कल्याणार्थ एक निमय बनाया था कि बाज़ार में जो भी वस्तु दिन भर में बगैर बिके रह जायगी शाम को उसे राजा क्रय कर लेंगे ताकि विक्रेता को हानि नहीं उठानी पड़े। राज्य के एक शिल्पकार ने लक्ष्मी और अलक्ष्मी दोनों की मूर्तियां बनायीं और उन्हें बाज़ार में बेचने बैठ गया। ज़ाहिर है लक्ष्मी की मूर्ति ऊंचे दाम पर बिक गई लेकिन अलक्ष्मी की मूर्ति के लिए कोई ख़रीददार नहीं मिला। शाम को नियमानुसार बिना बिकी सामग्रियों के साथ अलक्ष्मी की वह मूर्ति भी राजा विक्रमादित्य के महल में पहुंचा दी गई। रात्रि में जब राजा विक्रमादित्य सोए तो अचानक रात्रि के दूसरे पहर में ही उनकी नींद किसी की आहट से खुल गई। राजा ने देखा कि एक सुंदर स्त्री महल से बाहर जा रही है। राजा ने पूछा तो उसने उत्तर दिया कि वह विद्या की देवी सरस्वती है। महल में अलक्ष्मी के आ जाने के कारण वह महल छोड़ कर जा रही है। राजा ने सरस्वती को नहीं रोका। फिर थोड़ी देर बाद एक और सुंदर स्त्री महल से बाहर जा रही है। राजा ने उससे भी पूछा तो उसने उत्तर दिया कि वह धन की देवी लक्ष्मी है। महल में दरिद्रता की देवी अलक्ष्मी के आ जाने के कारण वह अब वहां नहीं रह सकती। अतः महल छोड़ कर जा रही है। राजा ने लक्ष्मी को भी नहीं रोका।
इसी तरह अन्य देवी- देवतागण भी अलक्ष्मी के आगमन से रुष्ट हो कर अपना परिचय देते हुए महल से चले गए। राजा ने किसी को नहीं रोका।
अंत में श्वेत वस्त्रधारी एक दिव्य पुरुष जब महल से जाने लगा और राजा द्वारा पूछने पर उसने कहा कि "मैं धर्म हूं। चूंकि महल में अभाग्य, अकाल और दरिद्रता की देवी अलक्ष्मी का वास हो गया है अतः मैं भी यहां से जा रहा हूं।'' इस दफ़ा राजा ने उस पुरुष के पैर पकड़ लिए और उससे महल में ही रहने की विनती करने लगा। धर्म ने चकित हो कर पूछा कि "राजन, जब अन्य सभी देवी-देवता कूच कर गए तब तो तुमने किसी को नहीं रोका। मुझे ही क्यों रोक रहे हो ?"
राजा विक्रमादित्य ने उत्तर दिया कि "हे धर्म, यदि आप मेरे साथ हैं तो मुझे किसी की परवाह नहीं, लेकिन यदि आपने मेरा साथ छोड़ दिया तो मेरा जीवन व्यर्थ है। बिना धर्म के बुद्धि, विवेक, धन-सम्पदा, राज्य-सत्ता सब व्यर्थ है। मैंने राजधर्म के पालन करते हुए ही बिना बिकी वस्तु के रूप में अलक्ष्मी को महल में स्थान दिया है। अर्थात मैंने आपका पालन किया, इसलिये आप महल छोड़ कर मत जाएं।"
विक्रमादित्य की राजधर्म का पालन करने वाली बात का मर्म समझ कर धर्म वापस महल में लौट आया और उसने वचन दिया कि वह विक्रमादित्य को छोड़ कर कभी नहीं जाएगा। इसके बाद विक्रमादित्य ने देखा कि वे सभी देवी-देवता एक-एक कर महल में वापस लौट कर आ रहे हैं जो महल छोड़ कर चले गए थे। राजा ने उनसे उनकी वापसी का कारण पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया कि "जहां धर्म का वास होगा वहां हमें तो वास करना ही पड़ेगा। धर्म को छोड़ कर हम नहीं जा सकते।"
धर्म अंतःकरण की स्वच्छता के लिए ज़रूरी है। बाह्य और आंतरिक वातावरण - जहां दोनों स्वच्छ रहते हैं वहां लक्ष्मी स्वयंमेव निवास करती हैं।
आईए, इस दीपावली पर हम संकल्प लें कि सिर्फ़ दीपोत्सव पर ही नहीं बल्कि हम पूरे वर्ष भर भीतर-बाहर से स्वयं स्वच्छ रहकर देश को स्वच्छ बनाए रखेंगे। और तब स्वच्छता के लिए किसी सरकारी मिशन, योजना, परियोजना की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।
और अंत में प्रस्तुत है मेरी ये काव्यपंक्तियां -
स्वच्छता के दीप की न रोशनी कभी हो कम
पास अपने आ सके कभी नहीं ज़रा भी तम
मान हो, सम्मान हो, भय न हो किसी का भी
हंसी-ख़ुशी रहें सभी, न हो किसी की आंख नम
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