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Wednesday, August 12, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 11| नैसर्गिक बालपन के प्रतीक हैं बाल कृष्ण | डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों, 🚩 जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं 🚩 "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज पढ़िए "नैसर्गिक बालपन के प्रतीक हैं बाल कृष्ण" और अपने विचारों से अवगत कराएं ...और शेयर करें 🙏
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 12.08.2020

मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं-

बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

नैसर्गिक बालपन के प्रतीक हैं बाल कृष्ण
                     - डॉ. वर्षा सिंह
      
     श्रीकृष्ण की जन्मकथा से हम सभी भलीभांति परिचित हैं। लगभग साढ़े पांच हज़ार वर्ष पूर्व भाद्रपद यानी भादों मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को घोर अंधियारी आधी रात में मूसलाधार बरसात हो रही थी। कृष्ण के जन्मदाता वसुदेव और देवकी को अत्याचारी कंस ने जिस कारागार में बंद किया था, माया के प्रभाव से उस जेल के सभी प्रहरी अचानक सो गए और द्वार अपने आप खुल गए। वसुदेव बाल कृष्ण को सूप में रख उफनती यमुना को पार कर गोकुल पहुंचे, जहां नंद और यशोदा के घर बालक कृष्ण का लालन-पालन हुआ। शताब्दियों से प्रत्येक वर्ष भादों की यह रात्रि जन्माष्टमी, कृष्ण जन्माष्टमी, गोकुलाष्टमी, सातें-आठें आदि नामों से पूरे भारत ही नहीं बल्कि विश्व के उन स्थानों पर जहां श्री कृष्ण के अनुयायी हैं, त्यौहार के रूप में उल्लास पूर्वक व्रत-पूजन किया जाता है। जगह-जगह दही हांडी, मटकी फोड़ आयोजन बड़ी धूमधाम और श्रद्धापूर्वक आयोजित किए जाते हैं। तरह-तरह के गीत गाए जाते हैं। एक बहुप्रचलित गीत मुझे याद आ रहा है - 
मैं मधुबन जाऊँ, मेरो रोवे कन्हैया।
दूध नहीं पीवे, मलाई नहीं खावे, 
माखन मिसरी को बनो रे खवइया॥ मैं मधुबन --
टोपी नहीं पहने, न गमछा ही बाँधे,
मोर मुकुट को बनो रे बँधइया॥ मैं मधुबन --
शाल नहीं ओढ़े, दुशाला भी न ओढ़े,
काली कमलिया को बनो रे उढ़इया॥ मैं मधुबन --
जामा नहीं पहने, न फेंटा ही बाँधे,
पीताम्बर को बनो रे पहरैया॥ मैं मधुबन --
खेल नहीं खेले, खिलौना नहीं लेवे,
बाँस की बन्सी को बनो रे बजइया॥ मैं मधुबन --
ललिता से न बोले, बिसाखा से न बोले,
राधारानी के पीछे, डोले रे नचइया॥ मैं मधुबन --

        इस गीत में बाल कृष्ण की नैसर्गिक लीलाओं का वर्णन है। मुझे स्मरण है मेरा बचपन… मैं और मेरे बाल मित्र, जिसमें पन्ना स्थित हमारी "हिरणबाग़" नामक कॉलोनी में हमारे पड़ोस में रहने वाली लड़कियां और लड़के दोनों थे, इसी तरह अनेक बालहठ किया करते थे। बड़ों की डांट भी खाते थे और फिर समझाइश देने पर मान भी जाते थे। हमारे नाना ठाकुर श्यामचरण सिंह जी अक्सर कहा करते थे कि "अरे, ये सब बाल-गोपाल हैं। खेलने-कूदने दो। पढ़ेंगे- लिखेंगे तो बड़े होने पर इन्हें ख़ुद समझ आ जाएगी।" …. और हुआ भी यही। हम सभी नैसर्गिक वातावरण में बाल्यकाल व्यतीत कर पढ़-लिख कर, बड़े होने पर समझदार हो गए। आज सभी समाज में अपनी एक अलग पहचान बना कर अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरी गम्भीरता से निभा रहे हैं। 
       यहां यह सब कहने का आशय यह है कि क्या वर्तमान समय में बच्चों के प्रति माता-पिता और समाज का वही दृष्टिकोण है जो हमारे बचपन के दिनों में था ? मुझे लगता है कि बिलकुल नहीं। बालकृष्ण का लालनपालन जिस नैसर्गिक वातावरण में हुआ था, वैसा वातावरण अब के बच्चों को उपलब्ध नहीं है। न रूठने का माहौल और न मनाने का किसी के पास समय, न मख्खन-मिश्री और न मोर मुकुट। अब यदि कुछ है तो ढेरों क़िताबें, कम्प्यूटर … और इस कोरोनाकाल में मोबाईल और लेपटॉप भी...। यानी पढ़ाई, पढ़ाई और सिर्फ़ पढ़ाई। फिर परीक्षा परिणाम की मेरिट सूची में पहला स्थान पाने की होड़… और फिर निरंतर दौड़ कैरियर, गाड़ी, बंगला, विदेश यात्रा आदि - आदि के लिए। ऐसा भी नहीं है कि बालसुलभ शरारतों के लिए कृष्ण को माता यशोदा की डांट न पड़ती रही हो।         
       आज के समय में एक ओर हम बाल कृष्ण की लीलाओं को पूर्ण श्रद्धा और धार्मिक भावना के साथ पढ़ते, सुनते और टीवी, फ़िल्मों आदि में देख कर आत्मिक सुख प्राप्त करते हैं। किन्तु वहीं दूसरी ओर बच्चों को माता-पिता परिवार के भविष्य से जोड़कर धन कमाने वाली मशीन के रूप में देखते- व्यवहार करते हैं।  ऐसा नहीं है कि कृष्ण को पढ़ाया-लिखाया नहीं गया। कुशाग्र बुद्धि और सर्वगुणसम्पन्न कृष्ण को भी ऋषि संदीपनी के आश्रम में शिक्षा ग्रहण करने हेतु भेजा गया था। किन्तु दबावरहित नैसर्गिक वातावरण में गुरुकुल में रह कर शिक्षा प्राप्त करने हेतु। गुरुकुल, जहां अनुशासन के साथ ही पारिवारिक वातावरण भी मिलता था। पितातुल्य गुरु और मातातुल्य गुरु माता, ऊंचनीच के भेदभावरहित धनसम्पन्न कृष्ण के अति निर्धन सुदामा सरीखे मित्र। हां, कृष्ण भी अब मात्र धार्मिकता से जोड़ कर पूजे जाते हैं। उनका बालस्वरूप अपने बच्चों में देखना किसी को गंवारा नहीं। 
     मेरी एक रिश्तेदार आजकल जब भी फोन पर मुझसे बात करती हैं तो उनकी बातों का नब्बे प्रतिशत भाग उनके बच्चे की पढ़ाई पर केंद्रित रहता है। इन दिनों स्कूल बंद हैं। स्टडी फ्रॉम होम के कारण उनका बेटा पूरे समय उनकी आंखों के सामने रहता है। लेकिन लाड़-प्यार दूर, निगरानी भरपूर। पढ़ो, पढ़ो और पढ़ो...। अक्सर ऐसे ही दबाव के चलते बच्चे इच्छित परिक्षा परिणाम नहीं दे पाने के कारण आत्महत्या जैसा कठोर क़दम उठाने पर विवश हो जाते हैं। उनका नैसर्गिक  बालपन अनजाने में उनसे छीन लिया जाता है।  प्रत्येक माता-पिता यदि अपनी संतान को कृष्ण जैसा सर्वगुणसम्पन्न बनाने का सपना देखते हैं तो पहले उन्हें यशोदा और नंद की तरह बनना पड़ेगा। नैसर्गिक बालपन के प्रतीक बाल कृष्ण के चरित्र को जन्माष्टमी के दिन ही नहीं बल्कि प्रत्येक दिन स्मरण कर अपने जीवन में सीख लेनी चाहिए।
और अंत में मेरी ये काव्यपंक्तियां -
न कृष्ण सा चपल रहा, नहीं रहा खिलंदड़ा,
दब गया है बालपन तो कैरियर के बोझ में।
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