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Wednesday, June 24, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 4 | सम्हलिए, संकट अभी टला नहीं है ! | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
प्रिय ब्लॉग पाठकों, "विचार वर्षा"...   मेरे इस कॉलम में आज पढ़िए "सम्हलिए, संकट अभी टला नहीं है !" 🙏 अपने विचारों से अवगत कराएं और शेयर करें 🙏
हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक 🙏🌹🙏
दिनांक 24.06.2020

मित्रों, आप मेरे इस कॉलम को इस लिंक पर भी जाकर पढ़ सकते हैं-
http://yuvapravartak.com/?p=36964

बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

सम्हलिए, संकट अभी टला नहीं है !
       - डॉ. वर्षा सिंह

      कल शाम की ही बात है मेरी कॉलोनी में मैंने बाहर के कुछ बच्चे देखे। वह बच्चे कॉलोनी से बाहर के हैं यह देखते ही मैं समझ गई क्योंकि उन बच्चों ने मास्क नहीं पहना हुआ था। जी हां, मेरी कॉलोनी के बच्चे जब भी घर से बाहर निकलते हैं वे हमेशा कोरोना संक्रमण के खतरे से बचने के उद्देश्य से मास्क जरूर पहनते हैं । उन बच्चों को देखकर मैं स्वयं पर काबू नहीं रख पाई और मैंने उन बच्चों को टोंक ही दिया । मैंने उनसे पूछा - "बच्चों, आप कहां रहते हो? यहां इस कॉलोनी के तो हो नहीं ।" तो बच्चे बोले- "आंटी हम पीछे वाले मैदान के बाजू में रहते हैं। मैंने कहा -"बेटा तुम जानते हो कि कोरोना महामारी का संक्रमण फैला हुआ है लेकिन तुमने मास्क नहीं पहना है, ऐसा क्यों ? क्या तुम्हें तुम्हारी मम्मी-पापा ने कोरोना के खतरे से बचने के लिए मास्क पहनना नहीं सिखाया?"
     तब उन बच्चों ने जो जवाब दिया उसे सुनकर मैं हैरान रह गई उनका कहना था कि उनके परिवार के बड़े भी घर से कहीं बाहर जाते हैं तो मास्क नहीं पहनते। वे कहते हैं कि लॉकडाउन में हमने वह सब कुछ कर लिया जो सरकार ने हमसे कहा लेकिन अब तो अनलॉक चल रहा है।अब कैसा मास्क और कैसी सोशल डिस्टेंसिंग? और कोरोना सभी को तो हो नहीं रहा है। किसी-किसी  मोहल्ले में एकाध-दो केस मिलते हैं । तो भला हम क्यों डरें ?
यह तो हुआ एक वाकया और अब देखें दूसरा वाकया... आज सुबह सवेरे समाचार पत्र खोलते ही सबसे पहले मेरी नजर पड़ी सब्जी मंडी की उस तस्वीर पर जिसमें बहुत सारी भीड़ दिखाई दे रही थी और लोग बगैर मास्क पहने डिस्टेंसिंग के नियम की धज्जियां उड़ाते दिखाई दे रहे थे। समाचार पत्र में भी इसी बात को लेकर चिंता प्रकट की गई थी कि लोग किस कदर लापरवाही बरत रहे हैं, न तो मास्क और न ही सोशल डिस्टेंसिंग का पालन। लोग मंडी में खांसते -छींकते एक दूसरे से सट कर खड़े हुए हैं मानो उन्हें इस तरह दुस्साहस करता देखकर कोरोनावायरस खुद ही भयभीत हो जाएगा। मुझे लगता है कि यह एक तरह की ढिठाई है, लापरवाही है और मूर्खता भी। क्योंकि कोरोना संक्रमण की विभीषिका का असर हम पूरे विश्व पटल पर देख रहे हैं । प्रतिदिन टीवी, समाचार पत्र, न्यूज़ पोर्टल आदि सभी सूचना माध्यमों पर कोरोनावायरस के बढ़ते हुए खतरे से हमें आगाह किया जाता है और उससे बचने के लिए मास्क पहने और सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करने की सलाह भी दी जाती है। इस तरह की ढिठाई, लापरवाही और नासमझी जानलेवा साबित हो सकती है स्वयं के लिए, परिवार के लिए भी .... और ख़ास तौर पर बच्चों के लिए तो यह बहुत बड़ा खतरा है। क्योंकि बच्चे वही करते हैं, वही सीखते हैं, जो वे अपने बड़ों को करता हुआ देखते हैं।
  इसलिए ज़रूरी है कि हम स्वयं उदाहरण बनें और बच्चों के सामने उसे पेश करें । यदि हम कोरोना संक्रमण की गंभीरता को समझते हुए उससे बचने के लिए मास्क पहनेंगे, सेनेटाइजर का उपयोग करेंगे और सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करेंगे तो हमारी इस सावधानी को देखकर बच्चे भी उसका अनुसरण करेंगे और  तब हमें उन्हें समझाना नहीं पड़ेगा और न ही डांटना- फटकारना पड़ेगा। वे स्वयं नियमों का पालन करते हुए स्वयं की सुरक्षा करेंगे, घर परिवार की सुरक्षा करेंगे, समाज और देश की सुरक्षा करेंगे और कोरोनावायरस संक्रमण से बचे रहेंगे।
इतना ही नहीं अक्सर समाचारों में इस तरह की तस्वीरें भी प्रकाशित होती हैं जिसमें समाज के जिम्मेदार व्यक्ति बैठकें करते हैं और उनके द्वारा कोरोना संक्रमण से सुरक्षा के नियमों की अनदेखी की जाती है। वे न तो मास्क लगाते हैं और न ही सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हैं । ऐसे जिम्मेदार व्यक्तियों को भी यह समझना चाहिए कि वे लोगों के लिए यदि एक आदर्श प्रस्तुत करेंगे तो लोग उनका अनुसरण करेंगे। उन्हें चाहिए कि वे स्वयं उन नियमों का कठोरतापूर्वक पालन करें जिन नियमों का पालन करने की अपेक्षा वह दूसरों से करते हैं।
  तो लॉकडाउन के 4 चरणों के बाद  अब इस अनलॉक के समय में हमें यह नहीं समझना चाहिए कि कोरोना का खतरा टल गया है बल्कि सतर्क रहना चाहिए क्योंकि सतर्कता ही सुरक्षा की चाबी है।
और अंत में मेरा यह दोहा ...
बिना मास्क मत जाइए, घर से बाहर आप।
छोटी सी इक चूक से, मिले बड़ा संताप।।
                 ----------------   



कृपया इसे सुनने, देखने हेतुयूट्यूब पर इस लिंक पर जाएं....
https://youtu.be/yRs-7vXudNk

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#युवाप्रवर्तक #कोरोनाकाल #मास्क #लॉकडाउन #अनलॉक1 #सम्हलिए #संकट #सतर्कता #वर्षासिंह_का_कॉलम #सुरक्षा #कोरोना

Wednesday, June 17, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 3 | स्वदेशी और आत्मनिर्भरता | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
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दिनांक 17.06.2020

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बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

स्वदेशी और आत्मनिर्भरता
       - डॉ. वर्षा सिंह

      अभी चार दिन पहले की ही बात है...  मिक्सी अचानक चलते -चलते बंद हो गई। मिक्सी का बंद होना यानी किचन के कामों में अचानक बाधा उत्पन्न हो जाना। जी हां, दरअसल हम इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के इतने आदी हो गए हैं कि उनके बिना कोई भी काम सुविधापूर्वक नहीं कर पाते हैं। विशेष रूप से किचन के कार्यों में पीसने, काटने, किस्सी करने जैसे काम। तो हुआ यह कि मिक्सी के बंद हो जाने पर नई मिक्सी लेने के बारे में मैं विचार करने लगी, क्योंकि मेरी यह बंद हुई मिक्सी लगभग 8-10 साल पुरानी हो चुकी है और अब यह जरूरी हो गया है कि इसे समेट कर एक ओर रख दिया जाए और नई मिक्सी खरीद ली जाए। वैसे भी इस कोरोनाकाल में मिक्सी सुधारक आसानी से मिलने वाला नहीं है । मिक्सी खरीदने की बात चलने पर अपने पुराने मॉडल इनालसा की मिक्सी खरीदने के विषय में मैं सोचने लगी। मैंने अपनी माताजी डॉ विद्यावती "मालविका" से इस संबंध में चर्चा की और उनसे मैंने यह कहा कि इनालसा की ही नई मिक्सी लेना अच्छा होगा । माता जी मेरी बात सुनकर बोली कि- "बेटा वर्षा, इनालसा कंपनी मेरे विचार से विदेशी कंपनी है।"
     यह सुनकर मैंने कहा- "जी हां, स्पेनिश कंपनी है, लेकिन भारत में इसके प्रोडक्ट काफी समय से उपयोग में लाए जा रहे हैं।"
      तब माताजी ने कहा- "लगता है कि भारत में कोई भी ऐसी कंपनी नहीं है जो मिक्सी जैसे उत्पादों का निर्माण करती हो !"
      मैं चौंक गई। मैंने कहा - "ये क्या कह रही हैं आप ? आप भी जानती हैं कि भारत में एक से एक कंपनियां है जो इलेक्ट्रॉनिक उत्पादन में अग्रणी हैं। प्रीती, गोपी, महाराजा, उषा, सुजाता, बजाज ... अनेक हैं जो ग्राइंडर, मिक्सर, प्रोसेसर आदि बनाती हैं।"
      माता जी मेरी बात सुनकर हंस दी और बोली - "फिर विदेशी कंपनी का उत्पादन क्रय करने की सोच क्यों ? अभी जो तुमने नाम गिनाए हैं उनमें से किसी कंपनी के उत्पाद को क्यों नहीं खरीदने पर विचार करती हो?"
       फिर वे अपने अतीत को याद करते हुए कहने लगीं कि -" बजाज कंपनी के संस्थापक जमनालाल बजाज जी को महात्मा गांधी अपना पांचवां पुत्र मानते थे।  जब अपने बचपन के दिनों में मैं पिताजी यानी तुम्हारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी नानाजी ठाकुर श्यामचरण सिंह के साथ वर्धा में थी, तब जमनालाल बजाज जी से  मुलाकात हुई थी। बहुत सरल, सहज स्वभाव के धनी जमनालाल जी ने मुझे उपहार में एक पेन दी थी और कहा था कि विद्या बेटी, तुम्हारी लिखने-पढ़ने में रुचि है तो तुम इस पेन से लिखना, यह पेन स्वदेश में निर्मित है। उसी पेन से मैंने स्कूल में अनेक परीक्षाएं दीं, उत्तीर्ण कीं और बाद में उसी पेन से मैंने अनेक गीत लिखे।"
       माताजी की बात सुनकर मुझे ऐसा लगा कि हां, वास्तव में हमारे देश में एक से बढ़़ कर एक उद्यमी हुए हैं जिन्होंने हमारे देश के विकास में अपना योगदान दिया है। और आज पता नहीं हम क्यों विदेशी वस्तुओं की ओर आकर्षित होते हैं जबकि हमारे देश में स्वदेशी सामानों की कमी नहीं है । स्वदेश में निर्मित सामान हमें अपनी संस्कृति, अपने गौरव और अपनी परंपरा से जोड़ने में सक्षम हैं। ये हमें हमारे इतिहास की जानकारी देते हैं ... और तब मैंने तय कर लिया कि मैं अब जो भी सामान चाहे वह मिक्सी हो अथवा और कुछ... स्वदेश में निर्मित वस्तुएं ही करूंगी। ... और यह होगा देश को आत्मनिर्भरता की ओर ले जाने में मेरा भी एक छोटा सा योगदान।
      और अंत में मेरा यह दोहा ....
हरदम यह आगे रहे, रहे सदा खुशहाल ।
मेरे भारत देश का, चमके उज्जवल भाल ।।
         ---------------------


कृपया यूट्यूब पर देखने के लिए इस लिंक पर जाएं....
https://youtu.be/SG0sv_wt5yA


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#युवाप्रवर्तक #कोरोनाकाल #जमनालाल_बजाज #लॉकडाउन #अनलॉक1 #स्वदेशी #आत्मनिर्भरता #वर्षासिंह_का_कॉलम #महात्मा_गांधी #विद्यावती_मालविका

Wednesday, June 10, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 2 | मन तेरा मंदिर | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
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दिनांक 10.06.2020

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बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

मन तेरा मंदिर

            - डॉ. वर्षा सिंह

मेरी एक  महिला मित्र की माता जी मोबाईल पर चर्चा के दौरान अपनी नाराज़गी प्रकट करते हुए मुझसे बोलीं कि 'कोरोना से बचाव के लिए किए गए लॉकडाउन में बाज़ार, स्कूल-कॉलेज, शादी समारोह बंद कर दिए थे, वो तो ठीक है लेकिन भगवान के मंदिर बंद नहीं करने चाहिए थे। यह भी नहीं सोचा कि भगवान और मंदिर को बंद कर दिया तो भक्तों की रक्षा कौन करेगा ? उनकी यह बात सुन कर मैंने उनसे कहा कि चाची जी, भगवान सिर्फ़ मंदिर में नहीं वे तो हमारे मन में मौज़ूद हैं, प्रकृति के कण-कण में मौजूद हैं। लेकिन चाची जी अपनी बात पर अड़ी रहीं। वे कुछ भी सुनने के मूड में नहीं थी। उनकी आस्था का केंद्र सिर्फ मंदिर और उसमें स्थित भगवान की प्रतिमा है।

चाची जी की भांति ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जो कर्मकांडी पूजन को ही भगवान की सच्ची आराधना मानते हैं। जबकि भारतीय संस्कृति में ईश्वर की आराधना साकार और निराकार दोनों रूपों में की जाती है। साकार यानी मूर्ति स्थापित कर मंदिर में पूजा और निराकार यानी मन में ईश्वर का स्मरण, ध्यान और आराधना।

सन् 1935 की नितिन बोस द्वारा निर्देशित हिन्दी फ़िल्म "धूप छाँव" जिसमें निर्देशक नितिन बोस द्वारा हिन्दी फिल्मों में पार्श्व गायन की परंपरा आरंभ की थी, में संगीतकार रायचंद बोरल द्वारा के.सी. डे के स्वर में रिकॉर्ड किया गया एक गीत था ….

बाबा मन की आँखें खोल / मन की आँखें खोल बाबा / मतलब की सब दुनियादारी / मतलब के सब हैं संसारी / जग में तेरा हो हितकारी / तन मन का सब जोर लगाकर नाम हरि का बोल / बाबा मन की आँखें खोल…। इसी तरह 1978

में रिलीज़ फिल्म "भक्ति में शक्ति" में एक गीत था…

मन तेरा मंदिर, आखेँ दिया बाती / होठों की है थालीयाँ, बोल फुलबाती / रोम रोम जिव्हा तेरा नाम पुकारती / आरती ओ मैया आरती / ओ ज्योतावालीये माँ तेरी आरती….।

संत कबीर ने भी कहा है कि "मन न रँगाए रँगाए जोगी कपड़ा" अर्थात् गेरुआ वस्त्र धारण करने भर से योगी नहीं बना जाता, योगी बनने और ईश्वर को पाने के लिए पहले मन का मैल धोना पड़ता है। मंदिर के पट खोलने से अधिक महत्वपूर्ण है हृदय के पट खोलना।

इस कोरोनाकाल से पूर्व कितने ही धर्मपरायण व्यक्ति प्रतिदिन मंदिर जाते रहे हैं। भांति-भांति के प्रवचनकर्ताओं के सानिध्य का लाभ उठा कर धार्मिक आख्यान सुनते रहे हैं। इधर कोरोनाकाल में लॉकडाउन के दौरान दूरदर्शन पर पुनः प्रसारित रामायण, महाभारत जैसे धार्मिक सीरियल मन लगाकर देखते रहे हैं। किन्तु यदि उनसे पूछा जाए कि इन्हें देख-सुन कर आपने अपने जीवन में कौन सी शिक्षा ग्रहण की है तो वे निरुत्तरीत रह जाएंगे। सम्भवतः मंदिर जाने से ले कर प्रवचन, सीरियल आदि सारे उपक्रमों का उनके जीवन में "टाइम पास" जैसा ही स्थान है। मंदिर के पट यदि बंद रखे गए तो मानव जीवन की सुरक्षा हेतु ही। यह भी तो सोचिए कि यदि मानव ही नहीं रहे तो मंदिर में स्थापित ईश्वर की प्रतिमा का पूजन कौन करेगा। भगवान और भक्त अलग नहीं हैं एक दूसरे से। साकार रूप की आराधना संभव नहीं हो पाए तो निराकार रूप की आराधना करने में भला संकोच क्यों ? क्या हमारी आस्था सिर्फ़ पत्थरों, रेत-गारे से बने मंदिर तक ही सीमित है ?

नहीं… ईश्वर हमारे हृदय में, हमारे मन में स्थापित हैं और उनकी ऊर्जा हमारी चेतना में समाई हुई है। हमें स्मरण रखना चाहिए कि मानव कल्याण हेतु ही मंदिरों को लॉकडाउन में बंद रखा गया। यदि हम सचमुच ईश्वर को मानते हैं, आस्तिक हैं तो मंदिर के बंद-खुले दरवाजों के इर्द गिर्द रख कर अपनी भक्ति को सीमित नहीं करना चाहिए बल्कि बगैर किसी तर्क-कुतर्क के संपूर्ण मानव जाति के कल्याण को दृष्टिगत रखते हुए "सर्वजनहिताय" के पथ का अनुसरण करना चाहिए।

और अंत में मेरा एक शेर .....

मंदिर हो कि मस्जिद हो, गिरजा हो कि गुरुद्वारा,
चाहत है अगर रब की, तू दिल में बना खिड़की।

                  ---------------


कृपया यूट्यूब पर देखने के लिए इस लिंक पर जाएं...
https://youtu.be/7bfS4E55fME

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Wednesday, June 3, 2020

बुधवारीय स्तम्भ | विचार वर्षा 1 | कोरोनाकाल और सामाजिक समीकरण | डॉ वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
प्रिय पाठकों, मैंने अपने इस ब्लॉग को नाम दिया है ....."विचार वर्षा"... इसी नाम से मेरा नया कॉलम वेब पोर्टल 'युवा प्रवर्तक' में आज से आरंभ हुआ है। प्रति बुधवार को प्रकाशित होने वाले मेरे इस कॉलम का पहला लेख आपके सामने प्रस्तुत है कृपया पढ़ें 🙏 अपने विचार से अवगत कराएं और शेयर करें 🙏
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दिनांक : 03.06.2020

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http://yuvapravartak.com/?p=34164

बुधवारीय स्तम्भ :

विचार वर्षा

कोरोनाकाल और सामाजिक समीकरण

- डॉ वर्षा सिंह

         यह कोरोना काल एक ऐसा समय है जब हमें अपनी जिंदगी के बारे में नए सिरे से सोचना होगा। देखा जाए तो यह मानव जीवन और सभ्यता का टर्निंग प्वाइंट है, जब कुछ नवीन मूल्यों को छोड़कर अपनी जड़ों की ओर लौटना जरूरी हो गया है। लेकिन यह लौटना लौटकर रुक जाने वाला नहीं है बल्कि यह नए रास्ते की ओर ले जाने वाला लौटना है।
         सबसे पहले बात करें सामाजिक मूल्यों की। पिछली सदी के उत्तरार्ध में सामाजिक मूल्यों में बड़ी तेजी से बदलाव आया और इस बदलाव ने जेनरेशन गैप को जन्म दिया। प्रौद्योगिक क्रांति और सूचनाओं के विस्फोट ने युवाओं को सिलिकॉन वैली पहुंचा दिया । अमूमन हर युवा के हाथ में मोबाइल टेबलेट लैपटॉप आ गया और वह आभासी दुनिया में समा था चला गया दूसरी ओर उन युवाओं के माता पिता अपनी परंपराओं को सहेजते हुए युवाओं को आभासी दुनिया में होते हुए देखते रहे। उनकी यह व्यवस्था उपजी बाजारवाद से जहां उन्होंने जाने- अनजाने अपनी संतान को बाज़ार का प्रोडक्ट बना दिया। हर माता-पिता को अपनी संतान पैकेज के रूप में दिखाई देने लगी। जब भावनाओं पर अर्थ तंत्र हावी हो जाता है तो संवेदनाओं के तार टूटने लगते हैं। यही हुआ जिसके फलस्वरूप उपजा एक शब्द "जेनरेशन गैप" यानी दो पीढ़ियों के बीच का फ़ासला।
       इस जेनरेशन गैप के लिए जिम्मेदार कौन है यह एक विवाद का विषय है ठीक वैसे ही जैसे पहले मुर्गी हुई या अंडा युवा पीढ़ी अपने माता पिता को दोषी मानती है और माता-पिता अपनी संतान को दोषी ठहराते हैं और पूरा समाज आधुनिक नजरिए को दोष देता है जबकि ध्यान से देखें तो हम पाएंगे कि बच्चे वही करते हैं जो उनके माता-पिता उन्हें करने के लिए प्रेरित करते हैं। बच्चे को पालने से उतरते ही स्कूल के हवाले कर दिया जाता है फिर कोचिंग के और फिर कैरियर प्लेसमेंट पैकेज के चक्रव्यूह में उतार दिया जाता है। यानी लगातार बच्चे मां बाप घर परिवार से दूर होते जाते हैं यदि उनके बीच कोई संबंध रह जाता है तो वह है अर्थ तंत्र का। ऐसी स्थिति में बच्चे अपने माता-पिता से तो दूर हो ही जाते हैं नाना -नानी, दादा -दादी के रिश्तो को भी सही ढंग से समझ ही नहीं पाते हैं । इस कोरोना काल में पूरा परिवार एक छत के नीचे जब एक बार फिर एकत्र हुआ तो ऐसे समय में बच्चों ने इन महत्वपूर्ण रिश्तो को समझा और महसूस किया । ठीक उसी प्रकार माता-पिता ने भी रिश्तों के महत्व को महसूस किया।
       जब पीढ़ियां साथ मिलकर रहती है तो उन्हें परस्पर एक दूसरे की भावनाओं को जानने समझने का अवसर मिलता है यदि पीढ़ियां परस्पर एक दूसरे की भावनाओं को समझने लगे तो जेनरेशन गैप जैसी कोई बात ही नहीं आएगी क्योंकि पीढ़ियों का अंतर जीवन में होने वाले परिवर्तन से ही उपजता है और परिवर्तन एक सतत प्रक्रिया है जो मानव जाति में होमोसेपियन्स काल से चली आ रही है। जब पहले व्यक्ति ने आग जलाना सीखा होगा, तब उसने अपने पूर्वजों को बेवकूफ ही समझा होगा। उसने सोचा होगा कि अरे मेरे पूर्वज आग जलाना भी नहीं जानते थे जबकि यह तो बहुत सरल-सी बात है? ठीक वैसे ही जैसे आज छोटे-छोटे बच्चे तक एंड्राइड मोबाइल बहुत आसानी से ऑपरेट कर लेते हैं, लेकिन जब उनके माता-पिता ऐसे मोबाइल्स के साथ दिक्कत महसूस करते हैं, तब बच्चों को लगता है कि अरे, हमारे माता-पिता तो पिछली पीढ़ी के हैं इसीलिए उनसे यह सारी चीजें ऑपरेट करते नहीं बन रही है। वे अपने माता पिता को बेवकूफ़ मानते हैं और अपने माता पिता के साथ एक उद्दंडता भरा व्यवहार करते हैं । यह जो सोच है, इसे बदलने का अवसर हमें कोरोना काल ने दिया। हर संकट कुछ न कुछ सिखा जाता है और कोरोनावायरस के  सामाजिक समीकरण ने सामाजिक ढांचे को, सामाजिक विकास की प्रक्रिया को और सामाजिक सामंजस्य को बदलने में अत्यंत प्रभावकारी भूमिका निभाई है। ज़रूरत है कि इस सीख को हम हमेशा याद रखें।
        और अंत में मेरी ये काव्यपंक्तियां ....
अहसासों की दहलीजों को, साफ करो फिर देखो,
हर पल अपने  साथ  हमेशा, नई  ख़बर  लाता है।
                           ----------------





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Tuesday, June 2, 2020

हम भारत के लोग | डॉ. वर्षा सिंह

  
Dr. Varsha Singh

  हम भारत के लोग
                 - डॉ. वर्षा सिंह   
       भारतीय संस्कारों से परे हम और हमारा समाज पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण में लगा है। भारतवासी कहलाने के बजाए हम स्वयं को इंडिया वाले कहलाना ज़्यादा पसंद करने लगे हैं। जबकि हमें अपने संविधान की प्रस्तावना के शब्दों को याद रखना चाहिए, जिसमें लिखा है...
"हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढ़़ाने के लिए दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई0 (मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, सम्वत् दो हजार छह विक्रमी) को एतद द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मसमर्पित करते हैं।"
   यहां "हम भारत के लोग" महत्वपूर्ण है।
आज "इंडियन" कहने में हमें गर्व महसूस होता है और भारतवासी कहने में देहातीपन का बोध। पश्चिमी अंधानुकरण हमें कहां से कहां ले आया है। हमें चाहिए कि कम से कम कोरोना संकट से तो कुछ सीख लें और अपनी जड़ों की तरफ लौट कर भारतीयता को फिर से अपना लें। भारतीयता हमें सच्चा भारतवासी बना कर हर आपदा से सुरक्षित रखने का महती काम करेगी। फिर वह कोरोना हो या अन्य कोई भी आपदा।
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Monday, June 1, 2020

आपदा का समय | सुख-दुख | डॉ.वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
सुख-दुख
              - डॉ.वर्षा सिंह

समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः।।14.24।।

श्रीमद् भगवद्गीता के इस श्लोक का अर्थ है.....
जो धीर मनुष्य सुख-दुःख में सम तथा अपने स्वरूप में स्थित रहता है, जो मिट्टी के ढेला, पत्थर अथवा सोना प्राप्त होने पर सदैव समान व्यवहार करता है, जो प्रिय-अप्रिय स्थितियों में तथा अपनी निन्दा अथवा स्तुति में सम रहता है; जो मान-अपमान में तथा मित्र-शत्रु के पक्षमें सम रहता है जो सम्पूर्ण कर्मों के आरम्भ का त्यागी है, वह मनुष्य गुणातीत कहा जाता है

इसी तरह एक और श्लोक है  वं....

उदये सविता रक्तो रक्त:श्चास्तमये तथा।
सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता॥

जिसका भावार्थ कुछ इस प्रकार है....

उदय होते समय सूर्य लाल होता है और अस्त होते समय भी लाल होता है, सत्य है महापुरुष सुख और दुःख में समान रहते हैं॥

 यदि दुख न हों तो सुख की कद्र कौन करेगा। दुख और आपदा का समय हमारे धैर्य और साहस की परीक्षा लेता है।  सेवाभावना से जनहित के कार्यों में संलग्न रह कर इस परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ जा सकता है।
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